Books - सद्भाव और सहकार पर ही परिवार संस्थान निर्भर
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Language: HINDI
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संयुक्त परिवार व्यवस्था को जीवंत बनाए रखें
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सृष्टा के ‘‘एकोऽहं बहुस्यामि’’ के उद्घोष के साथ ही सृष्टि का शुभारम्भ माना जाता है। आत्म विस्तार का यह संकल्प सृष्टि के कण-कण और अणु-अणु में परिलक्षित होता है। अपने ही सौर-परिवार के 12 ग्रहों और अन्यान्य उपग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है। सभी संयुक्त क्षेत्र में बंधे गुंथे अनन्त काल से अनुशासन बद्ध, मर्यादित और कार्यरत है। किसी में न टकराव है, न बिखराव। सृष्टा ने मनुष्य से भी यही आशा अपेक्षा की है कि वे संयुक्त संघ बद्ध एक दूसरे के परस्पर पूरक सहायक, सहयोगी बनें। यही मनुष्य जाति की उन्नति का मूल मन्त्र हैं। संगठनात्मक प्रयासों से ही मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। यदि प्रारम्भ से ही व्यक्तिवाद, स्वार्थपरता, संकीर्णता, अलगाव, टकराव बना रहा होता तो पाषाण युग से अधिक प्रगति के सुअवसर देखने को न मिलते। यदि सृष्टि के आरम्भ से ही आदमी कबीले, समूह और झुण्ड बनाकर संयुक्त न रहा होता तो अपने अस्तित्व को बनाये रखने में भी समर्थ न हो पाता और उसे प्रागैतिहासिक काल के दैत्याकार जीव जन्तुओं के उदरस्थ कर लिया होता। यही झुण्ड और कबीले प्रगति करते-करते कालान्तर में परिवार, संयुक्त परिवार, ग्राम समूहों में परिवर्तित होते चले गये।
भारत में परिवार व्यवस्था हजारों वर्ष पुरानी है। यद्यपि पराधीनता के अन्धकार युग में अनेकों विदेशी सभ्यताओं ने यहां की संस्कृति पर भी अपना प्रभाव डाला जिससे यहां की संयुक्त परिवार व्यवस्था बड़ी तेजी से विघटित और विश्रृंखलित हुई है। भारतीय परिवार मात्र सहयोग और सह निवास ही नहीं वे एक सहकारी संस्था हैं। यों मिल जुलकर तो लोग होटल और धर्मशालाओं में भी रह लेते हैं और सह निवास के कुछ नियम मर्यादाओं का निर्वाह भी करते हैं, किन्तु ऐसा सहकार सीमित और सामयिक होता है। इनमें परिवार जैसी आत्मीयता नहीं होती। भारतीय परिवारों में वास्तविक समाजवाद का दर्शन किया जाना सम्भव है।
पश्चिमी देशों में परिवार मानव जीवन की सीमित आवश्यकताओं को लेकर जुड़े और विकसित हुए हैं। उनमें भारत जैसा भावनात्मक लगाव, उदार आत्मीयता नहीं होती। भारतीय परिवारों में भाव सम्वेदनाओं को अनेक रूपों में आज भी न्यूनाधिक रूप में देखा जा सकता है जब कि विश्व भर में संयुक्त परिवार व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चली है। मानव के भाव जगत के बहु आयामी रूपों को यहां की संयुक्त प्रणाली परिवार व्यवस्था में देखा जा सकता है, जहां, माता, पिता, बाबा, दादी, के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, और उनका वात्सल्य, स्नेह, भाई-भाई का निस्वार्थ अनूठा प्रेम और त्याग, भाई बहिन की आत्मानुशासित मर्यादाओं और अन्तरंग स्नेह, नन्द, भाभी, सास, बहू, देवर, जेठ, जेठानी, देवरानी, चाचा, चाची, ताऊ, बुआ, भतीजे आदि का बहु आयामी दृश्य देखकर सहज की कहा जा सकता है कि भाव संवेदनाओं के विस्तार में ही आनन्द है न कि सिकोड़ने, समेटने में। जीवन जीने का असली आनन्द संयुक्त परिवार व्यवस्था में है न कि एकाकी जीवन में। पश्चिमी जगत की पति पत्नी और बच्चे वाली व्यवस्था में ऐसा भाव सम्वेदनाओं, प्रेम, स्नेह, ममता, उदार आत्मीयता का सौजन्य पूर्ण वातावरण नहीं है। इसी लिए दुनियां में कुछ भी इतना रूखा और संकीर्ण नहीं, जितना कि पत्नी तथा बच्चे तक सिमटी-सिकुड़ी परिवार व्यवस्था।
संयुक्त परिवार व्यवस्था वस्तुतः मनुष्य के जीवन दर्शन का एक अंग है इसमें व्यक्तिवाद कुंठाएं और अभाव नहीं पनपने पाते। इसमें मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास की असीम सम्भावनाएं सन्निहित है। सम्मिलित परिवारों में सुख-सुविधाओं और उन्नति के जो अवसर उपलब्ध हो सकते हैं वे एकाकी व पृथक परिवारों में नहीं भारतीय संस्कृति सदैव की सम्मिलित परिवारों के आदेश को प्रोत्साहित करती रही है। किन्तु कुछ समय से संयुक्त परिवार व्यवस्था का ह्रास होने लगा है जिसका स्थान छोटे एकाकी परिवार (पति-पत्नी एवं बच्चे) लेते जा रहे हैं। इसीलिए सुख, शान्ति के मूल सिद्धान्त और आदर्श भी लुप्त होते जा रहे हैं।
ससीम से असीम क्षुद्र से महान, स्वार्थी से सन्तोषी बन पाना संयुक्त परिवार प्रणाली में ही सम्भव है। इस व्यवस्था में विकास एवं विस्तार की सम्भावनाएं अधिक हैं। जो जितना विकसित है उसकी आत्मीयता उतनी ही व्यापक होगी। क्षुद्रता की जकड़ से मनुष्य आत्म केन्द्रित बना रहता है। वह सम्पर्क भले ही बहुतों से रखता हो किन्तु स्वार्थ वश अपना लाभ हर समय उसकी दृष्टि पर छाया रहता है। परिवार उच्च स्तरीय दार्शनिकता है। घर परिवार में हर समय एक दूसरे के काम आने में त्याग बलिदान की भावना रहती है। यही स्नेही सूत्र परिवार को एक दूसरे से बांधे गुंथित किये रहते हैं। एकाकी मनुष्य अथवा एकाकी परिवारों में संयुक्त परिवारों के मुकाबले आत्मीयता, त्याग, बलिदान की भावना नहीं विकसित हो पाती। आज तो हानि लाभ की दृष्टि से प्रत्येक व्यवस्था का मूल्यांकन किया जाता है।
हानि लाभ की दृष्टि से भी संयुक्त परिवार व्यवस्था में आज की स्थिति में लाभ अधिक, हानि नगण्य हैं। एकाकी परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवारों के आवास निवास, भोजन, वस्त्र पर औसत कम खर्च आता है और आज की कमर तोड़ महंगाई में मकान किराया या, बिजली, ईंधन, तेल आदि के खर्चों में भारी किफायत की जा सकती है। यदि परिवार के सभी परिजन मां-बाप, भाई-बहिन अलग-अलग रहें, पकाये खायें तब उस व्यवस्था में दुगुना चौगुना व्यय अधिक होना स्वाभाविक है। संभ्रान्त परिवार यदि संयुक्त बने रहें तब तो उनके खर्चों में और भी भारी किफायत की जा सकती है। जैसे संयुक्त परिवार में रेडियो, लाइब्रेरी तथा निर्वाह के साधनों आदि से काम चल सकता है। इसके अतिरिक्त कितने ही प्रकार के टैक्सों में किफायत और रियासत, सुविधा और सरलता हो सकती है।
उदाहरण दिल्ली जैसे महानगर में ही यदि पचास हजार परिवारों को संयुक्त बने रहने के लिए सहमत किया जा सके तो पांच हजार आवासीय पलेटों की बचत की जाकर पच्चीस हजार ऐसे लोगों को बसाने की व्यवस्था की जा सकती है जो फुटपाथों, प्लेटफार्मों, धकेलगाड़ी, रिक्शा अथवा पेड़ों की छाया में सोकर सर्दी, गर्मी, बरसातें बिताते हैं। इन्हीं परिवारों पर खर्च होने वाली रोशनी, पंखे, कूलर, फ्रीज, हीटर आदि से इतनी बिजली बचत ही जा सकती है जिससे 1 हजार ग्रामीण ट्यूबवैलों को निरन्तर विद्युत सप्लाई की जा सके, जिसके चार हजार एकड़ असिंचित भूमि को सिंचित बनाया जाकर बीस हजार टन अतिरिक्त अन्न उत्पादन किया जा सके। इन्हीं परिवारों के खाने पकाने के ऊर्जा पर खर्च होने वाले व्यय की बचत की जाकर एक सुनहरी खाद का कारखाना सरलता से चलाया जाकर 10 लाख टन खाद प्रतिवर्ष प्राप्त की जा सकती है जिससे दिल्ली प्रान्त के सब्जी उत्पादक कृषकों की खाद की आवश्यकता पूरी की जा सकती है। इन्हीं परिवारों में अलग-अलग वाहनों का खर्च होने वाले पेट्रोल डीजल को बचाकर प्रतिवर्ष करोड़ों की विदेशी मुद्रा की बचत की जा सकती है।
संयुक्त परिवारों में यदि कोई कभी रोगी अथवा दुर्घटना ग्रस्त हो जाए अथवा किसी महिला को प्रसवासन्न जैसी अवस्था में अथवा किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ जाय तो एक दूसरे उस जिम्मेदारी को स्वतः सम्हाल लेता है। यदि असमय में ही पति अथवा पत्नी में से एक की मृत्यु हो जाय तब तो एकाकी परिवारों पर वज्रपात ही हो जाता है। उनके बच्चों के भूखा मरने, जेल भुगतने जैसा अवसर आ खड़ा होता है ऐसे में बेसहारों को कौन सहारा दे, किन्तु संयुक्त परिवारों में किसी को कहने की आवश्यकता नहीं होती उनकी व्यवस्था स्वतः बन जाती है। विवाह शादी, सुख-दुःख के अवसरों पर एकाकी परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवारों में अच्छी व्यवस्था बन जाती है।
संयुक्त परिवार व्यवस्था हर दृष्टि से लाभकारी है। वर्तमान सन्दर्भ में जब आदमी अन्दर से शुष्क होता चला जा रहा है, शहरी करण बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, इसकी उपादेयता और भी अधिक हो जाती है। उदार आत्मीयता का विस्तार, मिल बांट कर खाने की वृत्ति, सहयोग सहकार का शुभारम्भ संयुक्त परिवार व्यवस्था से किया जाय तभी सारी विश्व वसुधा को एक धागे में पिरोने की एक सुव्यवस्थित कुटुम्ब की तरह बनाने की कल्पना साकार ही जा सकती है।
भारत में परिवार व्यवस्था हजारों वर्ष पुरानी है। यद्यपि पराधीनता के अन्धकार युग में अनेकों विदेशी सभ्यताओं ने यहां की संस्कृति पर भी अपना प्रभाव डाला जिससे यहां की संयुक्त परिवार व्यवस्था बड़ी तेजी से विघटित और विश्रृंखलित हुई है। भारतीय परिवार मात्र सहयोग और सह निवास ही नहीं वे एक सहकारी संस्था हैं। यों मिल जुलकर तो लोग होटल और धर्मशालाओं में भी रह लेते हैं और सह निवास के कुछ नियम मर्यादाओं का निर्वाह भी करते हैं, किन्तु ऐसा सहकार सीमित और सामयिक होता है। इनमें परिवार जैसी आत्मीयता नहीं होती। भारतीय परिवारों में वास्तविक समाजवाद का दर्शन किया जाना सम्भव है।
पश्चिमी देशों में परिवार मानव जीवन की सीमित आवश्यकताओं को लेकर जुड़े और विकसित हुए हैं। उनमें भारत जैसा भावनात्मक लगाव, उदार आत्मीयता नहीं होती। भारतीय परिवारों में भाव सम्वेदनाओं को अनेक रूपों में आज भी न्यूनाधिक रूप में देखा जा सकता है जब कि विश्व भर में संयुक्त परिवार व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चली है। मानव के भाव जगत के बहु आयामी रूपों को यहां की संयुक्त प्रणाली परिवार व्यवस्था में देखा जा सकता है, जहां, माता, पिता, बाबा, दादी, के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, और उनका वात्सल्य, स्नेह, भाई-भाई का निस्वार्थ अनूठा प्रेम और त्याग, भाई बहिन की आत्मानुशासित मर्यादाओं और अन्तरंग स्नेह, नन्द, भाभी, सास, बहू, देवर, जेठ, जेठानी, देवरानी, चाचा, चाची, ताऊ, बुआ, भतीजे आदि का बहु आयामी दृश्य देखकर सहज की कहा जा सकता है कि भाव संवेदनाओं के विस्तार में ही आनन्द है न कि सिकोड़ने, समेटने में। जीवन जीने का असली आनन्द संयुक्त परिवार व्यवस्था में है न कि एकाकी जीवन में। पश्चिमी जगत की पति पत्नी और बच्चे वाली व्यवस्था में ऐसा भाव सम्वेदनाओं, प्रेम, स्नेह, ममता, उदार आत्मीयता का सौजन्य पूर्ण वातावरण नहीं है। इसी लिए दुनियां में कुछ भी इतना रूखा और संकीर्ण नहीं, जितना कि पत्नी तथा बच्चे तक सिमटी-सिकुड़ी परिवार व्यवस्था।
संयुक्त परिवार व्यवस्था वस्तुतः मनुष्य के जीवन दर्शन का एक अंग है इसमें व्यक्तिवाद कुंठाएं और अभाव नहीं पनपने पाते। इसमें मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास की असीम सम्भावनाएं सन्निहित है। सम्मिलित परिवारों में सुख-सुविधाओं और उन्नति के जो अवसर उपलब्ध हो सकते हैं वे एकाकी व पृथक परिवारों में नहीं भारतीय संस्कृति सदैव की सम्मिलित परिवारों के आदेश को प्रोत्साहित करती रही है। किन्तु कुछ समय से संयुक्त परिवार व्यवस्था का ह्रास होने लगा है जिसका स्थान छोटे एकाकी परिवार (पति-पत्नी एवं बच्चे) लेते जा रहे हैं। इसीलिए सुख, शान्ति के मूल सिद्धान्त और आदर्श भी लुप्त होते जा रहे हैं।
ससीम से असीम क्षुद्र से महान, स्वार्थी से सन्तोषी बन पाना संयुक्त परिवार प्रणाली में ही सम्भव है। इस व्यवस्था में विकास एवं विस्तार की सम्भावनाएं अधिक हैं। जो जितना विकसित है उसकी आत्मीयता उतनी ही व्यापक होगी। क्षुद्रता की जकड़ से मनुष्य आत्म केन्द्रित बना रहता है। वह सम्पर्क भले ही बहुतों से रखता हो किन्तु स्वार्थ वश अपना लाभ हर समय उसकी दृष्टि पर छाया रहता है। परिवार उच्च स्तरीय दार्शनिकता है। घर परिवार में हर समय एक दूसरे के काम आने में त्याग बलिदान की भावना रहती है। यही स्नेही सूत्र परिवार को एक दूसरे से बांधे गुंथित किये रहते हैं। एकाकी मनुष्य अथवा एकाकी परिवारों में संयुक्त परिवारों के मुकाबले आत्मीयता, त्याग, बलिदान की भावना नहीं विकसित हो पाती। आज तो हानि लाभ की दृष्टि से प्रत्येक व्यवस्था का मूल्यांकन किया जाता है।
हानि लाभ की दृष्टि से भी संयुक्त परिवार व्यवस्था में आज की स्थिति में लाभ अधिक, हानि नगण्य हैं। एकाकी परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवारों के आवास निवास, भोजन, वस्त्र पर औसत कम खर्च आता है और आज की कमर तोड़ महंगाई में मकान किराया या, बिजली, ईंधन, तेल आदि के खर्चों में भारी किफायत की जा सकती है। यदि परिवार के सभी परिजन मां-बाप, भाई-बहिन अलग-अलग रहें, पकाये खायें तब उस व्यवस्था में दुगुना चौगुना व्यय अधिक होना स्वाभाविक है। संभ्रान्त परिवार यदि संयुक्त बने रहें तब तो उनके खर्चों में और भी भारी किफायत की जा सकती है। जैसे संयुक्त परिवार में रेडियो, लाइब्रेरी तथा निर्वाह के साधनों आदि से काम चल सकता है। इसके अतिरिक्त कितने ही प्रकार के टैक्सों में किफायत और रियासत, सुविधा और सरलता हो सकती है।
उदाहरण दिल्ली जैसे महानगर में ही यदि पचास हजार परिवारों को संयुक्त बने रहने के लिए सहमत किया जा सके तो पांच हजार आवासीय पलेटों की बचत की जाकर पच्चीस हजार ऐसे लोगों को बसाने की व्यवस्था की जा सकती है जो फुटपाथों, प्लेटफार्मों, धकेलगाड़ी, रिक्शा अथवा पेड़ों की छाया में सोकर सर्दी, गर्मी, बरसातें बिताते हैं। इन्हीं परिवारों पर खर्च होने वाली रोशनी, पंखे, कूलर, फ्रीज, हीटर आदि से इतनी बिजली बचत ही जा सकती है जिससे 1 हजार ग्रामीण ट्यूबवैलों को निरन्तर विद्युत सप्लाई की जा सके, जिसके चार हजार एकड़ असिंचित भूमि को सिंचित बनाया जाकर बीस हजार टन अतिरिक्त अन्न उत्पादन किया जा सके। इन्हीं परिवारों के खाने पकाने के ऊर्जा पर खर्च होने वाले व्यय की बचत की जाकर एक सुनहरी खाद का कारखाना सरलता से चलाया जाकर 10 लाख टन खाद प्रतिवर्ष प्राप्त की जा सकती है जिससे दिल्ली प्रान्त के सब्जी उत्पादक कृषकों की खाद की आवश्यकता पूरी की जा सकती है। इन्हीं परिवारों में अलग-अलग वाहनों का खर्च होने वाले पेट्रोल डीजल को बचाकर प्रतिवर्ष करोड़ों की विदेशी मुद्रा की बचत की जा सकती है।
संयुक्त परिवारों में यदि कोई कभी रोगी अथवा दुर्घटना ग्रस्त हो जाए अथवा किसी महिला को प्रसवासन्न जैसी अवस्था में अथवा किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ जाय तो एक दूसरे उस जिम्मेदारी को स्वतः सम्हाल लेता है। यदि असमय में ही पति अथवा पत्नी में से एक की मृत्यु हो जाय तब तो एकाकी परिवारों पर वज्रपात ही हो जाता है। उनके बच्चों के भूखा मरने, जेल भुगतने जैसा अवसर आ खड़ा होता है ऐसे में बेसहारों को कौन सहारा दे, किन्तु संयुक्त परिवारों में किसी को कहने की आवश्यकता नहीं होती उनकी व्यवस्था स्वतः बन जाती है। विवाह शादी, सुख-दुःख के अवसरों पर एकाकी परिवारों की अपेक्षा संयुक्त परिवारों में अच्छी व्यवस्था बन जाती है।
संयुक्त परिवार व्यवस्था हर दृष्टि से लाभकारी है। वर्तमान सन्दर्भ में जब आदमी अन्दर से शुष्क होता चला जा रहा है, शहरी करण बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, इसकी उपादेयता और भी अधिक हो जाती है। उदार आत्मीयता का विस्तार, मिल बांट कर खाने की वृत्ति, सहयोग सहकार का शुभारम्भ संयुक्त परिवार व्यवस्था से किया जाय तभी सारी विश्व वसुधा को एक धागे में पिरोने की एक सुव्यवस्थित कुटुम्ब की तरह बनाने की कल्पना साकार ही जा सकती है।