Books - शक्ति के भंडार से स्वयं को जोड़े
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
साधना की श्रेष्ठतम उपलब्धि: समर्पण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
त्रिपदा गायत्री के तीन चरण वस्तुत: ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग रूपी तीन सीढ़ियाँ हैँ, जिनके द्वारा उपासना की गहराई तक पहुँचकर ऋद्धि-सिद्धियाँ हस्तगत की जा सकती है। प्रथम दो सीढ़ी साधक की प्रारंभिक अवस्था हैं। वस्तुत: भक्तियोग तक पहुँचना एवं समर्पण साधना में अपने आप का परमसत्ता में विसर्जन कर देना ही साधक का लक्ष्य होता है। यह वह अवस्था है जिसमें अग्नि के लिए समर्पित होने वाला ईंधन अग्निरूप ही हो जाता है। भक्त की समस्त भाव-संवेदनाएँ ईश्वर जैसी उदार एवं महान बनती जाती हैं। आदर्शों के समुच्चय परब्रह्म के साथ जुड़कर आत्मा, परमात्मा में समर्पित हो जाती है। समर्पण साधना यही है। अद्वैत चिंतन इसी को कहते हैं। तादात्म्यता में ही ईश्वर दर्शन का ऐसा रसास्वादन मिलता है जिसकी प्यास में जीव कस्तूरी हिरन की तरह दिशा-दिशा में तलाशता, भागता-फिरता है। इसीलिए भक्तियोग को सबसे ऊँचा माना गया है। मीरा कहती थीं, ''सबसे ऊँची प्रेम सगाई।''
अध्यात्म की तीन अवस्थाएँ हैं-बाल्यावस्था, तरुणावस्था एवं वृद्धावस्था। प्रारंभिक स्थिति में जानकारी प्राप्त करना ज्ञानयोग है। अपने विचारों, विश्वासों को दृढ़ एवं निश्चित करने के पश्चात कर्तव्य करना, आचरण को उसी साँचे में ढालना कर्मयोग, तरुणावस्था है। ज्ञान और कर्म के आधार पर परिपक्व मनोभूमि बनती है उच्च दृष्टिकोण बनता है, जिसमें से त्याग, सेवा, उदारता एवं प्रेम की अजस्र धारा अंतःकरण में से फूट निकलती है, उस प्रेम की धारा को ईश्वर की, नर-नारायण की उपासना में प्रवाहित करना भक्तियोग, वृद्धावस्था है। दूसरे शब्दों में बालकपन-विद्यार्थी अवस्था ज्ञानयोग का समय है। तरुणाई कर्तव्यपरायणता कर्मयोग की स्थिति है। वृद्धावस्था प्रेम, परोपकार और आत्मीयता के प्रसार की दशा भक्तियोग की अवस्था है। भक्तियोग आध्यात्मिक वृद्धावस्था की साधना है। ज्ञान और कर्म द्वारा पुष्ट हुए वृक्ष पर भक्ति का फल लगता है। भक्ति में तन्मयता होती है, आवेश होता है, लगन होती है, प्रेम में उन्माद होता है, रस होता है, विकलता होती है और अपने प्रेमी में घुल जाने की उत्कंठा होती है। अपना आपा भूल जाता है।
गायत्री साधना में स्थूल शरीर कर्मयोग से, सूक्ष्म शरीर ज्ञानयोग से परिष्कृत होता है। कारण शरीर को सुसंस्कृत बनाने के लिए भक्तियोग का विधान है जिसके अंतर्गत उपासना भी आती है। उपासना क्षेत्र में सभी क्रिया-कलाप सम्मिलित किए जाते हैं जो जप, ध्यान आदि पूजा पद्धतियों के रूप में प्रथा परंपराओं के अनुसार प्रचलित हैं। गायत्री महामंत्र जप के साथ यदि भाव-विह्वल होने, तल्लीन होने, माँ का आँचल पकड़ने, अपने आप को विसर्जित करने का भाव किया जा सके तो समझना चाहिए कि हम भक्तियोग की साधना में प्रवृत्त हो गए हैं। त्रिपदा गायत्री की साधना इसी प्रकार की जाती है जिसके साथ ज्ञान, कर्म एवं भक्तियोग का समन्वय है। जहाँ प्रथम दो की महत्ता पृष्ठभूमि बनाने की है, वहाँ भक्तियोग का चरम पराकाष्ठा वाला रूप साधना का उच्चतम सोपान है। हमें इसी गंतव्य तक पहुँचने के लिए स्वयं को प्रयासरत करना चाहिए। निश्चित ही गायत्री साधना वह भी संधिकाल की साधना तो इसके लिए सर्वश्रेष्ठ सुअवसर व मानवमात्र के लिए एक सौभाग्य है।
समर्पण के, शरणागति के अनेक आमंत्रणों में भगवान इतना कहते हैं कि अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं को, अहम् को ईश्वर को समर्पित कर दें। इसके बाद सच्चे अर्थों में समर्पण का जो लाभ मिलना चाहिए वह अनेकों प्रकार के अनुग्रह के रूप में भक्त को मिलता है। व्यष्टि का समष्टि में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में, संकीर्णता का उदारता में, निकृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन करना है। समर्पण के महत्त्व का प्रतिपादन अध्यात्म सिद्धांतों में अनेक स्थानों पर अनेक ढंग से किया गया है। गोपियों के साथ कृष्ण के रास रचाने के पीछे यही प्रेरणा है कि सभी प्रवृत्तियाँ आत्मा की पुकार का, वेणुनाद का अनुसरण करें। अर्जुन को भी भगवान कृष्ण ने यही करने के लिए कहा। भक्तियोग के अनेकानेक कृत्य पूजा, स्तवन, अर्चना में समर्पण की भावना को प्रबल बनाने का ही अभ्यास किया जाता है। भक्तियोग में समर्पण की ही प्रधानता है। वेदांत में अद्वैत के प्रतिपादनों में भक्तियोग का, समर्पणयोग का ही समर्थन है।
समर्पण के चमत्कारी परिणाम सर्वत्र देखे जा सकते हैं। बीज की सत्ता अत्यंत लघु, नगण्य होती है, पर जब वह अपने आप को तुच्छ घेरे से निकालकर धरती माता की गोद में समर्पित कर देता है तो उसमें से नन्हे-नन्हे अंकुर फूटने लगते है। सूर्य की किरणें उसे शक्ति देती हैं। पवन उसे दुलारता है, मेघ उसका अभिसिंचन करता है, संपूर्ण प्रकृति उसकी सेवा, उसके विकास के लिए जुट जाती है। बीज नीचे बढ़ता और अपनी जड़ें धरती की गोद में सुदृढ़ कर लेता है। ऊपर उठता है तो एक विशाल वृक्ष जिसकी छत्रछाया में सैकड़ों जीव-जंतुओं को पोषण, पक्षियों को विश्राम मिलता है। अपने संपूर्ण जीवन में वह एक नन्हा सा बीज करोड़ों बीज का जनक होने का गौरव प्राप्त करता है। नवजात शिशु की अपनी कुछ भी सामर्थ्य नहीं रहती है, पर समर्पण के आधार पर उसे सारी सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं।
समर्पण का चमत्कारी प्रतिफल दाम्पत्य जीवन में भी देखा जा सकता है। पति के समक्ष अपना तन, मन और आत्मा सब कुछ समर्पित कर देने वाली पत्नी कुछ खोती नहीं पाती ही है। वह घर की मालकिन बन जाती है। जो अधिकार और सुविधाएँ पति को प्राप्त होती हैं, उनकी अधिकारिणी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के वह हो जाती है। उसे स्वामित्व के कानूनी अधिकार भी मिल जाते हैं। समर्पण से अभिप्राय विलय-विसर्जन से है। आग के निकट आकर ईंधन भी उसी जैसा बन जाता है। दूध और पानी मिलकर एक जैसे बन जाते हैं। नाला गंगा में मिलकर गंगा का स्वरूप ही नहीं विशेषताएँ भी प्राप्त कर लेता है। भक्त को भी समर्पण के लिए भगवान जैसा ही बनना पड़ता है। उन्हीं के गुणों को अपने व्यक्तित्व में भरना पड़ता है जो कि परमात्मा में हैं। भक्ति का अर्थ मनुहार, चापलूसी नहीं प्रखर पराक्रम के लिए अपने को तैयार करना है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परमात्मा के आदर्शों के अनुरूप बनाना ढालना पड़ता है। भक्ति और भक्त की एक ही कसौटी है कि सदुद्देश्यों के लिए वह शरीर, मन और अंत:करण से कितना अधिक सक्रिय है? शरीर की क्रियाशीलता, मस्तिष्क की विचारणा और अंतःकरण की उदारता पारमार्थिक कार्यों में कितना अधिक नियोजित हो रही है?
समर्पण भक्ति की, निष्ठा की परख है। एक संत ने कहा है कि समर्पण का अर्थ है-''मन अपना विचार इष्ट के, हृदय अपना भावनाएँ इष्ट की, आपा अपना किंतु समग्र कर्तव्य इष्ट का।'' इस परिभाषा के अनुसार जीव को अपनी अहंता से पूरी तरह अवकाश पा लेना है। शरीर, मन और अंतःकरण पर स्वयं का आधिपत्य होते हुए भी इनकी विशेषताएँ क्षमताएँ पूरी तरह इष्ट के लिए अर्थात उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित हो जाएँ। समर्पण के लिए इस भावना को सदा परिपुष्ट करते रहना पड़ता है कि ''मैं पतंगे की तरह हूँ इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के कारण द्वैत श्रद्धा को समाप्त कर अद्वैत की उपलब्धि के लिए अपने इष्ट के साथ प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्मसमर्पण करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाशपुञ्ज में लीन होता है। उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व इस अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में समष्टि चेतना में विलीन होता हूँ।''
समर्पण में आशाओं-आकांक्षाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। पारमार्थिक साधनाओं में या आत्मोपलब्धि, मोक्ष के लिए समर्पित होने के लिए संपूर्ण कामनाएँ नष्ट करनी पड़ती हैं।
अंतःकरण में न कोई छल है और न छद्म। अपनी बौद्धिक क्षमताएँ सक्रियता, प्रगति सब ध्येय के प्रति अर्पित हों, यही सच्ची साधना है। यह सौभाग्य जिन प्रयोजनों के लिए मिल जाते हैं, चाहे वह सांसारिक हों या आध्यात्मिक उनकी सफलता की आधी मंजिल तत्काल पूर्ण हो जाती है। साथ ही उस समर्पित आत्मा को ईश्वर सान्निध्य का एक ऐसा दिव्य लाभ इसी साधना से मिल जाता है जिसके लिए योगाभ्यास और जन्म-जन्मांतरों की कठिन और लंबी साधना पूरी करनी पड़ती है। सत्प्रवृत्तियों, उच्च आदर्शों को समर्पित जीवन का अर्थ है-परमात्मा को समर्पित जीवन। ऐसे साधक के लिए ही भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, ''तू अपना मन और बुद्धि मेरे ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में लगा। इस तरह तू मेरे में ही निवास करेगा, मेरे को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ संशय नहीं। सच्चे समर्पण की यही फलश्रुति है।''
अध्यात्म की तीन अवस्थाएँ हैं-बाल्यावस्था, तरुणावस्था एवं वृद्धावस्था। प्रारंभिक स्थिति में जानकारी प्राप्त करना ज्ञानयोग है। अपने विचारों, विश्वासों को दृढ़ एवं निश्चित करने के पश्चात कर्तव्य करना, आचरण को उसी साँचे में ढालना कर्मयोग, तरुणावस्था है। ज्ञान और कर्म के आधार पर परिपक्व मनोभूमि बनती है उच्च दृष्टिकोण बनता है, जिसमें से त्याग, सेवा, उदारता एवं प्रेम की अजस्र धारा अंतःकरण में से फूट निकलती है, उस प्रेम की धारा को ईश्वर की, नर-नारायण की उपासना में प्रवाहित करना भक्तियोग, वृद्धावस्था है। दूसरे शब्दों में बालकपन-विद्यार्थी अवस्था ज्ञानयोग का समय है। तरुणाई कर्तव्यपरायणता कर्मयोग की स्थिति है। वृद्धावस्था प्रेम, परोपकार और आत्मीयता के प्रसार की दशा भक्तियोग की अवस्था है। भक्तियोग आध्यात्मिक वृद्धावस्था की साधना है। ज्ञान और कर्म द्वारा पुष्ट हुए वृक्ष पर भक्ति का फल लगता है। भक्ति में तन्मयता होती है, आवेश होता है, लगन होती है, प्रेम में उन्माद होता है, रस होता है, विकलता होती है और अपने प्रेमी में घुल जाने की उत्कंठा होती है। अपना आपा भूल जाता है।
गायत्री साधना में स्थूल शरीर कर्मयोग से, सूक्ष्म शरीर ज्ञानयोग से परिष्कृत होता है। कारण शरीर को सुसंस्कृत बनाने के लिए भक्तियोग का विधान है जिसके अंतर्गत उपासना भी आती है। उपासना क्षेत्र में सभी क्रिया-कलाप सम्मिलित किए जाते हैं जो जप, ध्यान आदि पूजा पद्धतियों के रूप में प्रथा परंपराओं के अनुसार प्रचलित हैं। गायत्री महामंत्र जप के साथ यदि भाव-विह्वल होने, तल्लीन होने, माँ का आँचल पकड़ने, अपने आप को विसर्जित करने का भाव किया जा सके तो समझना चाहिए कि हम भक्तियोग की साधना में प्रवृत्त हो गए हैं। त्रिपदा गायत्री की साधना इसी प्रकार की जाती है जिसके साथ ज्ञान, कर्म एवं भक्तियोग का समन्वय है। जहाँ प्रथम दो की महत्ता पृष्ठभूमि बनाने की है, वहाँ भक्तियोग का चरम पराकाष्ठा वाला रूप साधना का उच्चतम सोपान है। हमें इसी गंतव्य तक पहुँचने के लिए स्वयं को प्रयासरत करना चाहिए। निश्चित ही गायत्री साधना वह भी संधिकाल की साधना तो इसके लिए सर्वश्रेष्ठ सुअवसर व मानवमात्र के लिए एक सौभाग्य है।
समर्पण के, शरणागति के अनेक आमंत्रणों में भगवान इतना कहते हैं कि अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं को, अहम् को ईश्वर को समर्पित कर दें। इसके बाद सच्चे अर्थों में समर्पण का जो लाभ मिलना चाहिए वह अनेकों प्रकार के अनुग्रह के रूप में भक्त को मिलता है। व्यष्टि का समष्टि में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में, संकीर्णता का उदारता में, निकृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन करना है। समर्पण के महत्त्व का प्रतिपादन अध्यात्म सिद्धांतों में अनेक स्थानों पर अनेक ढंग से किया गया है। गोपियों के साथ कृष्ण के रास रचाने के पीछे यही प्रेरणा है कि सभी प्रवृत्तियाँ आत्मा की पुकार का, वेणुनाद का अनुसरण करें। अर्जुन को भी भगवान कृष्ण ने यही करने के लिए कहा। भक्तियोग के अनेकानेक कृत्य पूजा, स्तवन, अर्चना में समर्पण की भावना को प्रबल बनाने का ही अभ्यास किया जाता है। भक्तियोग में समर्पण की ही प्रधानता है। वेदांत में अद्वैत के प्रतिपादनों में भक्तियोग का, समर्पणयोग का ही समर्थन है।
समर्पण के चमत्कारी परिणाम सर्वत्र देखे जा सकते हैं। बीज की सत्ता अत्यंत लघु, नगण्य होती है, पर जब वह अपने आप को तुच्छ घेरे से निकालकर धरती माता की गोद में समर्पित कर देता है तो उसमें से नन्हे-नन्हे अंकुर फूटने लगते है। सूर्य की किरणें उसे शक्ति देती हैं। पवन उसे दुलारता है, मेघ उसका अभिसिंचन करता है, संपूर्ण प्रकृति उसकी सेवा, उसके विकास के लिए जुट जाती है। बीज नीचे बढ़ता और अपनी जड़ें धरती की गोद में सुदृढ़ कर लेता है। ऊपर उठता है तो एक विशाल वृक्ष जिसकी छत्रछाया में सैकड़ों जीव-जंतुओं को पोषण, पक्षियों को विश्राम मिलता है। अपने संपूर्ण जीवन में वह एक नन्हा सा बीज करोड़ों बीज का जनक होने का गौरव प्राप्त करता है। नवजात शिशु की अपनी कुछ भी सामर्थ्य नहीं रहती है, पर समर्पण के आधार पर उसे सारी सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं।
समर्पण का चमत्कारी प्रतिफल दाम्पत्य जीवन में भी देखा जा सकता है। पति के समक्ष अपना तन, मन और आत्मा सब कुछ समर्पित कर देने वाली पत्नी कुछ खोती नहीं पाती ही है। वह घर की मालकिन बन जाती है। जो अधिकार और सुविधाएँ पति को प्राप्त होती हैं, उनकी अधिकारिणी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के वह हो जाती है। उसे स्वामित्व के कानूनी अधिकार भी मिल जाते हैं। समर्पण से अभिप्राय विलय-विसर्जन से है। आग के निकट आकर ईंधन भी उसी जैसा बन जाता है। दूध और पानी मिलकर एक जैसे बन जाते हैं। नाला गंगा में मिलकर गंगा का स्वरूप ही नहीं विशेषताएँ भी प्राप्त कर लेता है। भक्त को भी समर्पण के लिए भगवान जैसा ही बनना पड़ता है। उन्हीं के गुणों को अपने व्यक्तित्व में भरना पड़ता है जो कि परमात्मा में हैं। भक्ति का अर्थ मनुहार, चापलूसी नहीं प्रखर पराक्रम के लिए अपने को तैयार करना है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परमात्मा के आदर्शों के अनुरूप बनाना ढालना पड़ता है। भक्ति और भक्त की एक ही कसौटी है कि सदुद्देश्यों के लिए वह शरीर, मन और अंत:करण से कितना अधिक सक्रिय है? शरीर की क्रियाशीलता, मस्तिष्क की विचारणा और अंतःकरण की उदारता पारमार्थिक कार्यों में कितना अधिक नियोजित हो रही है?
समर्पण भक्ति की, निष्ठा की परख है। एक संत ने कहा है कि समर्पण का अर्थ है-''मन अपना विचार इष्ट के, हृदय अपना भावनाएँ इष्ट की, आपा अपना किंतु समग्र कर्तव्य इष्ट का।'' इस परिभाषा के अनुसार जीव को अपनी अहंता से पूरी तरह अवकाश पा लेना है। शरीर, मन और अंतःकरण पर स्वयं का आधिपत्य होते हुए भी इनकी विशेषताएँ क्षमताएँ पूरी तरह इष्ट के लिए अर्थात उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित हो जाएँ। समर्पण के लिए इस भावना को सदा परिपुष्ट करते रहना पड़ता है कि ''मैं पतंगे की तरह हूँ इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के कारण द्वैत श्रद्धा को समाप्त कर अद्वैत की उपलब्धि के लिए अपने इष्ट के साथ प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्मसमर्पण करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाशपुञ्ज में लीन होता है। उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व इस अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में समष्टि चेतना में विलीन होता हूँ।''
समर्पण में आशाओं-आकांक्षाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। पारमार्थिक साधनाओं में या आत्मोपलब्धि, मोक्ष के लिए समर्पित होने के लिए संपूर्ण कामनाएँ नष्ट करनी पड़ती हैं।
अंतःकरण में न कोई छल है और न छद्म। अपनी बौद्धिक क्षमताएँ सक्रियता, प्रगति सब ध्येय के प्रति अर्पित हों, यही सच्ची साधना है। यह सौभाग्य जिन प्रयोजनों के लिए मिल जाते हैं, चाहे वह सांसारिक हों या आध्यात्मिक उनकी सफलता की आधी मंजिल तत्काल पूर्ण हो जाती है। साथ ही उस समर्पित आत्मा को ईश्वर सान्निध्य का एक ऐसा दिव्य लाभ इसी साधना से मिल जाता है जिसके लिए योगाभ्यास और जन्म-जन्मांतरों की कठिन और लंबी साधना पूरी करनी पड़ती है। सत्प्रवृत्तियों, उच्च आदर्शों को समर्पित जीवन का अर्थ है-परमात्मा को समर्पित जीवन। ऐसे साधक के लिए ही भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, ''तू अपना मन और बुद्धि मेरे ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में लगा। इस तरह तू मेरे में ही निवास करेगा, मेरे को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ संशय नहीं। सच्चे समर्पण की यही फलश्रुति है।''