Books - पुरुषार्थ—मनुष्य की सर्वोपरि सामर्थ्य
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Language: HINDI
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सफलता का एक ही आधार—समय का सुनियोजन
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जापान का एक विशाल कारखाना अपनी पूरी गति से चल रहा था। मशीनों के पहिये अविराम गति से घूम रहे थे। खलासी, ऑयलमैन, मशीन-मैन, मिस्त्री, पैकर और इंजीनियर सभी बड़ी तन्मयता से अपने काम में लगे हुए थे। उसी समय कारखाने का मैनेजर भारत से आये हुए एक औद्योगिक प्रतिष्ठान के निर्देशक को अपना कारखाना दिखा रहा था। वह बारी-बारी से प्रत्येक मशीन के पास ले जाता और बतलाता कि वह मशीन क्या कार्य करती है किस ढंग से उत्पादन होता है और श्रमिकों की कार्य क्षमता बढ़ाने के लिए क्या-क्या व्यवस्थायें की जा रही। मैनेजर निर्देशक को कारखाने के सभी विभागों में निरीक्षण के लिए ले गया। उसने देखा कि प्रत्येक कर्मचारी अपनी ड्यूटी की पाबन्दी बड़ी ईमानदारी से दे रहा है। कर्मचारी एक क्षण को अतिथि की ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कान बिखेरकर स्वागत करते और अपने हाथों में ढिलाई न आने देते।
सारे कारखाने का निरीक्षण करने के पश्चात् वह व्यवस्थापकीय कार्यालय में गये और मैनेजर की कुर्सी के पास बैठ गये। पर वह निर्देशक मन ही मन अपने को अपमानित अनुभव कर रहे थे। आखिर यह पूछ ही बैठे—‘‘मैं आपके साथ पूरे कारखाने में घूमा पर किसी भी कर्मचारी ने एक मिनट को भी मशीन बन्द करके बात तक नहीं की। इसका क्या कारण? कम से कम शिष्टाचार के नाते दूसरे देश से आने वाले अतिथि से, कुछ क्षण बात तो करनी ही चाहिए थी।’’
क्षमा कीजिए। आपने श्रमिकों के कर्म कौशल को दूसरी दृष्टि से देखा है। द्वितीय महायुद्ध की मार से इस देश की जितनी क्षति हुई है वह संसार के किसी राष्ट्र से छिपी नहीं है। राष्ट्रोत्थान की योजनाओं की पूर्ति हेतु लगन से कार्य न किया जायेगा तो हम लक्ष्य से काफी पीछे रह जायेंगे। यहां के श्रमिकों की यह विशेषता है कि उनके कार्य का कोई निरीक्षण करे या न करे वह आठ घंटे के समय को भगवान की उपासना का समय मानते हैं प्रत्येक श्रमिक के हृदय में देश के लिए एक कसक है, एक वेदना है।
‘बात यह है कि इस कारखाने की एक शिफ्ट में पांच हजार श्रमिक कार्य करते हैं यदि एक-एक मिनट को भी सब मशीनें बन्द कर दें तो आप जानते हैं। पांच हजार मिनट काम बन्द होता है। पांच हजार मिनट यानी तराशी घंटे बीस मिनट। इतने समय की बरबादी से उत्पादन पर कितना प्रभाव पड़ सकता है। इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। यहां ऐसा भी नहीं है कि आपको देखकर श्रमिक तेजी से हाथ चलाने लगे हों और जब आप आगे बढ़ जांय तो काम बन्द करके बातें करने लगें। यह तो आपने अनुभव किया होगा कि कारखाने के सारे कर्मचारी आपको अपने बीच पाकर कितने प्रसन्न थे। आपके स्वागत में उन्होंने अपनी मधुर मुस्कान बिखेर दी थी।’
निर्देशन के मन में जो अपमान की भावना थी वह मैनेजर के सुलझे हुए उत्तर से तिरोहित हो गई थी।
इस घटना के आलोक में जब हम राष्ट्र के सन्दर्भ को लेकर आत्म निरीक्षण करते हैं तो हम पाते हैं कि समय की अपव्ययता ने ही योजनाओं के लक्ष्यों को पूर्ण नहीं होने दिया। यदि उत्पादन कार्य में लगे श्रमिक, कार्यालय में कार्यरत बाबू, विद्युत गृह, बांध और निर्माण के कार्यों में लगे हुए छोटे बड़े सभी कर्मचारी समय की कीमत जान जांय तो अपने लक्ष्य का समय से पूर्व ही पूर्ण कर सकते हैं।
घटना डालमिया नगर के कागज के कारखाने की है। कारखाने का विशाल फाटक खुल चुका था। साढ़े छः का सायरन बजने वाला था। एक साठ वर्षीय वृद्ध जर्मन इंजीनियर कुछ गुन-गुनाता हुआ साइकिल से फाटक पर पहुंचा। दरबान ने सलामी दी। इसकी साइकिल कुछ धीमी हुई और फिर उसी गति से आगे बढ़ गई। तीन मिनट बाद सायरन बजा। यह चीफ इंजीनियर मिस्टर लेंज थे। उन्होंने जितने वर्ष उस कारखाने को अपनी सेवायें प्रदान कीं किसी भी श्रमिक ने उन्हें एक मिनट भी देरी से आते न देखा। मिस्टर लेंज के अधीन तीन इंजीनियर और हजारों श्रमिक और तकनीकी विशेषज्ञ कार्य करते थे यदि मिस्टर लेंज चाहते तो साढ़े छः बजे क्या दस बजे कारखाने में आते उनसे कहने वाला कौन था? पर वह जर्मन इंजीनियर समय के मामले में कारखाने के खलासियों से लेकर इंजीनियरों तक को अपना अधिकारी मानता था। वह अच्छी तरह जानता था कि यदि मैं ही समय से कारखाने न जाऊंगा तो संस्थान के हजारों कर्मचारी मेरा अनुकरण कर कार्य की उपेक्षा करेंगे, जिसका प्रभाव उत्पादन पर पड़ेगा।
रूस के औद्योगिक प्रतिष्ठानों की कुछ ऐसी विशेषतायें हैं। जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। वहां कामचोर या कामचोर श्रमिकों की उन्हीं के साथी भर्त्सना करते हैं। कभी-कभी तो ऐसे कर्मचारियों की पीठ पर कागज का लेवल लगा दिया जाता है जिस पर लिखा रहता है—‘यह काम चोर है यह समय चोर है।’ यदि इसका भी प्रभाव नहीं पड़ता तो उसका व्यंग चित्र कारखाने के फाटक पर लगा दिया जाता है।
कारखानों में काम का समय आठ घंटे निर्धारित रहता है यदि श्रमिक वर्ग ईमानदारी से कार्य करें तो हमारे देश में भी जापान और पश्चिम जर्मनी की तरह महान औद्योगिक प्रगति हो सकती है और उत्पादन क्षमता को इतना बढ़ाया जा सकता है कि यहां का उत्पादित माल विदेशों को भेजकर विदेशी मुद्रा अर्जित की जाये।
सामाजिक औद्योगिक और राजनीतिक क्षेत्र की तरह व्यक्तिगत जीवन में भी हम समय के रोग को पहचानने में असमर्थ रहे हैं। अस्पताल, न्यायालय में और कारागृह की यदि जांच की जाय तो पता चलेगा कि अवकाश के समय का दुरुपयोग करने वाले अधिकतर व्यक्तियों को ही वहां शरण लेनी पड़ी है। हमारा कितना समय ताश, शतरंज, मजाक और गपशप के नाम पर आये दिन खर्च होता रहता है यदि इसके मूल्य को पहचानने की कोशिश की होती तो जीवन की दिशा बदल जाती।
यदि अवकाश के समय के सदुपयोग की कोई योजना हमारे पास हो तो व्यक्तिगत उत्थान से लेकर मानव जाति के कल्याण तक के अनेक कार्यों का सम्पादन किया जा सकता है। ग्रेगर मेराडेल ने पुरुषानुक्रम सम्बन्धी सिद्धान्त, अध्यापक ब्रेल ने टेलीफोन का आविष्कार, पादरी प्रीस्टल ने ऑक्सीजन की खोज और अमेरिका के खेतिहर क्लाइड टोम ने ज्योति विद्या की चर्चा करके, प्लूटो नामक ग्रह का आविष्कार अवकाश के क्षणों में ही किया था। डॉक्टर होम्स की प्रसिद्ध रचना थी, आटोक्रेट एट दि ब्रेक फास्ट टेबल अवकाश के समय ही बैठकर लिखी गई थी।
अवकाश के समय किये गये प्रत्येक कार्य का उद्देश्य धन कमाना नहीं होता अतः उसका पुरस्कार आत्म सन्तोष और मनोविनोद ही होता है। यह तो निश्चित है कि कोई मनुष्य निरन्तर काम धन्धे में फंसा नहीं रह सकता। अवकाश के समय कार्य के चुनाव तथा उसे इच्छानुसार करने की स्वतन्त्रता होती है। इन्हीं क्षणों में व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता है या बिगड़ता है क्योंकि कार्य की व्यस्तता में चरित्र के बिगड़ने की उतनी संभावना नहीं रहती जितनी अवकाश के समय को बिताने के तौर तरीके पर। इसलिए उस समय का उपयोग स्वाध्याय, बागवानी, पुस्तकालय और विद्यालय संचालन तथा जीवन शक्ति बनाये रखने वाले खेलों के लिए किया जा सकता है।
ध्यान रहे समय ईश्वर प्रदत्त ऐसी सीमित और मूल्यवान सम्पदा है जिसका महत्व प्रत्येक व्यक्ति को जानना ही चाहिए। समय और सरिता का प्रवाह किसी की प्रतिक्षा नहीं करते। एक-एक सांस लेकर हम जीवन यात्रा को पूर्ण करते चलते हैं, मृत्यु के निकट बढ़ते जाते हैं फिर क्यों न अपनी जीविका के कार्य को पूर्ण तन्मयता और ईमानदारी के साथ सम्पन्न करें।
*समाप्त*