Books - महिला जाग्रिति अभियान
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Language: HINDI
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महिला जाग्रिति
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नारी का पिछड़ापन आधी जनसंख्या के प्रगति -पथ में भयंकर अवरोध उत्पन्न करने वाली समस्या है। संसार की आबादी का आधा भाग नारी- वर्ग का है।उस पर छाया हुआ पिछड़ापन संसार के विकासक्रम में कितनी बाधा उत्पन्न करता है, उसे थोड़ी- सी विचार बुद्धि का उपयोग करके सहज ही जाना जा सकता है। पिछड़ा मनुष्य अपनी मौलिक क्षमता को विकसित नहीं कर पाता। दुर्बलता के कारण उसके लिए उन सम्पदाओं और विभूतियों को उपलब्ध कर सकना सम्भव नही होता जो इस संसार में हर मनुष्य के लिए प्रचुर परिमाण में विद्यमान है। भारतीय नारी का पिछड़ापन एक तरह का है। संसार के अन्यान्य भागों में दूसरी तरह का। नारी की सुकुमारता को लिप्सा के लिए उपयोग किया गया। प्रजनन विशेषता के कारण शारीरिक बलिष्ठता और उपार्जन क्षमता में न्यूनता हानि स्वाभाविक है। इसे उसकी दुर्बलता समझा गया और दुर्बलों के साथ बलवानों द्वारा जो मत्स्य न्याय अपनाया जाता है, वैसा ही व्यवहार नारी के साथ किया गया यह आम शिकायत है भारत में प्रतिबंधित और पद दलित स्थिति में उसे रखा और दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है।
मानव मात्र के लिए जिन मौलिक अधिकारों की विश्व विवेक ने घोषणा की है, उससे भारतीय नारी प्रायः वंचित ही है। नर के लिए जो परम्पराएँ हैं वे नारी के लिएँ कहाँ है? उसे स्वेक्षा से नही विवसता से अपनी जिंदगी जीनी पड़ती है। स्वेच्छा सहयोग से एक दूसरे के लिए बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करें, एक दूसरे के लिए समर्पित रहें, यह सराहनीय है किन्तु बाघित बनाकर मनुष्य- मनुष्य का अपने स्वार्थ साधन के लिए उपयोग करें यह मानवी अधिकार का अपहरण है। नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं में क्या नर क्या नारी सभी को वर्ग दूसरे वर्ग का दमन एवं शोषण करें यह अनुचित है। भारतीय नारी को इसी अनीति की शिकायत है। तथा कथित प्रगतिशील देशों में उसे बलपूर्वक तो नहीं दलपूर्वक परवसता के पाश में बाँधा गया है। प्रलोभन की सुनहरी जनजीरों में जकड़कर उसे नर की विनोद लिप्सा पर स्वेच्छा समर्पण के लिए सहमत किया गया है। उसके दृष्टि श्रंगारिता पर रूक गयी है पुरूषार्थ के अन्य क्षेत्रों में आगे बढ़ने की अपेक्षा उसे सुख, सुविधा का यह सस्ता तरीका का रूचीकर लगा हेकि नर के लिए चाबी वाली गुड़िया की तरह मनोरंजन का साधन बनें। इस या उस तरीके से मानवीय सत्ता की गरिमा बढ़ाने वाली विशेषता से यदि वंचित रहना पड़े तो समझना चाहिएँ कि वह व्यक्तित्व अपने लिए पिछड़ेपन से ग्रसित ही बना रहा और उसके कारण समाज का कोई उपयुक्त लाभ नहीं ही मिल सका।
पिछड़ा वर्ग अपनी मौलिक विशेषताओं को समुन्नत न कर पाने के कारण अभावग्रस्त और आत्म सम्मान से वंचित रहता है। निर्वाह से लेकर कठिनाइयों के समाधान तक में उसे दूसरे पर आश्रित रहना पड़ता हैं। योग्यता और सामर्थ्य के अभाव में उसकी कोई बड़ी उपलब्धियाँ तो हो ही सकती हैं? घाव जैसा दर्द और उत्पीड़न जैसा चीत्कार भले ही न हो, पर अपंगों ,, पक्षाघात पीडितों जैसी दयनीय स्थिति भी कम दयनीय और दुःखद नहीं हैं। विकास के अवसरों से वंचित रहना अपने आप में एक बडा़ अभिशाप और दुर्भाग्य हैं जो नारी को पग- पग पर सहन करना पड़ रहा हैं।
पीड़ित पक्ष स्वयं तो कष्ट उठाता ही है अपने साथियों के लिए भी भारभूत और कष्टकारक बनता है। बीमार स्वयं तो दुःख पाता ही है साथ ही घर के लोगों को भी परिचर्या, गन्दगी, चिकित्सा, व्यय, उपार्जन से वंचित रहना, चिन्ता जैसी अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। स्वस्थ व्यक्ति जहाँ परिवार की सेवा, सहायता कर सकता था, वहाँ उल्टे उन लोगों को अपनी सामर्थ्य उसके लिए खर्च करनी पड़ती है। ठीक यही स्थिति पिछड़ी नारी की भी होती है। वह अपने निर्वाह से लेकर सुरक्षा तक में पराश्रित रहती है। दुर्भाग्य से यदि वैधव्य या ऐसी ही विपत्ति सिर आ जाय तो उसे अपना, अपने बालकों का उदर पोषण तक अति कठिन हो जाता है। सामान्य स्थिति में भी वह घर की आंतरिक प्रगति तथा सुविधा संवर्द्धन में कोई महत्त्वपूर्ण सहयोग दे सकने की स्थिति में नहीं होती। कठिन प्रसंगो में वह घबराने और रोने -धोने की हैरानी में पड़कर अपने संरक्षकों के लिए उल्टी मुसीबत बनती है। विपत्ति से जूझने में सहयोग दे सकने की स्थिति तो उसकी होती ही कहाँ है? संक्षेप में पिछड़ी नारी अपने संरक्षकों के गले का पत्थर ही बनकर रहती है। रसोईदारिन, चौकीदारिन और प्रजनन के अतिरिक्त और कोई बड़ी भूमिका अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए प्रस्तुत कर सकना उसके लिए कहाँ सम्भव हो पाता है |
नारी का पिछड़ापन नर के लिए भी सुविधा जनक कहाँ है? वशवर्ती रखने और विवशता का लाभ उठाने में लगभग वैसा ही लाभ माना जाता है। जैसा कि पशु- पालक अपने पालतू जानवरों में उपलब्ध करते हैं। मनुष्य की स्थिति भिन्न है, शेर को पिंजड़े में और भेड़ को बाड़े में बन्द करके जिस प्रकार का लाभ उठाया जाता है, वैसा हि कुछ मनुष्य, मनुष्य के लिए सोचने लगे तो यह बड़ी ही घृणित बात होगी। व्यक्तित्व को विकसित करके उसके स्वेच्छा- सहयोग का लाभ लिया जा सकता है वह पिछड़ापन और विवशता लाद कर प्राप्त की गई कमाई से असंख्य गुना उच्चस्तरीय हो सकता है। ऐसे सोचा जा सके तो नारी को मानवोचित स्तर पर ऊँचा उठना और सम्मान देना ही बुद्धिमत्तापूर्ण लगेगा। पददलित और सुविकसित स्थिति के बीच का अन्तर कितना खाई और टीले जैसा होता है, उसे कल्पना या अनुभव, उदाहरणों से सहज ही जाना जा सकता है। जिन देशों में नारी को व्यक्तित्व के विकास का, स्वेच्छा- सहयोग का अवसर मिला है,वहाँ की स्थिति कुछ और ही बन गई है। समुन्नत नारी अपने लिए , परिवार और समाज के लिए वरदान बनी हुई है। उसके अनुदानों से पूरा देश लाभान्वित नारी का पिछड़ापन कहीं भी किसी भी स्तर का क्यों न हो ? उसे निरस्त किया ही जाना चाहिए। दुर्गति में न पीड़ित को लाभ है और न उत्पीड़क को। दोनों की गौरव- गरिमा गिरती है और दोनों ही समान रूप से घाटे में रहते हैं। इस अदूरदर्शिता पूर्ण स्थिति का अन्त किया ही जाना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि न्याय और नीति का जहाँ भी हनन होगा, वहाँ उसकी प्रतिक्रिया अनेकानेक नैतिक संकटों को जन्म देगी।
पिछड़े,अशक्त ,दुर्बल,रूग्ण,पशु को भी पालने में मालिक को नफा नहीं रहता फिर नारी को वैसी दशामें रखाकर उसके संरक्षक शुभचिन्तक होने का दावा करने वाले क्या कुछ पा सकेंगे? बलिष्ठ पशु जहाँ स्वयं सुखी रहते हैं, वहाँ मालिक को भी लाभ कमा कर देते हैं, यदि यह मोटी बुद्धि नारी के सम्बन्ध में भी काम कर सके तो इस दुर्दशा का दुःख न सहना पड़े जो सामने है। किसी उच्च पद पर अनाड़ी की नियुक्ति कर दी जाय तो उससे पद के उत्तरदायित्वों का निर्वाह हो नहीं सकेगा। परिवार संस्था विस्तार की दुष्टि से एक घर की सीमा में सीमित हो सकती हैं, पर उसका न केवल उसके सदस्यों से वरन् समाज के व्यापक क्षेत्र से अति महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। सुसंस्कृत परिवार में स्वर्ग का और विसंगत स्तर के कुटुम्ब में नरक के दर्शन होते हैं। स्वर्ग एवं नरक में से हम किसका सृजन करना चाहते हैं, यह निश्चय करना चाहिए। तदनुरूप गृह संचालिका की स्थिति और स्तर बनाने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। यह हजार बार ध्यान रखाने योग्य बात है कि पुरूष अर्थ उर्पाजन की, सुविधा- साधन जुटाने की व्यवस्था कर सकता है, पर घर में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करने की उसकी स्थिति है नहीं। न समय,न अनुभव, न भावना, न कला, न उदारता। इन आधारों के बिना परिवार संस्था का भावनात्मक नवनिर्माण सम्भव नहीं हो सकता। सुसंस्कृत परम्पराएँ ही व्यक्ति, परिवार और समाज को समुन्नत बनाती हैं। नारी ही है जो इस जो इस छोटे किन्तु अत्यधिक महत्व के कार्य को ठीक तरह कर सकने की मौलिक योग्यता भगवान के घर में अपने साथ लेकर आई है। वस्तुस्थिति को समझा जाना चाहिए। यदि घर- परिवार से सचमुच ही किसी को लगाव ही तो उसका स्तर ऊँचा उठाने के एकमात्र माध्यम उस क्षेत्र की सूत्र- संचालिकाओं को नारियों को सुयोग्य, सक्षम और सुविकसित बनाने के लिए योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ना चाहिए। नारी भोजनालय धोबी का,घरेलू नौकर का, चौकीदार का काम सँभाल कर घर की अर्थ- व्यवस्था में परोक्ष सहयोग देती है। मात्र कहीं कमाना ही उपार्जन नहीं है। खर्च में कमी करने के लिए श्रम समय लगा देना भी प्रकारान्तर में कमाई है। बाजार में पका हुआ भोजन खरीदा जाय, हर कपड़ा धोबी से धुलवाया जाय, कपड़ो की सिलाई और मरम्मत के लिए घड़ी- घड़ी दर्जी के दरवाजे खड़ा रहा जाये, सफाई आदि छुटपुट कामों के लिए घरेलू नौकर रखा जाये, सामान को सुरक्षित रखने के लिए चौकीदार रखा जाय, तो पता चलेगा कि बिना गृहिणी के निर्वाह व्यय कितना अधिक बढ़ जाता है। बचत की बात, श्रम- सहयोग की बात भी धन उपार्जन है, मोटा अर्थशास्त्र समझ में न आने से ही नारी के उपार्जन को अस्वीकार किया जाता है |
उसकी वस्तुतः उसकी कमाई असाधारण है। परिवार की भावनात्मक संरचना में स्वर्गीर्य सुख और उस छोटे समुदाय का उज्जवल भविष्य पूरी तरह सन्निहित रहता है। उसका कितना मूल्य आँका जाय? फिर दाम्पत्य जीवन में नर को जो आह्लाद, उल्लास, आश्वासन, विश्वास मिलता है, उसे तो गहन अध्यात्म स्तर का ही माना जा सकता है और उसका मूल्यांकन संसार की किसी भी सम्पत्ति से नहीं किया जा सकता। बच्चों को जो भावनात्मक दुलार परक अनुदान माता से परिवार की अन्य नारियों से मिलते हैं, उसे कितना भी मूल्य देकर नहीं खरीदा जा सकता है। भला कौन- सी धाय, कितने मूल्य पर बच्चे की माता, दादी, बहिन आदि जैसी सघन आत्मीयता देकर उसके अन्तःकरण को हुलसित- पुलकित कर सकती हैं नारी के इन अनुदानों का आर्थिक दृष्टि से क्या कोई भी मूल्य- महत्व नहीं आँका जा सकता?
इतने पर भी यह तथ्य है कि वह प्रत्यक्ष उपार्जन में सहयोग देकर घर की अर्थ- व्यवस्था सुधारने में कोई विशेष भूमिका प्रस्तुत नहीं कर पाती। इसका कारण भी परिस्थितियों का अभाव है। यदि उसे गृह शिल्प के कला कौशल में प्रवीण किया जा सके और उत्पादन के सरंजाम जुटाये जा सकें तो वह घर- परिवार के उत्तरदायित्वों को नभाते हुए भी बचे हुए समय में कुछ उपार्जन कर सकती है। इसका लाभ उसे स्वावलम्बन के साथ जुड़े हुए आत्मगौरव के रूप में मिलेगा और परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने से उस संस्था के सभी सदस्यों अधिक सुविधा पाने का अवसर मिलेगा। सम्पत्ति बढ़ती है तो उसका लाभ मात्र कमाने वाले को ही नहीं,प्रकारान्तर से उपयोगी सामग्री बनाने वालों को श्रमजीवियों को, सरकार को, असंख्यों को मिलता है। संसार की आधी जनता यदि अर्थ उपार्जन की दिशा में कुछ कदम बढ़ा सकेगी तो उससे राष्ट्रीय सम्पदा में वृद्धि होगी और व्यक्ति परिवार के ही नहीं समूचे देश एवं विश्व के सुविधा साधन बढ़ेंगे।आँखो में आशा की ज्योति चमकने वाली ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए नारी की योग्यता और उमंगों को समुन्नत बनाने के प्रयास अविलम्ब किये जाने चाहिए।
अपने मरने पर प्रलय होने की बात सोची जाती हो तो बात अलग है,अन्यथा यदि भावी पीढ़ियों का भी ध्यान हो और उनके उज्ज्वल भविष्य में भी रुचि हो तो वे साँचे ठीक तरह सँजोये जाने चाहिए। जिनके सहारे नये खिलौने ढलते हैं। भावी पीढ़ियों के शरीर अच्छी खुराक से, मस्तिष्क शिक्षा से विकसित किये जा सकते हैं, पर उनके चरित्र संस्कार- दृष्टिकोण और स्तर का निर्माण परिवार की पाठशाला में, नारी के शालीन अध्यापन के बिना अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। भावी पीढ़ी का, नये युग का स्तर ऊँचा उठाना हो तो नोट करना चाहिए कि नारी को प्रगतिशील बनाये बिना अन्य कितने ही साधन जुटा लेने पर भी अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि न हो सकेगी।
न्याय को जीवित रहना ही है तो नारी पर लादे गये अनीतिपूर्ण प्रतिबन्धों के अन्त का श्रीगणेश होना चाहिए। समता यदि अभीष्ट है और मानवी मौलिक अधिकारों से सहमति है तो उनसे नारी को वंचित रखने का प्रचलन समाप्त होना चाहिए। यदि सचमुच पुत्री, भगिनी, पत्नी और माता के प्रति भाव संवेदना की कोमलता जीवित हो तो उसका परिचय नारी के स्तर को ऊँचा उठाने के प्रयासों द्वारा किया जाना चाहिए। परिवार भेड़ों के बाड़े या सराय, मुसाफिर खाने जैसे बने रहना सन्तोषजनक हो तो बात दूसरी है अन्यथा उनमें प्राण संचार कर सकने की स्थिति गृहिणी को बनाने देनी चाहिए। संताने यशस्वी और तेजस्वी भी इसी आधार पर बनेंगी अन्यथा प्रजनन तो चलता रहेगा, पर उससे धरती माता का भार ही बढ़ेगा। मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना नारी का पिछड़ापन बने रहने पर उपहासास्पद ही बनी रहेगी। नारी के सहयोग और नेतृत्व की उपेक्षा करके सुखद सम्भावनाओं से भरे- पूरे भविष्य का स्वप्न कभी भी साकार न हो सकेगा।
हमें तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा और (१)मानव समाज में न्याय को जीवन्त रखने (२) परिवारों में शालीनता उत्पन्न करने (३) भावी पीढ़ी को समुन्नत देखने (४) सर्वतोमुखी आर्थिक प्रगति का पथ प्रशस्त करने (५) सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का आधार खड़ा करने के लिए नारी पुनरुत्थान की ओर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। यदि आज की तुलना में कल को अधिक सुन्दर बनाना हो तो नारी को पिछड़ेपन के चंगुल से छुड़ाकर उसे पंख फड़फड़ा सकने को सुविधा देने की बात सोचनी ही चाहिए।
नारी प्रगति की आवश्यकता के पक्ष में इन पाँच तथ्यों को जनचर्चा का विषय बनाया जाना चाहिए। महिला जागरण अभियान ने प्रत्येक विचारशील नर- नारी को इन पर अधिकाधिक गम्भीरता के साथ चिन्तन करने और निष्कर्ष तक पहुँचने का आमन्त्रण दिया है। इन्हें बार- बार समझा और समझाया जाना चाहिए। संक्षेप में नारी पुनरुथान अभियान का यह पंचसूत्री घोषण पत्र कहा जा सकता है। तथ्य विस्मृत न होने पावे इस दृष्टि से प्रस्तुत आधारों को इस प्रकार समझा और समझाया जाना चाहिए।
मानव मात्र के लिए जिन मौलिक अधिकारों की विश्व विवेक ने घोषणा की है, उससे भारतीय नारी प्रायः वंचित ही है। नर के लिए जो परम्पराएँ हैं वे नारी के लिएँ कहाँ है? उसे स्वेक्षा से नही विवसता से अपनी जिंदगी जीनी पड़ती है। स्वेच्छा सहयोग से एक दूसरे के लिए बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करें, एक दूसरे के लिए समर्पित रहें, यह सराहनीय है किन्तु बाघित बनाकर मनुष्य- मनुष्य का अपने स्वार्थ साधन के लिए उपयोग करें यह मानवी अधिकार का अपहरण है। नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं में क्या नर क्या नारी सभी को वर्ग दूसरे वर्ग का दमन एवं शोषण करें यह अनुचित है। भारतीय नारी को इसी अनीति की शिकायत है। तथा कथित प्रगतिशील देशों में उसे बलपूर्वक तो नहीं दलपूर्वक परवसता के पाश में बाँधा गया है। प्रलोभन की सुनहरी जनजीरों में जकड़कर उसे नर की विनोद लिप्सा पर स्वेच्छा समर्पण के लिए सहमत किया गया है। उसके दृष्टि श्रंगारिता पर रूक गयी है पुरूषार्थ के अन्य क्षेत्रों में आगे बढ़ने की अपेक्षा उसे सुख, सुविधा का यह सस्ता तरीका का रूचीकर लगा हेकि नर के लिए चाबी वाली गुड़िया की तरह मनोरंजन का साधन बनें। इस या उस तरीके से मानवीय सत्ता की गरिमा बढ़ाने वाली विशेषता से यदि वंचित रहना पड़े तो समझना चाहिएँ कि वह व्यक्तित्व अपने लिए पिछड़ेपन से ग्रसित ही बना रहा और उसके कारण समाज का कोई उपयुक्त लाभ नहीं ही मिल सका।
पिछड़ा वर्ग अपनी मौलिक विशेषताओं को समुन्नत न कर पाने के कारण अभावग्रस्त और आत्म सम्मान से वंचित रहता है। निर्वाह से लेकर कठिनाइयों के समाधान तक में उसे दूसरे पर आश्रित रहना पड़ता हैं। योग्यता और सामर्थ्य के अभाव में उसकी कोई बड़ी उपलब्धियाँ तो हो ही सकती हैं? घाव जैसा दर्द और उत्पीड़न जैसा चीत्कार भले ही न हो, पर अपंगों ,, पक्षाघात पीडितों जैसी दयनीय स्थिति भी कम दयनीय और दुःखद नहीं हैं। विकास के अवसरों से वंचित रहना अपने आप में एक बडा़ अभिशाप और दुर्भाग्य हैं जो नारी को पग- पग पर सहन करना पड़ रहा हैं।
पीड़ित पक्ष स्वयं तो कष्ट उठाता ही है अपने साथियों के लिए भी भारभूत और कष्टकारक बनता है। बीमार स्वयं तो दुःख पाता ही है साथ ही घर के लोगों को भी परिचर्या, गन्दगी, चिकित्सा, व्यय, उपार्जन से वंचित रहना, चिन्ता जैसी अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। स्वस्थ व्यक्ति जहाँ परिवार की सेवा, सहायता कर सकता था, वहाँ उल्टे उन लोगों को अपनी सामर्थ्य उसके लिए खर्च करनी पड़ती है। ठीक यही स्थिति पिछड़ी नारी की भी होती है। वह अपने निर्वाह से लेकर सुरक्षा तक में पराश्रित रहती है। दुर्भाग्य से यदि वैधव्य या ऐसी ही विपत्ति सिर आ जाय तो उसे अपना, अपने बालकों का उदर पोषण तक अति कठिन हो जाता है। सामान्य स्थिति में भी वह घर की आंतरिक प्रगति तथा सुविधा संवर्द्धन में कोई महत्त्वपूर्ण सहयोग दे सकने की स्थिति में नहीं होती। कठिन प्रसंगो में वह घबराने और रोने -धोने की हैरानी में पड़कर अपने संरक्षकों के लिए उल्टी मुसीबत बनती है। विपत्ति से जूझने में सहयोग दे सकने की स्थिति तो उसकी होती ही कहाँ है? संक्षेप में पिछड़ी नारी अपने संरक्षकों के गले का पत्थर ही बनकर रहती है। रसोईदारिन, चौकीदारिन और प्रजनन के अतिरिक्त और कोई बड़ी भूमिका अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए प्रस्तुत कर सकना उसके लिए कहाँ सम्भव हो पाता है |
नारी का पिछड़ापन नर के लिए भी सुविधा जनक कहाँ है? वशवर्ती रखने और विवशता का लाभ उठाने में लगभग वैसा ही लाभ माना जाता है। जैसा कि पशु- पालक अपने पालतू जानवरों में उपलब्ध करते हैं। मनुष्य की स्थिति भिन्न है, शेर को पिंजड़े में और भेड़ को बाड़े में बन्द करके जिस प्रकार का लाभ उठाया जाता है, वैसा हि कुछ मनुष्य, मनुष्य के लिए सोचने लगे तो यह बड़ी ही घृणित बात होगी। व्यक्तित्व को विकसित करके उसके स्वेच्छा- सहयोग का लाभ लिया जा सकता है वह पिछड़ापन और विवशता लाद कर प्राप्त की गई कमाई से असंख्य गुना उच्चस्तरीय हो सकता है। ऐसे सोचा जा सके तो नारी को मानवोचित स्तर पर ऊँचा उठना और सम्मान देना ही बुद्धिमत्तापूर्ण लगेगा। पददलित और सुविकसित स्थिति के बीच का अन्तर कितना खाई और टीले जैसा होता है, उसे कल्पना या अनुभव, उदाहरणों से सहज ही जाना जा सकता है। जिन देशों में नारी को व्यक्तित्व के विकास का, स्वेच्छा- सहयोग का अवसर मिला है,वहाँ की स्थिति कुछ और ही बन गई है। समुन्नत नारी अपने लिए , परिवार और समाज के लिए वरदान बनी हुई है। उसके अनुदानों से पूरा देश लाभान्वित नारी का पिछड़ापन कहीं भी किसी भी स्तर का क्यों न हो ? उसे निरस्त किया ही जाना चाहिए। दुर्गति में न पीड़ित को लाभ है और न उत्पीड़क को। दोनों की गौरव- गरिमा गिरती है और दोनों ही समान रूप से घाटे में रहते हैं। इस अदूरदर्शिता पूर्ण स्थिति का अन्त किया ही जाना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि न्याय और नीति का जहाँ भी हनन होगा, वहाँ उसकी प्रतिक्रिया अनेकानेक नैतिक संकटों को जन्म देगी।
पिछड़े,अशक्त ,दुर्बल,रूग्ण,पशु को भी पालने में मालिक को नफा नहीं रहता फिर नारी को वैसी दशामें रखाकर उसके संरक्षक शुभचिन्तक होने का दावा करने वाले क्या कुछ पा सकेंगे? बलिष्ठ पशु जहाँ स्वयं सुखी रहते हैं, वहाँ मालिक को भी लाभ कमा कर देते हैं, यदि यह मोटी बुद्धि नारी के सम्बन्ध में भी काम कर सके तो इस दुर्दशा का दुःख न सहना पड़े जो सामने है। किसी उच्च पद पर अनाड़ी की नियुक्ति कर दी जाय तो उससे पद के उत्तरदायित्वों का निर्वाह हो नहीं सकेगा। परिवार संस्था विस्तार की दुष्टि से एक घर की सीमा में सीमित हो सकती हैं, पर उसका न केवल उसके सदस्यों से वरन् समाज के व्यापक क्षेत्र से अति महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। सुसंस्कृत परिवार में स्वर्ग का और विसंगत स्तर के कुटुम्ब में नरक के दर्शन होते हैं। स्वर्ग एवं नरक में से हम किसका सृजन करना चाहते हैं, यह निश्चय करना चाहिए। तदनुरूप गृह संचालिका की स्थिति और स्तर बनाने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। यह हजार बार ध्यान रखाने योग्य बात है कि पुरूष अर्थ उर्पाजन की, सुविधा- साधन जुटाने की व्यवस्था कर सकता है, पर घर में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करने की उसकी स्थिति है नहीं। न समय,न अनुभव, न भावना, न कला, न उदारता। इन आधारों के बिना परिवार संस्था का भावनात्मक नवनिर्माण सम्भव नहीं हो सकता। सुसंस्कृत परम्पराएँ ही व्यक्ति, परिवार और समाज को समुन्नत बनाती हैं। नारी ही है जो इस जो इस छोटे किन्तु अत्यधिक महत्व के कार्य को ठीक तरह कर सकने की मौलिक योग्यता भगवान के घर में अपने साथ लेकर आई है। वस्तुस्थिति को समझा जाना चाहिए। यदि घर- परिवार से सचमुच ही किसी को लगाव ही तो उसका स्तर ऊँचा उठाने के एकमात्र माध्यम उस क्षेत्र की सूत्र- संचालिकाओं को नारियों को सुयोग्य, सक्षम और सुविकसित बनाने के लिए योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ना चाहिए। नारी भोजनालय धोबी का,घरेलू नौकर का, चौकीदार का काम सँभाल कर घर की अर्थ- व्यवस्था में परोक्ष सहयोग देती है। मात्र कहीं कमाना ही उपार्जन नहीं है। खर्च में कमी करने के लिए श्रम समय लगा देना भी प्रकारान्तर में कमाई है। बाजार में पका हुआ भोजन खरीदा जाय, हर कपड़ा धोबी से धुलवाया जाय, कपड़ो की सिलाई और मरम्मत के लिए घड़ी- घड़ी दर्जी के दरवाजे खड़ा रहा जाये, सफाई आदि छुटपुट कामों के लिए घरेलू नौकर रखा जाये, सामान को सुरक्षित रखने के लिए चौकीदार रखा जाय, तो पता चलेगा कि बिना गृहिणी के निर्वाह व्यय कितना अधिक बढ़ जाता है। बचत की बात, श्रम- सहयोग की बात भी धन उपार्जन है, मोटा अर्थशास्त्र समझ में न आने से ही नारी के उपार्जन को अस्वीकार किया जाता है |
उसकी वस्तुतः उसकी कमाई असाधारण है। परिवार की भावनात्मक संरचना में स्वर्गीर्य सुख और उस छोटे समुदाय का उज्जवल भविष्य पूरी तरह सन्निहित रहता है। उसका कितना मूल्य आँका जाय? फिर दाम्पत्य जीवन में नर को जो आह्लाद, उल्लास, आश्वासन, विश्वास मिलता है, उसे तो गहन अध्यात्म स्तर का ही माना जा सकता है और उसका मूल्यांकन संसार की किसी भी सम्पत्ति से नहीं किया जा सकता। बच्चों को जो भावनात्मक दुलार परक अनुदान माता से परिवार की अन्य नारियों से मिलते हैं, उसे कितना भी मूल्य देकर नहीं खरीदा जा सकता है। भला कौन- सी धाय, कितने मूल्य पर बच्चे की माता, दादी, बहिन आदि जैसी सघन आत्मीयता देकर उसके अन्तःकरण को हुलसित- पुलकित कर सकती हैं नारी के इन अनुदानों का आर्थिक दृष्टि से क्या कोई भी मूल्य- महत्व नहीं आँका जा सकता?
इतने पर भी यह तथ्य है कि वह प्रत्यक्ष उपार्जन में सहयोग देकर घर की अर्थ- व्यवस्था सुधारने में कोई विशेष भूमिका प्रस्तुत नहीं कर पाती। इसका कारण भी परिस्थितियों का अभाव है। यदि उसे गृह शिल्प के कला कौशल में प्रवीण किया जा सके और उत्पादन के सरंजाम जुटाये जा सकें तो वह घर- परिवार के उत्तरदायित्वों को नभाते हुए भी बचे हुए समय में कुछ उपार्जन कर सकती है। इसका लाभ उसे स्वावलम्बन के साथ जुड़े हुए आत्मगौरव के रूप में मिलेगा और परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने से उस संस्था के सभी सदस्यों अधिक सुविधा पाने का अवसर मिलेगा। सम्पत्ति बढ़ती है तो उसका लाभ मात्र कमाने वाले को ही नहीं,प्रकारान्तर से उपयोगी सामग्री बनाने वालों को श्रमजीवियों को, सरकार को, असंख्यों को मिलता है। संसार की आधी जनता यदि अर्थ उपार्जन की दिशा में कुछ कदम बढ़ा सकेगी तो उससे राष्ट्रीय सम्पदा में वृद्धि होगी और व्यक्ति परिवार के ही नहीं समूचे देश एवं विश्व के सुविधा साधन बढ़ेंगे।आँखो में आशा की ज्योति चमकने वाली ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए नारी की योग्यता और उमंगों को समुन्नत बनाने के प्रयास अविलम्ब किये जाने चाहिए।
अपने मरने पर प्रलय होने की बात सोची जाती हो तो बात अलग है,अन्यथा यदि भावी पीढ़ियों का भी ध्यान हो और उनके उज्ज्वल भविष्य में भी रुचि हो तो वे साँचे ठीक तरह सँजोये जाने चाहिए। जिनके सहारे नये खिलौने ढलते हैं। भावी पीढ़ियों के शरीर अच्छी खुराक से, मस्तिष्क शिक्षा से विकसित किये जा सकते हैं, पर उनके चरित्र संस्कार- दृष्टिकोण और स्तर का निर्माण परिवार की पाठशाला में, नारी के शालीन अध्यापन के बिना अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। भावी पीढ़ी का, नये युग का स्तर ऊँचा उठाना हो तो नोट करना चाहिए कि नारी को प्रगतिशील बनाये बिना अन्य कितने ही साधन जुटा लेने पर भी अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि न हो सकेगी।
न्याय को जीवित रहना ही है तो नारी पर लादे गये अनीतिपूर्ण प्रतिबन्धों के अन्त का श्रीगणेश होना चाहिए। समता यदि अभीष्ट है और मानवी मौलिक अधिकारों से सहमति है तो उनसे नारी को वंचित रखने का प्रचलन समाप्त होना चाहिए। यदि सचमुच पुत्री, भगिनी, पत्नी और माता के प्रति भाव संवेदना की कोमलता जीवित हो तो उसका परिचय नारी के स्तर को ऊँचा उठाने के प्रयासों द्वारा किया जाना चाहिए। परिवार भेड़ों के बाड़े या सराय, मुसाफिर खाने जैसे बने रहना सन्तोषजनक हो तो बात दूसरी है अन्यथा उनमें प्राण संचार कर सकने की स्थिति गृहिणी को बनाने देनी चाहिए। संताने यशस्वी और तेजस्वी भी इसी आधार पर बनेंगी अन्यथा प्रजनन तो चलता रहेगा, पर उससे धरती माता का भार ही बढ़ेगा। मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना नारी का पिछड़ापन बने रहने पर उपहासास्पद ही बनी रहेगी। नारी के सहयोग और नेतृत्व की उपेक्षा करके सुखद सम्भावनाओं से भरे- पूरे भविष्य का स्वप्न कभी भी साकार न हो सकेगा।
हमें तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा और (१)मानव समाज में न्याय को जीवन्त रखने (२) परिवारों में शालीनता उत्पन्न करने (३) भावी पीढ़ी को समुन्नत देखने (४) सर्वतोमुखी आर्थिक प्रगति का पथ प्रशस्त करने (५) सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का आधार खड़ा करने के लिए नारी पुनरुत्थान की ओर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। यदि आज की तुलना में कल को अधिक सुन्दर बनाना हो तो नारी को पिछड़ेपन के चंगुल से छुड़ाकर उसे पंख फड़फड़ा सकने को सुविधा देने की बात सोचनी ही चाहिए।
नारी प्रगति की आवश्यकता के पक्ष में इन पाँच तथ्यों को जनचर्चा का विषय बनाया जाना चाहिए। महिला जागरण अभियान ने प्रत्येक विचारशील नर- नारी को इन पर अधिकाधिक गम्भीरता के साथ चिन्तन करने और निष्कर्ष तक पहुँचने का आमन्त्रण दिया है। इन्हें बार- बार समझा और समझाया जाना चाहिए। संक्षेप में नारी पुनरुथान अभियान का यह पंचसूत्री घोषण पत्र कहा जा सकता है। तथ्य विस्मृत न होने पावे इस दृष्टि से प्रस्तुत आधारों को इस प्रकार समझा और समझाया जाना चाहिए।