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Books - संभवामि युगे-युगे

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संभवामि युगे-युगे

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संभवामि युगे-युगे
   
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! आज जन्माष्टमी का पुनीत पर्व है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन पृथ्वी पर भगवान की वह शक्ति अवतरित हुई; जिसने प्रतिज्ञा की थी कि हम सृष्टि का संतुलन कायम रखेंगे। भगवान की उस प्रतिज्ञा के भगवान कृष्ण प्रतिनिधि थे, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जिंदगी लगा दी। उसी प्रतिज्ञा के आधार पर उन्होंने जनसाधारण को विश्वास दिलाया है कि हम पृथ्वी को असंतुलित नहीं रहने देंगे और सृष्टि में अनाचार को नहीं बढ़ने देंगे। भगवान ने यह प्रतिज्ञा की हुई है-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

मित्रो! मनुष्य के भीतर देवी और आसुरी दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। दैत्य अपने आप को नीचे गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी ''परपज'' के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता है। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपने आप पतन की ओर, अनाचार और दुराचार की ओर बढ़ती हुई चली जाती हैं, तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है। व्यक्ति के भीतर भी और समाज के भीतर भी संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में सफाई की प्रक्रिया यदि न चलाई जाए कमरे में झाडू न लगाई जाए तो कूड़ा भरता चला जाएगा। दाँत पर मंजन न किया जाए शरीर को स्नान न कराया जाये तो उस पर मैल जमता चला जाएगा। इसी तरह अगर कपड़े को न धोया जाए तो कपड़ा मैला होता चला जाएगा।

मलिनता को साफ करने की प्रक्रिया जब बंद हो जाती है या ढीली पड़ जाती है, तो सृष्टि में अनाचार बढ़ जाता है, यह सृष्टि के बहिरंग रूप में भी और अंतरंग रूप में भी फैल जाता है। अंतरंग रूप हमारा व्यक्तिगत रूप है। यह भी एक सृष्टि है। व्यक्ति अपने आप में सृष्टि है, व्यक्ति अपने आप में संसार है, विश्व है। अगर संघर्ष की गुंजाइश न हो, सफाई की गुंजाइश न हो, धुलाई की गुंजाइश न हो, तब इसके भीतर भी अनाचार बढ़ता हुआ चला जाता है।

कभी-कभी देव भी हार जाते हैं, जब समाज को ऊँचा उठाने वाले उनके सलाहकार धीमे पड़ जाते हैं, हारने लगते हैं। जब हम अपना संघर्ष बंद कर देते हैं और दुष्ट प्रवृत्तियों को खुली छूट दे देते हैं, तब हमारा भीतर वाला देव हारने लगता है और दुष्ट प्रवृत्तियाँ खुलकर खेलने लगती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे मस्तिष्क में छाई रहती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे स्वभाव और अभ्यास में बनी रहती हैं। चूँकि हम अपने भीतर से संघर्ष बंद कर देते हैं। दुष्प्रवृत्तियों को रोकते नहीं, काटते नहीं, तोड़ते-मरोड़ते नहीं, उनसे लोहा लेते नहीं और न ही उन्हें छोड़ते हैं, इसलिए वे हम से चिपककर बैठी रहती हैं और उनको हमारे अंतरंग जीवन में खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है।

और बहिरंग जीवन में? बहिरंग जीवन में भी यही बात है। बहिरंग जीवन में आप अनाचार को छूट दे दीजिए उसे रोकिए मत, सुधारिए मत, प्रतिबंध लगाइए मत, तब वह चारों ओर से बढ़ता हुआ चला जाएगा। अनाचार आता बहिरंग से है, लेकिन उतरेगा अंतरंग जीवन में। इस कारण कभी कभी आप में ऐसा असंतुलन पैदा होगा, जो विनाश की ओर ले जाएगा। जब कभी असंतुलन पैदा हो जाता है, तो यह मालूम पड़ता है कि दुनिया का विनाश होने वाला है। हमारी भीतर की दुनिया का भी और बाहरी दुनिया का भी विनाश होने वाला है। यह विनाश नहीं, वरन विनाश के आधार हैं।

मित्रो! विनाश का आधार एक ही है -अनाचार। अनाचार की वृद्धि अर्थात विनाश। अनाचार और विनाश दोनों एक ही चीज हैं। इनमें जरा भी फरक नहीं है। एक दूध है तो एक दही। दूध अगर जमा दिया जाएगा, तो दही बन जाएगा और जीवन में अनाचार को बढ़ावा दिया गया होगा तो विनाश उत्पन्न हो जाएगा। यह प्रक्रिया न जाने कब से बार-बार बनती और चलती आ रही है। भगवान को सृष्टि-निर्माण से पूर्व ही यह ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो जाए और सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाए। इसलिए सृष्टि का संतुलन जब कभी बिगड़ने लग जाता है, तो उसका बैलेंस ठीक करने के लिए भगवान अपनी शक्तियों को लेकर अवतार लेते रहे हैं। अब तक भगवान ने जाने कितने अवतार लिए हैं, हम कह नहीं सकते। उनमें से एक अवतार यह भी है जिसका कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिए जन्मदिन मनाने के लिए जिसकी जन्माष्टमी मनाने के लिए हम एकत्रित हुए हैं। भगवान के अवतार हमारे यहाँ हिंदू सिद्धांत के अनुसार दस और एक दूसरे सिद्धांत के आधार पर चौबीस हुए हैं। यह तो मैं हिंदू समाज की बात कह रहा हूँ। लेकिन हिंदू समाज ही दुनिया में अकेला नहीं है। मुसलमान समाज अलग है। मूसा से लेकर मोहम्मद साहब तक ढेरों अवतार हुए हैं। ईसाइयों में भी न जाने कितने अवतार हो चुके हैं। बौद्धधर्म में न जाने कितने अवतार हुए हैं। पारसियों में कितने अवतार हो चुके हैं। हर मजहब में कितने अवतार हो चुके हैं, यह हम नहीं बता सकते। अवतार होने से हमें कोई शिकायत भी नहीं है।

मित्रो! चलिए इन अवतारों में हम एक और कड़ी जोड़ने को तैयार हैं। जितने भी महामानव, महर्षि, लोकसेवक एवं संसार को रास्ता बताने वाले हुए हैं, चलिए उन सबको हम अवतार मान लेते हैं। इस संबंध में हम यह नहीं कहेंगे कि यह अवतार नहीं था या वह अवतार नहीं था। हमारे ये सब अवतार हैं। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि अवतार आपके भीतर में कई तरीके से प्रकट होता रहता है। कभी अनाचार को दबाने के लिए खड़ा हो जाता है, तो कभी पीड़ा-पतन निवारण के लिए खड़ा हो जाता है। तो कभी विकृतियों से जूझने के लिए खड़ा हो जाता है। जिस तरीके से कसाई बकरे को बाँधकर ले जाता है, उसी तरीके से अवतार न जाने कहाँ ले जाने के लिए हमें विवश कर देता है। दुनिया में ऐसी कौन सी शक्ति है, कौन है वह जो हमें बताता है कि इस रास्ते पर चलना नहीं है। वह शक्ति हमें ऐसे रास्ते पर चलने से रोक देती है। जब कभी शौर्य का, साहस का उदय हमारे भीतर होता है, तो मित्रो हम कह सकते हैं कि अवतार का उदय हुआ।

अवतार का उदय कितने मनुष्यों के भीतर हुआ और उन्होंने कितनों का कायाकल्प कर दिया? एक उदाहरण बताता हूँ आपको समर्थ गुरु रामदास का। समर्थ गुरु रामदास शादी के लिए तैयार खड़े थे। पंडित पंचांग लेकर पति पत्नी को एक−दूसरे के गले में वरमाला पहनाने को कह रहे थे। तभी समर्थ के सामने दो सपने आकर खड़े हो गए। भगवान आया और उसने समर्थ को आवाज दी, बुलाया। भगवान हमारे और आपके पास भी रोज आता है। रोज संदेश देता है, आदेश देता है, निर्देश करता है। लेकिन भगवान की पुकार हम और आप कब सुनते हैं? भगवान आदर्श की, सिद्धांतों की, नैतिकता की, मर्यादा की बातें बताकर चला जाता है, लेकिन हम और आप यह सब सुनते हैं क्या? हमारे लिए तो भगवान की पूजा करने के लिए ये खेल-खिलौने ही काफी हैं, जो हमने और आपने पकड़ रखे हैं। हमारी और आपकी समझ में तो भगवान की आरती उतारनी चाहिए जप कर लेना चाहिए भगवान को चावल चढ़ा देना चाहिए और प्रसाद बाँट देना चाहिए। इतना काफी है। और कुछ? नहीं और ज्यादा न हमारी हिम्मत है, न हमारा मन है, न हमारी तबीयत है, न हमारे अंदर जीवट है और न हमारे अंदर चिंतन है। बस, इन्हीं बाल-बच्चों जैसे खिलौनों से खेलते रहते हैं। भगवान की पूजा के लिए इन खेल-खिलौनों के अतिरिक्त हम और हिम्मत नहीं कर सकते।

लेकिन भगवान तो अपनी पूजा के लिए कुछ और ही चाहता है। वह धर्म स्थापना के लिए समय की माँग को पूरा करने के लिए आपको रोज पुकारता है। धर्म की स्थापना के लिए भगवान ने किसको-किसको पुकारा? समर्थ गुरु रामदास को पुकारा। उनसे कहा कि अरे! कहाँ चलता है नरक में, चल तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला पड़ा है। उन्होंने कहा-भगवान मैं आया। भगवान मैं डूब रहा हूँ इस भवसागर से आप मेरा त्राण कीजिए अर्थात रक्षा कीजिए। भगवान का तो संकल्प ही है-''परित्राणाय साधूनां'' अर्थात साधुओं का त्राण होता है, असाधुओं का नहीं। असाधुओं के त्राण के लिए भगवान के पास कोई फुरसत नहीं है, कोई टाइम नहीं है और कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी साधु-संत नहीं है अथवा साधु होकर भी पाप के गर्त में गिरते हुए चले जाते हैं, तो भगवान क्यों करेंगे मोहब्बत उनसे और क्यों प्यार करेंगे उनसे? एक सिद्धांत वाले, उच्च आदर्शों वाले की ओर उन्होंने अपना हाथ बढ़ा दिया और समर्थ गुरु उठकर खड़े हो गए। शादी के मंडप से वे भाग खड़े हुए। लोगों ने कहा कि पकड़ना इन्हें, पर समर्थ गुरु उनकी पकड़ से दूर भाग खड़े हुए। उनकी होने वाली बीवी का ब्याह दूसरे व्यक्ति से कर दिया गया। समर्थ गुरु रामदास जाने कहाँ चले गए?

मित्रो! समर्थ गुरु रामदास वहाँ चले गए जहाँ से हिंदुस्तान के अध्याय का नया इतिहास आरंभ हुआ। उन्होंने न जाने कितने शिवाजी तैयार कर दिए। महाराष्ट्र में उन्होंने न जाने कितने ज्ञानकेंद्रों, हनुमान मंदिरों को स्थापित किया। एक-एक मुट्ठी अनाज घर-घर से एकत्र करके कितना अपार धन अर्जित किया और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए शिवाजी की सेना में लगा दिया। शिवाजी के नाम से जो संग्राम चला, उसके असली संचालक कौन थे? समर्थ गुरु रामदास। समर्थ गुरु रामदास का इतिहास भगवान का इतिहास है। आपके ये पूजा करने के ढंग भगवान से दिल्लगीबाजी करने के समान हैं। पूजा करने के सही ढंग वे हैं, जो समर्थ गुरु रामदास के पास आए थे।

मित्रो! पूजा करने के सही तरीके वे हैं जो भगवान की पुकार सुनने वालों ने अपनाए हैं। भगवान की पुकार सुनने वालों में से एक नाम जगद्गुरु शंकराचार्य का भी है। एक ओर शंकराचार्य की माँ चाहती थीं और ये कहती थीं कि मेरा फूल सा छोकरा ब्याह करके गोरी बहू लाएगा और नाती-पोते पैदा करेगा। कमाकर लाएगा, महल बनाएगा, कोठी बनाएगा, गाड़ी लाएगा और घर में पैसे इकट्ठे करेगा। एक ओर इस तरह शैतान वाला ख्वाब, पाप वाला ख्वाब, लोभ वाला ख्वाब, आकर्षण वाला ख्वाब था दैत्य वाला ख्वाब था, तो दूसरी शंकराचार्य के मन में देवत्व वाला ख्वाब था। भगवान ने शंकराचार्य के कान में इशारे से कहा-अरे अभागे! जिस काम के लिए कुत्ते और बिल्ली, मेंढक और चूहे अपनी सारी जिंदगी खरच कर देते हैं, वह तेरे लिए काफी नहीं है। तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला हुआ है, उस ओर चल।

शंकराचार्य ने अपनी माँ को समझाया, परंतु माँ की समझ में कहाँ और क्यों आने वाला था? उसकी समझ में तो यही आता था कि मुझे पोता चाहिए पोती चाहिए कोठी चाहिए। मित्रो! इन सब ख्वाबों को लात मार उठ खड़ा हुआ शंकराचार्य। कौन खड़ा हो गया? चारों धाम की स्थापना करने वाला शंकराचार्य, बौद्ध नास्तिकवाद की जड़ें उखाड़कर हिंदुस्तान से बाहर करने वाला शंकराचार्य। उन दिनों बौद्धों का नास्तिकवाद हिंदुस्तान में लोगों के मन-मस्तिष्क में घुसता हुआ चला जा रहा था, तब शंकराचार्य ने कहा था कि हिंदुस्तान में आस्तिकता जिंदा रहेगी, नास्तिकता को हम जिंदा नहीं रहने देंगे। हिंदुस्तान से नास्तिकता को उन्होंने निकाल बाहर किया। फिर वह कहाँ चली गई? चाइना चली गई, कोरिया चली गई, मलेशिया चली गई, जापान और वर्मा चली गई, नेपाल चली गई, श्रीलंका चली गई, कहीं भी चली गई, पर हिंदुस्तान से भाग गई। ये शंकराचार्य की हिम्मत थी। चारों धामों की स्थापना करके सारे हिंदुस्तान को एकता के सूत्र में पिरोने वाला वह शंकराचार्य, दिग्विजय करने वाला शंकराचार्य, अनूठे विचारों वाला शंकराचार्य अलग उसने भगवान की पुकार सुन ली थी।

मित्रो! अगर शंकराचार्य ने भगवान की पुकार न सुनी होती तब? तब बेटे यही होता जो हमारा आपका हुआ है। क्या हो जाता? नौ बेटे और ग्यारह बेटियाँ होतीं। एक बच्चा गोद में बैठा होता तो एक सिर पर बैठा होता और एक माँ के पेट में। एक गालियाँ दे रहा होता, एक मूँछें काट रहा होता और एक मारपीट कर रहा होता। आपके जैसे उसकी भी मिट्टी पलीद हो गई होती। लेकिन भगवान की पुकार को सुनने वाला शंकराचार्य उनकी कृपा से जीवन की दिशाओं को लेकर न जाने कहाँ से कहाँ चला गया। भजन इसी का नाम है, जिसमें कि आदमी के जीवन की दिशाधारा बनाई जाती है, विचार बनाए जाते है और काम करने के तरीके बदले जाते हैं। इसी का नाम है भजन। भजन माला घुमाना नहीं है, भगवान की पुकार सुनने का नाम भजन है।

मित्रो! भगवान की पुकार सुनने का प्रतिफल यही होता रहा है। कितने मनुष्यों के भीतर भगवान की पुकार पैदा हुई और किन किन सामाजिक परिस्थितियों में पैदा हुई? भगवान समय-समय पर साकार रूप में भी और निराकार रूप में भी आते हैं। निराकार रूप में भगवान किस -किसके पास आए और साकार रूप में किस-किसके पास आए जैसा कि अभी मैंने आपको सुनाया। गुरुदेव अभी आप और उदाहरण सुनाएँगे? नहीं बेटे, अब मैं और नहीं सुनाऊँगा। अगर और हवाला देना पड़ा तो सारे विश्व का वह इतिहास आपके सामने पेश करना पड़ेगा, जिन्होंने नियमों के लिए सिद्धांतों के लिए आदर्शों के लिए कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिए कष्ट उठाए और दूसरों की नजरों में बेवकूफ कहलाए बेकार कहलाए। लेकिन अपने आदर्शों के लिए सिद्धांतों के लिए दुनिया में शांति कायम रखने के लिए दुनिया में शालीनता कायम रखने के लिए जिन्होंने अपने आप को, अपनी अक्ल को, अपनी ताकत को और अपनी संपत्ति को, सर्वस्व निछावर कर दिया, ऐसे लोगों की संख्या सारी की सारी तादाद लाखों भी हो सकती है और करोड़ों भी। भगवान की गाथाएँ सुनाने के लिए मुझे उन सबके इतिहास सुनाने पड़ेंगे। आप इन सबकी कथा-गाथा को भगवान की कथा-गाथा मान सकते हैं।

इसी तरह गाँधीजी की कथा-गाथा को यह कहने में कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान की कथा-गाथा है। बुद्ध की, शंकराचार्य की कहानी कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान की कथा गाथा है। दूसरे अन्य लोगों ने, जिन्होंने भी नेक जीवन, श्रेष्ठ जीवन जिया, आदर्श जीवन जिया, लोगों को प्रकाश देने वाला जीवन जिया, अपने आप में नमूने का जीवन जिया, मित्रो! वे सारे के सारे भगवान थे, क्योंकि उनके भीतर भगवान अवतरित हुआ होगा और भगवान ने भगवान की बाँह पकड़ ली होगी। भगवान से उन्होंने कहा होगा कि हम आपके पीछे चलेंगे और आपकी छाया होकर रहेंगे।

साथियो! भगवान का हुक्म जिन लोगों ने माना, वे सब आदमी भगवान के अवतार कहे जा सकते हैं, देवता कहे जा सकते हैं और जिन लोगों ने भगवान को ठोकर मारी, माला भले ही घुमाते रहे, उन्हें मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप भगवान के भक्त हो सकते हैं। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को मानने को तैयार नहीं हूँ कि वह व्यक्ति भगवान की इज्जत करने वाला हो सकता है, भगवान पर विश्वास करने वाला हो सकता है, जो सारा दिन माला घुमाता है, सारा दिन भजन करता है, लेकिन उसकी जिंदगी ऐसी घिनौनी है, जिसे देखकर घृणा आती है और नफरत होती है। ऐसे व्यक्ति भगवान के भक्त नहीं हो सकते और न ही उनके अंदर भगवान अवतरित हो सकता है।

भगवान के अवतार मन में अवतरित हुए हैं, हृदय में अवतरित हुए हैं, आदर्शवादी सिद्धांतों और श्रेष्ठकर्मों के रूप में अवतरित हुए हैं। सृष्टि में हवा के रूप में, आँधी के रूप में निराकार भगवान व्याप्त हैं। हवाएँ दिखाई नहीं देतीं, फिर भी अपना काम कर जाती हैं। इसी प्रकार निराकार भगवान हैं। गाँधी जी के जमाने में एक हवा आई थी। गाँधी जी आगे-आगे चलते थे तो उनके पीछे-पीछे सब चल पड़ते थे। गाँधी जी अकेले थे? नहीं, मित्रो! वे अकेले नहीं थे, हजारों-लाखों आदमी उनके साथ काम करते थे। हजारों -लाखों लोगों की कुरबानियों, बलिदानों, लाखों लोगों की तबाही, लाखों लोगों का गोली खाना आदि तरह-तरह की मुसीबतों को झेलकर, सबसे मिलकर उनका संग्राम हुआ। तब देश को आजादी मिली।

मित्रो! इस देश में हर जमाने में एक-एक ऐसी हवा चली है, जिसने दुनिया की दिशाधारा ही बदल दी अन्यथा इस देश में नास्तिकवाद, अनाचारवाद फैल जाता। इस हवा को लेकर कौन आया? हवा के संदेश को लेकर कौन आया? संदेश लेकर के यहाँ भगवान बुद्ध आए थे। तो क्या भगवान बुद्ध ने हिंदुस्तान का, सारे एशिया का बेड़ा गर्क नहीं कर दिया था? नहीं मित्रो! ऐसा नहीं हो सकता। यह काम पीछे वालों का अनुयायियों का तो हो सकता है, पर भगवान बुद्ध का नहीं। बुद्ध भगवान अकेले क्या कर सकते थे? एक अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता। एक आँधी आती है, एक तूफान आता है, एक हवा आती है। जब आँधी आती है, तो हमें आगे का काम दिखाई पड़ता है। सेना जब चढ़ाई करने जाती है, तब एक विशेष रंग का झंडा आगे आगे फहराता हुआ चलता है और सैनिक बढ़ते हुए चले जाते हैं। ठीक है जब चढ़ाई होती है तो झंडे के निशान आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं, परंतु वह झंडा तो लड़ाई नहीं लड़ता, लड़ने वाली फौज होती है। हवाएँ कभी-कभी आती हैं। ये हवाएँ क्या काम करती हैं? ये हवाएँ यह काम करती हैं कि असंख्य मनुष्य उपकार में लगे दिखाई पड़ते हैं। गाँधी एक हवा थी, बुद्ध एक हवा थी, कृष्ण एक हवा थी, राम एक हवा थी।

मित्रो! राम अकेले अगर रावण को मार सकते तो उन्होंने वहीं से क्यों नहीं मार दिया? नहीं साहब, अकेले राम नहीं मार सकते थे। हाँ बेटे, अकेले नहीं मार सकते थे। उन्हें रीछों की सेना लेनी पड़ी, वानरों की सेना लेनी पड़ी, जमीन पर सोना पड़ा। मनुष्य होकर रहना पड़ा। विभीषण को साथ लेना पड़ा। ढेरों के ढेरों मनुष्यों को संग लेना पड़ा और तब एकत्रित सेना को लेकर रावण से युद्ध लड़ा। इस तरह से रावण का खात्मा हुआ। यह हवा थी एक जमाने में।

इसी तरह क्या कृष्ण भगवान महाभारत युद्ध अकेले नहीं लड़ सकते थे? अगर अकेले लड़ सकते तो पाण्डवों की खुशामद क्यों करते? पाण्डव बार बार यही कहते रहे कि हमें यह लड़ाई नहीं लड़नी है। वे हमारे रिश्तेदार लगते हैं। हम तो भीख माँगकर खा लेंगे, अपनी दुकान चलाकर खा लेंगे। हमें राजपाट नहीं चाहिए। हमें लड़ाई से छुट्टी दीजिए। हमसे अपने स्वजनों का खून खराबा नहीं होगा। फिर भी कृष्ण भगवान खुशामद करते रहे, हाथ पाँव जोड़ते रहे, नाराज होते रहे, गालियाँ सुनाते रहे और कहते रहे कि तुम्हें लड़ना चाहिए। कृष्ण अगर अकेले महाभारत का युद्ध लड़ सकते, कंस को मार सकते, असुरों को मार सकते, सभी आततायियों को मार सकते तो फिर मैं सोचता हूँ कि सारे विश्वभर में निमंत्रण भेजकर सेनाओं को बुलाने की क्या जरूरत थी? अगर अकेले ही गोवर्धन उठा सकते थे तो ग्वाल−बालों को लाठी लगाने की क्या जरूरत थी?

मित्रो! अकेला आदमी कितना कर सकता है? मैं किसी तरह से यह विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ कि एक व्यक्ति विशेष सारे के सारे समाज को रोक सकता है, बदल सकता है। ऐसा नहीं हो सकता। ये हवा है, जिसे पैदा करने की कोई मशीन काम करती होगी, इस बात का समर्थन करने को मैं तैयार हूँ। इस हवा में बहुत से ढेरों आदमी घिरे होते हैं। इनके दिमाग और दिल एक दिशा में चल पड़ते हैं, जैसे कि अपने आंदोलन में। आपके अपने इस आंदोलन में क्या एक आदमी संचालन करता है? नहीं, एक आदमी संचालन नहीं कर सकता। क्या एक आदमी नियम बनाने के लिए आश्वासन दे सकता है? नहीं, एक आदमी के वश की बात नहीं है। एक आदमी फिजाँ बदल सकता है? एक आदमी नया जमाना ला सकता है? एक आदमी लोक-समाज में हलचल पैदा कर सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

मित्रो! फिर यह हलचल कौन पैदा करता है? नया जमाना कौन लाता है? एक हवा आती है। ठीक है गुरुजी कहते हैं कि एक हवा आती है। नहीं बेटे, अकेले गुरुजी के कहने से कोई फायदा नहीं है। वास्तव में जब इस एक ही बात को असंख्य व्यक्ति कहते हैं, उसका समर्थन करते हैं कि हाँ ऐसा होना चाहिए तब इस बात को, आवाजे हलक को ''नक्कारे खुदा समझो''। जब हलक से आवाज निकलती है, तो वह नक्कारे खुदा है। जब हम कहते हैं कि ''हम नया जमाना लाएँगे।'' ''हम मनुष्य के भीतर देवत्व की स्थापना करेंगे।'' हम इस संसार में पुन: स्वर्ग की स्थापना करेंगे। तो यह कौन कहता है-मैं? नहीं, हम कहते हैं। हम और आप सब मिल करके, जमाने को मिला करके एक हवा है, एक दिशा है। ये कौन है? ये भगवान हैं। जब कभी एक ठिकाने पर ये हवा पैदा होती है, जिन आदर्शों को पैदा करने के लिए यह आँधी-तूफान पैदा होता है, हलचलें पैदा होती हैं, तो आप समझ सकते हैं कि इसके पीछे भगवान की हवा है। भगवान की प्रेरणा काम कर रही है। भगवान का अवतार काम कर रहा है। इसी को मैं अवतार मानता हूँ।

क्या व्यक्ति के रूप में भी भगवान का अवतार होता है? चलिए अब मैं आपकी बात का भी समर्थन करने को तैयार हूँ कि व्यक्ति के रूप में अवतार होता है। साकार रूप में भगवान होता है। आप निराकार की बात पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। अत: मैं आपको साकार की बात बताऊँगा कि कैसे भगवान लीलाएँ करने आते हैं? व्यक्ति आता है। आप भगवान की कथाएँ तो सुनते हैं, पर गहरे में क्यों नहीं जाते? भगवान की सारी की सारी लीलाएँ कथा-गाथाएँ इस बात पर टिकी हुई हैं कि भगवान एक है। यह बात अलग है कि उसने लोकशिक्षण का तरीका क्या अख्तियार किया। जब कभी भगवान के अवतार होते हैं, तो प्रत्येक बार वह अपने आचरण से जन-जन को शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। लोकशिक्षण का यही सबसे जानदार और सबसे सफल तरीका है।

मित्रो! लोगों के सामने बकवास करने की अपेक्षा, लोगों को उपदेश सुनाने या कथा सुनाने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि आपने लोगों के सामने जो उपदेश दिए हैं, उसे स्वयं के जीवन में उतारकर बताएँ कि हमने इस तरीके से जीवन जिया है। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रभावशाली तरीका यही है। इससे बढ़िया और बेहतरीन तरीका और कोई है ही नहीं। आप इस तरीके से चलिए जिसे देखकर के लोग सोच सकें, समझ सकें कि जो सिद्धांत आप कहना चाहते हैं, समझना चाहते हैं, वे आपके रोम-रोम में इस कदर समा गए हैं कि आप इस तरह का रास्ता अख्तियार किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। अगर आप इतना ज्यादा विश्वास लिए हुए बैठे हैं, तो आपके विचार आपकी वाणी से और आपके आचरण से टपकने चाहिए। भगवान कृष्ण हों या भगवान राम अथवा और कोई अवतार, उन्होंने लोकशिक्षण का जो तरीका अख्तियार किया है, वह उनकी जिंदगी जीने का एक ढंग था। वह उनके काम करने की एक शैली थी। इस शैली के द्वारा उन्होंने लोगों से कहा कि आप स्वयं निश्चय कीजिए और उन सिद्धांतों को ढूँढ़िए जिसके लिए हमें जन्म लेना पड़ा और जिसके लिए निरंतर कष्ट सहने पड़े। भगवान कृष्ण की लीलाएँ जो हमारे लिए और आपके लिए बिलकुल सामयिक हैं, आधुनिक हैं, अति उत्तम और अति प्राचीनतम भी हैं, वे हमको बताती हैं कि सिद्धांतों को जीवन में कैसे उतारें? उन सिद्धांतों को अपनाए बिना कोई महापुरुष रहा नहीं। उन सिद्धांतों को आपके मन में प्रवेश कराने के लिए भगवान ने लीलाएँ दिखाई, क्रीड़ाएँ कीं।

भगवान श्रीकृष्ण के बारे में हम किताबों में पढ़ते हैं कि उनके जन्मकाल में जेलखाने से बाहर निकलने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। फिर भी भगवान के संकल्प से सारे पहरेदार सो गए। सभी दरवाजे खुल गए जंजीरें टूट गईं और पिता उस बच्चे को लेकर सुरक्षित रखने के लिए चल पड़े। भादों की घनघोर अँधेरी रात थी। जिस तरह आज की रात बादल छाए हुए हैं, पानी बरस रहा है, यमुना में बाढ़ आई हुई है, कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय रहा होगा। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। प्रकाश कहीं था नहीं। लेकिन प्रकाश देने वाली एक ज्योति, जो इनसान के भीतर जला करती है और सहारा देती रहती है, जो मझधार में से पार निकालती रहती है। हमें मझधार में से दूसरे लोग पार नहीं निकालते हैं। हमारी अंतर्ज्योति ही हमको पार निकालती है। उन विषम परिस्थितियाँ में भी वसुदेव श्रीकृष्ण को टोकरी में लिए हुए आगे बढ़ते चले गए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ नंद यशोदा का घर था। वहाँ उस बच्चे के रहने का इंतजाम कर दिया।

मित्रो! यह घटना हमें क्या सिखाती है? यह हमें सिखाती है कि इनसान संकल्प तो करके देखे, निश्चय तो करके देखे, विश्वास तो करके देखे फिर हमसे कहे। आप यह तजुर्बा करके लाइए फिर आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। आप आगे बढ़ते हुए चले जाएँगे और आपको सफलता मिलती हुई चली जाएँगी। आदमी की हिम्मत के अलावा दुनिया में और कोई शक्ति नहीं है, जो उसे पार लगा सके। आदमी की हिम्मत सबसे बड़ी ताकत है। यही सब आदमी को सिखाने के लिए भगवान ने अवतार लिया था। बेटे! अपने भीतर वाले को कमजोर मत होने दीजिए। भीतर वाले को मजबूत बनाइए। भीतर वाले को कमजोर बना देंगे, तो आप गिर जाएँगे। भीतर वाले को साहस के सहारे उठाएँगे, तो आप आगे बढ़ेंगे और दूसरा आदमी सहायता करने के लिए आएगा। अगर आप अपने को पीछे हटाएँगे, तो लोग आपसे पहले ही दूर हट जाएँगे। यह नसीहत कृष्ण भगवान ने अपने जन्म के पहले दिन से ही आरंभ कर दी थी, उनके पिताजी ने भी यही बात बताई थी कि यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं, तो ठीक है, अन्यथा साहस और संकल्प के सहारे उन पर विजय पाई जा सकती है।

आज जन्माष्टमी के दिन यह है शिक्षण नंबर एक जो भगवान श्रीकृष्ण ने, उनके पिता ने अपनी घटना के द्वारा, अपने क्रिया-कलाप के द्वारा हमको दिया। हम और आप तो बकवास करना जानते हैं और व्याख्यान करना जानते हैं। लेकिन भगवान ने जो उदाहरण प्रस्तुत किया, वह कितना शानदार है। देवकी इतना नहीं कर सकती थीं, वसुदेव भी इतना नहीं कर सकते थे कि कंस का मुकाबला करें और उसे मार डालें। वे सामर्थ्यवान नहीं थे, शक्तिवान नहीं थे, विद्वान नहीं थे, नेता नहीं थे, लेकिन साहसी थे। किन्हीं अच्छे कामों के लिए आप भी साहसी बन सकते हैं। रीछ-वानरों के तरीके से अच्छे कामों में सहायता कर सकते हैं।

रीछ और बंदर रावण को नहीं मार सकते थे, पर लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल तो बना सकते थे। गिलहरी ज्यादा काम नहीं कर सकती थी, लेकिन समुद्र में मिट्टी तो डाल सकती थी। ठीक है, जो आदमी जिस हैसियत में रहता है, उससे आगे बढ़कर दूसरा काम नहीं कर सकता, वह अगली पंक्ति में नहीं खड़ा हो सकता, लेकिन अच्छे कामों में सहायता तो कर ही सकता है। गाय चराने वाले ग्वाले मामूली आदमी थे। उन्होंने कहा-ठीक हैं हम ज्यादा तो नहीं कर सकते, लेकिन भगवान का उद्देश्य पूरा करने के लिए उनकी सहायता तो कर ही सकते हैं। गोवर्धन उठाने में अपनी लाठी का सहारा तो दे ही सकते हैं। अगर आप प्रेरणा लेना चाहें तो आप इनसे प्रेरणा व श्रद्धा ले सकते हैं।

भागवत् की कहानी कही जा रही है और लोगों द्वारा सुनी जा रही है। कहते हैं इसको सुनने से बड़ा भारी पुण्य मिलता है। बेटे! कहानी कहने और सुनने भर से कोई पुण्य नहीं हो सकता। पुण्य केवल उस स्थिति में होगा जब आप उससे प्रेरणा ग्रहण करेंगे, जीवन में उतारेंगे, प्रवेश करने देंगे और केवल उस स्थिति में होगा, जब आप उससे प्रेरणा ग्रहण करने देंगे और उसे बाहर अपने क्रियाकृत्यों में, व्यवहार में प्रकट होने देंगे। इससे कम में कोई पुण्य नहीं हो सकता। इसलिए मित्रो! भगवान, भगवान की क्रीड़ाएँ लीलाएँ हमको दिशाएँ देती हैं, शिक्षण देती हैं। संघर्षों से लोहा लेना सिखाती हैं।

मित्रो! संघर्षों से आदमी समर्थ होता है। संघर्षों से आदमी की श्रद्धा निखरती है। मनुष्य हमेशा से संघर्षों से घिरा पड़ा है। जो आदमी अपनी जिंदगी में संघर्षों से मुकाबला नहीं करते, वे जिंदगी का आनंद नहीं ले सकते। रोज की गहरी नींद उनके हिस्से में आई है, दाल-रोटी उनके हिस्से में आई है, जिन्होंने कड़ी मशक्कत की है, जिन्होंने मेहनत की है। जिन्हें यही पता नहीं है कि जीवन-संघर्ष क्या होता है, कठिनाइयाँ क्या होती हैं, उनका भी कोई जीवन है।

साथियो, कठिनाइयाँ आदमी को निखारने के लिए उभारने के लिए बेहद आवश्यक हैं। चाकू पर तब तक धार नहीं रखी जा सकती, जब तक कि उसे पत्थर पर घिसा नहीं जाएगा। इसके बिना पैनापन, तीखापन नहीं आ सकता। चाकू की धार नहीं निकल सकती। मित्रो! मुसीबतें हमारी सबसे बड़ी मित्र हैं और सबसे बड़ी सुधारक-अध्यापक हैं, जो हमारी सारी की सारी कमजोरियों को चूर-चूर कर डालती हैं और हमारे भीतर हिम्मत का, बहादुरी का माद्दा पैदा करती हैं। कठिनाइयों हमें संघर्ष करना सिखाती हैं और न जाने क्या-क्या सिखाती हैं। यह इतनी बड़ी पाठशाला है कि इसमें से होकर आदमी प्रतिभावान निकलता है, नया जीवन लेकर निकलता है और जिन्होंने आराम की जिंदगी जी, हराम की जिंदगी जी, वे मिट्टी के होकर के रहे हैं, कीड़े होकर के रहे हैं। अमीरों के बच्चों को आप देख सकते हैं। अमीरी में पले हुए बच्चों का सत्यानाश हो गया। जो बच्चे गरीबी में पैदा हुए कठिनाइयों में पैदा हुए वे हीरे के तरीके से चमकते हुए निकले, तलवार के तरीके से दनदनाते हुए निकले।

मित्रो! भगवान ने इसीलिए कहा कि मुसीबतों से घबराना मत। कठिनाइयों से भागो मत, उनसे कुछ सीखने की कोशिश करो। कठिनाइयों से जूझने के लिए भीतर से हलचल होनी चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण का प्रारंभिक जीवन यह सिखाता है कि आदमी को यदि भगवान बनना है, महान बनना है, तो उसे कठिनाइयों का आलिंगन करना चाहिए। कठिनाइयों को जान-बूझकर चैलेंज करना चाहिए। तपश्चर्या का मतलब ही होता है-कठिनाइयों को जान बूझकर अपनाना और यह अभ्यास करना कि हम मुसीबत में हैं। मुसीबत हमें सबसे पहले बहादुरी के साथ संयम करना सिखाती है। तप आदमी को न जाने क्या से क्या बना देता है।

वस्तुतः जो आदमी मौत के साथ में जद्दोजहद कर सकते हैं, कठिनाइयों के साथ लड़ सकते हैं, उनका यश चारों ओर फैलता है। जो मुसीबतों के लिए कठिनाइयों के लिए तैयार रहते हैं, उनकी हिम्मत निखरती जाती है। हिम्मत के बिना सफलता के पहाड़ पर चढ़ना किसी के लिए भी संभव नहीं है।

आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्ति:॥
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