Books - सद्भाव और सहकार पर ही परिवार संस्थान निर्भर
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Language: HINDI
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परिवार संस्था की एक सुनिश्चित आधार संहिता
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पारिवारिक सौजन्य एवं उसके घटकों में परस्पर तालमेल ही इस संस्था को सशक्त-समर्थ बनाता है। समाज निर्माण तब तक अकल्पनीय हैं, जब तक कि उसकी एक इकाई परिवार शालीनता जैसे सद्गुण से रहित है। राष्ट्र निर्माण के सारे साधन-उपाय निरर्थक ही हैं, यदि परिवार संस्था की उपेक्षा कर मात्र अर्थ साधनों एवं सुविधाओं पर ध्यान दिया जाता है। इस महत्वपूर्ण घटक की उपेक्षा—अवहेलना ही किसी राष्ट्र के पतन का कारण बनती है। चाहे बाहर से दीखने में कोई भी समाज कितना ही समृद्ध क्यों न हो, जब तक परिवार व्यवस्था का समुचित तन्त्र सभ्यता शिष्टाचार सद्व्यवहार जैसी प्रवृत्तियों से रहित है उसके आधार खोखले ही हैं। ब्लड कैंसर का रोगी बाहर से दीखने में स्वस्थ नजर आता है। यह उसकी चिकित्सा करने वाला चिकित्सक व रोगी ही जानता है कि बहिरंग से स्वस्थ यह व्यक्ति किस प्रकार पल-पल मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा है जीवनी शक्ति उसकी पूरी नष्ट हो चुकी है। बहुत कुछ यही बात परिवारों पर भी सही उतरती है। इसके विभिन्न सदस्यों में कलह, मन-मुटाव—असामंजस्य अन्ततः विघटन की पारिवारिक अशान्ति व मनो आत्मिक रोगों तथा सामाजिक अव्यवस्था को जन्म देती है।
परिवार के हर सदस्य को इसीलिए उन तथ्यों से भली प्रकार अवगत कराना चाहिए जिनसे उनके कर्तव्य एवं अधिकारों की मर्यादा का निर्धारण होता है। संसार का गतिचक्र आदान-प्रदान के आधार पर चलता है। प्राप्त करना अधिकार है किन्तु उसका मूल्य चुकाना कर्त्तव्य। दोनों के मध्य सुनियोजित तालमेल हो तो गतिचक्र अपनी धुरी पर ठीक प्रकार चलता रहता है।
एक दीपक से अपना अथवा दूसरों का विनाश हो सकता है। सृजन और अभिवर्धन के लिए समन्वय की शक्ति ही कारगर सिद्ध हो सकती है। इतना जान लेने पर दूसरा तथ्य यही सामने आता है कि समन्वय सहयोग के मूल में आदान-प्रदान का सिद्धान्त काम करता है। एक पक्षीय अनुदान आदर्श एवं अपवाद भी हो सकता है, उसे प्रचलन के रूप में मान्यता नहीं मिल सकती। अधिकारी की मांग करना और आशा रखना तभी सार्थक हो सकता है जब कर्तव्य पालन अपने हाथ में है और अधिकार देना दूसरों के। जो अपने बस की बात है उसे तो निश्चित रूप से किया ही जा सकता है। प्रतिफल न मिले तो भी इसमें आत्म गौरव और आत्म संतोष का असाधारण लाभ तो मिलता ही रहता है। भौतिक अधिकार न मिलने पर भी यह आत्मिक उपार्जन इतना बड़ा है कि उससे भावनाशील हमेशा लाभ ही देखते हैं घाटा नहीं।
परिवार भी एक प्रकार से सहकारी संस्था है। इसमें हर व्यक्ति एक दूसरे को देता है, साथ ही कुछ पाने की अपेक्षा भी रखता है। अभिभावक बच्चों को पालते हैं, उनके लिए कष्ट उठाते और खर्च करते हैं। साथ ही उनसे कुछ आशा उपेक्षा भी रखते हैं। सम्मान और अनुशासन उनकी तात्कालिक मांग है और बड़े होने पर सेवा सुश्रूषा के रूप में प्रतिपादन की अपेक्षा रखना बाद की। दोनों एक दूसरे की सद्भाव सम्पन्न सेवा सहायता करें यह तो बहुत ही ऊंची और अच्छी बात है पर इतना तो व्यवहार बुद्धि से भी सोचा जा सकता है कि पाने वाले को बदला चुकाने से ही ऋण भार से मुक्ति मिल सकती है। न चुकाने पर तो ऋण भार का दबाव इतना बोझिल रहता है कि उसकी आत्मा ही कुचल जाती है।
पत्नी व्रत और पति व्रत धर्म यों निभा तो एक पक्ष की आदर्शवादिता भी लेती है पर वह विशिष्ठों का कीर्तिमान है। स्वाभाविक और व्यावहारिक यही है कि दोनों एक दूसरे के समर्पण सहयोग का महत्व समझें, अनुग्रह के लिए कृतज्ञ रहें और हर घड़ी बदला चुकाने का अवसर खोजें। यह आदान-प्रदान जहां यथावत रहेगा वहां मैत्री निभेगी भी और बढ़ेगी भी किन्तु जहां एक पक्ष ने मात्र अधिकार की रट लगायी और कर्तव्य की उपेक्षा की, समझना चाहिए कि खाई बढ़ेगी और प्रीति के स्थान पर विवशता और कटुता ही शेष रह जायेगी। स्वामी और सेवक, व्यापारी और ग्राहक, मित्र और मित्र, गुरु और शिष्य, देवता और भक्त प्रायः इसी आधार पर एक दूसरे के सेवक सहयोगी बन कर रहते हैं। एक के हाथ खींच लेने पर दूसरे का बढ़ा हुआ हाथ भी निरर्थक ही सिद्ध होगा। समुद्र और बादलों के बीच देने और लौटाने की नीति और अनादि काल से उन्हें सहयोग सूत्र में बांधे हुए है। धरती पौधों को एक हाथ से खुराक देती है पर बदले में दूसरे हाथ से खाद और गोबर के रूप में उनसे प्रतिदान वापस मांगती है। जिस दिन इस आदान-प्रदान में व्यवधान उत्पन्न होगा उस दिन न पौधों की हरीतिमा जीवित रहेगी और न धरती की उर्वरता।
परिवार का भावनात्मक महत्व जो भी है, प्रत्यक्षतः वह एक सहकारी संस्था है जिसके हर घटक को अधिकार मिलता है। साथ ही यह शर्त भी जुड़ी रहती है कि उसे समयानुसार उसका प्रतिपादन भी लौटाना होगा। इस लौटाने में जो जितनी आनाकानी करता है वह उतना ही निकृष्ट बनता और जिसे जितनी उतावली रहती है वह उतना ही उत्कृष्ट ठहरता है।
यह भी जरूरी है कि अभिभावक अपने आश्रितों पर इतना ऋण न लादें जिसे वे चुका न सकें और इस बोझ से उनके उत्तराधिकारी आत्म प्रताड़ना सहते दिखाई दें। अनावश्यक अनुदान कभी किसी को फलते नहीं। अति का भोजन कष्टकारक होता है और अति का अनुग्रह दुर्गुणों दुर्भावनाओं के रूप में उभरता है। अकर्मण्यता और अहंकारिता तो इसमें बढ़ती ही है। अस्तु बुद्धिमान अभिभावकों के लिए इतना ही पर्याप्त है कि आश्रितों को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी भर बनायें। उन पर अनावश्यक सम्पदा का इतना बोझ न लादें जिसे पाकर वे उपार्जन की चिन्ता से ही मुक्त हो चलें और खाली समय और व्यर्थ सम्पत्ति को दुर्व्यसनों में गंवाकर अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारें।
परिजनों का भी कर्तव्य है कि सम्पन्न अभिभावकों से उत्तराधिकार में सम्पदा की मांग न करें। पारिवारिक निर्वाह का यदि कोई व्यवसाय तन्त्र चलता है तो उसे संयुक्त रूप से अक्षुण्ण रखा जा सकता है। असमर्थ आश्रितों को भी निर्वाह साधन संचित सम्पदा से पाने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त यदि समर्थ व्यक्ति उत्तराधिकार में सम्पदा की मांग करें तो उसे अनुचित ही ठहराया जायेगा। ऐसा वैभव विशुद्ध रूप से समाज की सम्पत्ति है। उसे भले ही श्राद्ध के रूप में लौटाया जाय अथवा मृत्यु करके रूप में, बिना परिश्रम की कमाई और चोरी के कानून स्वरूप जो भी हों इन की मूल प्रक्रिया में कोई अन्तर नहीं आता। परिवार के हर सदस्य को आरम्भ में सही यह अर्थ शास्त्र पढ़ाया जाना चाहिए और स्वावलम्बन के लिए उनकी मनोभूमि विकसित की जानी चाहिए।
परिवार एक गाय है जिसका दूध पीने के लिए ही सब ललचाते रहें, यह अनुचित है। उसके लिए चारा पानी, धूप, छांव एवं सुविधा सफाई की जिम्मेदारी भी इन दूध पीने वालों को उठानी चाहिए। परिवार समर्थ होगा तो उसकी छाया का, शोभा का, फल सम्पदा का लाभ भी मिलेगा अन्यथा सूखे ठूंठ से जगह भी घिरेगी और अड़चन भी पड़ेगी। तरह तरह की अपेक्षाएं रखना और फरमाइशें करना तो अनेकों को आता है पर इस तथ्य को भुला ही दिया जाता है कि इस संस्थान को परिपुष्ट और परिपक्व बनाने के लिए बड़ा योगदान होना चाहिए, जो अब तक पाया गया है एवं जो आगे के लिए मांगा जा रहा है। सम्पन्नता तो एक समर्थ व्यक्ति भी उपार्जित कर सकता है पर सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न करने में हर सदस्य का समुचित योगदान होना चाहिए।
गृहपति कोई भी क्यों न हो, अनुशासन किसी का भी चलता हो। इस दृष्टि से हर सदस्य अपने आप में पूर्ण है कि उसे पारस्परिक स्नेह सहयोग बढ़ाने और सत्प्रवृत्तियों को व्यवहार में उतारने की दृष्टि से अग्रणी रखना है। बड़प्पन इसी में है कि परम्परा का निर्वाह किया जाये, भटकों को राह पर लाने के लिए अपना प्रभावी उदाहरण प्रस्तुत किया जाय।
इसके लिए नितान्त नये प्रयोग भी करना पड़ सकते हैं। समीक्षा किए बिना—परामर्श दिए बिना, सुधार सम्भव नहीं। अपने आप अपनी गलती ढूंढ़ लेने और सुधार लेने वाले तो सन्त होते हैं, सामान्य नहीं। अतः कुछ विरले अपवादों को छोड़कर शेष को तो सम्भालने, सुधारने और दिशा देने की आवश्यकता रहेगी ही। इसके लिए मध्यवर्ती सन्तुलित मार्ग निकालना चाहिए और प्रशंसायुक्त निन्दा करने की कला सीखनी चाहिए। जिसे परामर्श दिया जा रहा है उसे अपने और उसके बीच घनिष्ठ आत्मीयता और गहरी सद्भावना का विश्वास भी दिलाते रहना चाहिए। समीक्षक के प्रति निन्दक और द्वेषी होने की आशंका जगती है अस्तु उसे निरस्त करने के लिए परामर्श देने से पूर्व अपनी सद्भावना सम्पन्न वरिष्ठता का विश्वास किसी न किसी रूप में अवश्य स्मरण करा देना चाहिए। हर काम में कुछ न कुछ मनोयोग और श्रम लगा ही होता है, उतने ही प्रशंसा किये बिना समीक्षा की शुरुआत कभी नहीं करनी चाहिए। जो गलती रही है उससे होने वाली हानि को प्रधानता न देकर उस कल्पना चित्र में रंग भरना चाहिए जो सुधार होने पर सम्भावना सामने आने की आशा बनती है। वर्तमान भूल से होने वाली हानि की चर्चा परामर्श के अन्त में और हलके ढंग से करनी चाहिए ताकि उससे अभीष्ट जानकारी मिलने और संभलने की सतर्कता तो जग जाय, पर यह अनुभव न हो कि उसे तिरस्कृत किया जा रहा है। जिन परिस्थितियों में भूल होती रही है, उन दोषी परिस्थितियों को बता देने से काम बन जाता है। परामर्शदाता का उद्देश्य निन्दा करना या जी दुखाना तो होता नहीं, वह सुधार ही तो चाहता है। इस प्रयोजन के लिए व्यक्ति की निन्दा करने की अपेक्षा परिस्थितियों का दोष कह देने से भी काम चल सकता है। इसमें मानापमान का झंझट ही नहीं रहता, साथ ही परोक्ष रूप से असावधानी की भर्त्सना भी हो जाती है। मन्तव्य इतने भर से हल हो सकता है।
परिवार शिक्षण की दृष्टि से घर के बड़े यह परम्परा आरम्भ कर सकते हैं कि दिन भर की काम-काजी बातचीत में समय-समय पर हलके-फुलके ढंग से यह परामर्श देते रहे कि किस प्रकार इस कार्य को अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है। इसमें सिद्धान्त और व्यवहार दोनों का जिक्र किया जाय। लड़की यदि आंगन में बुहारी लगा रही है और वह उस कार्य को ठीक तरह नहीं कर पा रही है तो उसे अच्छी तरह सफाई करके दिखानी चाहिए और बताया जाना चाहिए कि भूल कहां होती है और उसे दूर करके अच्छी सफाई करने का सिद्धान्त और तरीका क्या है? इसी प्रकार बच्चों द्वारा किये जाने वाले कामों को किस प्रकार अधिक सुन्दर ढंग से किया जा सकता है, बड़ों को इसका मार्ग दर्शन सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों ही रीति से करते रहना चाहिए। कार्यों की तरह ही विचार प्रकट होते रहते हैं। इस ओर भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कौन किस सम्बन्ध में क्या सोचता है और उसके सोचने में कितना औचित्य तथा कितना अनौचित्य मिला हुआ है? परामर्श इस सम्बन्ध में भी दिया जाना चाहिए।
परामर्शदाता की भूमिका निभाने से पूर्व वाणी की यह कलाकारिता सीखी जानी चाहिए कि दूसरे के सम्मान स्वाभिमान की रक्षा करते हुए—उसे खिजाने की नहीं, प्रोत्साहित करने के ढंग से अभीष्ट शिक्षा किस प्रकार की दी जा सकती है। जो किया जा रहा है उसमें जितना श्रम हुआ है, जितना उत्साह दिखाया गया है उतने अंश की प्रशंसा की जानी चाहिए। इसके बाद जो कमी रही है उसका उल्लेख न करते हुए यह बताया जाना चाहिए कि उस कार्य को और भी अधिक कुशलता, सुन्दरता एवं सफलता के साथ किस प्रकार किया जा सकता है।
जिन्हें अपना घर-परिवार सम्भालना है। उन सभी सदस्यों को पग-पग पर तो नहीं, पर अवसर देखकर भूलों के लिए टोकने और अधिक अच्छा करने का उपाय बताने की प्रक्रिया अनवरत रूप से जारी रखनी चाहिए। शुभाकांक्षियों के सत्परामर्श देने के यह प्रयत्न किस चट्टान से टकराकर टूटते हैं? जो इसे जान लेगा वह सामने वाले के सम्मान, अपमान का, सम्वेदनाओं का समुचित ध्यान रखे रहेगा। फलतः उसका तीर ठीक निशाने पर बैठता रहेगा और यह शिकायत करने का कोई कारण न रहेगा कि लोग सत्परामर्श भी सुनने मानने को तैयार नहीं हैं।
अतः प्रत्येक विकासोन्मुख परिवार को अपने यहां परामर्श गोष्ठी का नियमित रूप से प्रचलन आरम्भ कर देना चाहिए। इसे ज्ञान का चर्चा नाम दिया जाय। इसके लिए रात्रि को भोजन से निवृत्त होने के पश्चात् अवकाश वाला समय अधिक उपयुक्त रहता है। इस प्रचलन की जहां उपयोगिता समझी जाय वहां भोजन जल्दी बनने और जल्दी खाने की परम्परा डाली जानी चाहिए अन्यथा देर तक यही झंझट चलता रहा तो गोष्ठी में सम्मिलित होने का अवकाश ही न रह जायेगा। बच्चे तो तब तक सो ही जायेंगे।
इस ज्ञान चर्चा गोष्ठी में कथा-कहानियों का सिलसिला आबाल वृद्ध सबों को रुचता भी है और पचता भी है। अतः इसमें सम्मिलित होने के लिए न समझाने दबाव डालने की आवश्यकता पड़ेगी न किसी से विशेष आग्रह करना पड़ेगा। सभी उसमें सम्मिलित होने को उत्सुक रहेंगे और कोई ऐसा अनुभव न करेगा कि यह उपदेश प्रवचन का रूखा विषय है और उसे सम्भालने सुधारने के लिए ही सारा सरंजाम खड़ा किया गया है। परोक्ष शिक्षा जितनी सफल होती है उतनी प्रत्यक्ष निर्देश की शैली नहीं। कथा-प्रसंगों का यह उपक्रम वस्तुतः परिवार के लोगों की मनोभूमि एवं चिन्तन दिशा परिष्कृत करने का बहुत सरल, सफल और सरस माध्यम है। घर का कोई उत्साही सदस्य इस कार्य को अपने कंधे पर ले सकता है। बदल-बदल कर कई व्यक्ति भी इस कार्य को पूरा करते रह सकते हैं। इससे कहने वाले की वक्तृत्व कला का विकास होगा तथा मनोरंजन एवं दिशा निर्देशन की एक उत्साहवर्धक परिपाटी चल पड़ने से परिवार में स्वस्थ परम्पराओं का विकास भी होगा।
घर की छोटी-बड़ी समस्याओं पर परस्पर विचार करते रहने के लिए यह कथा अवसर बहुत उपयुक्त है। घर की व्यवस्था एवं प्रगति के सम्बन्ध में हर सदस्य को कुछ करने और कुछ सोचने का अवसर मिले तो इससे उपेक्षा और अन्यमनस्कता की स्थिति दूर होगी। परिवार के विकास में इस प्रकार दिलचस्पी जग सकती है और जिनका वास्तविक लाभ कुछ ही दिनों में सामने खड़ा दिखाई दे सकता है।
यह आवश्यक नहीं कि हर दिन कहानियां ही सुनाई जायें। समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण घटनाएं, भजन-कीर्तन, रामायण-कथा, पहेलियां, प्रश्नोत्तर जैसे कई आधार समय-समय पर बदले जाते रह सकते हैं। जिस घर में इन माध्यमों में से जो अधिक पसन्द किया जाय वहां उसकी प्रधानता रखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त बड़ी समस्याओं पर ही विचार-विनिमय किया जाय, यह भी कोई आवश्यक नहीं है। कल क्या साग-दाल बननी चाहिए— परसों का त्यौहार किस तरह मनाया जाना चाहिए? जैसी छोटी-छोटी, हल्की-फुलकी बातों को भी चर्चा का विषय बनाया जा सकता है। अर्थ-व्यवस्था, शिक्षा, सुधार, सुसज्जा जैसे समस्या प्रसंगों की जानकारी घर के सदस्यों को देकर उन्हें पूछा, बताया तथा कुछ सोचने और करने के लिए उत्साहित किया जा सकता है। परिवार में हमारा भी कुछ उत्तरदायित्व योगदान है यह अनुभव घर के सभी सदस्य करने लगें तो उस रुझान एवं सहयोग से परिवार के निर्माण का उत्साहवर्धक पथ-प्रशस्त हो सकता है।
वस्तुतः परिवार संस्था सह जीवन के व्यावहारिक शिक्षण की एक प्रयोगशाला है। इसी कारण गृहस्थाश्रम व कुटुम्ब व्यवस्था को अत्यधिक महत्व मनीषियों द्वारा दिया गया है। इसमें बिना किसी संविधान, दंड विधा एवं न सैनिक शक्ति की आवश्यकता पड़े सब सदस्य परस्पर तालमेल से सहकार भर जीवन बिताते हैं। माता-पिता, पुत्र, पति-पत्नी तथा अन्य नाते-रिश्तों के सम्बन्ध किसी दंड के भय पर कायम नहीं होते वरन् वे बुजुर्गों द्वारा स्थापित कुल परम्परा-व्यवस्था व आनुवांशिक संस्कारों पर अधिक निर्भर रहते हैं। प्रत्येक सदस्य एक दूसरे का हाथ बंटाने में प्रसन्नता अनुभव करता है। यह सहजीवन की सर्वोपरि आवश्यकता भी है। यहां त्याग-सहिष्णुता को स्वेच्छा से खुशी के साथ वहन किया जाता है। वस्तुतः परिवार संस्था में ही ‘लॉर्जर फैमिली कॉन्सेप्ट’ अभिनव आदर्श समाज की संक्षिप्त झांकी देखने को मिलती है। कुटुम्ब संस्था गृहस्थ जीवन का आलौकिक चमत्कारिक स्वरूप है।
गृहस्थ का आधार है वैवाहिक जीवन। विवाह का अर्थ पाश्चात्य परिभाषा के अनुसार दो शरीरों का मिलन नहीं हृदय आत्मा का-मन की समस्त इच्छाओं का परस्पर एक दूसरे में विलेय है। यही भारत की विशेषता रही है कि यहां विवाह को शारीरिक कामोपभोग का सामाजिक स्वीकृति पत्र कभी नहीं माना गया। प्रेम के लिए एक दूसरे को समर्पित कर देने का अर्थ है दो हृदयों को निष्कपट व्यवहार सूत्र में पिरो देना। विवाह संयम पूर्वक लेकिन आनन्दमय जीवन बिताकर पूर्ण आयुष्य प्राप्त करने का सहज मार्ग है। गृहस्थ धर्म का उद्देश्य है स्त्री-पुरुषों एवं अन्य सदस्यों का ऐसा संयुक्त जीवन तो उन्हें शारीरिक सीमाओं से ऊपर उठाकर परस्पर निष्ठा, आत्मीयता की डोरी में बांध देता है। ऐसी परिस्थिति में शरीर भले ही कुरूप रोगी हो जाय, पारस्परिक निष्ठा कभी कम नहीं होती। बहन का भाई के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, मां का बेटे के प्रति, बाबा दादी का पूरे सन्तान समुदाय के प्रति जो उमड़ता हुआ स्नेह देखा जाता है—वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस प्रकार गृहस्थाश्रम की परिधि बड़ी व्यापक है एवं वह स्नेहमय, दिव्य, सूक्ष्म आधार स्तम्भों पर टिकी हुई है।
गृहस्थ धर्म-कौटुम्बिक जीवनक्रम तप और त्याग से भरा हुआ है। गृहस्थी के निर्वाह हेतु किया जाने वाला प्रयत्न किसी तितीक्षा से कम नहीं। परिवार का भार वहन करना—सदस्यों को सहकारिता पूर्वक सुविधा के साधन जुटाना एक कठिन तपस्या है। उससे भी अधिक दुस्तर जो तपोवनों में बैठाकर की जाती है। इस व्यवस्था में ही व्यक्ति अपनी अनेकों प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना सीखता है। यह भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था, चाहे वह हिन्दू हों या मुस्लिम, पारसी या ईसाई, में ही देखने को मिलता है कि मां-बाप स्वयं अपना पेट काटकर भी बच्चों को पढ़ाते हैं—छोटों को आगे बढ़ाते हैं—अपनी जिम्मेदारी पूर्ण रूपेण निबाहते हैं। इसी खदान से सुसंस्कारी नागरिक निकलते हैं एवं इस व्यवस्था से ही जन्म लेती है भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर—आतिथ्य धर्म। मानवीय मूल्यों से प्रतिष्ठापित देव प्रतिमा एवं सही मानों में देवालय देखना हो तो आज भी उसे पुरातन भारत के ग्रामीण परिसर में देखा जा सकता है।
यह एक विडम्बना ही है कि बढ़ती आधुनिकता की आंधी व शहरी करण की आसुरी लीला ने इस व्यवस्था को हानि पहुंचाने का कुछ सीमा तक प्रयास किया है। धीरे-धीरे यह हवा सुदूर अवस्थित उन क्षेत्रों में भी पहुंचती है जा रही है, जहां निष्पाप-पवित्र भावना के अतिरिक्त था ही कुछ नहीं। परस्पर स्नेह-सद्भाव से भरा समाज तभी विनिर्मित किया जा सकता है जब उसकी इकाई कुटुम्ब परिवार व्यवस्था को अक्षुण्ण रखा जाय उसमें अन्तर्निहित मानवी मूल्यों को आघात न पहुंचने पाये। स्थिति नियन्त्रण के बाहर तो नहीं है पर यह आलोक जन-जन तक पहुंचाना जरूरी है कि सहयोग सहकार भरी परिवार व्यवस्था ही सुख-शान्ति से युक्त समाज का मूल आधार
परिवार के हर सदस्य को इसीलिए उन तथ्यों से भली प्रकार अवगत कराना चाहिए जिनसे उनके कर्तव्य एवं अधिकारों की मर्यादा का निर्धारण होता है। संसार का गतिचक्र आदान-प्रदान के आधार पर चलता है। प्राप्त करना अधिकार है किन्तु उसका मूल्य चुकाना कर्त्तव्य। दोनों के मध्य सुनियोजित तालमेल हो तो गतिचक्र अपनी धुरी पर ठीक प्रकार चलता रहता है।
एक दीपक से अपना अथवा दूसरों का विनाश हो सकता है। सृजन और अभिवर्धन के लिए समन्वय की शक्ति ही कारगर सिद्ध हो सकती है। इतना जान लेने पर दूसरा तथ्य यही सामने आता है कि समन्वय सहयोग के मूल में आदान-प्रदान का सिद्धान्त काम करता है। एक पक्षीय अनुदान आदर्श एवं अपवाद भी हो सकता है, उसे प्रचलन के रूप में मान्यता नहीं मिल सकती। अधिकारी की मांग करना और आशा रखना तभी सार्थक हो सकता है जब कर्तव्य पालन अपने हाथ में है और अधिकार देना दूसरों के। जो अपने बस की बात है उसे तो निश्चित रूप से किया ही जा सकता है। प्रतिफल न मिले तो भी इसमें आत्म गौरव और आत्म संतोष का असाधारण लाभ तो मिलता ही रहता है। भौतिक अधिकार न मिलने पर भी यह आत्मिक उपार्जन इतना बड़ा है कि उससे भावनाशील हमेशा लाभ ही देखते हैं घाटा नहीं।
परिवार भी एक प्रकार से सहकारी संस्था है। इसमें हर व्यक्ति एक दूसरे को देता है, साथ ही कुछ पाने की अपेक्षा भी रखता है। अभिभावक बच्चों को पालते हैं, उनके लिए कष्ट उठाते और खर्च करते हैं। साथ ही उनसे कुछ आशा उपेक्षा भी रखते हैं। सम्मान और अनुशासन उनकी तात्कालिक मांग है और बड़े होने पर सेवा सुश्रूषा के रूप में प्रतिपादन की अपेक्षा रखना बाद की। दोनों एक दूसरे की सद्भाव सम्पन्न सेवा सहायता करें यह तो बहुत ही ऊंची और अच्छी बात है पर इतना तो व्यवहार बुद्धि से भी सोचा जा सकता है कि पाने वाले को बदला चुकाने से ही ऋण भार से मुक्ति मिल सकती है। न चुकाने पर तो ऋण भार का दबाव इतना बोझिल रहता है कि उसकी आत्मा ही कुचल जाती है।
पत्नी व्रत और पति व्रत धर्म यों निभा तो एक पक्ष की आदर्शवादिता भी लेती है पर वह विशिष्ठों का कीर्तिमान है। स्वाभाविक और व्यावहारिक यही है कि दोनों एक दूसरे के समर्पण सहयोग का महत्व समझें, अनुग्रह के लिए कृतज्ञ रहें और हर घड़ी बदला चुकाने का अवसर खोजें। यह आदान-प्रदान जहां यथावत रहेगा वहां मैत्री निभेगी भी और बढ़ेगी भी किन्तु जहां एक पक्ष ने मात्र अधिकार की रट लगायी और कर्तव्य की उपेक्षा की, समझना चाहिए कि खाई बढ़ेगी और प्रीति के स्थान पर विवशता और कटुता ही शेष रह जायेगी। स्वामी और सेवक, व्यापारी और ग्राहक, मित्र और मित्र, गुरु और शिष्य, देवता और भक्त प्रायः इसी आधार पर एक दूसरे के सेवक सहयोगी बन कर रहते हैं। एक के हाथ खींच लेने पर दूसरे का बढ़ा हुआ हाथ भी निरर्थक ही सिद्ध होगा। समुद्र और बादलों के बीच देने और लौटाने की नीति और अनादि काल से उन्हें सहयोग सूत्र में बांधे हुए है। धरती पौधों को एक हाथ से खुराक देती है पर बदले में दूसरे हाथ से खाद और गोबर के रूप में उनसे प्रतिदान वापस मांगती है। जिस दिन इस आदान-प्रदान में व्यवधान उत्पन्न होगा उस दिन न पौधों की हरीतिमा जीवित रहेगी और न धरती की उर्वरता।
परिवार का भावनात्मक महत्व जो भी है, प्रत्यक्षतः वह एक सहकारी संस्था है जिसके हर घटक को अधिकार मिलता है। साथ ही यह शर्त भी जुड़ी रहती है कि उसे समयानुसार उसका प्रतिपादन भी लौटाना होगा। इस लौटाने में जो जितनी आनाकानी करता है वह उतना ही निकृष्ट बनता और जिसे जितनी उतावली रहती है वह उतना ही उत्कृष्ट ठहरता है।
यह भी जरूरी है कि अभिभावक अपने आश्रितों पर इतना ऋण न लादें जिसे वे चुका न सकें और इस बोझ से उनके उत्तराधिकारी आत्म प्रताड़ना सहते दिखाई दें। अनावश्यक अनुदान कभी किसी को फलते नहीं। अति का भोजन कष्टकारक होता है और अति का अनुग्रह दुर्गुणों दुर्भावनाओं के रूप में उभरता है। अकर्मण्यता और अहंकारिता तो इसमें बढ़ती ही है। अस्तु बुद्धिमान अभिभावकों के लिए इतना ही पर्याप्त है कि आश्रितों को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी भर बनायें। उन पर अनावश्यक सम्पदा का इतना बोझ न लादें जिसे पाकर वे उपार्जन की चिन्ता से ही मुक्त हो चलें और खाली समय और व्यर्थ सम्पत्ति को दुर्व्यसनों में गंवाकर अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारें।
परिजनों का भी कर्तव्य है कि सम्पन्न अभिभावकों से उत्तराधिकार में सम्पदा की मांग न करें। पारिवारिक निर्वाह का यदि कोई व्यवसाय तन्त्र चलता है तो उसे संयुक्त रूप से अक्षुण्ण रखा जा सकता है। असमर्थ आश्रितों को भी निर्वाह साधन संचित सम्पदा से पाने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त यदि समर्थ व्यक्ति उत्तराधिकार में सम्पदा की मांग करें तो उसे अनुचित ही ठहराया जायेगा। ऐसा वैभव विशुद्ध रूप से समाज की सम्पत्ति है। उसे भले ही श्राद्ध के रूप में लौटाया जाय अथवा मृत्यु करके रूप में, बिना परिश्रम की कमाई और चोरी के कानून स्वरूप जो भी हों इन की मूल प्रक्रिया में कोई अन्तर नहीं आता। परिवार के हर सदस्य को आरम्भ में सही यह अर्थ शास्त्र पढ़ाया जाना चाहिए और स्वावलम्बन के लिए उनकी मनोभूमि विकसित की जानी चाहिए।
परिवार एक गाय है जिसका दूध पीने के लिए ही सब ललचाते रहें, यह अनुचित है। उसके लिए चारा पानी, धूप, छांव एवं सुविधा सफाई की जिम्मेदारी भी इन दूध पीने वालों को उठानी चाहिए। परिवार समर्थ होगा तो उसकी छाया का, शोभा का, फल सम्पदा का लाभ भी मिलेगा अन्यथा सूखे ठूंठ से जगह भी घिरेगी और अड़चन भी पड़ेगी। तरह तरह की अपेक्षाएं रखना और फरमाइशें करना तो अनेकों को आता है पर इस तथ्य को भुला ही दिया जाता है कि इस संस्थान को परिपुष्ट और परिपक्व बनाने के लिए बड़ा योगदान होना चाहिए, जो अब तक पाया गया है एवं जो आगे के लिए मांगा जा रहा है। सम्पन्नता तो एक समर्थ व्यक्ति भी उपार्जित कर सकता है पर सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न करने में हर सदस्य का समुचित योगदान होना चाहिए।
गृहपति कोई भी क्यों न हो, अनुशासन किसी का भी चलता हो। इस दृष्टि से हर सदस्य अपने आप में पूर्ण है कि उसे पारस्परिक स्नेह सहयोग बढ़ाने और सत्प्रवृत्तियों को व्यवहार में उतारने की दृष्टि से अग्रणी रखना है। बड़प्पन इसी में है कि परम्परा का निर्वाह किया जाये, भटकों को राह पर लाने के लिए अपना प्रभावी उदाहरण प्रस्तुत किया जाय।
इसके लिए नितान्त नये प्रयोग भी करना पड़ सकते हैं। समीक्षा किए बिना—परामर्श दिए बिना, सुधार सम्भव नहीं। अपने आप अपनी गलती ढूंढ़ लेने और सुधार लेने वाले तो सन्त होते हैं, सामान्य नहीं। अतः कुछ विरले अपवादों को छोड़कर शेष को तो सम्भालने, सुधारने और दिशा देने की आवश्यकता रहेगी ही। इसके लिए मध्यवर्ती सन्तुलित मार्ग निकालना चाहिए और प्रशंसायुक्त निन्दा करने की कला सीखनी चाहिए। जिसे परामर्श दिया जा रहा है उसे अपने और उसके बीच घनिष्ठ आत्मीयता और गहरी सद्भावना का विश्वास भी दिलाते रहना चाहिए। समीक्षक के प्रति निन्दक और द्वेषी होने की आशंका जगती है अस्तु उसे निरस्त करने के लिए परामर्श देने से पूर्व अपनी सद्भावना सम्पन्न वरिष्ठता का विश्वास किसी न किसी रूप में अवश्य स्मरण करा देना चाहिए। हर काम में कुछ न कुछ मनोयोग और श्रम लगा ही होता है, उतने ही प्रशंसा किये बिना समीक्षा की शुरुआत कभी नहीं करनी चाहिए। जो गलती रही है उससे होने वाली हानि को प्रधानता न देकर उस कल्पना चित्र में रंग भरना चाहिए जो सुधार होने पर सम्भावना सामने आने की आशा बनती है। वर्तमान भूल से होने वाली हानि की चर्चा परामर्श के अन्त में और हलके ढंग से करनी चाहिए ताकि उससे अभीष्ट जानकारी मिलने और संभलने की सतर्कता तो जग जाय, पर यह अनुभव न हो कि उसे तिरस्कृत किया जा रहा है। जिन परिस्थितियों में भूल होती रही है, उन दोषी परिस्थितियों को बता देने से काम बन जाता है। परामर्शदाता का उद्देश्य निन्दा करना या जी दुखाना तो होता नहीं, वह सुधार ही तो चाहता है। इस प्रयोजन के लिए व्यक्ति की निन्दा करने की अपेक्षा परिस्थितियों का दोष कह देने से भी काम चल सकता है। इसमें मानापमान का झंझट ही नहीं रहता, साथ ही परोक्ष रूप से असावधानी की भर्त्सना भी हो जाती है। मन्तव्य इतने भर से हल हो सकता है।
परिवार शिक्षण की दृष्टि से घर के बड़े यह परम्परा आरम्भ कर सकते हैं कि दिन भर की काम-काजी बातचीत में समय-समय पर हलके-फुलके ढंग से यह परामर्श देते रहे कि किस प्रकार इस कार्य को अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है। इसमें सिद्धान्त और व्यवहार दोनों का जिक्र किया जाय। लड़की यदि आंगन में बुहारी लगा रही है और वह उस कार्य को ठीक तरह नहीं कर पा रही है तो उसे अच्छी तरह सफाई करके दिखानी चाहिए और बताया जाना चाहिए कि भूल कहां होती है और उसे दूर करके अच्छी सफाई करने का सिद्धान्त और तरीका क्या है? इसी प्रकार बच्चों द्वारा किये जाने वाले कामों को किस प्रकार अधिक सुन्दर ढंग से किया जा सकता है, बड़ों को इसका मार्ग दर्शन सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों ही रीति से करते रहना चाहिए। कार्यों की तरह ही विचार प्रकट होते रहते हैं। इस ओर भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कौन किस सम्बन्ध में क्या सोचता है और उसके सोचने में कितना औचित्य तथा कितना अनौचित्य मिला हुआ है? परामर्श इस सम्बन्ध में भी दिया जाना चाहिए।
परामर्शदाता की भूमिका निभाने से पूर्व वाणी की यह कलाकारिता सीखी जानी चाहिए कि दूसरे के सम्मान स्वाभिमान की रक्षा करते हुए—उसे खिजाने की नहीं, प्रोत्साहित करने के ढंग से अभीष्ट शिक्षा किस प्रकार की दी जा सकती है। जो किया जा रहा है उसमें जितना श्रम हुआ है, जितना उत्साह दिखाया गया है उतने अंश की प्रशंसा की जानी चाहिए। इसके बाद जो कमी रही है उसका उल्लेख न करते हुए यह बताया जाना चाहिए कि उस कार्य को और भी अधिक कुशलता, सुन्दरता एवं सफलता के साथ किस प्रकार किया जा सकता है।
जिन्हें अपना घर-परिवार सम्भालना है। उन सभी सदस्यों को पग-पग पर तो नहीं, पर अवसर देखकर भूलों के लिए टोकने और अधिक अच्छा करने का उपाय बताने की प्रक्रिया अनवरत रूप से जारी रखनी चाहिए। शुभाकांक्षियों के सत्परामर्श देने के यह प्रयत्न किस चट्टान से टकराकर टूटते हैं? जो इसे जान लेगा वह सामने वाले के सम्मान, अपमान का, सम्वेदनाओं का समुचित ध्यान रखे रहेगा। फलतः उसका तीर ठीक निशाने पर बैठता रहेगा और यह शिकायत करने का कोई कारण न रहेगा कि लोग सत्परामर्श भी सुनने मानने को तैयार नहीं हैं।
अतः प्रत्येक विकासोन्मुख परिवार को अपने यहां परामर्श गोष्ठी का नियमित रूप से प्रचलन आरम्भ कर देना चाहिए। इसे ज्ञान का चर्चा नाम दिया जाय। इसके लिए रात्रि को भोजन से निवृत्त होने के पश्चात् अवकाश वाला समय अधिक उपयुक्त रहता है। इस प्रचलन की जहां उपयोगिता समझी जाय वहां भोजन जल्दी बनने और जल्दी खाने की परम्परा डाली जानी चाहिए अन्यथा देर तक यही झंझट चलता रहा तो गोष्ठी में सम्मिलित होने का अवकाश ही न रह जायेगा। बच्चे तो तब तक सो ही जायेंगे।
इस ज्ञान चर्चा गोष्ठी में कथा-कहानियों का सिलसिला आबाल वृद्ध सबों को रुचता भी है और पचता भी है। अतः इसमें सम्मिलित होने के लिए न समझाने दबाव डालने की आवश्यकता पड़ेगी न किसी से विशेष आग्रह करना पड़ेगा। सभी उसमें सम्मिलित होने को उत्सुक रहेंगे और कोई ऐसा अनुभव न करेगा कि यह उपदेश प्रवचन का रूखा विषय है और उसे सम्भालने सुधारने के लिए ही सारा सरंजाम खड़ा किया गया है। परोक्ष शिक्षा जितनी सफल होती है उतनी प्रत्यक्ष निर्देश की शैली नहीं। कथा-प्रसंगों का यह उपक्रम वस्तुतः परिवार के लोगों की मनोभूमि एवं चिन्तन दिशा परिष्कृत करने का बहुत सरल, सफल और सरस माध्यम है। घर का कोई उत्साही सदस्य इस कार्य को अपने कंधे पर ले सकता है। बदल-बदल कर कई व्यक्ति भी इस कार्य को पूरा करते रह सकते हैं। इससे कहने वाले की वक्तृत्व कला का विकास होगा तथा मनोरंजन एवं दिशा निर्देशन की एक उत्साहवर्धक परिपाटी चल पड़ने से परिवार में स्वस्थ परम्पराओं का विकास भी होगा।
घर की छोटी-बड़ी समस्याओं पर परस्पर विचार करते रहने के लिए यह कथा अवसर बहुत उपयुक्त है। घर की व्यवस्था एवं प्रगति के सम्बन्ध में हर सदस्य को कुछ करने और कुछ सोचने का अवसर मिले तो इससे उपेक्षा और अन्यमनस्कता की स्थिति दूर होगी। परिवार के विकास में इस प्रकार दिलचस्पी जग सकती है और जिनका वास्तविक लाभ कुछ ही दिनों में सामने खड़ा दिखाई दे सकता है।
यह आवश्यक नहीं कि हर दिन कहानियां ही सुनाई जायें। समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण घटनाएं, भजन-कीर्तन, रामायण-कथा, पहेलियां, प्रश्नोत्तर जैसे कई आधार समय-समय पर बदले जाते रह सकते हैं। जिस घर में इन माध्यमों में से जो अधिक पसन्द किया जाय वहां उसकी प्रधानता रखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त बड़ी समस्याओं पर ही विचार-विनिमय किया जाय, यह भी कोई आवश्यक नहीं है। कल क्या साग-दाल बननी चाहिए— परसों का त्यौहार किस तरह मनाया जाना चाहिए? जैसी छोटी-छोटी, हल्की-फुलकी बातों को भी चर्चा का विषय बनाया जा सकता है। अर्थ-व्यवस्था, शिक्षा, सुधार, सुसज्जा जैसे समस्या प्रसंगों की जानकारी घर के सदस्यों को देकर उन्हें पूछा, बताया तथा कुछ सोचने और करने के लिए उत्साहित किया जा सकता है। परिवार में हमारा भी कुछ उत्तरदायित्व योगदान है यह अनुभव घर के सभी सदस्य करने लगें तो उस रुझान एवं सहयोग से परिवार के निर्माण का उत्साहवर्धक पथ-प्रशस्त हो सकता है।
वस्तुतः परिवार संस्था सह जीवन के व्यावहारिक शिक्षण की एक प्रयोगशाला है। इसी कारण गृहस्थाश्रम व कुटुम्ब व्यवस्था को अत्यधिक महत्व मनीषियों द्वारा दिया गया है। इसमें बिना किसी संविधान, दंड विधा एवं न सैनिक शक्ति की आवश्यकता पड़े सब सदस्य परस्पर तालमेल से सहकार भर जीवन बिताते हैं। माता-पिता, पुत्र, पति-पत्नी तथा अन्य नाते-रिश्तों के सम्बन्ध किसी दंड के भय पर कायम नहीं होते वरन् वे बुजुर्गों द्वारा स्थापित कुल परम्परा-व्यवस्था व आनुवांशिक संस्कारों पर अधिक निर्भर रहते हैं। प्रत्येक सदस्य एक दूसरे का हाथ बंटाने में प्रसन्नता अनुभव करता है। यह सहजीवन की सर्वोपरि आवश्यकता भी है। यहां त्याग-सहिष्णुता को स्वेच्छा से खुशी के साथ वहन किया जाता है। वस्तुतः परिवार संस्था में ही ‘लॉर्जर फैमिली कॉन्सेप्ट’ अभिनव आदर्श समाज की संक्षिप्त झांकी देखने को मिलती है। कुटुम्ब संस्था गृहस्थ जीवन का आलौकिक चमत्कारिक स्वरूप है।
गृहस्थ का आधार है वैवाहिक जीवन। विवाह का अर्थ पाश्चात्य परिभाषा के अनुसार दो शरीरों का मिलन नहीं हृदय आत्मा का-मन की समस्त इच्छाओं का परस्पर एक दूसरे में विलेय है। यही भारत की विशेषता रही है कि यहां विवाह को शारीरिक कामोपभोग का सामाजिक स्वीकृति पत्र कभी नहीं माना गया। प्रेम के लिए एक दूसरे को समर्पित कर देने का अर्थ है दो हृदयों को निष्कपट व्यवहार सूत्र में पिरो देना। विवाह संयम पूर्वक लेकिन आनन्दमय जीवन बिताकर पूर्ण आयुष्य प्राप्त करने का सहज मार्ग है। गृहस्थ धर्म का उद्देश्य है स्त्री-पुरुषों एवं अन्य सदस्यों का ऐसा संयुक्त जीवन तो उन्हें शारीरिक सीमाओं से ऊपर उठाकर परस्पर निष्ठा, आत्मीयता की डोरी में बांध देता है। ऐसी परिस्थिति में शरीर भले ही कुरूप रोगी हो जाय, पारस्परिक निष्ठा कभी कम नहीं होती। बहन का भाई के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, मां का बेटे के प्रति, बाबा दादी का पूरे सन्तान समुदाय के प्रति जो उमड़ता हुआ स्नेह देखा जाता है—वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस प्रकार गृहस्थाश्रम की परिधि बड़ी व्यापक है एवं वह स्नेहमय, दिव्य, सूक्ष्म आधार स्तम्भों पर टिकी हुई है।
गृहस्थ धर्म-कौटुम्बिक जीवनक्रम तप और त्याग से भरा हुआ है। गृहस्थी के निर्वाह हेतु किया जाने वाला प्रयत्न किसी तितीक्षा से कम नहीं। परिवार का भार वहन करना—सदस्यों को सहकारिता पूर्वक सुविधा के साधन जुटाना एक कठिन तपस्या है। उससे भी अधिक दुस्तर जो तपोवनों में बैठाकर की जाती है। इस व्यवस्था में ही व्यक्ति अपनी अनेकों प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना सीखता है। यह भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था, चाहे वह हिन्दू हों या मुस्लिम, पारसी या ईसाई, में ही देखने को मिलता है कि मां-बाप स्वयं अपना पेट काटकर भी बच्चों को पढ़ाते हैं—छोटों को आगे बढ़ाते हैं—अपनी जिम्मेदारी पूर्ण रूपेण निबाहते हैं। इसी खदान से सुसंस्कारी नागरिक निकलते हैं एवं इस व्यवस्था से ही जन्म लेती है भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर—आतिथ्य धर्म। मानवीय मूल्यों से प्रतिष्ठापित देव प्रतिमा एवं सही मानों में देवालय देखना हो तो आज भी उसे पुरातन भारत के ग्रामीण परिसर में देखा जा सकता है।
यह एक विडम्बना ही है कि बढ़ती आधुनिकता की आंधी व शहरी करण की आसुरी लीला ने इस व्यवस्था को हानि पहुंचाने का कुछ सीमा तक प्रयास किया है। धीरे-धीरे यह हवा सुदूर अवस्थित उन क्षेत्रों में भी पहुंचती है जा रही है, जहां निष्पाप-पवित्र भावना के अतिरिक्त था ही कुछ नहीं। परस्पर स्नेह-सद्भाव से भरा समाज तभी विनिर्मित किया जा सकता है जब उसकी इकाई कुटुम्ब परिवार व्यवस्था को अक्षुण्ण रखा जाय उसमें अन्तर्निहित मानवी मूल्यों को आघात न पहुंचने पाये। स्थिति नियन्त्रण के बाहर तो नहीं है पर यह आलोक जन-जन तक पहुंचाना जरूरी है कि सहयोग सहकार भरी परिवार व्यवस्था ही सुख-शान्ति से युक्त समाज का मूल आधार