Books - स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा
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Language: HINDI
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बड़े प्रयोजन के लिए प्रतिभावानों की आवश्यकता
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इक्कीसवीं सदी में अपनी- अपनी भावना और योग्यता के अनुरूप हर किसी को कुछ न
कुछ करना ही चाहिये। व्यस्तता और अभावग्रस्तता के कुहासे में कुछ करना-
धरना सूझ न पड़ता हो तो फिर अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति का उल्लेख करते
हुए शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से परामर्श कर लेना चाहिये।
विशेषतः इस शताब्दी में प्रखर प्रतिभाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। पिछली शताब्दी में प्रदूषण फैला, दुर्भाव बढ़ा और कुप्रचलन का विस्तार हुआ है। उसमें सामान्यजनों का कम और प्रतिभाशालियों द्वारा किये गये अनर्थ का दोष अधिक है। अब सुधार की वेला आई है तो कचरा बिखेरने वाले वर्ग को ही उसकी सफाई का प्रायश्चित करना चाहिये। तोड़ने वाले मजदूर सस्ते मिल जाते हैं, किन्तु कलात्मक निर्माण करने के लिये अधिक कुशल कारीगर चाहिये। नवनिर्माण में लगाई जाने वाली प्रतिभाओं की दूरदृष्टि, कुशलता और तत्परता अधिक ऊँचे स्तर की चाहिये। उनका अंतराल भी समुज्ज्वल होना चाहिये और बाह्य दृष्टि से इतना अवकाश एवं साधन भी उनके पास होना चाहिये ताकि अनावश्यक विलंब न हो और नये युग की क्षतिपूर्ति कर नवनिर्माण वे विश्वकर्मा जैसी तत्परता के साथ कर सकें; जो एकांगी न सोचें वरन् बहुमुखी आवश्यकताओं के हर पक्ष को सँभालने में अपनी दक्षता का परिचय दे सकें। यही निर्माण आज का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। सृजेता ही कार्य संपन्न कर दिखाता है। मूकदर्शक तो खड़े- खड़े साक्षी की तरह देखते रहते हैं। ऐसी भीड़ में असुविधा ही बढ़ती है। गंदगी और गड़बड़ी फैलाते रहना ही अनगढ़ लोगों का काम होता है।
सृजेता की सृजन- प्रेरणा किस गति से चल रही है और उज्ज्वल भविष्य की निकटता में अब कितना विलंब है, इसकी जाँच- पड़ताल एक ही उपाय से हो सकती है कि कितनों के अंतःकरण में उस परीक्षा की घड़ी में असाधारण कौशल दिखाने की उमंगें उठ रही हैं तथा स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ अपनाना कितना अधिक सुदृढ़ होता चला जाता है? समय की सबसे बड़ी आवश्यकता- नवसृजन लिये सोच तो कोई कुछ भी सकता है, पर क्रियारूप में कुछ कर पड़ना उन्हीं के लिये संभव हो सकता है, जो निजी महत्त्वाकाँक्षाओं में कटौती करके अधिक से अधिक समय, श्रम, मनोयोग एवं साधनों को नियोजित कर सकें। भवन खड़ा करने के लिये ईंट, चूना, सीमेंट, लकड़ी, लोहा आदि अनिवार्य रूप से चाहिये। युगसृजन भी ऐसे ही अनेक साधनों की अपेक्षा करता है। उन्हें जुटाने के लिये पहला अनुदान अपने से ही प्रस्तुत करने वालों को ही यह आशा करनी चाहिये कि अन्य लोग भी उसका अनुकरण करेंगे; ऐसा समर्थन- सहयोग देने में उत्साह का प्रदर्शन करेंगे।
कहा जा चुका है कि युगसृजन जैसा महान् उत्तरदायित्व पूरा करने में स्रष्टा की उच्चस्तरीय सृजन- शक्तियाँ ही प्रमुख भूमिका संपन्न करेंगी। मनुष्य की औसत उपलब्धि तो यही रही है कि वह बनाता कम और बिगाड़ता अधिक है, पर जहाँ बनाना- ही एकमात्र लक्ष्य हो, वहाँ तो स्रष्टा की सृजन- सेना ही अग्रिम मोर्चा सँभालती दिखाई देगी। हर सैनिक के लिये अपने ढंग का अस्त्र- शस्त्र होता है। युगसृजन में आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा चाहिये और ऐसी लगन, जिसे कहीं किन्हीं आकर्षण या दबाव से विचलित न किया जा सके। ऐसे व्यक्तियों को ही देवमानव कहते हैं और उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य कर गुजरने की आशा की जाती है। जिन तथाकथित, कुण्ठाग्रस्त व मायाग्रस्त लोगों को सुनने- विचारने तक की फुरसत नहीं होती, उनसे तो कुछ बन पड़ेगा ही कैसे!
ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते हैं, जो किसी की पात्रता देखे बिना आँखें बंद करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है; भले ही वे उचित हों या अनुचित, किंतु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते हैं कि आत्मपरिष्कार और लोककल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर- भक्त कहे जाने योग्य हैं। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते हैं। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य प्रयोजन के लिये ऐसी लगन उभरती है, जिसे पूरा किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह- निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नररत्न ऐसों को ही कहते हैं। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे ही लोग सृजन करते हैं। उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए सामान्य सामर्थ्य वाले लोग परमलक्ष्य तक पहुँच कर रहते हैं। यही उत्पादन यदि छोटे- बड़े रूप में उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिये कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें निकली तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देर न लगेगी, जिससे वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते हैं।
इन दिनों औसत आदमी संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में एड़ी से चोटी तक डूबा प्रतीत होता है। उनकी आँखें न सृजन होकर इर्द- गिर्द बिखरे हुए पतन- पराभव को देखती हैं और न ऐसा कुछ सूझता है कि अवांछनीयता को औचित्य में बदलने के लिये उनसे क्या कुछ बन पड़ सकता है। जिनके कानों में कराह की पुकार ही नहीं पहुँचती है; जिन्हें घुँघरू के बोल ही सुहाते हैं, वे युग की पुकार और ईश्वर की वाणी सुन सकने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं! मानवीय भाव- संवेदना जहाँ से पलायन कर जाती है और जहाँ मरघट जैसी नीरवता और नीरसता ही छाई रहती है, वहाँ शालीनता का स्नेह- सद्भाव कैसे बन पड़ेगा! कैसे उस दिशा में उनके कुछ कदम उठ सकेंगे! ऐसे वातावरण में यदि कोई पुण्य- परमार्थ को वरण करने की बात सोचता है तो समझना चाहिये इसी आकाश में उदीयमान नक्षत्रों की चमक प्रारंभ हुई और रात्रि को भी रत्नजड़ित चाँदनी से सजा देने वाली मंगलमयी वेला का आगमन शुरू हुआ।
आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिये कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है। बड़े काम बड़े लोग कर पाते हैं। हाथी का वजन हाथी ही उठाता है। गधे की पीठ पर यदि उसे लाद दिया जाए तो बेचारे की कमर ही टूट जाए। क्षुद्र कृमि- कीटक मात्र अपना अस्तित्व बनाये रहने की परिधि में ही क्षमताओं को खपा देते हैं। उनसे यह बन नहीं पड़ता कि आदर्शों की बात सोचें, उत्कृष्टता अपनाएँ और विश्वकल्याण के क्रियाकलापों में रुचि लेकर कुछ ऐसा करें जिसकी युगधर्म ने पुकार लगाई और गुहार मचाई है।
वर्षा आती है तो हरीतिमा अनायास ही सर्वत्र उभर पड़ती है। वसंत आता है तो हर पेड़- पौधे पर फूलों की शोभा निखरती है। समझना चाहिये कि नवसृजन की इस पुण्यवेला में तनिक- सी गरमी पाते ही मलाई दूध के ऊपर आकर तैरने लगेगी। नवयुग का चमत्कार अरुणोदय की तरह यह दृष्टिकोण उभारेगा कि लोग अपने निर्वाह के प्रति स्वल्प संतोषी दृष्टिकोण अपनाएँगे और युगधर्म की बहुमुखी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये इस प्रकार जुट पड़ेंगे, मानों इसी एक काम के लिये उनका सृजन- अवतरण हुआ हो। अप्रत्याशित को निर्झर की तरह जमीन फोड़कर उभर पड़ता उसी को कहा जाएगा जो अगले दिनों होने जा रहा है।
समय अपनी गति से चलता और बदलता है, पर जब कभी आकस्मिक परिवर्तन दीख पड़े तो समझना चाहिये कि संध्याकाल जैसा परिवर्तन- पर्व निकट है। उसमें बहुत कुछ बदलना है, पर बदलाव की प्रथम किरण जहाँ से दृष्टिगोचर होगी, उसे प्रखर प्रतिभाओं का अभिनव उद्भव कहा जा सकेगा। भगवान् मनुष्य के रूप में परिवर्तित होंगे और उनकी निजी गतिविधियों का परिवर्तन विश्वपरिवर्तन की भूमिका बनकर और व्यापक बनता चला जाएगा।
योजना, प्रेरणा, दक्षता, व्यवस्था और समर्थता तो भगवान् की काम करेगी, किंतु श्रेय वे लोग प्राप्त करेंगे, जिनकी अंतरात्मा में युग के अनुरूप श्रद्धा और लगन जग पाई है। मुरगा जगकर अपने जागने की सूचना देता है, पर उसकी बाँग को सुनकर असंख्यों को ब्रह्ममुहूर्त की सूचना मिलती है और वे भी अरुणोदयवेला का लाभ लेने के लिए कार्यक्षेत्र में कदम उठाते हुए अगले दिनों दृष्टिगोचर होंगे।
विशेषतः इस शताब्दी में प्रखर प्रतिभाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। पिछली शताब्दी में प्रदूषण फैला, दुर्भाव बढ़ा और कुप्रचलन का विस्तार हुआ है। उसमें सामान्यजनों का कम और प्रतिभाशालियों द्वारा किये गये अनर्थ का दोष अधिक है। अब सुधार की वेला आई है तो कचरा बिखेरने वाले वर्ग को ही उसकी सफाई का प्रायश्चित करना चाहिये। तोड़ने वाले मजदूर सस्ते मिल जाते हैं, किन्तु कलात्मक निर्माण करने के लिये अधिक कुशल कारीगर चाहिये। नवनिर्माण में लगाई जाने वाली प्रतिभाओं की दूरदृष्टि, कुशलता और तत्परता अधिक ऊँचे स्तर की चाहिये। उनका अंतराल भी समुज्ज्वल होना चाहिये और बाह्य दृष्टि से इतना अवकाश एवं साधन भी उनके पास होना चाहिये ताकि अनावश्यक विलंब न हो और नये युग की क्षतिपूर्ति कर नवनिर्माण वे विश्वकर्मा जैसी तत्परता के साथ कर सकें; जो एकांगी न सोचें वरन् बहुमुखी आवश्यकताओं के हर पक्ष को सँभालने में अपनी दक्षता का परिचय दे सकें। यही निर्माण आज का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। सृजेता ही कार्य संपन्न कर दिखाता है। मूकदर्शक तो खड़े- खड़े साक्षी की तरह देखते रहते हैं। ऐसी भीड़ में असुविधा ही बढ़ती है। गंदगी और गड़बड़ी फैलाते रहना ही अनगढ़ लोगों का काम होता है।
सृजेता की सृजन- प्रेरणा किस गति से चल रही है और उज्ज्वल भविष्य की निकटता में अब कितना विलंब है, इसकी जाँच- पड़ताल एक ही उपाय से हो सकती है कि कितनों के अंतःकरण में उस परीक्षा की घड़ी में असाधारण कौशल दिखाने की उमंगें उठ रही हैं तथा स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ अपनाना कितना अधिक सुदृढ़ होता चला जाता है? समय की सबसे बड़ी आवश्यकता- नवसृजन लिये सोच तो कोई कुछ भी सकता है, पर क्रियारूप में कुछ कर पड़ना उन्हीं के लिये संभव हो सकता है, जो निजी महत्त्वाकाँक्षाओं में कटौती करके अधिक से अधिक समय, श्रम, मनोयोग एवं साधनों को नियोजित कर सकें। भवन खड़ा करने के लिये ईंट, चूना, सीमेंट, लकड़ी, लोहा आदि अनिवार्य रूप से चाहिये। युगसृजन भी ऐसे ही अनेक साधनों की अपेक्षा करता है। उन्हें जुटाने के लिये पहला अनुदान अपने से ही प्रस्तुत करने वालों को ही यह आशा करनी चाहिये कि अन्य लोग भी उसका अनुकरण करेंगे; ऐसा समर्थन- सहयोग देने में उत्साह का प्रदर्शन करेंगे।
कहा जा चुका है कि युगसृजन जैसा महान् उत्तरदायित्व पूरा करने में स्रष्टा की उच्चस्तरीय सृजन- शक्तियाँ ही प्रमुख भूमिका संपन्न करेंगी। मनुष्य की औसत उपलब्धि तो यही रही है कि वह बनाता कम और बिगाड़ता अधिक है, पर जहाँ बनाना- ही एकमात्र लक्ष्य हो, वहाँ तो स्रष्टा की सृजन- सेना ही अग्रिम मोर्चा सँभालती दिखाई देगी। हर सैनिक के लिये अपने ढंग का अस्त्र- शस्त्र होता है। युगसृजन में आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा चाहिये और ऐसी लगन, जिसे कहीं किन्हीं आकर्षण या दबाव से विचलित न किया जा सके। ऐसे व्यक्तियों को ही देवमानव कहते हैं और उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य कर गुजरने की आशा की जाती है। जिन तथाकथित, कुण्ठाग्रस्त व मायाग्रस्त लोगों को सुनने- विचारने तक की फुरसत नहीं होती, उनसे तो कुछ बन पड़ेगा ही कैसे!
ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते हैं, जो किसी की पात्रता देखे बिना आँखें बंद करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है; भले ही वे उचित हों या अनुचित, किंतु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते हैं कि आत्मपरिष्कार और लोककल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर- भक्त कहे जाने योग्य हैं। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते हैं। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य प्रयोजन के लिये ऐसी लगन उभरती है, जिसे पूरा किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह- निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नररत्न ऐसों को ही कहते हैं। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे ही लोग सृजन करते हैं। उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए सामान्य सामर्थ्य वाले लोग परमलक्ष्य तक पहुँच कर रहते हैं। यही उत्पादन यदि छोटे- बड़े रूप में उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिये कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें निकली तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देर न लगेगी, जिससे वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते हैं।
इन दिनों औसत आदमी संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में एड़ी से चोटी तक डूबा प्रतीत होता है। उनकी आँखें न सृजन होकर इर्द- गिर्द बिखरे हुए पतन- पराभव को देखती हैं और न ऐसा कुछ सूझता है कि अवांछनीयता को औचित्य में बदलने के लिये उनसे क्या कुछ बन पड़ सकता है। जिनके कानों में कराह की पुकार ही नहीं पहुँचती है; जिन्हें घुँघरू के बोल ही सुहाते हैं, वे युग की पुकार और ईश्वर की वाणी सुन सकने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं! मानवीय भाव- संवेदना जहाँ से पलायन कर जाती है और जहाँ मरघट जैसी नीरवता और नीरसता ही छाई रहती है, वहाँ शालीनता का स्नेह- सद्भाव कैसे बन पड़ेगा! कैसे उस दिशा में उनके कुछ कदम उठ सकेंगे! ऐसे वातावरण में यदि कोई पुण्य- परमार्थ को वरण करने की बात सोचता है तो समझना चाहिये इसी आकाश में उदीयमान नक्षत्रों की चमक प्रारंभ हुई और रात्रि को भी रत्नजड़ित चाँदनी से सजा देने वाली मंगलमयी वेला का आगमन शुरू हुआ।
आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिये कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है। बड़े काम बड़े लोग कर पाते हैं। हाथी का वजन हाथी ही उठाता है। गधे की पीठ पर यदि उसे लाद दिया जाए तो बेचारे की कमर ही टूट जाए। क्षुद्र कृमि- कीटक मात्र अपना अस्तित्व बनाये रहने की परिधि में ही क्षमताओं को खपा देते हैं। उनसे यह बन नहीं पड़ता कि आदर्शों की बात सोचें, उत्कृष्टता अपनाएँ और विश्वकल्याण के क्रियाकलापों में रुचि लेकर कुछ ऐसा करें जिसकी युगधर्म ने पुकार लगाई और गुहार मचाई है।
वर्षा आती है तो हरीतिमा अनायास ही सर्वत्र उभर पड़ती है। वसंत आता है तो हर पेड़- पौधे पर फूलों की शोभा निखरती है। समझना चाहिये कि नवसृजन की इस पुण्यवेला में तनिक- सी गरमी पाते ही मलाई दूध के ऊपर आकर तैरने लगेगी। नवयुग का चमत्कार अरुणोदय की तरह यह दृष्टिकोण उभारेगा कि लोग अपने निर्वाह के प्रति स्वल्प संतोषी दृष्टिकोण अपनाएँगे और युगधर्म की बहुमुखी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये इस प्रकार जुट पड़ेंगे, मानों इसी एक काम के लिये उनका सृजन- अवतरण हुआ हो। अप्रत्याशित को निर्झर की तरह जमीन फोड़कर उभर पड़ता उसी को कहा जाएगा जो अगले दिनों होने जा रहा है।
समय अपनी गति से चलता और बदलता है, पर जब कभी आकस्मिक परिवर्तन दीख पड़े तो समझना चाहिये कि संध्याकाल जैसा परिवर्तन- पर्व निकट है। उसमें बहुत कुछ बदलना है, पर बदलाव की प्रथम किरण जहाँ से दृष्टिगोचर होगी, उसे प्रखर प्रतिभाओं का अभिनव उद्भव कहा जा सकेगा। भगवान् मनुष्य के रूप में परिवर्तित होंगे और उनकी निजी गतिविधियों का परिवर्तन विश्वपरिवर्तन की भूमिका बनकर और व्यापक बनता चला जाएगा।
योजना, प्रेरणा, दक्षता, व्यवस्था और समर्थता तो भगवान् की काम करेगी, किंतु श्रेय वे लोग प्राप्त करेंगे, जिनकी अंतरात्मा में युग के अनुरूप श्रद्धा और लगन जग पाई है। मुरगा जगकर अपने जागने की सूचना देता है, पर उसकी बाँग को सुनकर असंख्यों को ब्रह्ममुहूर्त की सूचना मिलती है और वे भी अरुणोदयवेला का लाभ लेने के लिए कार्यक्षेत्र में कदम उठाते हुए अगले दिनों दृष्टिगोचर होंगे।