Books - महात्मा गौत्तम बुद्ध
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Language: HINDI
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सुभद्र की कथा
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इस प्रकार भगवान् बुद्ध जीवन भर अज्ञानी और भूल- भटकों को सद्मार्ग दिखलाकर जब वृद्धावस्था और निर्बलता के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ गए तो सुभद्र नामक परिव्राजक ने यह समाचार सुना। उसने सोचा कि बुद्ध जैसे महापुरुष रोज- रोज पैदा नहीं हुआ करते। मेरी धर्म संबंधी शंकाओं के निवृत्त होने का अवसर फिर कभी न मिल सकेगा। इसलिए वह शालवन में, जहाँ भगवान् बुद्ध उस समय विश्राम कर रहे थे, जा पहुँचा और आनंद से कहा- "मेरे हृदय में धर्म संबंधी कुछ शंकाएँ हैं। यदि उन्हें इस समय न मिटा सका तो वे फिर कभी न मिट सकेंगी। कृपया मुझे भगवान् के दर्शन काराइए।" उस समय आनंद ने कहा- "सुभद्र ! यह भगवान् से शंका समाधान करने का समय नहीं है। भगवान् निर्वाण- शैय्या पर हैं। अब उन्हें कष्ट मत दो।"
"आनंद ! मुझे भगवान् के दर्शन कर लेने दो।" सुभद्र ने कहा।
"सुभद्र ! अब उन्हें कष्ट मत दो।" पुनः आनंद ने कहा।
आनंद और सुभद्र के कथोपकथन की अस्पष्ट ध्वनि बुद्ध के कानों में पहुँची। जिन्होंने आजीवन सब प्रकार के लोगों पर सदविचारों की वर्षा की हो, वह अंतिम समय में उसके विपरीत कैसे चल सकते थे? उन्होंने कहा- "आनंद ! सुभद्र ! सुभद्र को मत रोको ।। आने दो वह ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से आया है, मुझे कष्ट देने के विचार से नहीं।"
सुभद्र ने पास जाकर करुणा की उस शांत मूर्ति को देखा। तथागत के उपदेश उसके हृदय में तुरंत प्रविष्ट हो गए। उसने कहा- "भंते? मैं बुद्ध धर्म और संघ की शरण में जाता हूँ। मुझे आप भिक्षु बना लें।"
बुद्ध ने कहा- "सुभद्र ! संघ का नियम है कि किसी दूसरे संप्रदाय का प्रव्रजित व्यक्ति यदि बौद्ध संघ में सम्मिलित होना चाहे तो उसे चार मास तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।"
"भंते ! चार मास तो क्या, मैं चार वर्ष तक प्रतीक्षा करने को तैयार हूँ।" बुद्ध- "तो आंनद ! सुभद्र को अभी प्रव्रजित करो।" सुभद्र ही बुद्ध भगवान् का अंतिम शिष्य हुआ।"
मृत्यु को निकट खडी़ देखकर भी जो परोपकार से मुख न मोडे़- वे ही सच्चे महापुरुष और आत्मज्ञानी हैं। नहीं तो अधिकांश व्यक्ति प्राण- संकट की अवस्था में सब कुछ भूलकर जान बचाने के लिए हाथ- पैर पीटने लगते हैं। सामान्य व्यक्ति सदा 'आप मरे तो जग डूबा' की उक्ति को चरितार्थ करने वाले होते हैं, पर आत्म तत्त्व के वास्तविक ज्ञाता मृत्यु की नाममात्र को भी चिंता नहीं करते और उस समय भी जितने क्षण किसी की सेवा- सहायता में लग सकें, उसे ही मरते- मरते जीवन का सार समझते हैं। बुद्ध भगवान् का सुभद्र की शंका समाधान करना एक ऐसा ही कार्य था। उनके इस उदाहरण से हमको यह शिक्षा मिलती है कि- मृत्यु का भय निरर्थक है और उसकी संभावना देखकर घबरा जाना, कर्तव्य- कर्म से विमुख हो जाना और भी हेय है। जब वह एक अनिवार्य बात है और उसको भय अथवा घबराहट द्वारा हटाया भी नहीं जा सकता तो हम क्यों न उसकी तरह से निर्भय रहें। वह कब आएगी, इसकी परवाह न करके अंतिम क्षण तक कर्तव्य पालन की भावना को जीवित तथा जाग्रत् रखना ही श्रेष्ठ व्यक्तियों का लक्षण और वे जीवन का लाभ डरने और भागने वाले लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक प्राप्त कर लेते हैं।
"आनंद ! मुझे भगवान् के दर्शन कर लेने दो।" सुभद्र ने कहा।
"सुभद्र ! अब उन्हें कष्ट मत दो।" पुनः आनंद ने कहा।
आनंद और सुभद्र के कथोपकथन की अस्पष्ट ध्वनि बुद्ध के कानों में पहुँची। जिन्होंने आजीवन सब प्रकार के लोगों पर सदविचारों की वर्षा की हो, वह अंतिम समय में उसके विपरीत कैसे चल सकते थे? उन्होंने कहा- "आनंद ! सुभद्र ! सुभद्र को मत रोको ।। आने दो वह ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से आया है, मुझे कष्ट देने के विचार से नहीं।"
सुभद्र ने पास जाकर करुणा की उस शांत मूर्ति को देखा। तथागत के उपदेश उसके हृदय में तुरंत प्रविष्ट हो गए। उसने कहा- "भंते? मैं बुद्ध धर्म और संघ की शरण में जाता हूँ। मुझे आप भिक्षु बना लें।"
बुद्ध ने कहा- "सुभद्र ! संघ का नियम है कि किसी दूसरे संप्रदाय का प्रव्रजित व्यक्ति यदि बौद्ध संघ में सम्मिलित होना चाहे तो उसे चार मास तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।"
"भंते ! चार मास तो क्या, मैं चार वर्ष तक प्रतीक्षा करने को तैयार हूँ।" बुद्ध- "तो आंनद ! सुभद्र को अभी प्रव्रजित करो।" सुभद्र ही बुद्ध भगवान् का अंतिम शिष्य हुआ।"
मृत्यु को निकट खडी़ देखकर भी जो परोपकार से मुख न मोडे़- वे ही सच्चे महापुरुष और आत्मज्ञानी हैं। नहीं तो अधिकांश व्यक्ति प्राण- संकट की अवस्था में सब कुछ भूलकर जान बचाने के लिए हाथ- पैर पीटने लगते हैं। सामान्य व्यक्ति सदा 'आप मरे तो जग डूबा' की उक्ति को चरितार्थ करने वाले होते हैं, पर आत्म तत्त्व के वास्तविक ज्ञाता मृत्यु की नाममात्र को भी चिंता नहीं करते और उस समय भी जितने क्षण किसी की सेवा- सहायता में लग सकें, उसे ही मरते- मरते जीवन का सार समझते हैं। बुद्ध भगवान् का सुभद्र की शंका समाधान करना एक ऐसा ही कार्य था। उनके इस उदाहरण से हमको यह शिक्षा मिलती है कि- मृत्यु का भय निरर्थक है और उसकी संभावना देखकर घबरा जाना, कर्तव्य- कर्म से विमुख हो जाना और भी हेय है। जब वह एक अनिवार्य बात है और उसको भय अथवा घबराहट द्वारा हटाया भी नहीं जा सकता तो हम क्यों न उसकी तरह से निर्भय रहें। वह कब आएगी, इसकी परवाह न करके अंतिम क्षण तक कर्तव्य पालन की भावना को जीवित तथा जाग्रत् रखना ही श्रेष्ठ व्यक्तियों का लक्षण और वे जीवन का लाभ डरने और भागने वाले लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक प्राप्त कर लेते हैं।