Books - सद्भाव और सहकार पर ही परिवार संस्थान निर्भर
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Language: HINDI
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आत्मीयता और समर्पण पर निर्भर दाम्पत्य जीवन
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दो वस्तुओं के मिश्रण से तीसरी वस्तु बनने की रासायनिक प्रक्रिया से सभी परिचित हैं। औषधि शास्त्री जानते हैं कि यदि अमुक वनस्पतियां, धातुयें और क्षार अलग-अलग सेवन किये जायें तो उनका बहुत ही साधारण प्रभाव होगा किन्तु उन्हें मिला दिया जाए तो इस मिश्रण से एक नई ही प्रक्रिया उत्पन्न होगी। रसायन विज्ञान इसी आधार पर नई-नई वस्तुओं और विधियों का आविष्कार करता रहता है। इसी सिद्धान्त के द्वारा अनेकानेक नई वस्तुयें, नई जानकारियां और नये पदार्थ निर्मित होते हैं।
यह तो जड़ वस्तुओं की बात हुई। चेतन या जीवित प्राणियों को चेतन के स्तर पर मिलन उससे भी एकदम भिन्न और विलक्षण परिणाम प्रस्तुत करते हैं। विवाह चेतना के स्तर पर मिलन और मिश्रण प्रक्रिया का ही शुभारम्भ कहा जा सकता है जिससे नर और नारी दो भिन्न तरह की जैविक इकाइयां हृदय से एक दूसरे के प्रति समर्पित होती तथा नये व्यक्तित्व का निर्धारण करके, एक दूसरे का कायाकल्प करते हैं। नर-नारी का यही सम्मिश्रण सृष्टि निर्माण क्रम में चलता रहने से रंग-बिरंगे और विविध प्रतिभाओं से सुसम्पन्न फूल तथा तरह-तरह के स्वाद वाले फल उत्पन्न होते हैं। नर-नारी के बीच ऐसे घुलनशील तत्व हैं जो यदि गहन स्तर पर मिल सके तो एक नये ही व्यक्तित्व को जन्म देते हैं और दोनों अपना पुराना स्तर खोकर नये स्तर के बन जाते हैं। इस परिवर्तन को स्पष्ट देखा जा सकता है। विवाह से पूर्व लड़की कुमारी अवस्था में जिस स्तर की होती है उसमें विवाह के बाद कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो जाता है और लड़के विवाह से पूर्व जिस प्रकृति के होते वे भी विवाह के बाद इतने बदल जाते हैं कि केवल आकृति ही पुरानी रह जाती है, प्रकृति में तो जमीन आसमान जैसा अन्तर उपस्थित हो जाता है। लेकिन यह होता तभी है जब वे भावनात्मक स्तर पर इतनी गहराई तक उतर आयें कि एक दूसरे में घुल जाने की स्थिति प्राप्त कर लें।
भावनात्मक स्तर पर घुलने मिलने की प्रक्रिया यकायक सम्पन्न नहीं होती। इस सम्बन्ध में थियोडोर पार्कर का कहना है कि पुरुष और स्त्रियां विशेषकर युवा व्यक्ति जिनका अभी-अभी विवाह होता है, यह नहीं जानते कि दो हृदयों को पूर्ण रूप से एक दूसरे से घुलने, उनका पूरी तरह संयोग होने में वर्षों लग जाते हैं भले ही वे परस्पर प्रेम करने वाले क्यों न हों, एक दूसरे की ओर पहले से ही आकृष्ट क्यों न हों। इसका एकमात्र कारण यह है कि प्रकृति के नियमों के अनुसार आकस्मिक और तत्काल परिवर्तन नहीं हो सकता। संयोग, सम्मिलन और एकात्म स्थिति, धीरे-धीरे ही प्राप्त होती है। चिरकाल तक एक दूसरे के प्रति समर्पण, एकात्म हृदय होने का ही दूसरा नाम दाम्पत्य जीवन है।
दूसरे के व्यक्तित्व में घुल जाने की स्थिति प्राप्त करने में समय लगता है। व्यक्तित्व में घुलने का अर्थ है इतनी सघन भावनात्मक एकता कि उसमें शरीरों की भिन्नता का आभास ही नष्ट हो जाए। एक प्राण दो शरीर का आभार होने लगे। इस सघनता की प्राप्ति के लिए शुभारम्भ आत्मीयता, प्रेम, त्याग और समर्पण की भावनिष्ठा जागृत करने के साथ होता है। इस मार्ग से जब लय योग की साधना की जाती है, एक दूसरे के व्यक्तित्व में घुल मिल जाने का क्रम आरम्भ होता है तो इसके दो परिणाम होते हैं पहला तो यह कि प्रखर एवं अभिनव व्यक्तित्व से दोनों सम्पन्न बनते हैं। उस प्रखरता से, अभिनव व्यक्तित्व की आभा से दोनों जगमगा उठते हैं। दूसरा प्रतिफल होता है सन्तान की ऐसी उपलब्धि जो अगणित प्रतिभाओं से सम्पन्न होती है।
विवाह का यही मूल प्रयोजन है। व्यक्तित्व में घुलनशीलता, एकात्म स्थिति प्राप्त करना और प्रखर प्रक्रिया सम्पन्न सन्तान को जन्म देना। नर नारी के बीच प्रकृति ने इसीलिए स्वाभाविक आकर्षण उत्पन्न कर दिया है। रतिक्रिया में जिस आनन्द, जिस आवेश का समावेश होता है उसकी अनुभूति होती है उसका कारण भी यही है। प्रकृति चाहती है कि उसके परिवार में जीवधारियों का वंश ही न बना रहे वरन् उनका स्तर भी विकसित होता रहे। कहना न होगा कि भावनात्मक सघनता का सम्मिश्रण व्यक्तियों का स्तर विकसित करता है और पीढ़ियों में विशेषता भरता है। यही प्रक्रिया जब शारीरिक सघनता में परिणत होती है तो उच्च कोटि के गुणों से सम्पन्न सन्तति का जन्म होता है। नर और नारी की अपूर्णताओं को एक दूसरे की विशेषताओं से पूरी करके, एक दूसरे का पूरक बनते हुए पूर्णता को प्राप्त करना ही दाम्पत्य जीवन का मूलभूत प्रयोजन है। जहां पति-पत्नी की प्रकृति मिल जाती है और दोनों में परस्पर सघन सहयोग होता है, वहां इच्छित सन्तान का प्रतिभाशाली सन्तति का जन्म होना तो सुनिश्चित है ही, दोनों के व्यक्तित्व का कायाकल्प भी उतना ही सुनिश्चित है।
लेकिन यह सघन आत्मीयता उत्पन्न कैसे हो? इसके लिए आवश्यकता है पति-पत्नी एक दूसरे के साथी सहचर बनकर रहें, मालिक और गुलाम बन कर नहीं। आमतौर पर पुरुषों का दृष्टिकोण स्त्रियों के प्रति बहुत ही संकुचित और सामंत युगीन होता है। सामन्त काल में स्त्रियों को सम्पत्ति समझा जाता था और जिसके पास जितनी स्त्रियां होती थीं उसे उतना ही बड़ा सामन्त समझा जाता था। आज बदलते युग में एकाधिक पत्नियां तो कोई रखता नहीं है परन्तु उस समय के दृष्टिकोण में कोई विशेष भिन्नता नहीं आई है। पुरुष आज भी पत्नी को अपना मित्र और साथी-सहचर कम, दासी अधिक मानता है। परिणामतः इस स्तर की सघन आत्मीयता उत्पन्न नहीं हो पाती जो कि आदर्श दाम्पत्य के लिए आवश्यक अनिवार्य होती है।
स्त्री पुरुष के लिए जितना त्याग बलिदान करती रहती है। उस दृष्टि से स्त्री का स्थान पुरुष की तुलना में ऊंचा ही ठहरता है नीचा नहीं। एक प्रसिद्ध विचारक ने स्त्री के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है—‘स्त्री क्या है? वह सीधी स्वर्ग से आई है, एक पवित्र और सुकुमार उपहार के रूप में और इतने प्रेम व त्याग से भरी हुई है कि उसके प्रेम की थाह को किसी भी मापदण्ड से नहीं मापा जा सकता है। वह घर, समाज यहां तक कि सारी दुनियां को पवित्र करने के लिए, सुख-चैन देने के लिए और जगमगाने के लिए बनाई गई है। वह इतनी अमूल्य बनाई गई है कि उसका मूल्य कोई नहीं आंक सकता और यदि आंक सकता है तो केवल वही व्यक्ति, जिसकी मां इतने समय तक जीवित रही हो कि वह उसके महत्व को समझ सका हो, या फिर वह व्यक्ति नारी का मूल्य आंक सकता है, जिसे जीवन के संकट काल में, जबकि सब ओर से उसे निराशा मिली हो, तब उसकी धर्म पत्नी ने ईश्वर में गहरी आस्था रखते हुए उसका संबल बढ़ाया हो। वस्तुतः एक पुरुष का एक स्त्री के साथ स्थाई गठबन्धन प्रेम और आदर्श का ऐसा नाता जोड़ देता है जो और किसी भी प्रकार दो व्यक्तियों के बीच नहीं जोड़ा जा सकता।’
स्वेट मॉर्डन ने दाम्पत्य जीवन में प्रेम को धन से भी अधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान मानते हुए लिखा है कि, ‘‘यदि हम चाहें तो इस संसार में थोड़े से धन से भी निर्वाह कर सकते हैं परन्तु प्रेम एक ऐसी सम्पदा है, जिसकी हमारे यहां बहुलता होनी चाहिए और जिसे हम कभी भी इतनी मात्रा में इकट्ठा नहीं कर सकते कि हम यह कह सकें कि अब तो प्रेम आवश्यकता से अधिक हो गया।’’ जब थियोडोर पार्कर का विवाह हुआ तो उसने पत्नी के प्रति अपने व्यवहार को सदाशयता और मैत्रीपूर्ण रखने के लिए एक आचार संहिता बनाई। उसने विवाह के दिन ही अपनी डायरी में निम्नलिखित दस निश्चय लिख दिये और संकल्प किया कि वे दोनों कड़ाई के साथ इनका पालन करेंगे।
वे दस निश्चय इस प्रकार हैं—(1) आवश्यक कारण न हों तो पत्नी की इच्छा का कभी विरोध न करना (2) उसके प्रति सभी कर्तव्यों का उदारता से पालन करना (3) कभी कटु व्यवहार न करना (4) उसके स्वाभिमान को किसी भी प्रकार ठेस न पहुंचाना (5) उसे कभी आदेश दे दे कर परेशान न करना (6) उसकी शारीरिक निर्मलता को प्रोत्साहन देना (7) उसके काम-काज में हाथ बंटाना (8) उसके छोटे-मोटे दोषों को नजर अन्दाज करना (9) उसके प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों का पालन करना (10) तथा उसके लिए भी परमात्मा से प्रार्थना करना। स्वेट मॉर्डन ने इन गुणों की तुलना यहूदियों के प्राचीन दस धार्मिक आदेशों से करते हुए लिखा है—‘‘ये आदेश जो पार्कर ने अपने ऊपर स्वेच्छा से लागू किये यहूदियों के प्राचीन दस आदेशों के समान हैं। वास्तव में प्रेम वैवाहिक और नैतिक विधान दोनों की परिपूर्णता का नाम है।’’
यह वे आधार हैं जो व्यक्तियों के मिलन की जादूगरी रासायनिक प्रक्रिया जैसा भावनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की असाधारण क्षमता रखते हैं। इस उपलब्धि के लिए, सघन आत्मीयता सम्बन्धों के लिए पति पत्नी के बीच सघन प्यार और विश्वास होना चाहिए उसमें आशंकाओं और तुनक मिज़ाजी के लिए कोई स्थान नहीं है। जब साथी के गुण ही गुण दिखाई पड़ें और भूलें उपेक्षा अथवा विनोद उपहास की वस्तु बन जाए, उसके कारण मनोमालिन्य उत्पन्न होने की सम्भावना ही न हो तब समझना चाहिए कि सच्चे मन से समर्पण या घुलने-मिलने की बात पूरी हुई। आशंकाओं, सन्देहों, अविश्वासों, छिद्रान्वेषण की प्रवृत्तियों के बीच यह सघनता फलती-फूलती नहीं, उसे विश्वास और ममत्व का उन्मुक्त आकाश चाहिए।
इन प्रवृत्तियों के कारण पति-पत्नी वे वह सघनता उत्पन्न होती ही नहीं है जो उनके व्यक्तित्व का कायाकल्प कर सके तथा नये व्यक्तित्व को जन्म दे सके। यदि दोनों में अपार हार्दिक सघनता न हो तो दोनों में से जिसका व्यक्तित्व अधिक प्रतिभा सम्पन्न और जबरदस्त होता है उसी की छाप सन्तान पर पड़ती है। इसलिए सन्तान का स्तर सरल व्यक्तित्व अपनी कोमलता के कारण दब जाता है। इस तरह गृहस्थ तो चलता रह सकता है पर एकांगी प्रयास एक हाथ से ताली बजाने की चेष्टा के समान अपूर्ण ही रह जाता है।
फ्रांस के प्रसिद्ध मनःशास्त्री डा. क्रेटीन सौसे भी अधिक दंपत्तियों का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि एक पक्ष सज्जन हो तो दूसरे को अपने में ढाल सकता है। लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जब दूसरा पक्ष जैसा भी कुछ है अपना पूर्ण समर्पण कर दे। यदि दोनों व्यक्तित्व अपनी अहन्ता अलग-अलग बनाये रहें तो उनमें जो शक्तिशाली होगा उसी की विजय होगी। डा. क्रेटीन ने इस दिशा में कुछ प्रयोग भी किए। उन्होंने अपने निष्कर्ष को सही प्रमाणित करने के लिए विपरीत गुण, स्वभाव वाली स्त्री से विवाह करके सुयोग्य सन्तान की बात सिद्ध करने का प्रयत्न किया पर वे सफल न हो सके। अन्ततः उन्हें अपने प्रतिपादन को वापस लेना पड़ा और किसी एक पक्ष का प्रयास सफल नहीं हो सकता। इसमें दोनों को ही पिघलना पड़ता है और यह प्रयत्न करना पड़ता है कि घनिष्ठता एकता को हर कीमत पर बनाये रहा जाए। यदि ऐसा न हुआ तो फिर जो पक्ष सबल होगा दूसरे पर छा जाने का प्रयत्न करेगा।
इस सन्दर्भ में बर्लिन की एक महिला इमगार्ड ब्रन्स का उदाहरण प्रासंगिक है। उसने एक के बाद एक पांच बार विवाह किये। पांचों पतियों को क्रमशः आत्महत्या करके ही अपने जीवन का अन्त करना पड़ा। कारण कि उसकी भावनात्मक प्रचण्डता इतनी तीव्र थी कि पति उसके शिकार होकर अपना समुन्नत खोते गये। विवाह का उद्देश्य यदि मात्र सन्तानोत्पादन करना हो बात दूसरी है, अन्यथा व्यक्तित्व में प्रखर प्रत्यावर्तन उत्पन्न करना और प्रतिभाशाली सन्तान प्राप्त होना तभी सम्भव है जब नर-नारी के बीच अत्यन्त गहरे एवं सघन स्तर की आत्मीयता स्थापित हो सके। ऐसे ही विवाह सच्चे अर्थों में विवाह को अन्यथा उन्हें एक मजबूरी का निर्वाह मात्र कहा जा सकता है। अस्तु श्रेष्ठ सन्तानोत्पादन के लिए दाम्पत्य जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह है पति-पत्नी के बीच अति सघन, प्रचण्ड और प्रबल भावनात्मक एकता स्थापित करना।
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*समाप्त*
यह तो जड़ वस्तुओं की बात हुई। चेतन या जीवित प्राणियों को चेतन के स्तर पर मिलन उससे भी एकदम भिन्न और विलक्षण परिणाम प्रस्तुत करते हैं। विवाह चेतना के स्तर पर मिलन और मिश्रण प्रक्रिया का ही शुभारम्भ कहा जा सकता है जिससे नर और नारी दो भिन्न तरह की जैविक इकाइयां हृदय से एक दूसरे के प्रति समर्पित होती तथा नये व्यक्तित्व का निर्धारण करके, एक दूसरे का कायाकल्प करते हैं। नर-नारी का यही सम्मिश्रण सृष्टि निर्माण क्रम में चलता रहने से रंग-बिरंगे और विविध प्रतिभाओं से सुसम्पन्न फूल तथा तरह-तरह के स्वाद वाले फल उत्पन्न होते हैं। नर-नारी के बीच ऐसे घुलनशील तत्व हैं जो यदि गहन स्तर पर मिल सके तो एक नये ही व्यक्तित्व को जन्म देते हैं और दोनों अपना पुराना स्तर खोकर नये स्तर के बन जाते हैं। इस परिवर्तन को स्पष्ट देखा जा सकता है। विवाह से पूर्व लड़की कुमारी अवस्था में जिस स्तर की होती है उसमें विवाह के बाद कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो जाता है और लड़के विवाह से पूर्व जिस प्रकृति के होते वे भी विवाह के बाद इतने बदल जाते हैं कि केवल आकृति ही पुरानी रह जाती है, प्रकृति में तो जमीन आसमान जैसा अन्तर उपस्थित हो जाता है। लेकिन यह होता तभी है जब वे भावनात्मक स्तर पर इतनी गहराई तक उतर आयें कि एक दूसरे में घुल जाने की स्थिति प्राप्त कर लें।
भावनात्मक स्तर पर घुलने मिलने की प्रक्रिया यकायक सम्पन्न नहीं होती। इस सम्बन्ध में थियोडोर पार्कर का कहना है कि पुरुष और स्त्रियां विशेषकर युवा व्यक्ति जिनका अभी-अभी विवाह होता है, यह नहीं जानते कि दो हृदयों को पूर्ण रूप से एक दूसरे से घुलने, उनका पूरी तरह संयोग होने में वर्षों लग जाते हैं भले ही वे परस्पर प्रेम करने वाले क्यों न हों, एक दूसरे की ओर पहले से ही आकृष्ट क्यों न हों। इसका एकमात्र कारण यह है कि प्रकृति के नियमों के अनुसार आकस्मिक और तत्काल परिवर्तन नहीं हो सकता। संयोग, सम्मिलन और एकात्म स्थिति, धीरे-धीरे ही प्राप्त होती है। चिरकाल तक एक दूसरे के प्रति समर्पण, एकात्म हृदय होने का ही दूसरा नाम दाम्पत्य जीवन है।
दूसरे के व्यक्तित्व में घुल जाने की स्थिति प्राप्त करने में समय लगता है। व्यक्तित्व में घुलने का अर्थ है इतनी सघन भावनात्मक एकता कि उसमें शरीरों की भिन्नता का आभास ही नष्ट हो जाए। एक प्राण दो शरीर का आभार होने लगे। इस सघनता की प्राप्ति के लिए शुभारम्भ आत्मीयता, प्रेम, त्याग और समर्पण की भावनिष्ठा जागृत करने के साथ होता है। इस मार्ग से जब लय योग की साधना की जाती है, एक दूसरे के व्यक्तित्व में घुल मिल जाने का क्रम आरम्भ होता है तो इसके दो परिणाम होते हैं पहला तो यह कि प्रखर एवं अभिनव व्यक्तित्व से दोनों सम्पन्न बनते हैं। उस प्रखरता से, अभिनव व्यक्तित्व की आभा से दोनों जगमगा उठते हैं। दूसरा प्रतिफल होता है सन्तान की ऐसी उपलब्धि जो अगणित प्रतिभाओं से सम्पन्न होती है।
विवाह का यही मूल प्रयोजन है। व्यक्तित्व में घुलनशीलता, एकात्म स्थिति प्राप्त करना और प्रखर प्रक्रिया सम्पन्न सन्तान को जन्म देना। नर नारी के बीच प्रकृति ने इसीलिए स्वाभाविक आकर्षण उत्पन्न कर दिया है। रतिक्रिया में जिस आनन्द, जिस आवेश का समावेश होता है उसकी अनुभूति होती है उसका कारण भी यही है। प्रकृति चाहती है कि उसके परिवार में जीवधारियों का वंश ही न बना रहे वरन् उनका स्तर भी विकसित होता रहे। कहना न होगा कि भावनात्मक सघनता का सम्मिश्रण व्यक्तियों का स्तर विकसित करता है और पीढ़ियों में विशेषता भरता है। यही प्रक्रिया जब शारीरिक सघनता में परिणत होती है तो उच्च कोटि के गुणों से सम्पन्न सन्तति का जन्म होता है। नर और नारी की अपूर्णताओं को एक दूसरे की विशेषताओं से पूरी करके, एक दूसरे का पूरक बनते हुए पूर्णता को प्राप्त करना ही दाम्पत्य जीवन का मूलभूत प्रयोजन है। जहां पति-पत्नी की प्रकृति मिल जाती है और दोनों में परस्पर सघन सहयोग होता है, वहां इच्छित सन्तान का प्रतिभाशाली सन्तति का जन्म होना तो सुनिश्चित है ही, दोनों के व्यक्तित्व का कायाकल्प भी उतना ही सुनिश्चित है।
लेकिन यह सघन आत्मीयता उत्पन्न कैसे हो? इसके लिए आवश्यकता है पति-पत्नी एक दूसरे के साथी सहचर बनकर रहें, मालिक और गुलाम बन कर नहीं। आमतौर पर पुरुषों का दृष्टिकोण स्त्रियों के प्रति बहुत ही संकुचित और सामंत युगीन होता है। सामन्त काल में स्त्रियों को सम्पत्ति समझा जाता था और जिसके पास जितनी स्त्रियां होती थीं उसे उतना ही बड़ा सामन्त समझा जाता था। आज बदलते युग में एकाधिक पत्नियां तो कोई रखता नहीं है परन्तु उस समय के दृष्टिकोण में कोई विशेष भिन्नता नहीं आई है। पुरुष आज भी पत्नी को अपना मित्र और साथी-सहचर कम, दासी अधिक मानता है। परिणामतः इस स्तर की सघन आत्मीयता उत्पन्न नहीं हो पाती जो कि आदर्श दाम्पत्य के लिए आवश्यक अनिवार्य होती है।
स्त्री पुरुष के लिए जितना त्याग बलिदान करती रहती है। उस दृष्टि से स्त्री का स्थान पुरुष की तुलना में ऊंचा ही ठहरता है नीचा नहीं। एक प्रसिद्ध विचारक ने स्त्री के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है—‘स्त्री क्या है? वह सीधी स्वर्ग से आई है, एक पवित्र और सुकुमार उपहार के रूप में और इतने प्रेम व त्याग से भरी हुई है कि उसके प्रेम की थाह को किसी भी मापदण्ड से नहीं मापा जा सकता है। वह घर, समाज यहां तक कि सारी दुनियां को पवित्र करने के लिए, सुख-चैन देने के लिए और जगमगाने के लिए बनाई गई है। वह इतनी अमूल्य बनाई गई है कि उसका मूल्य कोई नहीं आंक सकता और यदि आंक सकता है तो केवल वही व्यक्ति, जिसकी मां इतने समय तक जीवित रही हो कि वह उसके महत्व को समझ सका हो, या फिर वह व्यक्ति नारी का मूल्य आंक सकता है, जिसे जीवन के संकट काल में, जबकि सब ओर से उसे निराशा मिली हो, तब उसकी धर्म पत्नी ने ईश्वर में गहरी आस्था रखते हुए उसका संबल बढ़ाया हो। वस्तुतः एक पुरुष का एक स्त्री के साथ स्थाई गठबन्धन प्रेम और आदर्श का ऐसा नाता जोड़ देता है जो और किसी भी प्रकार दो व्यक्तियों के बीच नहीं जोड़ा जा सकता।’
स्वेट मॉर्डन ने दाम्पत्य जीवन में प्रेम को धन से भी अधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान मानते हुए लिखा है कि, ‘‘यदि हम चाहें तो इस संसार में थोड़े से धन से भी निर्वाह कर सकते हैं परन्तु प्रेम एक ऐसी सम्पदा है, जिसकी हमारे यहां बहुलता होनी चाहिए और जिसे हम कभी भी इतनी मात्रा में इकट्ठा नहीं कर सकते कि हम यह कह सकें कि अब तो प्रेम आवश्यकता से अधिक हो गया।’’ जब थियोडोर पार्कर का विवाह हुआ तो उसने पत्नी के प्रति अपने व्यवहार को सदाशयता और मैत्रीपूर्ण रखने के लिए एक आचार संहिता बनाई। उसने विवाह के दिन ही अपनी डायरी में निम्नलिखित दस निश्चय लिख दिये और संकल्प किया कि वे दोनों कड़ाई के साथ इनका पालन करेंगे।
वे दस निश्चय इस प्रकार हैं—(1) आवश्यक कारण न हों तो पत्नी की इच्छा का कभी विरोध न करना (2) उसके प्रति सभी कर्तव्यों का उदारता से पालन करना (3) कभी कटु व्यवहार न करना (4) उसके स्वाभिमान को किसी भी प्रकार ठेस न पहुंचाना (5) उसे कभी आदेश दे दे कर परेशान न करना (6) उसकी शारीरिक निर्मलता को प्रोत्साहन देना (7) उसके काम-काज में हाथ बंटाना (8) उसके छोटे-मोटे दोषों को नजर अन्दाज करना (9) उसके प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों का पालन करना (10) तथा उसके लिए भी परमात्मा से प्रार्थना करना। स्वेट मॉर्डन ने इन गुणों की तुलना यहूदियों के प्राचीन दस धार्मिक आदेशों से करते हुए लिखा है—‘‘ये आदेश जो पार्कर ने अपने ऊपर स्वेच्छा से लागू किये यहूदियों के प्राचीन दस आदेशों के समान हैं। वास्तव में प्रेम वैवाहिक और नैतिक विधान दोनों की परिपूर्णता का नाम है।’’
यह वे आधार हैं जो व्यक्तियों के मिलन की जादूगरी रासायनिक प्रक्रिया जैसा भावनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की असाधारण क्षमता रखते हैं। इस उपलब्धि के लिए, सघन आत्मीयता सम्बन्धों के लिए पति पत्नी के बीच सघन प्यार और विश्वास होना चाहिए उसमें आशंकाओं और तुनक मिज़ाजी के लिए कोई स्थान नहीं है। जब साथी के गुण ही गुण दिखाई पड़ें और भूलें उपेक्षा अथवा विनोद उपहास की वस्तु बन जाए, उसके कारण मनोमालिन्य उत्पन्न होने की सम्भावना ही न हो तब समझना चाहिए कि सच्चे मन से समर्पण या घुलने-मिलने की बात पूरी हुई। आशंकाओं, सन्देहों, अविश्वासों, छिद्रान्वेषण की प्रवृत्तियों के बीच यह सघनता फलती-फूलती नहीं, उसे विश्वास और ममत्व का उन्मुक्त आकाश चाहिए।
इन प्रवृत्तियों के कारण पति-पत्नी वे वह सघनता उत्पन्न होती ही नहीं है जो उनके व्यक्तित्व का कायाकल्प कर सके तथा नये व्यक्तित्व को जन्म दे सके। यदि दोनों में अपार हार्दिक सघनता न हो तो दोनों में से जिसका व्यक्तित्व अधिक प्रतिभा सम्पन्न और जबरदस्त होता है उसी की छाप सन्तान पर पड़ती है। इसलिए सन्तान का स्तर सरल व्यक्तित्व अपनी कोमलता के कारण दब जाता है। इस तरह गृहस्थ तो चलता रह सकता है पर एकांगी प्रयास एक हाथ से ताली बजाने की चेष्टा के समान अपूर्ण ही रह जाता है।
फ्रांस के प्रसिद्ध मनःशास्त्री डा. क्रेटीन सौसे भी अधिक दंपत्तियों का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि एक पक्ष सज्जन हो तो दूसरे को अपने में ढाल सकता है। लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जब दूसरा पक्ष जैसा भी कुछ है अपना पूर्ण समर्पण कर दे। यदि दोनों व्यक्तित्व अपनी अहन्ता अलग-अलग बनाये रहें तो उनमें जो शक्तिशाली होगा उसी की विजय होगी। डा. क्रेटीन ने इस दिशा में कुछ प्रयोग भी किए। उन्होंने अपने निष्कर्ष को सही प्रमाणित करने के लिए विपरीत गुण, स्वभाव वाली स्त्री से विवाह करके सुयोग्य सन्तान की बात सिद्ध करने का प्रयत्न किया पर वे सफल न हो सके। अन्ततः उन्हें अपने प्रतिपादन को वापस लेना पड़ा और किसी एक पक्ष का प्रयास सफल नहीं हो सकता। इसमें दोनों को ही पिघलना पड़ता है और यह प्रयत्न करना पड़ता है कि घनिष्ठता एकता को हर कीमत पर बनाये रहा जाए। यदि ऐसा न हुआ तो फिर जो पक्ष सबल होगा दूसरे पर छा जाने का प्रयत्न करेगा।
इस सन्दर्भ में बर्लिन की एक महिला इमगार्ड ब्रन्स का उदाहरण प्रासंगिक है। उसने एक के बाद एक पांच बार विवाह किये। पांचों पतियों को क्रमशः आत्महत्या करके ही अपने जीवन का अन्त करना पड़ा। कारण कि उसकी भावनात्मक प्रचण्डता इतनी तीव्र थी कि पति उसके शिकार होकर अपना समुन्नत खोते गये। विवाह का उद्देश्य यदि मात्र सन्तानोत्पादन करना हो बात दूसरी है, अन्यथा व्यक्तित्व में प्रखर प्रत्यावर्तन उत्पन्न करना और प्रतिभाशाली सन्तान प्राप्त होना तभी सम्भव है जब नर-नारी के बीच अत्यन्त गहरे एवं सघन स्तर की आत्मीयता स्थापित हो सके। ऐसे ही विवाह सच्चे अर्थों में विवाह को अन्यथा उन्हें एक मजबूरी का निर्वाह मात्र कहा जा सकता है। अस्तु श्रेष्ठ सन्तानोत्पादन के लिए दाम्पत्य जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह है पति-पत्नी के बीच अति सघन, प्रचण्ड और प्रबल भावनात्मक एकता स्थापित करना।
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*समाप्त*