Books - स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा
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Language: HINDI
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जीवन-साधना एवं ईश-उपासना
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आस्तिकता या आध्यात्मिकता का क्रियापक्ष भी अपने स्थान पर उचित है। उससे
अभीष्ट प्रयोजन के सधने में सुविधा भी रहती है और सरलता भी होती है, पर
किसी को यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिये, कि पूजा- कृत्यों की प्रक्रिया
पूरी करने भर से आध्यात्मिकता के साथ जुड़ी रहने वाली फलश्रुतियों और
विभूतियों की प्राप्ति भी हो जाती है। यह तो संकेत ‘सिम्बल’ मात्र है, जो
दिशा- निर्धारण करता है और मील के पत्थर की तरह बताता है कि अपनी दिशाधारा
किस ओर होनी चाहिये।
साधना का प्रयोजन है- जीवन अर्थात् अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता बरतना। कड़ाई का तात्पर्य है- संयम का कठोरतापूर्वक परिपालन। इन्द्रिय- संयम अर्थ- संयम और विचार- संयम ही साधना के तीन चरण हैं। इन्हीं को तत्परता के नाम से जाना जाता है। इस प्रयोजन के लिये अपव्यय को कठोरतापूर्वक रोकना पड़ता है और जो समय, श्रम, चिंतन, साधन आदि बचाया जा सकता है, उसे तत्परतापूर्वक रोका जाता है और साथ ही इसका भी ध्यान रखना पड़ता है कि उसका सत्प्रयोजनों में श्रेष्ठतम सदुपयोग किस प्रकार बन पड़े? यदि यह निभ सके तो समझना चाहिये कि वास्तविक संयम- साधना की तपश्चर्या सही दिशा में रीति से चल रही है और उसका सदुपयोग भी उच्चस्तरीय प्रतिफल प्रदान करके रहेगा।
पूजा- अर्चा प्रतीक मात्र है, जो बताती है कि वास्तविक उपासक का स्वरूप क्या होना चाहिये और उसके साथ क्या उद्देश्य और क्या उपक्रम जुड़ा रहना चाहिये। देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहाँ दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिये प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम कराना है। पुष्प चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि जीवन क्रम को सर्वांग सुंदर, कोमल व सुशोभित रखने में कोई कमी न रखने दी जाए। अक्षत चढ़ाने का तात्पर्य है कि हमारे आय का एक नियमित अंशदान परमार्थ- प्रयोजन के लिये लगता रहेगा। चंदन- लेपन का तात्पर्य यह है कि संपर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगंध बनकर अधिक विकसित हो। नैवेद्य चढ़ाने का तात्पर्य है- अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना। जप का उद्देश्य है- अपने मनःक्षेत्र में निर्धारित प्रकाश परिपूर्णता का समावेश करने के लिये उसकी रट लगाये रहना। ध्यान का अर्थ है- अपनी मानसिकता को लक्ष्य- विशेष पर अविचल भाव से केन्द्रीभूत किये रहना। प्राणायाम का प्रयोजन है- अपने आपको हर दृष्टि से प्राणवान्, प्रखर व प्रतिभा संपन्न बनाये रहना। समूचे साधना विज्ञान का तत्त्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत है कि जीवनचर्या का बहिरंग और अंतरंग- पक्ष निरंतर मानवीय गरिमा के उपयुक्त साँचे में ढलता रहे- कषाय के दोष- दुर्गुण जहाँ भी छिपे हुए हों, उनका निराकरण होता चले। मनुष्य जितना ही निर्मल होता है, उसे उसी तत्परता के साथ आत्मा के दर्पण में ईश्वर की झाँकी होने लगती है। इसी को प्रसुप्ति का जागरण में परिवर्तित होना कहते हैं। आत्मज्ञान की उपलब्धि या आत्म- साक्षात्कार यही है। इस दिशा में जो जितना बढ़ पाते हैं, उन्हें उसी स्तर का सुविकसित सिद्धपुरुष या महामानव समझा जाता है।
सड़क चलने में सहायता तो करती है, पर उसे पार करने के लिये पैरों का पुरुषार्थ ही काम देता है। भजन- पूजन तो एक प्रकार का जलस्नान है, जिससे शरीर पर जमी हुई मलीनता दूर होती है। यह आवश्यक होते हुए भी समग्र नहीं है। जीवन धारण किये रहने के लिये तो खाना- पीना सोना- जागना आदि भी आवश्यक है। पूजा- अर्चा का महत्त्व समझा जाये किन्तु यह मान बैठने की भूल न की जाये कि आत्मिक प्रगति में पात्रता और प्रामाणिकता की उपेक्षा की जाने लगे या मान लिया जाये कि क्रिया- कृत्यों से ही अध्यात्म का समस्त प्रयोजन पूरा हो जाएगा। यदि वरिष्ठता और महत्ता की जाँच- पड़ताल करनी हो तो एक ही बात खोजनी चाहिये कि व्यक्ति सामान्यजनों की अपेक्षा अपने व्यक्तित्व, चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिक समावेश कर सका या नहीं? सोने को कसौटी पर कसने के अतिरिक्त आग में भी तपाया जाता है, तब पता चलता है कि उसके खरेपन में कहीं कोई कमी तो नहीं हैं। इसी प्रकार देखा यह भी जाना चाहिये कि सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन जैसे लोकमंगल- कार्यों में किसका कितना बढ़ा- चढ़ा अनुदान रहा। अद्यावधि संसार के इतिहास में महामानवों तथा ईश्वर- भक्तों का इतिहास इन्हीं दो विशेषताओं से जुड़ा हुआ रहा है। इनने इन्हीं दो चरणों को क्रमबद्ध रूप से उठाते हुए उत्कृष्टता के उच्च लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव बनाया है। अन्य किसी के लिये भी इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। कोई ऐसा शार्टकट कहाँ है, जिसे पकड़कर जीवन के स्तर को घटिया बनाये रखकर भी कोई ठोस सार्थक प्रगति की जा सके।
चतुरता के हथकण्डों में से कई ऐसे हैं तो सही, जो बाजीगरों जैसे चमत्कार दिखाकर भोले दर्शकों को अपने कुतूहलों से चमत्कृत कर देते हैं। बेईमानी से भी कभी- कभी कोई कुछ सफलता प्राप्त कर लेता है, पर इस तथ्य को भुला न दिया जाए कि बाजीगर हथेली पर सरसों जमा तो देते हैं, पर उसका तेल निकालते और लाभ मिलते किसी ने नहीं देखा। पानी के बबूले कुछ ही देर उछल- कूद करते और फिर सदा के लिये अपना अस्तित्व गँवा बैठते हैं।
धातुओं की खदानें जहाँ कहीं होती हैं, उस क्षेत्र के अपने सजातीय कणों को धीरे- धीरे खींचती और एकत्र करती रहती हैं। उनका क्रमिक विस्तार इसी प्रकार हो जाता है। जहाँ सघन वृक्षावली होती है, वहाँ भी हरीतिमा का चुंबकत्व आकाश से बादलों को खींचकर अपने क्षेत्र में बरसने के लिये विवश किया करता है। खिले हुए फूलों पर तितलियाँ न जाने कहाँ- कहाँ से उड़- उड़कर आ जाती हैं। इसी प्रकार प्रामाणिकता और उदारता की विभूतियाँ जहाँ- कहीं भी सघन हो जाती हैं वे अपने आप में एक चुंबक की भूमिका निभाती हैं और अखिल ब्रह्मांड में अपनी सजातीय चेतना को आकर्षित करके अवधारण कर लेती हैं। ईश्वरीय अंश इसी प्रकार मनुष्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से प्राणवानों में अधिक पाया जाता है। सामान्य प्राण को महाप्राण में परिवर्तित करना ही ईश्वर- उपासना का उद्देश्य है। इसी के फलित होने पर मनुष्य को मनीषी, क्षुद्र को महान् और नर को नारायण बनने का अवसर मिलता है।
साधना का प्रयोजन है- जीवन अर्थात् अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता बरतना। कड़ाई का तात्पर्य है- संयम का कठोरतापूर्वक परिपालन। इन्द्रिय- संयम अर्थ- संयम और विचार- संयम ही साधना के तीन चरण हैं। इन्हीं को तत्परता के नाम से जाना जाता है। इस प्रयोजन के लिये अपव्यय को कठोरतापूर्वक रोकना पड़ता है और जो समय, श्रम, चिंतन, साधन आदि बचाया जा सकता है, उसे तत्परतापूर्वक रोका जाता है और साथ ही इसका भी ध्यान रखना पड़ता है कि उसका सत्प्रयोजनों में श्रेष्ठतम सदुपयोग किस प्रकार बन पड़े? यदि यह निभ सके तो समझना चाहिये कि वास्तविक संयम- साधना की तपश्चर्या सही दिशा में रीति से चल रही है और उसका सदुपयोग भी उच्चस्तरीय प्रतिफल प्रदान करके रहेगा।
पूजा- अर्चा प्रतीक मात्र है, जो बताती है कि वास्तविक उपासक का स्वरूप क्या होना चाहिये और उसके साथ क्या उद्देश्य और क्या उपक्रम जुड़ा रहना चाहिये। देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहाँ दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिये प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम कराना है। पुष्प चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि जीवन क्रम को सर्वांग सुंदर, कोमल व सुशोभित रखने में कोई कमी न रखने दी जाए। अक्षत चढ़ाने का तात्पर्य है कि हमारे आय का एक नियमित अंशदान परमार्थ- प्रयोजन के लिये लगता रहेगा। चंदन- लेपन का तात्पर्य यह है कि संपर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगंध बनकर अधिक विकसित हो। नैवेद्य चढ़ाने का तात्पर्य है- अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना। जप का उद्देश्य है- अपने मनःक्षेत्र में निर्धारित प्रकाश परिपूर्णता का समावेश करने के लिये उसकी रट लगाये रहना। ध्यान का अर्थ है- अपनी मानसिकता को लक्ष्य- विशेष पर अविचल भाव से केन्द्रीभूत किये रहना। प्राणायाम का प्रयोजन है- अपने आपको हर दृष्टि से प्राणवान्, प्रखर व प्रतिभा संपन्न बनाये रहना। समूचे साधना विज्ञान का तत्त्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत है कि जीवनचर्या का बहिरंग और अंतरंग- पक्ष निरंतर मानवीय गरिमा के उपयुक्त साँचे में ढलता रहे- कषाय के दोष- दुर्गुण जहाँ भी छिपे हुए हों, उनका निराकरण होता चले। मनुष्य जितना ही निर्मल होता है, उसे उसी तत्परता के साथ आत्मा के दर्पण में ईश्वर की झाँकी होने लगती है। इसी को प्रसुप्ति का जागरण में परिवर्तित होना कहते हैं। आत्मज्ञान की उपलब्धि या आत्म- साक्षात्कार यही है। इस दिशा में जो जितना बढ़ पाते हैं, उन्हें उसी स्तर का सुविकसित सिद्धपुरुष या महामानव समझा जाता है।
सड़क चलने में सहायता तो करती है, पर उसे पार करने के लिये पैरों का पुरुषार्थ ही काम देता है। भजन- पूजन तो एक प्रकार का जलस्नान है, जिससे शरीर पर जमी हुई मलीनता दूर होती है। यह आवश्यक होते हुए भी समग्र नहीं है। जीवन धारण किये रहने के लिये तो खाना- पीना सोना- जागना आदि भी आवश्यक है। पूजा- अर्चा का महत्त्व समझा जाये किन्तु यह मान बैठने की भूल न की जाये कि आत्मिक प्रगति में पात्रता और प्रामाणिकता की उपेक्षा की जाने लगे या मान लिया जाये कि क्रिया- कृत्यों से ही अध्यात्म का समस्त प्रयोजन पूरा हो जाएगा। यदि वरिष्ठता और महत्ता की जाँच- पड़ताल करनी हो तो एक ही बात खोजनी चाहिये कि व्यक्ति सामान्यजनों की अपेक्षा अपने व्यक्तित्व, चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिक समावेश कर सका या नहीं? सोने को कसौटी पर कसने के अतिरिक्त आग में भी तपाया जाता है, तब पता चलता है कि उसके खरेपन में कहीं कोई कमी तो नहीं हैं। इसी प्रकार देखा यह भी जाना चाहिये कि सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन जैसे लोकमंगल- कार्यों में किसका कितना बढ़ा- चढ़ा अनुदान रहा। अद्यावधि संसार के इतिहास में महामानवों तथा ईश्वर- भक्तों का इतिहास इन्हीं दो विशेषताओं से जुड़ा हुआ रहा है। इनने इन्हीं दो चरणों को क्रमबद्ध रूप से उठाते हुए उत्कृष्टता के उच्च लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव बनाया है। अन्य किसी के लिये भी इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। कोई ऐसा शार्टकट कहाँ है, जिसे पकड़कर जीवन के स्तर को घटिया बनाये रखकर भी कोई ठोस सार्थक प्रगति की जा सके।
चतुरता के हथकण्डों में से कई ऐसे हैं तो सही, जो बाजीगरों जैसे चमत्कार दिखाकर भोले दर्शकों को अपने कुतूहलों से चमत्कृत कर देते हैं। बेईमानी से भी कभी- कभी कोई कुछ सफलता प्राप्त कर लेता है, पर इस तथ्य को भुला न दिया जाए कि बाजीगर हथेली पर सरसों जमा तो देते हैं, पर उसका तेल निकालते और लाभ मिलते किसी ने नहीं देखा। पानी के बबूले कुछ ही देर उछल- कूद करते और फिर सदा के लिये अपना अस्तित्व गँवा बैठते हैं।
धातुओं की खदानें जहाँ कहीं होती हैं, उस क्षेत्र के अपने सजातीय कणों को धीरे- धीरे खींचती और एकत्र करती रहती हैं। उनका क्रमिक विस्तार इसी प्रकार हो जाता है। जहाँ सघन वृक्षावली होती है, वहाँ भी हरीतिमा का चुंबकत्व आकाश से बादलों को खींचकर अपने क्षेत्र में बरसने के लिये विवश किया करता है। खिले हुए फूलों पर तितलियाँ न जाने कहाँ- कहाँ से उड़- उड़कर आ जाती हैं। इसी प्रकार प्रामाणिकता और उदारता की विभूतियाँ जहाँ- कहीं भी सघन हो जाती हैं वे अपने आप में एक चुंबक की भूमिका निभाती हैं और अखिल ब्रह्मांड में अपनी सजातीय चेतना को आकर्षित करके अवधारण कर लेती हैं। ईश्वरीय अंश इसी प्रकार मनुष्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से प्राणवानों में अधिक पाया जाता है। सामान्य प्राण को महाप्राण में परिवर्तित करना ही ईश्वर- उपासना का उद्देश्य है। इसी के फलित होने पर मनुष्य को मनीषी, क्षुद्र को महान् और नर को नारायण बनने का अवसर मिलता है।