Books - पुरुषार्थ—मनुष्य की सर्वोपरि सामर्थ्य
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Language: HINDI
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भाग्य तो पुरुषार्थ की छाया भर है
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जिस प्रकार अन्धकार हमें वस्तु स्थिति का सही ज्ञान नहीं होने देता है और उसके प्रभाव से बचने के लिए हमें कृत्रिम प्रकाश की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार से बचने के लिए वस्तु स्थिति का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञान रूपी प्रकाश की आवश्यकता होती है। अंधेरे में पड़ी रस्सी हमें सांप के होने की भ्रान्ति पैदाकर देती है। छोटी-छोटी झाड़ियां पेड़ पौधे रीछ व्याघ्र तथा भूत-प्रेतों के रूप में हमारे अन्दर भय और आशंका उत्पन्न करने का कारण बन जाते हैं। उसी प्रकार अज्ञान या भ्रान्ति का भय तो सबसे अधिक डरावना एवं घातक माना गया है।
वस्तु स्थिति का सही ज्ञान कराने के लिए ही अध्यात्म का सारा ढांचा खड़ा हुआ है। इसका मूल उद्देश्य मनुष्य को विवेकशील बनाना है। इस संसार में अच्छाई और बुराई दोनों विद्यमान हैं। यहां अच्छे से अच्छे एवं बुरे से बुरे विश्वास एवं रीति रिवाजों का प्रचलन है। ऐसी परिस्थिति में हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम उनके गुण दोषों का नीर-क्षीर विवेक बुद्धि से विश्लेषण कर औचित्य के साथ ही अपनी निष्ठा जोड़ें और अनौचित्य का त्याग करें। गुण दोष का विवेचन कर आत्मोत्कर्ष के लिए प्रयत्न करना ही वेदान्त का प्रथम सूत्र है, ‘‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।’’
जो व्यक्ति वास्तविकता या अवास्तविकता को जानने का कष्ट उठाते निश्चयात्मक रूप से मानसिक आलस के कारण उनकी भौतिकता एवं विशिष्टता नष्ट हो जाया करती है। इस दासता के बन्धन में जकड़ा हुआ कोई समाज या राष्ट्र पतनोन्मुख ही होगा विकासशील नहीं।
सैकड़ों वर्षों की पराधीनता ने हमारी बौद्धिक प्रतिभा को नष्ट कर दिया है। विदेशी आक्रमणकारियों ने जहां हमारी विपुल सम्पदा लूट-पाट कर अपने घर भरे हैं वहीं हमारे मनोबल को गिराने के लिए अनेक प्रयत्न किये हैं वे हमें चिरकाल तक शोषित पतित एवं पराधीन देखना चाहते थे फलस्वरूप उनका यह प्रयास सदैव रहा कि हम अपनी संस्कृति को हेय और उपेक्षा की दृष्टि से देखें। इसके लिए उन्होंने समाज में अन्ध विश्वास मूढ़ मान्यताओं के प्रचलन के लिए भरसक प्रयत्न किये।
आर्ष ग्रन्थों में जहां पग-पग पर आत्मबोध आत्म निर्माण परमार्थ एवं कर्तव्य निष्ठा का निर्देश दिया गया है वहीं आक्रमणकारी इस प्रकार की भ्रान्तियां फैलाने का प्रयास करते रहे कि मनुष्य कुछ नहीं है, वह तो किसी अदृश्य शक्ति के हाथों की कठपुतली मात्र है, जो होनी है, वह होकर रहेगी। पुरुषार्थ का कोई महत्व नहीं।
विचारणीय प्रश्न है कि जब मानवीय पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं तो कठोर एवं साहस पूर्ण कर्म करने की झंझट कौन उठाये? हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश को विधाता के हाथ में सौंप देने पर मनुष्य भीतर पुरुषार्थ करने की प्रेरणा ही नष्ट हो जाती है। जहां वह अपने भाग्य का निर्माता कहा जाता है अब दैव के हाथों का एक खिलौना मात्र रह गया। कर्मवादी मनुष्य अब भाग्यवादी बनकर निष्क्रियता की ओर बढ़ने लगा है।
कर्मयोग के मार्ग का अवलम्बन कर हमने संसार के अन्य देशों से विद्या कला कौशल और विज्ञान की होड़ में विजय प्राप्त की थी। मानव कल्याण की दिशा में किये गये हमारे प्रयासों की गाथा आज भी सर्वत्र गायी जाती है। अन्याय और अत्याचार के जूझने का हममें अपूर्व उत्साह था। हमारी इन्हीं गाथाओं ने हम तैंतीस करोड़ भारतवासियों को तैंतीस कोटि देवता कहलाने का श्रेय दिलाया था। पर आज हम दीन-हीन, अकर्मण्य, अविवेकी लोगों की तरह भाग्यवाद को ही सब कुछ मानने लगे। भाग्य ही सब कुछ है ऐसा मानकर चलने वालों को और अन्याय अत्याचार और शोषण का शिकार बनना पड़ा तो इसमें आश्चर्य ही क्या?
यवन शासन काल में बलात् धर्म परिवर्तन किये गये। स्त्रियों की लज्जा खुले आम लूटी गई, कन्याओं का अपहरण हुआ और हमने यह कहकर संतोष की सांस ली कि उनके भाग्य में तो यही लिखा था जो होना था सो वही हुआ। यही स्वीकार किया जाना चाहिए कि आक्रमणकारियों ने अपने अन्याय से पीड़ित शोषित लोगों को विद्रोह करने पर उतारू न होने देने के लिए यह भाग्यवाद का सम्मोहन मंत्र चलाया था। जिस प्रकार ‘क्लोरो फार्म’ सुंघाकर रोगी को मूर्छित कर देने पर मन चाहे ढंग से निश्चिन्तता पूर्वक उसके किसी भी अंग का काट-छांट किया जा सकता है, उसी प्रकार इस भाग्यवादी विचारधारा के अन्याय और शोषण के प्रति हमें मूर्छित कर दिया। तथा कथित विद्वान और पण्डितों ने भी संस्कृत भाषा में लिखे श्लोकों के उद्धरण दे देकर तथा प्राचीन मन गढ़ंत तथा उपाख्यानों को सुना सुनाकर भोली−भाली जनता को इस भाग्यवाद की मूर्च्छना में सोते रहने के लिए विवश किया।
पुरोहित एवं आचार्यों को भी अपनी जीविका के लिए राज्याश्रित होने के कारण शासक की मर्जी को शास्त्र सम्मत सिद्ध करने के प्रयास में लगा रहना पड़ा। भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे मनीषियों को दुर्योधन के अन्न के प्रभाव से अनीति का समर्थन करना पड़ा तब सर्वसाधारण की तो बात ही क्या? ‘‘अतः नृशंस शासक यदि क्रूरता का व्यवहार करते हैं, कन्याओं का बलात् अपहरण करते हैं तो उन्हें विधि के विधान से ऐसा अधिकार मिला हुआ है और इन परवशों ने अपने पूर्व जन्म में कोई पाप किया होगा, उसी का परिणाम तो भुगतने को मिल रहा है।’’ यह मान्यता भाग्यवाद की वह नशीली गोली थी, जिसने हमारे अन्दर अकर्मण्यता पैदाकर विद्रोह प्रतिरोध की क्षमता ही नष्ट कर दी।
मुगल शासन काल में ही भावनाशील एवं कर्तव्यनिष्ठ, मनीषियों को तलवार के घाट उतारा जाता रहा वहां कुछ छद्मवेशी साधु पण्डितों की खुली छूट भी मिली हुई थी जो ‘‘दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा’’ का प्रचार कर रहे थे। अर्थात् जो दिल्ली का राजा है उसे सब करने की छूट है, हमें उसका विरोध नहीं करना चाहिए।
जातिवाद की मूढ़मान्यता भी भाग्यवाद के सहारे अधिक पुष्ट हुई। भाग्य के कारण ही अमुक व्यक्ति को अमुक जाति में उत्पन्न होना पड़ा और उसे जीवन भर नीच कर्म ही करते रहने पड़े। स्त्री को ‘‘पैर की जूती’’ मानते रहना भाग्यवाद का ही तो चक्कर है जब कि आर्षग्रन्थों में नर और नारी को समान अधिकार पाने की बात कही गई।
भाग्य को अनुकूल बनाने के लिए ग्रह नक्षत्रों की पूजा पाठ का विधान भी ‘‘फलित ज्योतिष’’ का आधार लेकर खूब पनपा। सैकड़ों ग्रन्थ इस सम्बन्ध में लिखे गये। परन्तु विचारणीय प्रश्न है कि करोड़ों मील दूर आकाश में स्थिति ये राहु, केतु, शनि आदि ग्रह किसी व्यक्ति विशेष को क्या ईर्ष्या वश परेशान करते होंगे। अथवा उनका सामान्य प्रभाव सब पर पड़ता होगा? यह कैसे संभव है कि उनका प्रभाव एक ही गांव या घर में रहने वाले अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग पड़े। और पूजा पाठ के विधान से उनके प्रभाव को कम कर दिया जाये या बिल्कुल ही रोक दिया जावे? भाग्यवाद के नाम पर चल रही फलित ज्योतिष भोली−भाली जनता को ठगने का सबसे सरल तरीका है।
यदि भाग्य की उन्नति अवनति का कारण रहा होता तो रूस और अमेरिका अपनी गई गुजरी स्थिति से कैसा मुक्त होकर संसार के सर्वश्रेष्ठ एवं सम्पन्न राष्ट्र बनते और भारत जैसे धार्मिक देश देवी देवता, ग्रह, नक्षत्र, राहु केतु, शनि, की पूजा करता हुआ अपनी अन्ध स्थिति में पड़ा रहता। इस स्थिति पर हमें पुनः विचार करना होगा और बौद्धिक आलस्य को छोड़कर कर्मवाद का मार्ग अपनाना पड़ेगा।
‘‘दैव’’ एक बहुअर्थ गामी शब्द है, जिसमें सृष्टि की विधि-व्यवस्था उसके नियम-विधानों का समावेश है। व्यक्ति के स्वयं शुभाशुभ कर्मों के संस्कार, समूह के संस्कार तथा इनकी मिश्रित प्रतिक्रियायें, देश काल की सूक्ष्मतायें इन सबका विस्तार इतना व्यापक और अनेकरूपी होता है कि सीमित मानव-बुद्धि के लिए उन सबकी सामान्य जानकारी भी सम्भव नहीं, विस्तृत विश्लेषण तो संभव हो ही नहीं सकता। इसलिए दैव को ‘अज्ञेय’ कहा गया है। अज्ञेय वह है, जिसे पूरी तरह जाना जा सकना सर्वथा असंभव है। दैवज्ञता का अर्थ होता अज्ञयज्ञ। जो स्वयं ही अपनी काट करने वाला शब्द है। संस्कृत में इसे ही ‘‘स्वतोव्याहत’’ कहेंगे जो स्वयं ही अपने को आहत कर रहा हो ऐसा शब्द। जो ‘‘दैवज्ञ’’ होने का दावा करते हैं। वे ‘‘अज्ञेय’’ को जानने का दावा करते हैं। तब वह अज्ञेय कैसे रहा?
यह सही है कि विश्व-चेतना के गर्भ में विद्यमान सूक्ष्म हलचलों को पकड़कर भविष्य का आभास प्राप्त किया जा सकता है और इसकी ऐसी पूर्व सूचना दी जा सकती है, जो समय होने पर पूरी तरह सही और प्रामाणित सिद्ध हो। किन्तु यह दैवज्ञ होने का प्रमाण नहीं। घटना प्रवाह की बारीक सूक्ष्म और विश्व-चेतना से सम्पर्क का प्रतिफल है। किन्तु इस घटना प्रवाह के नियामक घटक जड़ नहीं चेतन हैं। अतः उसके भावी स्वरूप के बारे में पूरी तरह निश्चिन्त नहीं रहा जा सकता है। प्रचंड चेतन-सत्ता में भिन्न-भिन्न घटक अपने सामूहिक पराक्रम से सामान्य प्रवाह को पूरी तरह उलट-पुलट सकते हैं। तब भविष्य की वह जानकारी तो विश्व-गर्भ में पल रही घटनाओं को जानकर दी गई थी, गलत सिद्ध हो सकती है। यह तो हुई सूक्ष्मदर्शियों की बात। इसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि दैवज्ञ होना किसी के लिए सम्भव नहीं है।
सामान्य व्यक्ति तो किसी ऐसी सूक्ष्म दृष्टि से भी वंचित ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें तो भविष्य के बारे में और भी कुछ मालूम नहीं हो पाता। विडम्बना यह है ऐसे ही लोग भविष्य जानने और बताने के लिए चतुर व्याकुल रहते हैं।
इसका यह अर्थ नहीं कि भविष्य की योजनायें न बनाई जायें और विगत का लेखा-जोखा न लिया जाय। ऐसा करना तो अत्यन्त आवश्यक हैं। किन्तु जरूरत दो बातों की है—
(1) योजना और कल्पना का भेद सदा स्मरण रखा जाए
(2) भविष्य का स्वरूप अनिश्चित है वर्तमान निश्चित है, यह स्मरण रखा जाये और अनिश्चित से बहुत अधिक समय उसे दिया जाए, जो निश्चित है, उपलब्ध है।
योजना व्यवस्थित होती है। कल्पना भी व्यवस्थित हो सकती है, पर वह तब तक कल्पना ही कहलायेगी, जब तक साधनों का विचार न कर लिया जाय और कार्य पद्धति निश्चित कर क्रम-निर्धारण न कर लिया जाय सामान्यतः तो कल्पनायें अव्यवस्थित ही होती हैं। पर उन्हें व्यवस्थित कर लेने भर से काम चलने वाला नहीं। योजना की एक विशेषता यह भी है कि उसमें इच्छाओं की परस्परपूरकता का ध्यान रखा जाता है। अभी पहलवान बनने की योजना बना ली दूसरे दिन संगीतकार बनने की योजना तैयार होने लगी और अगले दिन दार्शनिक बनने की योजना सामने आ गई इसे योजना नहीं, काल्पनिक उड़ान ही कहा जायेगा। योजना बनाने पर साधनों परिस्थितियों का गम्भीर विश्लेषण तथा कार्य पद्धति की व्यापक जानकारी आवश्यक होती है। हम जो कुछ करना चाहते हैं, वैसा ही अब तक जिन लोगों ने किया है, उन्हें कौन-कौन से साधन जुटाने पड़े किन-किन परिस्थितियों से कैसे-कैसे मुकाबला करना पड़ा और उन परिस्थितियों से वर्तमान का अन्तर कैसा और कितना है यह सब जानना—समझना होता है। इन सबके बाद निष्ठा, लगन की तीव्रता—तत्परता उपेक्षित होती है।
उन्नति और प्रगति की आकांक्षा छोड़ देने पर मनुष्य-जीवन का प्रयोजन ही विलुप्त हो जाता है। संकल्पों—महत्वाकांक्षाओं से रहित व्यक्ति तो पशुवत् ही हो जायेगा। उस हेतु प्रयास—पराक्रम आवश्यक है। किन्तु उनकी कल्पना और चिन्ता में ही उलझे रहना मानसिक शक्ति का अपव्यय मात्र हैं। जो शक्ति आनन्द, प्रसन्नता और क्रियाशीलता बनाये रखने के लिए सौंपी गई है वह काल्पनिक उड़ानों और विभीषिकाओं में ही डूबते-उतराते रहने और इस तरह निष्क्रियता बढ़ाते रहने का आधार बना दी जाय, तो इससे बड़ी मूढ़ता और क्या होगी?
भविष्य का ताना बाना बुनने का अभ्यास हो जाने पर सम्भावित विफलताओं—विपत्तियों का भास भी मनःक्षेत्र में सजीव होने लगता है। तब चिन्ता-रोग मनुष्य को अपनी लपेट में लेता है और उसे तहस-नहस करने लगता है। यदि सोचने का क्रम ऐसा हो जाए कि कठिनाइयों की ही कल्पनायें सताती रहें, तो भयंकर सम्भावनाओं के चित्र सामने आ-आकर दिन-रात भयभीत और परेशान करने लगेंगे। स्पष्टतः इससे खिन्नता-निराशा बढ़ती है और पुरुषार्थ-क्षमता घटती चली जाती है। किसी कार्य को आरम्भ करते ही यदि असफलतायें ही सामने खड़ी दीखने लगीं तो फिर उत्साह शिथिल हो जाने से कार्य-सिद्धि कठिन ही मानी जानी चाहिए।
भविष्य के प्रति हताश होने या काल्पनिक उड़ानें भरने के स्थान पर एक सुनिश्चित योजना बनाकर उस पर निरन्तर चलते रहना ही सार्थकता सफलता का मार्ग है। भविष्य की कल्पनाओं में उलझने के पहले वर्तमान परखना-तोलना जरूरी होता है। वर्तमान में अभावों का ही नहीं उपलब्धियों का भी स्मरण चिन्तन करें। यह सुरदुर्लभ मानव-जीवन बहुत मूल्यवान उपलब्धि है। हमें यह प्राप्त हुआ है, जो कल्पवृक्ष और कामधेनु की तरह फलदायी है। इन उपलब्धियों का स्मरण कर मन को प्रफुल्ल रखें कि प्रगति और उन्नति का उत्साह प्रफुल्ल मन में ही उत्पन्न होता है। भविष्य की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ने वालों को सदा दूर के भव ही लुभाते रहते हैं। उन्हें सदा बड़ी सौन्दर्य और प्रसन्नता दिखाई देती है, जहां वे आज नहीं हैं। पर यह मृगतृष्णा मात्र निरर्थक दौड़-धूप और थकान का ही कारण बनती है। ऐसी दौड़ कभी भी समाप्त नहीं होती, क्योंकि उसको कोई लक्ष्य नहीं होता। निश्चित लक्ष के लिए की जाने वाली दौड़ वर्तमान का भली भांति लेखा-जोखा करने और अपनी उपलब्धियों का स्मरण कर प्रसन्न रहने से ही सम्भव हो पाती है।
भविष्य में क्या होने वाला है, जो होना निशित हो उसी के लिए प्रयत्न करें, इसका अता पता लगाना हो तो परिस्थितियों, आधारों और लक्ष्यों के आधार पर जानने का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार की सम्भावनायें तथ्यपूर्ण कल्पनाओं के आधार पर ही की जा सकती है। न कि ज्योतिषियों द्वारा की गई ग्रह गणना के आधार पर। ग्रह गणित अन्तरिक्षीय व्यवस्था पर प्रकाश डालता है, उससे ऋतु परिवर्तन जैसे अनुमान लगाये जा सकते हैं। पृथ्वी के वातावरण पर उसका प्रभाव पहुंचा यह भी ग्रह विद्या का विषय हो सकता है। अंतर्ग्रही हलचलें व्यापक क्षेत्र पर असर डाल सकती है पर ऐसा नहीं हो सकता कि हर व्यक्ति की हर स्थिति उसी से प्रभावित होती हो। फिर भविष्य में किस व्यक्ति को किस कार्य में, कब, कितनी सफलता असफलता मिलेगी, इसका आंकलन ज्योतिष के आधार पर करने का तो कोई तुक ही नहीं है। ऐसे दुर्बल आधार पर यदि भविष्य की सम्भावना सोची गईं और उसके सहारे योजनायें बनाईं गईं तो समझना चाहिए कि भ्रम जंजाल में उलझकर अपना अहित ही किया जा सकता है।
वस्तुतः हमें प्रारब्ध के चक्कर में न फंसकर आशावान्, उत्साही और कर्मशील बनना चाहिए। मनुष्य के कर्म ही उसका भाग्य बनाते हैं। भाग्य तो कर्मों का पिछलग्गू है। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं। भाग्य को पुरुषार्थ की छाया मात्र समझना अधिक उचित हैं। यदि कर्म ही हमारा धर्म बन जाये तो फिर हमें उन्नति के पथ पर बढ़ने से कौन रोक सकता है? अतः भाग्यवान बनने के लिए हमें विवेकशीलता एवं सच्ची निष्ठा से सदैव कर्म करते रहना चाहिए।
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