Books - मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान
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मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान
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अ.ज्यो. फरवरी २०१० - परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणीदेवता, स्वर्ग और कल्पवृक्ष सब यहीं, इसी धरती पर (८ नवम्बर १९७७ का प्रवचन)मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समानमनः एक कल्पवृक्षगायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो, भाइयो!
कल मैं आपको पंचकोशों की चर्चा के दौरान तीसरे कोश की मनोमय कोश की बात बता रहा था। यह सबसे बड़ा देवता भी है और असुर भी। इसे साध लिया जाय, परिष्कृत कर लिया जाय, तो यह कल्पवृक्ष है, अन्यथा फिर आप कुछ भी कह लीजिए। मन को साधने का सरल तरीका है— एकाग्रता का अभ्यास करना। मित्रो! हमारे जीवन में एकाग्रता की कला, एक निष्ठा की कला, एक चिंतन की कला होनी ही चाहिए। हमें एकाग्रता का चिंतन उसी तरह से करना चाहिए। कैसे करना चाहिए? यह मैं आपकी विधियों को देख करके, मनःस्थिति को देख करके बताता हूँ कि आपका मन किस तरह का है और किस काम में एकाग्र किया जा सकता है? कौन से आपके रुचि के विषय हैं और किस रुचि के विषय में उसे लगाया जा सकता है? चलिए, मैं उदाहरण देकर समझाता हूँ। ध्यान करने में हमेशा सुन्दर चीजों का ध्यान कराया जाता है। क्यों साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ऐसे ही सुन्दर थे? नहीं बेटे, ऐसे नहीं थे। तो कैसे थे श्रीकृष्ण भगवान्? आप ही बताइये?
ध्यान कैसे करें?
मित्रो! हो सकता है, श्रीकृष्ण भगवान् ऐसे रहे हों- काले से और ऐसा छोटा सा मुँह, छोटी- छोटी आँखें। अगर भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे रहे हों, तो क्या पता चलता है? महाराज जी! हमने तो बहुत सुन्दर देखे हैं। हाँ बेटे। आपने सुन्दर देखे हैं। उसी सुन्दरता को लेकर हम अपने मन को एकाग्रता के केन्द्र पर एकत्रित करते हैं। जो चीजें दृष्टि के साथ मन को एकाग्रता के केन्द्र पर एकत्रित करते हैं। जो चीजें दृष्टि के साथ सुन्दर लगें, उन्हीं पर मन को केन्द्रित किया जाता है। देवी, देवता इसलिए सुन्दर बनाये जाते हैं, ताकि उनके सौंदर्य में अथवा दूसरी चीजों अथवा उसका प्रिय भाग, जो भी हो, जिसमें आपका मन तन्मय होता चला जाय। कैसे तन्मय होता चला जायेगा? कैसे एकाग्रता आती चली जायेगी? जिस एकाग्रता की वजह से भाप कमाल दिखाती है। भाप जब चारों ओर फैलती रहती है, तब उससे कोई काम नहीं चलता। भाप जब एकाग्र हो जाती है, तो क्या हो जाता है? तब प्रेशर कुकर मिनटों के भीतर उसी भाप से खाना पका देता है। उसी भाप से रेल के इंजन चालू हो जाते हैं। उसी भाप से न जाने क्या- क्या हो जाता है। भाप की ताकत बहुत बड़ी है, लेकिन जब वह फैलती है, तो उसकी ताकत क्या हो सकती है? कुछ नहीं। बारूद को जब हम इकट्ठा कर देते हैं, बारूद की ताकत कितनी बड़ी हो जाती है कि वह बंदूक की गोली को सनसनाती हुई ले जाती है। अगर उसका बारूद निकालकर उस बारूद को जमीन पर फैला दें, और दियासलाई लगा दें, तो वह भक्क हो जायेगा, फुस्स हो जायेगा। लेकिन वही बारूद जब कारतूस में भर दिया जाता है, तो शेर को मार सकता है, हाथी को मार सकता है। फैली हुई बारूद में न आवाज होगी, न गोली चलेगी, बस धुआँ देकर, हवा देकर वह फुस्स से निकल जायेगी।
युग व्यास हैं हम
मित्रो! हमारी जिंदगी में बिखराव ही बिखराव भरा पड़ा है। सारी जिंदगी भर बिखराव रहा, न कोई दिशा रही, न कोई धारा रही, न कोई लक्ष्य रहा, न कोई हँसी का विषय रहा। कभी इधर, कभी उधर, कभी पूजा, कभी पैसा, कभी यह, कभी वह। एक दिशा में अगर हम चलते हुए चले गये होते, तो हमने कितनी लम्बी मंजिलें पार कर ली होतीं। बेटे, हम अपने जीवन में एक निश्चित दिशा मे चलते हुए चले गये। भारतीय धर्म और भारतीय अध्यात्म को हमने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया, विषय बनाया। पिछले पचास सालों में। पन्द्रह साल तो ऐसे ही बट्टे खाते में चले गये। यह स्वर्ण जयंती वर्ष है। लगभग ७७ वर्ष होने को आते हैं। ५० वर्ष में हमने कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। व्यास जी ने जितने लम्बे समय में १८ पुराण लिखे होंगे, लगभग उतना ही समय हमको पुराणों का अनुवाद करने में लगा है, वेदों का अनुवाद करने में लगा है। व्यास जी की उम्र और हमारी उम्र बराबर है। व्यास जी ने जो काम किये थे, उनको तौल लें और हमारे काम को तौल लें। दोनों को तराजू पर रख लें। व्यास जी की मदर लैंग्वेज संस्कृत थी, इसलिए उन्होंने संस्कृत में लिख दिया। हमारी मदर लैंग्वेज हिन्दी है, इसलिए हम हिन्दी में लिखते रहते हैं। दोनों का पलड़ा बराबर है। दोनों को बराबर मेहनत पड़ी है। दोनों का श्रम बराबर पड़ा है। इसमें कोई फर्क नहीं है।
एकाग्रता का चमत्कार
अच्छा महाराज जी। तो आप व्यास जी के बराबर है? हाँ बेटे, हम दावा कर सकते हैं कि हम व्यास जी से बड़े हैं। व्यास जी को एक स्टेनोग्राफ़र मिला हुआ था। कौन? गणेश जी। व्यास जी बोलते चले जाते हैं और गणेश जी फटाफट लिखते चले जाते हैं। इधर बोलना शुरू होता है, उधर लिखना। डेढ़ घंटे में हम जितना बोलते हैं, उसे लिखना शुरू करिये, कितना समय लगेगा? जो हमने बोला है, उसे एक आदमी तीन दिन में लिखेगा। बोलने में व्यास जी फटाफट बोलते चले जाते थे और गणेश जी टाइप करते जाते थे, लेख बनाते जाते थे। अठारह पुराण दो आदमियों का लेबर है। बेटे हमारे पास तो कोई टाइपिस्ट नहीं है, कोई स्टेनो नहीं है। हमने अपने आप पढ़ा, अपने आप बोला, अपने आप लिखा। तो महाराज जी! आपमें व्यास जी से ज्यादा ताकत है? हाँ बेटे, ज्यादा ताकत है। हमने स्वयं मेहनत की है। यह कैसे कर ली? कैसे भी नहीं कर ली। एकाग्रता और एक दिशा। दूसरी तरफ न हमारा मन चला, न हमारा जी चला, न भटकाव आया। न हम इधर- उधर भटके। मुसीबतें अपने ढंग से आती रहीं, कठिनाइयाँ अपने ढंग से आती रहीं, लेकिन हम अपनी मंजिल पर आँख बंद करते हुए चलते चले गये।
देवता है मनोमय कोश
मित्रो! लोगों ने अपनी बातें कहीं, पर हम सबको नमस्कार करते हुए चले गये। अरे गुरुजी! आज तो रुक जाइये। नहीं बेटे, जरूरी काम है, हमको जाना है। अच्छा, तो चाय पी लीजिए। बेटे, अब तो चाय वहीं पियेंगे। खींचने वाले को, लुभाने वाले को, हर एक को, उठाने वाले, गिराने वाले, धमकाने वाले को हमने हरेक को नमस्कार किया और कहा कि हमें चलने दीजिए, लम्बी मंजिल पार करनी है। हमको अपनी दूरी पार करनी है। भटकाइए मत, रोकिए मत। बेटे, हम यहाँ तक चलते चले आये। यह क्या है? यह है मनोमय कोश की साधना, एकाग्रता की साधना। यह मनोमय कोश देवता है। इसके आशीर्वाद कितने हैं? बेटे, इसके इतने आशीर्वाद हैं कि देवी- देवता हमें क्या दे पायेंगे? गणेशजी जी, शिवजी, हनुमान् जी क्या दे पायेंगे? जब वे अपनी सेवा करने वाले पुजारियों को नहीं दे पाये, तो हमको क्या दे पायेंगे?
दो शक्तियाँ अपने भीतर
साथियो! चौथा वाला कोश है- हमारा विज्ञानमय कोश। हमारे भीतर दैवी और आसुरी- दो सत्ताएँ, दो शक्तियाँ काम करती हैं। अपने भीतर दोनों की रस्साकशी होती रहती है। दोनों अपनी- अपनी ओर खींचने के लिए इसी तरह काम करती रहती हैं, जैसे कि दो पार्टियाँ इलेक्शन में खड़ी हो गयी हैं। दोनों के प्रचारतंत्र मजबूत हो गये हैं। दोनों ने अपनी- अपनी बातें कहनी शुरू कर दी हैं। इन दोनों का का इलेक्शन अपने भीतर होता रहता है। दोनों की लड़ाई भीतर जमी रहती है। इनमें से एक असुर है और एक देव। अगर हम देव के पक्ष में वोट देना शुरू करें, देव का हम समर्थन शुरू करें, तो बेटे हमारे भीतर वे क्षमताएँ जाग्रत् हो सकती हैं, जो हमको स्वर्गीय जीवन जीने का आनन्द दे सकती हैं। इसी जीवन में हम देवताओं के तरीके से इसी शरीर में शानदार जीवनयापन कर सकते हैं।
पाँच विशेषताओं वाला विज्ञानमय कोश
मित्रो! विज्ञानमय कोश देवत्व का कोश है, जिसका फल है- स्वर्ग और जिसका परिणाम है- व्यक्तिगत जीवन में देवत्व का विकास। तो महाराज जी! चौथे वाले कोश के रूप में आप हमें साधना करायेंगे? हाँ, बेटे, ब्रह्मवर्चस में करायेंगे। देवत्व की दो धारायें हैं। देवता कैसा होता है? देवता का दृष्टिकोण दिव्य हो जाता है। सामान्य मनुष्यों का दृष्टिकोण बड़ा घटिया, बड़ा ओछा, बड़ा छोटा, बड़ा बचकाना, बड़ा कमीना, गया- गुजरा होता है। देवता वह है, जिसके अंदर दिव्यदृष्टि होती है। दिव्यदृष्टि किसे कहते हैं? दूर की दृष्टि, श्रेष्ठता की दृष्टि, विवेक की दृष्टि को दिव्यदृष्टि कहते हैं। जिसके सोचने के तरीके, विचार करने के तरीके- सब ऊँचे किस्म के होते हैं, घटिया किस्म के नहीं होते हैं, उनका नाम देवता है। देवता की पाँच विशेषताएँ बतायी गयी हैं। पाँच कोशों में हमारा एक यह भी देवता है। कौन? विज्ञानमय कोश। विज्ञानमय कोश के पाँच देवता हैं। इसके पाँच मुँह हैं।
मित्रो! विज्ञानमय कोश के उसी तरह पाँच मुँह हैं, जिस तरह गायत्री माता के पाँच मुँह हैं। हनुमान् जी के भी पाँच मुँह होते हैं। यहाँ परमार्थ आश्रम के बगल में, जहाँ हमारा ब्रह्मवर्चस है, उसके बगल में एक मंदिर में एक हनुमान् जी हैं। उनके पाँच मुँह हैं। अच्छा साहब! और किसके हैं? और बेटे शंकर जी के पाँच मुँह होते हैं। शंकर जी का एक नाम पंचानन भी है। उनके पाँच मुँह होते हैं। गायत्री माता के भी पाँच मुँह होते हैं। पाँच मुँह हर देवता के होते हैं। पाँच मुँह से मतलब है- पाँच विशेषताएँ। अगर हमारे दृष्टिकोण में ये पाँच विशेषताएँ आ जायें, तो हम आप्तकाम हो जायें, देवता हो जायें। देवलोक में क्या होता है? कल्पवृक्ष होता है। कल्पवृक्ष किसे कहते हैं? उसे कहते हैं जिसके नीचे बैठकर हर चीज, हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है। देवता की हर मनोकामना पूरी हो जाती है। कामना की दृष्टि से कोई परेशानी नहीं पड़ती।
हविश आज तक किसी की पूरी नहीं हुई
बेटे, जिसको आप सांसारिक कामना कहते हैं, वह जलती हुई आग है, जो आज तक किसी की पूरी नहीं हुई और न कभी किसी की पूरी हो सकती है। एक कामना खतम नहीं हो पाती कि दूसरी कामना हावी हो जाती है। जब तक हम बी.ए. पास नहीं कर पाते, डिग्री नहीं प्राप्त कर पाते, तब तक एम.ए. की ललक तैयार हो जाती है। शादी हो करके जब तक खुशी मनाने का मौका आ नहीं पाता, तब तक बच्चे की हविश खड़ी हो जाती है। कन्या हो गई, तो बेटे की हविश हो जाती है। हजार रुपये हमने कमा लिए, तो दो हजार की हविश कायम हो जाती है। हविश उस वक्त तक समाप्त नहीं हो सकती, जब तक सारी दुनिया की सारी दौलत एक आदमी के चरणों में न आ जाय। चाहे सारी दुनिया की दौलत को कमाने वाले का नाम सिकन्दर हो, रावण हो, या हिरण्यकशिपु। कोई चैन मिला था क्या उन्हें? किसी को चैन नहीं मिला। शान्ति मिली? किसी को शान्ति नहीं मिली। तो फिर कल्पवृक्ष से मनोकामनाएँ कैसे पूरी हो सकती हैं? मनोकामना में बेटे, दृष्टिकोण बदल जाता है। दृष्टिकोण में भौतिक इच्छाएँ जो हैं, हमें खा डालती हैं। कहा भी गया है- ‘‘भोगा न भुक्ता वयमेव भोक्ता’’ अर्थात् भोगों को हम भोग नहीं पाये, लेकिन भोगों ने हमको भोग लिया। इच्छाओं को हम पूरा नहीं कर पाये, पर इच्छाओं ने हमको खा लिया।
इच्छाओं का स्वर बदल दें
मित्रो! इच्छाओं का स्तर अगर बदल दिया जाय, तो हमारी इच्छाएँ वह हो सकती हैं, जो मानवीय महानता से सम्बन्ध रखती हैं। हम ईमानदार बनेंगे, चरित्रवान बनेंगे, लोकसेवी बनेंगे, सैनिक बनेंगे, इसमें क्या रुकावट है? बताना जरा? नहीं साहब! एक मकान बनायेंगे। तो जाइये, बीमा कंपनी में दरख्वास्त दीजिए कि हमारा बीमा है और हमको पच्चीस हजार रुपया कर्ज दे दीजिए। महाराज जी! मंजूर हो जायेगा? बेटे, हम कह नहीं सकते, शायद हो भी सकता है। गवर्नमेन्ट के यहाँ लोन के लिए दरख्वास्त दीजिए। साथियों से माँगिए, बहनोई से माँगिए, साले से माँगिए कि साहब बीस हजार दे दीजिए। शायद हमारा मकान बन जाये। बेटे, हम कह नहीं सकते कि मकान बन जायेगा कि नहीं बन जायेगा। इसी जिंदगी में बनेगा कि मरने के बाद बनेगा, पर आपकी यह इच्छा सेकण्डों में पूरी हो सकती है कि हम चरित्रवान बनेंगे, ईमानदार बनेंगे। एक सेकेण्ड में आप वाल्मीकि के तरीके से डाकू हो करके भी यह फैसला कर लें कि हमको डाकू नहीं, संत बनकर जीना है। आप तुरंत महर्षि वाल्मीकि बन सकते हैं और एक सेकेण्ड में बन सकते हैं। इसमें कोई रुकावट नहीं है। श्रेष्ठ बनने में कोई रुकावट नहीं है। आपकी श्रेष्ठता की सारी मनोकामनाएँ आज ही पूरी हो सकती हैं, अभी पूरी हो सकती हैं।
हर आदमी मालदार है
मित्रो! देवत्व की निशानियाँ मनोकामना की पूर्ति है। सारे के सारे देवता कल्पवृक्ष के नीचे रहते हैं और उनका जीवन गोरा, सुंदर हँसता हुआ और हँसाता हुआ रहता है। देवता वे हैं, जो लेने की अपेक्षा देने का अहसास करते रहते हैं और देने का जो आनन्द है, संतोष है, वह हर वक्त, हर घड़ी उनको मिलता रहता है। क्यों साहब! पैसा नहीं हो, तब? तो हम कैसे देंगे। बेटे, मैं पैसे की नहीं कहता हूँ। पैसा बड़ी वाहियात चीज है। पैसे जिनके पास जमा हैं, वे भी मुसीबत में मर रहे हैं और जिनको यह पैसा देंगे, उनकी भी आफत आ जायेगी। पैसा सबसे घटिया वाली संपदा है। काफी संपदाएँ हमारे पास हैं। अकल की संपदा, श्रम की संपदा, मन की संपदा, भावनाओं की संपदा- ये संपदाएँ हर आदमी के पास पूरी तरह से भरी पड़ी हैं। हर आदमी कुबेर की तरह से मालदार है।
देवता बनें
मित्रो! आप चाहें तो दूसरों को मोहब्बत दे सकते हैं, दूसरों को दिशा दे सकते हैं, दूसरों को मिठास दे सकते हैं। आप दूसरों की सेवा कर सकते हैं। आप दूसरों की सहायता कर सकते हैं। आप जाने क्या- क्या कर सकते हैं। किसके लिए? देने के लिए। आप अपनी बीबी को प्यार दे सकते हैं, अपने बच्चे को संस्कार दे सकते हैं। अपने पड़ोसी को सहकार दे सकते हैं। देने के असंख्य तरीके हैं। देने पर आदमी उतारू हो जाय, तो उसके पास देने को असंख्य चीजें हैं। देवता उन्हें कहते हैं, जो देने वाले होते हैं।
पंचकोशों का जागरण करें, सिद्धियाँ पाएँ
इससे पूर्व आपने फरवरी २०१० की अखण्ड ज्योति में पढ़ा कि मन को एक कल्पवृक्ष बताते हुए पूज्यवर ध्यान करने की कला सिखा रहे हैं। मनोमय कोश की जागृति का ही परिणाम था कि वे युगव्यास की भूमिका निभा पाए। विज्ञानमय कोश चौथे नंबर पर आता है। यह देवत्व के अभिवर्धन का कोश है, जिसके परिणाम स्वरूप वातावरण स्वर्ग जैसा बनता है। गुरुदेव कहते हैं कि हविश आज तक किसी की पूरी नहीं हुई। जरूरत यही है कि हम अपनी इच्छाओं का स्तर बदल दें। देखा जाय तो हर आदमी मालदार है। उसके पास अगणित सम्पदाएँ हैं जिन्हें देकर वह देवता बन सकता है। अब आगे इसी विज्ञानमय कोश की सिद्धि एवं आनंदमय कोश के जागरण की परिणति के विषय में पढ़े।
देवत्व क्या है?
मित्रो! देवत्व का विकास कर सकना हमारे लिए विज्ञानमय कोश में संभव है। हम यह कोशिश करेंगे कि आपके अंदर देवत्व के गुण पैदा हो जायें तथा आपके अंदर लेने वाली वृत्ति, दानव की वृत्ति, असुर की यह वृत्ति कि जो कुछ भी, जहाँ भी मिले, उसी को हजम करते चले जायें, वह समाप्त होती चली जाय। नहीं साहब! हम साईं बाबा से लेते चलें, संतोषी माता से लेते चलें, आचार्य जी से लेते चलें, गणेश जी से लेते चलें। जो कोई भी चंगुल में फँस जाय, उसका कचूमर बनाते चलें। बेटे, यह देवत्व की वृत्ति नहीं है।
देने का सुख
देवत्व उसे कहते हैं कि जहाँ कहीं भी हम जाते हैं, यह वृत्ति लेकर जाते हैं कि दे करके आयेंगे। मन दे करके आयेंगे, दान देकर के आयेंगे, श्रद्धा, भावना देकर के आयेंगे। किसी को खुशी देने का संतोष कभी आपने चखा ही नहीं है? मैं कैसे कहूँ, कैसे समझाऊँ? लेने का सुख तो आपने पाया है, लेकिन देने का भी सुख कभी आपने पाया है क्या? किसी को कुछ दिया भी है कभी? प्रेम दिया है किसी को? सहायता दी है? श्रद्धा दी है? समाज को कुछ दिया है? दे करके देखिये और यह पाइये कि कितना ज्यादा संतोष मिलता है मनुष्य को। आदमी अगर यह संतोष प्राप्त कर सकता है, तो उस संतोष को पी- पी करके, संतोष को खा- खा करके आदमी देवता बन सकता है। देवता जहाँ कहीं भी रहते हैं, स्वर्ग लोक में निवास करते हैं। देवता का निवास स्वर्ग में रहता है। संत इमरसन हमेशा यह कहा करते थे कि मुझे नरक में भेज दो, मैं वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा। आप अपना स्वर्ग बना सकते हैं। स्वर्ग कोई बना हुआ नहीं है, वह बनाया जाता है।
ऐसे स्वर्ग से मुझे घृणा है
महाराज जी! स्वर्ग कहाँ है। बेटे, हमें नहीं मालूम है। आपने स्वर्ग देखा है? हमें नहीं मालूम है। पुराणों में जो किस्से- कहानियाँ सुने हैं, उससे हमको घृणा हो गयी है। मुसलमानों से सुना है कि वहाँ शराब की नदियाँ बहती हैं और सत्तर हूर और बहत्तर गुलफाम मिलते हैं। बेटे, मैंने तो नमस्कार कर लिया है कि मैं तो स्वर्ग को जाऊँगा नहीं। अपने बदले किसी और को भेज दूँगा। मेरा तो सिनेमा का फोकट का टिकट आया, तो कहूँगा कि मैं तो जाता नहीं, मेरे बदले का तू देख आ। स्वर्ग में, मैं क्या करूँगा। शराब की नहरें वहाँ हैं, जो पीने को मिलेंगी और हूर मिलेंगी, गुलफाम मिलेंगे, तो मैं उनका क्या करूँगा, बताना तो सही? अपने कमरे में मैं झाड़ू लगा लेता हूँ। बहत्तर गुलफाम मिलेंगे, तो मैं उनसे क्या काम कराऊँगा? वे सब मुझे तंग करेंगे। और जो सत्तर हूरें मिलेंगी, तो बता मैं उनका क्या करूँगा? और शराब की जो नहरें मिलेंगी, बेटे मैं उस नहर का क्या करूँगा? कोई बीड़ी पीता है और मुझे उसका धुआँ लग जाय, तो उल्टी आने लगती है। जब वहाँ शराब की गंध मिलेगी और उसमें से अल्कोहल ही अल्कोहल उड़ेगा, तो मैं वहाँ रह करके क्या करूँगा? मुझे ऐसे स्वर्ग से घृणा हो गयी।
पण्डितों का घटिया स्वर्ग
मित्रो! मौलवी साहब से मैंने कह दिया कि मेरे नाम का अगर स्वर्ग का टिकट आवे, तो आप ही ले लेना। मैं वहाँ नहीं जाता। और पंडित जी से भी मैंने कह दिया है कि स्वर्ग लोक का कभी बुलावा आवे, तो मेरी ओर से रिफ्यूज कर देना और कह देना कि गुरुजी मकान में नहीं हैं। बाहर चले गये हैं और उनका नाम- पता हमारे पास नहीं है। सम्मन आवे तो मेरे मकान पर चिपका देना और यह लिख देना कि पाने वाला मिला नहीं और उस स्वर्ग के वारंट पर ‘रिफ्यूज’ लिख देना। मित्रो! मैंने स्वर्ग को रिफ्यूज कर दिया कि मैं वहाँ नहीं जाना चाहता। पंडितों ने जो स्वर्ग बनाया है, वह बड़ा घटिया स्वर्ग है। कैसा है? उनके यहाँ भी वही चक्कर है। वहाँ कल्पवृक्ष के नीचे मजा उड़ाने के लिए मिलेगा, खाना खाने के लिए मिलेगा। इन्द्र देवता के यहाँ नाच देखने को मिलेगा। बेटे, मैं वहाँ नहीं जाता। न मेरे पास टाइम है, न फुर्सत है। नाच देख करके मैं क्या करूँगा? मेरे पास इतने सारे काम पड़े हैं, उन कामों को समेटूँगा या नाच देखूँगा। अरे साहब! वहाँ तो चौबीसों घंटे नाच होता है। नहीं बेटे, हम वहाँ नहीं जा रहे हैं।
स्वर्गीय वातावरण बनाया जाता है
मित्रो। स्वर्ग किसे कहते हैं? स्वर्ग उसे कह सकते हैं, जिसमें आदमी को असीम संतोष मिलता रहता है। संतोष वहाँ मिलता रहता है, जहाँ मोहब्बत की धारायें प्रवाहित होती रहती हैं। जब हम एक दूसरे के लिए सहकारिता की, सहायता की वृत्ति को लेकर के चलते हैं, तो हमारा वातावरण स्वर्गीय बन जाता है। स्वर्गीय वातावरण बनाने के लिए, स्वर्ग पैदा करने के लिए हमारी वृत्तियों में उदारता का समावेश होना चाहिए। उदारता की यह वृत्ति हमारे मन में जितनी अधिक होती जाती है, उतना ही हमारा वातावरण स्वर्गीय बनता जाता है और हम देवत्व को विकसित करते चले जाते हैं। देवत्व के कितने ही लाभ हैं। देवता त्रिकालदर्शी होते हैं। देवता आशीर्वाद दे सकते है। देवता वरदान दे सकते हैं। देवत्व का जैसे- जैसे हमारे भीतर विकास होता जाता है, सिद्धियों की दृष्टि से, चमत्कारों की दृष्टि से हम अपने आप में एक बड़े महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन जाते हैं।
अस्तित्व है एक सूक्ष्म जगत का
मित्रो! हमारे भीतर एक सूक्ष्म जगत् है। नहीं महाराज जी। सूक्ष्म जगत् नहीं होता, ये सब गप्पें हैं। बेटे, सूक्ष्म जगत् गप्प नहीं है। अभी- अभी साइंस ने- विज्ञान ने एक नयी धारा, नयी दिशा बना करके हमको दी है। क्या दिया है? एण्टी यूनीवर्स, एण्टी मैटर, एण्टी एटम आदि। ये क्या हैं? बेटे, जैसे हम खड़े हुए हैं, उसी तरह हमारे पीछे एक भूत रहता है। गुरुजी! कैसा भूत रहता है? बेटे, अभी हम धूप में खड़े हो जायेंगे और आपको छाया के तरीके से हमारे पीछे एक भूत दीखेगा। महाराज जी! भूत हैं? हाँ बेटे, भूत हैं। बेटे जब हम नहीं रहेंगे इस शरीर में, तब हमारा एक भूत आयेगा और घरवालों को तंग करेगा कि लाओ हमारा तर्पण करो। अच्छा तो रहता है भूत? हाँ बेटे, रहता तो है। यह जो विश्व है, इसके ठीक पीछे छाया के तरीके से एक एण्टी यूनीवर्स है।
एण्टी यूनीवर्स एक वास्तविकता
साथियो! अब हम आपसे अध्यात्मवाद की बात नहीं कह रहे हैं। साइंटिस्टों के हिसाब से, नये साइंस के हिसाब से कह रहे हैं कि एक ऐसा एण्टी यूनीवर्स है, एण्टी मैटर है। इसके पीछे एक ऐसा रिएक्शन है, जो यह कहता है कि अगर यह रिएक्शन हमारे हाथ में, हमारे काबू में आ गया, तो आदमी के हाथ में दैत्य की शक्ति आ जायेगी। फिर आदमी इतना बड़ा होगा कि जैसे हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष, जो बगल में पृथ्वी को दबाकर भाग गया था। अगर आदमी भी भाग जाये, तो अचम्भे की बात मत मानना। एण्टी मैटर, एण्टी यूनीवर्स, एण्टी एटम जैसे पदार्थों के बारे में कितनी चर्चा होती है। इसके बारे में अखण्ड ज्योति में लिख चुका हूँ। यह मजाक नहीं है, वास्तविकता है।
मित्रो! स्थूल के पीछे सूक्ष्म काम करता है। हमारा शरीर स्थूल है। इसके भीतर एक सूक्ष्म शरीर काम कर रहा है। स्थूल जगत् के पीछे एक सूक्ष्म जगत् काम कर रहा है। जो कुछ भी हो रहा है, वह सब सूक्ष्म की प्रक्रियाओं से हो रहा है। दूरदर्शन से लेकर अतीन्द्रिय क्षमताओं तक जितनी विशेषताएँ हैं, सब सूक्ष्म में से आती हैं। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद हम सूक्ष्म जगत् में चले जाते हैं। सूक्ष्म जगत् में हम रहते थे और उसी सूक्ष्म जगत् में हमारा विलय हो जाता है। मुद्दतों तक हम सूक्ष्म जगत् में पड़े रहते हैं। फिर हम थोड़े दिनों के लिए स्थूल जगत् में आ जाते हैं और फिर से सूक्ष्म में विलीन हो जाते हैं। यह सूक्ष्म जगत् भी ऐसा ही है, जैसे कि हमारा स्थूल जीवन। बेटे, अभी सूक्ष्म जगत् के साथ हमारा कोई सम्पर्क नहीं है, कोई सम्बन्ध नहीं है।
विज्ञानमय कोश के जागरण की फलश्रुति
मित्रो! सूक्ष्म जगत् के साथ सम्बन्ध मिलाने के लिए हमारा विज्ञानमय कोश जब जाग्रत् होता है, तो हमारी वे क्षमताएँ विकसित हो जाती हैं। अभी जो कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता, जो कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता, जो जाना नहीं जा सकता। न जानने वाले उस विश्व के साथ क्या संपर्क मिला पायें, जान पायें और जरूरत के वक्त हम उसका इस्तेमाल भी कर सकें, यह सब विज्ञानमय कोश के जागरण से संभव है। मित्रो! जान लेना ही काफी नहीं है। सूक्ष्म जगत् को, जिसको हम दैवी शक्तियाँ कहते हैं, देवताओं की शक्तियाँ कहते हैं, भगवान् की शक्तियाँ कहते हैं। ब्रह्मा की शक्तियाँ कहते हैं और न जाने क्या- क्या शक्तियाँ कहते हैं। जिस तरीके से हवा में प्रकाश की शक्ति और दूसरी दिव्य शक्तियाँ काम करती हैं, ऐसे ही सूक्ष्म जगत् की इन दिव्य शक्तियों का भी हम अपने आप में व्यवहार कर सकें, इसका नाम है- विज्ञानमय कोश।
हमारे भीतर है एण्टीना
विज्ञानमय कोश की क्षमताओं को विकसित करने के लिए कई मशीनें, कई एण्टीना हमारे भीतर काम करते हैं। कौन- कौन से एण्टीना कार्य करते हैं? एक आज्ञाचक्र काम करता है, हृदयचक्र काम करता है और एक नाभिचक्र काम करता है। तीन बड़े- बड़े एण्टीना हमारे भीतर लगे हुए हैं, जो क्या से क्या कैच कर सकते हैं। अभी देहरादून में एक बहुत बड़ा एण्टीना का उद्घाटन होने जा रहा है। आज तारीख क्या है? तेईस। पच्चीस तारीख को होने जा रहा है। इंदिरा गाँधी आने वाली है। एक इतना बड़ा एण्टीना लगा है कि उसके माध्यम से आप फ्रांस का टेलीविजन देखिए और दूसरी जगह के टेलीविजन देखिए। पहले जो एण्टीना लगाया, उससे काम नहीं चलता था। हरिद्वार में तो वह काम भी नहीं करता था। अब यहाँ भी आ जायेगा। मसूरी का टेलीविजन देखिये, दूसरे देशों का टेलीविजन देखिए, दिल्ली का टेलीविजन देखिए। अपनी लड़कियों के लिए एक टेलीविजन हम भी मँगा रहे हैं। हमारी लड़कियाँ भी देखेंगी। यहाँ का देखेंगी, विदेशों के समाचार सुनेंगी। बस, एक टेलीविजन यहाँ भी आ जायेगा।
मित्रो! एक एण्टीना हमारे भीतर लगा हुआ है, जिसके भीतर राडार की शक्ति, बोलने की शक्ति, दिव्य दर्शन की शक्ति है। संजय को जिस तरीके से महाभारत की सारी घटनाएँ दिखाई दी थीं, थोड़े दिन पीछे संजय की दृष्टि से ये लड़कियाँ भी टेलीविजन देखेंगी। मित्रो! हमारा जो मूल एण्टीना है, उसके माध्यम से हम सारे के सारे विश्व का न जाने क्या से क्या देख और क्या से क्या सुन सकते हैं। सिद्धियों की दृष्टि से विज्ञानमय कोश के द्वारा हम सिद्ध पुरुष बन सकते हैं। विज्ञानमय कोश कैसे जगाया जा सकता है, इसकी थोड़ी- सी जानकारियाँ अभी हमने पत्रिकाओं में दी हैं। पीछे फिर आपको बतायेंगे कि धीरे- धीरे आप किस तरीके से इस ओर अपनी सामर्थ्य को बढ़ा सकते हैं।
आनन्द का स्रोत है आनन्दमय कोश
मित्रो! अन्त में आनन्दमय कोश आता है। हमारे भीतर एक आनन्द का स्रोत भरा हुआ पड़ा है। हमारे भीतर एक ब्रह्मलोक भरा हुआ पड़ा है, जिसको हम ब्रह्मरंध्र कहते हैं। इसमें क्षीरसागर है, जिसमें विष्णु भगवान् सोये हुए हैं। क्षीर सागर में भगवान् विष्णु कहाँ रहते हैं? बेटे, इसी में रहते हैं। यह जो ग्रे मैटर है, यही क्षीर सागर है। इसके भीतर जो सहस्रार चक्र है, वही हजार फन वाला साँप है। इसी के भीतर मानसरोवर है। इसी के भीतर जो सहस्रार चक्र है, वह कैलाश पर्वत कहलाता है। सारे के सारे ब्रह्मलोक, ब्रह्माण्ड की ध्रुव सत्ता, जैसे कि पृथ्वी का ध्रुव है- उत्तरी ध्रुव आदि सभी अन्तर्ग्रही शक्तियों को यह केन्द्र ग्रहण करता है और दक्षिण ध्रुव में से निकालकर फेंक देता है। पृथ्वी के ध्रुव तक ये चीजें नहीं जातीं। इसमें से जो भी हवा, ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी दैवीय, भौतिक, अभौतिक तीनों तरह की क्षमताएँ हैं, हम उनको ब्रह्माण्ड में से ग्रहण कर सकते हैं। शरीर में धारण कर सकते हैं। ऐसा भी कर सकते हैं कि जरूरत भर की रख सकते हैं और बिना जरूरत के निकाल कर बाहर फेंक सकते हैं।
ब्रह्मविद्या का मर्म है यह
मित्रो! सहस्रार चक्र का जागरण हमारे आनन्दमय कोश से संबंधित है। यह हमारी अंतःविद्या है। यह हमारी अध्यात्म विद्या है। यह हमारी ब्रह्मविद्या है। परोक्षवाद के ढंग से नहीं, कहानियों के माध्यम से नहीं, वरन् साइन्टिफिक ढंग से- वैज्ञानिक ढंग से, प्रत्यक्षवाद के ढंग से आप इन्हें व्यवहार में किस तरीके से सारी की सारी अपनी पाँचों विभूतियों को कैसे काम में ला सकते हैं और कैसे विकसित कर सकते हैं? इससे सामान्य जीवन को असामान्य कैसे बना सकते हैं? मनुष्य में देवत्व की झाँकी कैसे कर सकते हैं? व्यक्ति को श्रेष्ठ मनुष्य कैसे बना सकते हैं? यह सारी की सारी ब्रह्मविद्या की शिक्षा, ब्रह्मतेज की शिक्षा आपको ब्रह्मवर्चस के माध्यम से देंगे।
करें पंचकोशों का जागरण
मित्रो! पंचकोशों का जागरण मूलभूत बात है। पंचकोश किस तरीके से जाग्रत हो सकते हैं? पाँच दूत, पाँच देव, पाँच नौकर, जो आपके भीतर समाये हुए हैं, इनको योग्यतर एवं बलवान् बना करके अपने काम में ला करके आप किस तरीके से बड़े आदमी बन सकते हैं। यह सारी की सारी शिक्षा अध्यात्मवाद के नाम से प्राचीनकाल के ऋषियों ने वैज्ञानिक ढंग से जो दी थी, वही हम भी करेंगे। हमारा प्रयास है कि आपको पाँच कोशों का जागरण करने की विधियाँ बतायें और जितना भी आपकी चलने की ताकत हो, उस हिसाब से आगे चलायें और धीरे- धीरे चलते हुए आप वहाँ पहुँच जायें जहाँ हमारे ऋषि- मुनि पहुँचे थे। आप उसी रास्ते पर चला करें, बस इसी तरह का हमारा यह प्रयास है।
आज की बात समाप्त।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो, भाइयो!
कल मैं आपको पंचकोशों की चर्चा के दौरान तीसरे कोश की मनोमय कोश की बात बता रहा था। यह सबसे बड़ा देवता भी है और असुर भी। इसे साध लिया जाय, परिष्कृत कर लिया जाय, तो यह कल्पवृक्ष है, अन्यथा फिर आप कुछ भी कह लीजिए। मन को साधने का सरल तरीका है— एकाग्रता का अभ्यास करना। मित्रो! हमारे जीवन में एकाग्रता की कला, एक निष्ठा की कला, एक चिंतन की कला होनी ही चाहिए। हमें एकाग्रता का चिंतन उसी तरह से करना चाहिए। कैसे करना चाहिए? यह मैं आपकी विधियों को देख करके, मनःस्थिति को देख करके बताता हूँ कि आपका मन किस तरह का है और किस काम में एकाग्र किया जा सकता है? कौन से आपके रुचि के विषय हैं और किस रुचि के विषय में उसे लगाया जा सकता है? चलिए, मैं उदाहरण देकर समझाता हूँ। ध्यान करने में हमेशा सुन्दर चीजों का ध्यान कराया जाता है। क्यों साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ऐसे ही सुन्दर थे? नहीं बेटे, ऐसे नहीं थे। तो कैसे थे श्रीकृष्ण भगवान्? आप ही बताइये?
ध्यान कैसे करें?
मित्रो! हो सकता है, श्रीकृष्ण भगवान् ऐसे रहे हों- काले से और ऐसा छोटा सा मुँह, छोटी- छोटी आँखें। अगर भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे रहे हों, तो क्या पता चलता है? महाराज जी! हमने तो बहुत सुन्दर देखे हैं। हाँ बेटे। आपने सुन्दर देखे हैं। उसी सुन्दरता को लेकर हम अपने मन को एकाग्रता के केन्द्र पर एकत्रित करते हैं। जो चीजें दृष्टि के साथ मन को एकाग्रता के केन्द्र पर एकत्रित करते हैं। जो चीजें दृष्टि के साथ सुन्दर लगें, उन्हीं पर मन को केन्द्रित किया जाता है। देवी, देवता इसलिए सुन्दर बनाये जाते हैं, ताकि उनके सौंदर्य में अथवा दूसरी चीजों अथवा उसका प्रिय भाग, जो भी हो, जिसमें आपका मन तन्मय होता चला जाय। कैसे तन्मय होता चला जायेगा? कैसे एकाग्रता आती चली जायेगी? जिस एकाग्रता की वजह से भाप कमाल दिखाती है। भाप जब चारों ओर फैलती रहती है, तब उससे कोई काम नहीं चलता। भाप जब एकाग्र हो जाती है, तो क्या हो जाता है? तब प्रेशर कुकर मिनटों के भीतर उसी भाप से खाना पका देता है। उसी भाप से रेल के इंजन चालू हो जाते हैं। उसी भाप से न जाने क्या- क्या हो जाता है। भाप की ताकत बहुत बड़ी है, लेकिन जब वह फैलती है, तो उसकी ताकत क्या हो सकती है? कुछ नहीं। बारूद को जब हम इकट्ठा कर देते हैं, बारूद की ताकत कितनी बड़ी हो जाती है कि वह बंदूक की गोली को सनसनाती हुई ले जाती है। अगर उसका बारूद निकालकर उस बारूद को जमीन पर फैला दें, और दियासलाई लगा दें, तो वह भक्क हो जायेगा, फुस्स हो जायेगा। लेकिन वही बारूद जब कारतूस में भर दिया जाता है, तो शेर को मार सकता है, हाथी को मार सकता है। फैली हुई बारूद में न आवाज होगी, न गोली चलेगी, बस धुआँ देकर, हवा देकर वह फुस्स से निकल जायेगी।
युग व्यास हैं हम
मित्रो! हमारी जिंदगी में बिखराव ही बिखराव भरा पड़ा है। सारी जिंदगी भर बिखराव रहा, न कोई दिशा रही, न कोई धारा रही, न कोई लक्ष्य रहा, न कोई हँसी का विषय रहा। कभी इधर, कभी उधर, कभी पूजा, कभी पैसा, कभी यह, कभी वह। एक दिशा में अगर हम चलते हुए चले गये होते, तो हमने कितनी लम्बी मंजिलें पार कर ली होतीं। बेटे, हम अपने जीवन में एक निश्चित दिशा मे चलते हुए चले गये। भारतीय धर्म और भारतीय अध्यात्म को हमने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया, विषय बनाया। पिछले पचास सालों में। पन्द्रह साल तो ऐसे ही बट्टे खाते में चले गये। यह स्वर्ण जयंती वर्ष है। लगभग ७७ वर्ष होने को आते हैं। ५० वर्ष में हमने कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। व्यास जी ने जितने लम्बे समय में १८ पुराण लिखे होंगे, लगभग उतना ही समय हमको पुराणों का अनुवाद करने में लगा है, वेदों का अनुवाद करने में लगा है। व्यास जी की उम्र और हमारी उम्र बराबर है। व्यास जी ने जो काम किये थे, उनको तौल लें और हमारे काम को तौल लें। दोनों को तराजू पर रख लें। व्यास जी की मदर लैंग्वेज संस्कृत थी, इसलिए उन्होंने संस्कृत में लिख दिया। हमारी मदर लैंग्वेज हिन्दी है, इसलिए हम हिन्दी में लिखते रहते हैं। दोनों का पलड़ा बराबर है। दोनों को बराबर मेहनत पड़ी है। दोनों का श्रम बराबर पड़ा है। इसमें कोई फर्क नहीं है।
एकाग्रता का चमत्कार
अच्छा महाराज जी। तो आप व्यास जी के बराबर है? हाँ बेटे, हम दावा कर सकते हैं कि हम व्यास जी से बड़े हैं। व्यास जी को एक स्टेनोग्राफ़र मिला हुआ था। कौन? गणेश जी। व्यास जी बोलते चले जाते हैं और गणेश जी फटाफट लिखते चले जाते हैं। इधर बोलना शुरू होता है, उधर लिखना। डेढ़ घंटे में हम जितना बोलते हैं, उसे लिखना शुरू करिये, कितना समय लगेगा? जो हमने बोला है, उसे एक आदमी तीन दिन में लिखेगा। बोलने में व्यास जी फटाफट बोलते चले जाते थे और गणेश जी टाइप करते जाते थे, लेख बनाते जाते थे। अठारह पुराण दो आदमियों का लेबर है। बेटे हमारे पास तो कोई टाइपिस्ट नहीं है, कोई स्टेनो नहीं है। हमने अपने आप पढ़ा, अपने आप बोला, अपने आप लिखा। तो महाराज जी! आपमें व्यास जी से ज्यादा ताकत है? हाँ बेटे, ज्यादा ताकत है। हमने स्वयं मेहनत की है। यह कैसे कर ली? कैसे भी नहीं कर ली। एकाग्रता और एक दिशा। दूसरी तरफ न हमारा मन चला, न हमारा जी चला, न भटकाव आया। न हम इधर- उधर भटके। मुसीबतें अपने ढंग से आती रहीं, कठिनाइयाँ अपने ढंग से आती रहीं, लेकिन हम अपनी मंजिल पर आँख बंद करते हुए चलते चले गये।
देवता है मनोमय कोश
मित्रो! लोगों ने अपनी बातें कहीं, पर हम सबको नमस्कार करते हुए चले गये। अरे गुरुजी! आज तो रुक जाइये। नहीं बेटे, जरूरी काम है, हमको जाना है। अच्छा, तो चाय पी लीजिए। बेटे, अब तो चाय वहीं पियेंगे। खींचने वाले को, लुभाने वाले को, हर एक को, उठाने वाले, गिराने वाले, धमकाने वाले को हमने हरेक को नमस्कार किया और कहा कि हमें चलने दीजिए, लम्बी मंजिल पार करनी है। हमको अपनी दूरी पार करनी है। भटकाइए मत, रोकिए मत। बेटे, हम यहाँ तक चलते चले आये। यह क्या है? यह है मनोमय कोश की साधना, एकाग्रता की साधना। यह मनोमय कोश देवता है। इसके आशीर्वाद कितने हैं? बेटे, इसके इतने आशीर्वाद हैं कि देवी- देवता हमें क्या दे पायेंगे? गणेशजी जी, शिवजी, हनुमान् जी क्या दे पायेंगे? जब वे अपनी सेवा करने वाले पुजारियों को नहीं दे पाये, तो हमको क्या दे पायेंगे?
दो शक्तियाँ अपने भीतर
साथियो! चौथा वाला कोश है- हमारा विज्ञानमय कोश। हमारे भीतर दैवी और आसुरी- दो सत्ताएँ, दो शक्तियाँ काम करती हैं। अपने भीतर दोनों की रस्साकशी होती रहती है। दोनों अपनी- अपनी ओर खींचने के लिए इसी तरह काम करती रहती हैं, जैसे कि दो पार्टियाँ इलेक्शन में खड़ी हो गयी हैं। दोनों के प्रचारतंत्र मजबूत हो गये हैं। दोनों ने अपनी- अपनी बातें कहनी शुरू कर दी हैं। इन दोनों का का इलेक्शन अपने भीतर होता रहता है। दोनों की लड़ाई भीतर जमी रहती है। इनमें से एक असुर है और एक देव। अगर हम देव के पक्ष में वोट देना शुरू करें, देव का हम समर्थन शुरू करें, तो बेटे हमारे भीतर वे क्षमताएँ जाग्रत् हो सकती हैं, जो हमको स्वर्गीय जीवन जीने का आनन्द दे सकती हैं। इसी जीवन में हम देवताओं के तरीके से इसी शरीर में शानदार जीवनयापन कर सकते हैं।
पाँच विशेषताओं वाला विज्ञानमय कोश
मित्रो! विज्ञानमय कोश देवत्व का कोश है, जिसका फल है- स्वर्ग और जिसका परिणाम है- व्यक्तिगत जीवन में देवत्व का विकास। तो महाराज जी! चौथे वाले कोश के रूप में आप हमें साधना करायेंगे? हाँ, बेटे, ब्रह्मवर्चस में करायेंगे। देवत्व की दो धारायें हैं। देवता कैसा होता है? देवता का दृष्टिकोण दिव्य हो जाता है। सामान्य मनुष्यों का दृष्टिकोण बड़ा घटिया, बड़ा ओछा, बड़ा छोटा, बड़ा बचकाना, बड़ा कमीना, गया- गुजरा होता है। देवता वह है, जिसके अंदर दिव्यदृष्टि होती है। दिव्यदृष्टि किसे कहते हैं? दूर की दृष्टि, श्रेष्ठता की दृष्टि, विवेक की दृष्टि को दिव्यदृष्टि कहते हैं। जिसके सोचने के तरीके, विचार करने के तरीके- सब ऊँचे किस्म के होते हैं, घटिया किस्म के नहीं होते हैं, उनका नाम देवता है। देवता की पाँच विशेषताएँ बतायी गयी हैं। पाँच कोशों में हमारा एक यह भी देवता है। कौन? विज्ञानमय कोश। विज्ञानमय कोश के पाँच देवता हैं। इसके पाँच मुँह हैं।
मित्रो! विज्ञानमय कोश के उसी तरह पाँच मुँह हैं, जिस तरह गायत्री माता के पाँच मुँह हैं। हनुमान् जी के भी पाँच मुँह होते हैं। यहाँ परमार्थ आश्रम के बगल में, जहाँ हमारा ब्रह्मवर्चस है, उसके बगल में एक मंदिर में एक हनुमान् जी हैं। उनके पाँच मुँह हैं। अच्छा साहब! और किसके हैं? और बेटे शंकर जी के पाँच मुँह होते हैं। शंकर जी का एक नाम पंचानन भी है। उनके पाँच मुँह होते हैं। गायत्री माता के भी पाँच मुँह होते हैं। पाँच मुँह हर देवता के होते हैं। पाँच मुँह से मतलब है- पाँच विशेषताएँ। अगर हमारे दृष्टिकोण में ये पाँच विशेषताएँ आ जायें, तो हम आप्तकाम हो जायें, देवता हो जायें। देवलोक में क्या होता है? कल्पवृक्ष होता है। कल्पवृक्ष किसे कहते हैं? उसे कहते हैं जिसके नीचे बैठकर हर चीज, हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है। देवता की हर मनोकामना पूरी हो जाती है। कामना की दृष्टि से कोई परेशानी नहीं पड़ती।
हविश आज तक किसी की पूरी नहीं हुई
बेटे, जिसको आप सांसारिक कामना कहते हैं, वह जलती हुई आग है, जो आज तक किसी की पूरी नहीं हुई और न कभी किसी की पूरी हो सकती है। एक कामना खतम नहीं हो पाती कि दूसरी कामना हावी हो जाती है। जब तक हम बी.ए. पास नहीं कर पाते, डिग्री नहीं प्राप्त कर पाते, तब तक एम.ए. की ललक तैयार हो जाती है। शादी हो करके जब तक खुशी मनाने का मौका आ नहीं पाता, तब तक बच्चे की हविश खड़ी हो जाती है। कन्या हो गई, तो बेटे की हविश हो जाती है। हजार रुपये हमने कमा लिए, तो दो हजार की हविश कायम हो जाती है। हविश उस वक्त तक समाप्त नहीं हो सकती, जब तक सारी दुनिया की सारी दौलत एक आदमी के चरणों में न आ जाय। चाहे सारी दुनिया की दौलत को कमाने वाले का नाम सिकन्दर हो, रावण हो, या हिरण्यकशिपु। कोई चैन मिला था क्या उन्हें? किसी को चैन नहीं मिला। शान्ति मिली? किसी को शान्ति नहीं मिली। तो फिर कल्पवृक्ष से मनोकामनाएँ कैसे पूरी हो सकती हैं? मनोकामना में बेटे, दृष्टिकोण बदल जाता है। दृष्टिकोण में भौतिक इच्छाएँ जो हैं, हमें खा डालती हैं। कहा भी गया है- ‘‘भोगा न भुक्ता वयमेव भोक्ता’’ अर्थात् भोगों को हम भोग नहीं पाये, लेकिन भोगों ने हमको भोग लिया। इच्छाओं को हम पूरा नहीं कर पाये, पर इच्छाओं ने हमको खा लिया।
इच्छाओं का स्वर बदल दें
मित्रो! इच्छाओं का स्तर अगर बदल दिया जाय, तो हमारी इच्छाएँ वह हो सकती हैं, जो मानवीय महानता से सम्बन्ध रखती हैं। हम ईमानदार बनेंगे, चरित्रवान बनेंगे, लोकसेवी बनेंगे, सैनिक बनेंगे, इसमें क्या रुकावट है? बताना जरा? नहीं साहब! एक मकान बनायेंगे। तो जाइये, बीमा कंपनी में दरख्वास्त दीजिए कि हमारा बीमा है और हमको पच्चीस हजार रुपया कर्ज दे दीजिए। महाराज जी! मंजूर हो जायेगा? बेटे, हम कह नहीं सकते, शायद हो भी सकता है। गवर्नमेन्ट के यहाँ लोन के लिए दरख्वास्त दीजिए। साथियों से माँगिए, बहनोई से माँगिए, साले से माँगिए कि साहब बीस हजार दे दीजिए। शायद हमारा मकान बन जाये। बेटे, हम कह नहीं सकते कि मकान बन जायेगा कि नहीं बन जायेगा। इसी जिंदगी में बनेगा कि मरने के बाद बनेगा, पर आपकी यह इच्छा सेकण्डों में पूरी हो सकती है कि हम चरित्रवान बनेंगे, ईमानदार बनेंगे। एक सेकेण्ड में आप वाल्मीकि के तरीके से डाकू हो करके भी यह फैसला कर लें कि हमको डाकू नहीं, संत बनकर जीना है। आप तुरंत महर्षि वाल्मीकि बन सकते हैं और एक सेकेण्ड में बन सकते हैं। इसमें कोई रुकावट नहीं है। श्रेष्ठ बनने में कोई रुकावट नहीं है। आपकी श्रेष्ठता की सारी मनोकामनाएँ आज ही पूरी हो सकती हैं, अभी पूरी हो सकती हैं।
हर आदमी मालदार है
मित्रो! देवत्व की निशानियाँ मनोकामना की पूर्ति है। सारे के सारे देवता कल्पवृक्ष के नीचे रहते हैं और उनका जीवन गोरा, सुंदर हँसता हुआ और हँसाता हुआ रहता है। देवता वे हैं, जो लेने की अपेक्षा देने का अहसास करते रहते हैं और देने का जो आनन्द है, संतोष है, वह हर वक्त, हर घड़ी उनको मिलता रहता है। क्यों साहब! पैसा नहीं हो, तब? तो हम कैसे देंगे। बेटे, मैं पैसे की नहीं कहता हूँ। पैसा बड़ी वाहियात चीज है। पैसे जिनके पास जमा हैं, वे भी मुसीबत में मर रहे हैं और जिनको यह पैसा देंगे, उनकी भी आफत आ जायेगी। पैसा सबसे घटिया वाली संपदा है। काफी संपदाएँ हमारे पास हैं। अकल की संपदा, श्रम की संपदा, मन की संपदा, भावनाओं की संपदा- ये संपदाएँ हर आदमी के पास पूरी तरह से भरी पड़ी हैं। हर आदमी कुबेर की तरह से मालदार है।
देवता बनें
मित्रो! आप चाहें तो दूसरों को मोहब्बत दे सकते हैं, दूसरों को दिशा दे सकते हैं, दूसरों को मिठास दे सकते हैं। आप दूसरों की सेवा कर सकते हैं। आप दूसरों की सहायता कर सकते हैं। आप जाने क्या- क्या कर सकते हैं। किसके लिए? देने के लिए। आप अपनी बीबी को प्यार दे सकते हैं, अपने बच्चे को संस्कार दे सकते हैं। अपने पड़ोसी को सहकार दे सकते हैं। देने के असंख्य तरीके हैं। देने पर आदमी उतारू हो जाय, तो उसके पास देने को असंख्य चीजें हैं। देवता उन्हें कहते हैं, जो देने वाले होते हैं।
पंचकोशों का जागरण करें, सिद्धियाँ पाएँ
इससे पूर्व आपने फरवरी २०१० की अखण्ड ज्योति में पढ़ा कि मन को एक कल्पवृक्ष बताते हुए पूज्यवर ध्यान करने की कला सिखा रहे हैं। मनोमय कोश की जागृति का ही परिणाम था कि वे युगव्यास की भूमिका निभा पाए। विज्ञानमय कोश चौथे नंबर पर आता है। यह देवत्व के अभिवर्धन का कोश है, जिसके परिणाम स्वरूप वातावरण स्वर्ग जैसा बनता है। गुरुदेव कहते हैं कि हविश आज तक किसी की पूरी नहीं हुई। जरूरत यही है कि हम अपनी इच्छाओं का स्तर बदल दें। देखा जाय तो हर आदमी मालदार है। उसके पास अगणित सम्पदाएँ हैं जिन्हें देकर वह देवता बन सकता है। अब आगे इसी विज्ञानमय कोश की सिद्धि एवं आनंदमय कोश के जागरण की परिणति के विषय में पढ़े।
देवत्व क्या है?
मित्रो! देवत्व का विकास कर सकना हमारे लिए विज्ञानमय कोश में संभव है। हम यह कोशिश करेंगे कि आपके अंदर देवत्व के गुण पैदा हो जायें तथा आपके अंदर लेने वाली वृत्ति, दानव की वृत्ति, असुर की यह वृत्ति कि जो कुछ भी, जहाँ भी मिले, उसी को हजम करते चले जायें, वह समाप्त होती चली जाय। नहीं साहब! हम साईं बाबा से लेते चलें, संतोषी माता से लेते चलें, आचार्य जी से लेते चलें, गणेश जी से लेते चलें। जो कोई भी चंगुल में फँस जाय, उसका कचूमर बनाते चलें। बेटे, यह देवत्व की वृत्ति नहीं है।
देने का सुख
देवत्व उसे कहते हैं कि जहाँ कहीं भी हम जाते हैं, यह वृत्ति लेकर जाते हैं कि दे करके आयेंगे। मन दे करके आयेंगे, दान देकर के आयेंगे, श्रद्धा, भावना देकर के आयेंगे। किसी को खुशी देने का संतोष कभी आपने चखा ही नहीं है? मैं कैसे कहूँ, कैसे समझाऊँ? लेने का सुख तो आपने पाया है, लेकिन देने का भी सुख कभी आपने पाया है क्या? किसी को कुछ दिया भी है कभी? प्रेम दिया है किसी को? सहायता दी है? श्रद्धा दी है? समाज को कुछ दिया है? दे करके देखिये और यह पाइये कि कितना ज्यादा संतोष मिलता है मनुष्य को। आदमी अगर यह संतोष प्राप्त कर सकता है, तो उस संतोष को पी- पी करके, संतोष को खा- खा करके आदमी देवता बन सकता है। देवता जहाँ कहीं भी रहते हैं, स्वर्ग लोक में निवास करते हैं। देवता का निवास स्वर्ग में रहता है। संत इमरसन हमेशा यह कहा करते थे कि मुझे नरक में भेज दो, मैं वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा। आप अपना स्वर्ग बना सकते हैं। स्वर्ग कोई बना हुआ नहीं है, वह बनाया जाता है।
ऐसे स्वर्ग से मुझे घृणा है
महाराज जी! स्वर्ग कहाँ है। बेटे, हमें नहीं मालूम है। आपने स्वर्ग देखा है? हमें नहीं मालूम है। पुराणों में जो किस्से- कहानियाँ सुने हैं, उससे हमको घृणा हो गयी है। मुसलमानों से सुना है कि वहाँ शराब की नदियाँ बहती हैं और सत्तर हूर और बहत्तर गुलफाम मिलते हैं। बेटे, मैंने तो नमस्कार कर लिया है कि मैं तो स्वर्ग को जाऊँगा नहीं। अपने बदले किसी और को भेज दूँगा। मेरा तो सिनेमा का फोकट का टिकट आया, तो कहूँगा कि मैं तो जाता नहीं, मेरे बदले का तू देख आ। स्वर्ग में, मैं क्या करूँगा। शराब की नहरें वहाँ हैं, जो पीने को मिलेंगी और हूर मिलेंगी, गुलफाम मिलेंगे, तो मैं उनका क्या करूँगा, बताना तो सही? अपने कमरे में मैं झाड़ू लगा लेता हूँ। बहत्तर गुलफाम मिलेंगे, तो मैं उनसे क्या काम कराऊँगा? वे सब मुझे तंग करेंगे। और जो सत्तर हूरें मिलेंगी, तो बता मैं उनका क्या करूँगा? और शराब की जो नहरें मिलेंगी, बेटे मैं उस नहर का क्या करूँगा? कोई बीड़ी पीता है और मुझे उसका धुआँ लग जाय, तो उल्टी आने लगती है। जब वहाँ शराब की गंध मिलेगी और उसमें से अल्कोहल ही अल्कोहल उड़ेगा, तो मैं वहाँ रह करके क्या करूँगा? मुझे ऐसे स्वर्ग से घृणा हो गयी।
पण्डितों का घटिया स्वर्ग
मित्रो! मौलवी साहब से मैंने कह दिया कि मेरे नाम का अगर स्वर्ग का टिकट आवे, तो आप ही ले लेना। मैं वहाँ नहीं जाता। और पंडित जी से भी मैंने कह दिया है कि स्वर्ग लोक का कभी बुलावा आवे, तो मेरी ओर से रिफ्यूज कर देना और कह देना कि गुरुजी मकान में नहीं हैं। बाहर चले गये हैं और उनका नाम- पता हमारे पास नहीं है। सम्मन आवे तो मेरे मकान पर चिपका देना और यह लिख देना कि पाने वाला मिला नहीं और उस स्वर्ग के वारंट पर ‘रिफ्यूज’ लिख देना। मित्रो! मैंने स्वर्ग को रिफ्यूज कर दिया कि मैं वहाँ नहीं जाना चाहता। पंडितों ने जो स्वर्ग बनाया है, वह बड़ा घटिया स्वर्ग है। कैसा है? उनके यहाँ भी वही चक्कर है। वहाँ कल्पवृक्ष के नीचे मजा उड़ाने के लिए मिलेगा, खाना खाने के लिए मिलेगा। इन्द्र देवता के यहाँ नाच देखने को मिलेगा। बेटे, मैं वहाँ नहीं जाता। न मेरे पास टाइम है, न फुर्सत है। नाच देख करके मैं क्या करूँगा? मेरे पास इतने सारे काम पड़े हैं, उन कामों को समेटूँगा या नाच देखूँगा। अरे साहब! वहाँ तो चौबीसों घंटे नाच होता है। नहीं बेटे, हम वहाँ नहीं जा रहे हैं।
स्वर्गीय वातावरण बनाया जाता है
मित्रो। स्वर्ग किसे कहते हैं? स्वर्ग उसे कह सकते हैं, जिसमें आदमी को असीम संतोष मिलता रहता है। संतोष वहाँ मिलता रहता है, जहाँ मोहब्बत की धारायें प्रवाहित होती रहती हैं। जब हम एक दूसरे के लिए सहकारिता की, सहायता की वृत्ति को लेकर के चलते हैं, तो हमारा वातावरण स्वर्गीय बन जाता है। स्वर्गीय वातावरण बनाने के लिए, स्वर्ग पैदा करने के लिए हमारी वृत्तियों में उदारता का समावेश होना चाहिए। उदारता की यह वृत्ति हमारे मन में जितनी अधिक होती जाती है, उतना ही हमारा वातावरण स्वर्गीय बनता जाता है और हम देवत्व को विकसित करते चले जाते हैं। देवत्व के कितने ही लाभ हैं। देवता त्रिकालदर्शी होते हैं। देवता आशीर्वाद दे सकते है। देवता वरदान दे सकते हैं। देवत्व का जैसे- जैसे हमारे भीतर विकास होता जाता है, सिद्धियों की दृष्टि से, चमत्कारों की दृष्टि से हम अपने आप में एक बड़े महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन जाते हैं।
अस्तित्व है एक सूक्ष्म जगत का
मित्रो! हमारे भीतर एक सूक्ष्म जगत् है। नहीं महाराज जी। सूक्ष्म जगत् नहीं होता, ये सब गप्पें हैं। बेटे, सूक्ष्म जगत् गप्प नहीं है। अभी- अभी साइंस ने- विज्ञान ने एक नयी धारा, नयी दिशा बना करके हमको दी है। क्या दिया है? एण्टी यूनीवर्स, एण्टी मैटर, एण्टी एटम आदि। ये क्या हैं? बेटे, जैसे हम खड़े हुए हैं, उसी तरह हमारे पीछे एक भूत रहता है। गुरुजी! कैसा भूत रहता है? बेटे, अभी हम धूप में खड़े हो जायेंगे और आपको छाया के तरीके से हमारे पीछे एक भूत दीखेगा। महाराज जी! भूत हैं? हाँ बेटे, भूत हैं। बेटे जब हम नहीं रहेंगे इस शरीर में, तब हमारा एक भूत आयेगा और घरवालों को तंग करेगा कि लाओ हमारा तर्पण करो। अच्छा तो रहता है भूत? हाँ बेटे, रहता तो है। यह जो विश्व है, इसके ठीक पीछे छाया के तरीके से एक एण्टी यूनीवर्स है।
एण्टी यूनीवर्स एक वास्तविकता
साथियो! अब हम आपसे अध्यात्मवाद की बात नहीं कह रहे हैं। साइंटिस्टों के हिसाब से, नये साइंस के हिसाब से कह रहे हैं कि एक ऐसा एण्टी यूनीवर्स है, एण्टी मैटर है। इसके पीछे एक ऐसा रिएक्शन है, जो यह कहता है कि अगर यह रिएक्शन हमारे हाथ में, हमारे काबू में आ गया, तो आदमी के हाथ में दैत्य की शक्ति आ जायेगी। फिर आदमी इतना बड़ा होगा कि जैसे हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष, जो बगल में पृथ्वी को दबाकर भाग गया था। अगर आदमी भी भाग जाये, तो अचम्भे की बात मत मानना। एण्टी मैटर, एण्टी यूनीवर्स, एण्टी एटम जैसे पदार्थों के बारे में कितनी चर्चा होती है। इसके बारे में अखण्ड ज्योति में लिख चुका हूँ। यह मजाक नहीं है, वास्तविकता है।
मित्रो! स्थूल के पीछे सूक्ष्म काम करता है। हमारा शरीर स्थूल है। इसके भीतर एक सूक्ष्म शरीर काम कर रहा है। स्थूल जगत् के पीछे एक सूक्ष्म जगत् काम कर रहा है। जो कुछ भी हो रहा है, वह सब सूक्ष्म की प्रक्रियाओं से हो रहा है। दूरदर्शन से लेकर अतीन्द्रिय क्षमताओं तक जितनी विशेषताएँ हैं, सब सूक्ष्म में से आती हैं। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद हम सूक्ष्म जगत् में चले जाते हैं। सूक्ष्म जगत् में हम रहते थे और उसी सूक्ष्म जगत् में हमारा विलय हो जाता है। मुद्दतों तक हम सूक्ष्म जगत् में पड़े रहते हैं। फिर हम थोड़े दिनों के लिए स्थूल जगत् में आ जाते हैं और फिर से सूक्ष्म में विलीन हो जाते हैं। यह सूक्ष्म जगत् भी ऐसा ही है, जैसे कि हमारा स्थूल जीवन। बेटे, अभी सूक्ष्म जगत् के साथ हमारा कोई सम्पर्क नहीं है, कोई सम्बन्ध नहीं है।
विज्ञानमय कोश के जागरण की फलश्रुति
मित्रो! सूक्ष्म जगत् के साथ सम्बन्ध मिलाने के लिए हमारा विज्ञानमय कोश जब जाग्रत् होता है, तो हमारी वे क्षमताएँ विकसित हो जाती हैं। अभी जो कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता, जो कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता, जो जाना नहीं जा सकता। न जानने वाले उस विश्व के साथ क्या संपर्क मिला पायें, जान पायें और जरूरत के वक्त हम उसका इस्तेमाल भी कर सकें, यह सब विज्ञानमय कोश के जागरण से संभव है। मित्रो! जान लेना ही काफी नहीं है। सूक्ष्म जगत् को, जिसको हम दैवी शक्तियाँ कहते हैं, देवताओं की शक्तियाँ कहते हैं, भगवान् की शक्तियाँ कहते हैं। ब्रह्मा की शक्तियाँ कहते हैं और न जाने क्या- क्या शक्तियाँ कहते हैं। जिस तरीके से हवा में प्रकाश की शक्ति और दूसरी दिव्य शक्तियाँ काम करती हैं, ऐसे ही सूक्ष्म जगत् की इन दिव्य शक्तियों का भी हम अपने आप में व्यवहार कर सकें, इसका नाम है- विज्ञानमय कोश।
हमारे भीतर है एण्टीना
विज्ञानमय कोश की क्षमताओं को विकसित करने के लिए कई मशीनें, कई एण्टीना हमारे भीतर काम करते हैं। कौन- कौन से एण्टीना कार्य करते हैं? एक आज्ञाचक्र काम करता है, हृदयचक्र काम करता है और एक नाभिचक्र काम करता है। तीन बड़े- बड़े एण्टीना हमारे भीतर लगे हुए हैं, जो क्या से क्या कैच कर सकते हैं। अभी देहरादून में एक बहुत बड़ा एण्टीना का उद्घाटन होने जा रहा है। आज तारीख क्या है? तेईस। पच्चीस तारीख को होने जा रहा है। इंदिरा गाँधी आने वाली है। एक इतना बड़ा एण्टीना लगा है कि उसके माध्यम से आप फ्रांस का टेलीविजन देखिए और दूसरी जगह के टेलीविजन देखिए। पहले जो एण्टीना लगाया, उससे काम नहीं चलता था। हरिद्वार में तो वह काम भी नहीं करता था। अब यहाँ भी आ जायेगा। मसूरी का टेलीविजन देखिये, दूसरे देशों का टेलीविजन देखिए, दिल्ली का टेलीविजन देखिए। अपनी लड़कियों के लिए एक टेलीविजन हम भी मँगा रहे हैं। हमारी लड़कियाँ भी देखेंगी। यहाँ का देखेंगी, विदेशों के समाचार सुनेंगी। बस, एक टेलीविजन यहाँ भी आ जायेगा।
मित्रो! एक एण्टीना हमारे भीतर लगा हुआ है, जिसके भीतर राडार की शक्ति, बोलने की शक्ति, दिव्य दर्शन की शक्ति है। संजय को जिस तरीके से महाभारत की सारी घटनाएँ दिखाई दी थीं, थोड़े दिन पीछे संजय की दृष्टि से ये लड़कियाँ भी टेलीविजन देखेंगी। मित्रो! हमारा जो मूल एण्टीना है, उसके माध्यम से हम सारे के सारे विश्व का न जाने क्या से क्या देख और क्या से क्या सुन सकते हैं। सिद्धियों की दृष्टि से विज्ञानमय कोश के द्वारा हम सिद्ध पुरुष बन सकते हैं। विज्ञानमय कोश कैसे जगाया जा सकता है, इसकी थोड़ी- सी जानकारियाँ अभी हमने पत्रिकाओं में दी हैं। पीछे फिर आपको बतायेंगे कि धीरे- धीरे आप किस तरीके से इस ओर अपनी सामर्थ्य को बढ़ा सकते हैं।
आनन्द का स्रोत है आनन्दमय कोश
मित्रो! अन्त में आनन्दमय कोश आता है। हमारे भीतर एक आनन्द का स्रोत भरा हुआ पड़ा है। हमारे भीतर एक ब्रह्मलोक भरा हुआ पड़ा है, जिसको हम ब्रह्मरंध्र कहते हैं। इसमें क्षीरसागर है, जिसमें विष्णु भगवान् सोये हुए हैं। क्षीर सागर में भगवान् विष्णु कहाँ रहते हैं? बेटे, इसी में रहते हैं। यह जो ग्रे मैटर है, यही क्षीर सागर है। इसके भीतर जो सहस्रार चक्र है, वही हजार फन वाला साँप है। इसी के भीतर मानसरोवर है। इसी के भीतर जो सहस्रार चक्र है, वह कैलाश पर्वत कहलाता है। सारे के सारे ब्रह्मलोक, ब्रह्माण्ड की ध्रुव सत्ता, जैसे कि पृथ्वी का ध्रुव है- उत्तरी ध्रुव आदि सभी अन्तर्ग्रही शक्तियों को यह केन्द्र ग्रहण करता है और दक्षिण ध्रुव में से निकालकर फेंक देता है। पृथ्वी के ध्रुव तक ये चीजें नहीं जातीं। इसमें से जो भी हवा, ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी दैवीय, भौतिक, अभौतिक तीनों तरह की क्षमताएँ हैं, हम उनको ब्रह्माण्ड में से ग्रहण कर सकते हैं। शरीर में धारण कर सकते हैं। ऐसा भी कर सकते हैं कि जरूरत भर की रख सकते हैं और बिना जरूरत के निकाल कर बाहर फेंक सकते हैं।
ब्रह्मविद्या का मर्म है यह
मित्रो! सहस्रार चक्र का जागरण हमारे आनन्दमय कोश से संबंधित है। यह हमारी अंतःविद्या है। यह हमारी अध्यात्म विद्या है। यह हमारी ब्रह्मविद्या है। परोक्षवाद के ढंग से नहीं, कहानियों के माध्यम से नहीं, वरन् साइन्टिफिक ढंग से- वैज्ञानिक ढंग से, प्रत्यक्षवाद के ढंग से आप इन्हें व्यवहार में किस तरीके से सारी की सारी अपनी पाँचों विभूतियों को कैसे काम में ला सकते हैं और कैसे विकसित कर सकते हैं? इससे सामान्य जीवन को असामान्य कैसे बना सकते हैं? मनुष्य में देवत्व की झाँकी कैसे कर सकते हैं? व्यक्ति को श्रेष्ठ मनुष्य कैसे बना सकते हैं? यह सारी की सारी ब्रह्मविद्या की शिक्षा, ब्रह्मतेज की शिक्षा आपको ब्रह्मवर्चस के माध्यम से देंगे।
करें पंचकोशों का जागरण
मित्रो! पंचकोशों का जागरण मूलभूत बात है। पंचकोश किस तरीके से जाग्रत हो सकते हैं? पाँच दूत, पाँच देव, पाँच नौकर, जो आपके भीतर समाये हुए हैं, इनको योग्यतर एवं बलवान् बना करके अपने काम में ला करके आप किस तरीके से बड़े आदमी बन सकते हैं। यह सारी की सारी शिक्षा अध्यात्मवाद के नाम से प्राचीनकाल के ऋषियों ने वैज्ञानिक ढंग से जो दी थी, वही हम भी करेंगे। हमारा प्रयास है कि आपको पाँच कोशों का जागरण करने की विधियाँ बतायें और जितना भी आपकी चलने की ताकत हो, उस हिसाब से आगे चलायें और धीरे- धीरे चलते हुए आप वहाँ पहुँच जायें जहाँ हमारे ऋषि- मुनि पहुँचे थे। आप उसी रास्ते पर चला करें, बस इसी तरह का हमारा यह प्रयास है।
आज की बात समाप्त।