Books - स्वच्छता मनुष्यता का गौरव
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Language: HINDI
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स्वच्छता और स्वास्थ्य का अनन्य सम्बन्ध
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स्वच्छता का स्वास्थ्य से घनिष्ट सम्बन्ध है। आरोग्य को नष्ट करने के जितने भी कारण हैं, उनमें गन्दगी प्रमुख है॥ बीमारियाँ गन्दगी में ही पलती हैं। जहाँ कूड़े-कचरे के ढेर जमा रहते हैं, मल-मूत्र सड़ता है, नालियों में कीचड़ भरी रहती है, सीलन और सड़न बनी रहती है, वहीं मक्खी, पिस्सू, खटमल जैसे बीमारियाँ उत्पन्न करने वाले कीड़े उत्पन्न होते हैं। उन्हें मारने की दवायें छिड़कना तब तक बेकार है, जब तक गन्दगी को हटाया न जाय। दवा आदि से इन्हें मारा जाय तो भी क्या हुआ। पैदावार न रुके तो अगले दिनों वे उतने ही और पैदा हो जाते हैं, जितने मारे या हटाये गये थे। कहना न होगा कि हैजा, मलेरिया, दस्त, पेट के कीड़े, चेचक, खुजली, रक्त-विकार जैसे कितने ही रोग इन मक्खी, मच्छर जैसे कीड़ों से ही फैलते हैं। मलेरिया का विष मच्छर फैलाते हैं, मक्खियाँ हैजा जैसी संक्रामक बीमारी की अग्रदूत हैं। प्लेग फैलाने में पिस्सुओं का सबसे बड़ा हाथ रहता है। खटमल खून पीते ही नहीं वरन् रक्त को विषैला भी करते हैं। इन कीड़ों के द्वारा पग-पग पर जो कष्ट होता है, सुविधा और बेचैनी उठानी पड़ती है, उसका कष्ट तो अलग ही दुःख देता रहता है।
निवास-स्थान तथा उसके आस-पास गन्दगी का रहना स्वास्थ्य के लिए स्पष्ट खतरा है। गन्दगी जितनी निकट आती जाती है, उतनी ही उसकी भयंकरता और बढ़ती जाती है। आग की तरह वह जितनी समीप आवेगी उतनी ही अधिक घातक बनती जायगी। कपड़े मैले-कुचैले होंगे तो उनकी दुर्गन्ध और कुरुपता हर किसी को अखरेगी। वस्त्र चाहे कितना ही कीमती क्यों न हो , यदि मैला-कुचेला होगा तो उसकी कीमत देखने वाले की आँखों में दो कौड़ी की भी न रहेगी क्योंकि वह बेजान, बेजवान होते हुए भी पहनने वाले की, अपने मालिक की भरपेट चुगली कर रहा होगा, कह रहा होगा-मेरा कीमती होना भी इस गन्दे आदमी ने बेकार बना दिया।
मनुष्यता का प्रथम चिह्न-मनुष्यता के प्रथम चिह्न स्वच्छता की ओर हमें अधिक तत्परता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। इस दिशा में जितनी प्रगति हो सकेगी उतना ही यह समझा जायेगा कि पशुता केा छोड़ा जा रहा है। स्वच्छता में मानवता का सम्मान है। भले ही कोई व्यक्ति निर्धन हो, अभाव के कारण घटिया, कम या फटे- चिथड़े पहन कर दिन गुजारता हो पर यदि उसके वस्त्र धुले हुए हैं, सलवट हटाने के लिए दबाये हुए है, फटी हुई जगह पर सिले हुए हैं, करीने से पहने हुए हैं, बटन ठीक लगे हुए हैं तो आर्थिक गरीबी में भी दिल की अमीरी का इजहार कर रहे होंगे। ऐसा मनुष्य आर्थिक दृष्टि से अभाव-ग्रस्त सिद्ध होते हए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से अपनी महत्ता अक्षुण्ण रख रहा होगा। वह दूसरों की सहानुभूति का पात्र तो हो सकता है, घृणा का नहीं।
शरीर, वस्त्र, घर, सामान इन सभी क्षेत्रों में जो मलीनता पाई जाती है उसका कारण कोई भौतिक कठिनाई नहीं, मनुष्य का घटिया व्यक्तित्व ही एकमात्र कारण होता है। फुरसत न मिलना, नौकर न होना, घर के अन्य लोगों का ध्यान न देना आदि बहाने हो सकते हैं, तथ्य नहीं। तथ्य यह है कि स्वच्छता का मूल्य एवं महत्व नहीं समझा गया। उसके अभाव में होने वाली हानि को नहीं जाना गया। यदि जाना जाता तो बहानेबाजी का रास्ता अपनाने की अपेक्षा, आलस्य छोड़कर, गन्दगी को हटाने के लिए परिश्रम किया होता। इसमें समय एवं श्रम भी उतना नहीं पड़ता, आवश्यकता केवल सतर्कता की होती है। शारीरिक आलस्य जितनी गन्दगी फैलाता है, उससे ज्यादा मानसिक आलस्य का हाथ होता है। मन में गन्दगी के प्रति घृणा नहीं होती तो वह जमकर बैठने लगती है। यदि मन में सतर्कता रहे और यह भावना बनी रहे कि गन्दी में लिपट कर हमें अपना व्यक्तित्व ओछा नहीं बनाना है, तो अवश्य ही यह सूझता रहेगा कि कहाँ मलीनता एकत्रित हो गई और उसे किस प्रकार दूर किया जाय? जब तक हमें किसी बात का लाभ समझ में नहीं आता, तब तक हम उसे करने के लिए तैयार नहीं होते। सच बात यह है कि न तो हमने गन्दगी की हानि को समझा है और न स्वच्छता के लाभ को जाना है। इसलिए मनोभूमि ऐसी बन गई है कि उसे गन्दगी के साथ समझौता कर लेने जैसी कहा जा सकता है।
आँख के आगे कूड़े-करकट के ढेर लगे रहते हैं पर वे खटकते नहीं, घर में नाली, पाखाना, पेशाबघर बुरी तरह सड़ते रहते हैं वे अखरते नहीं। कपड़े गन्दे-गलीज रहते हैं पर उनमें कोई बुराई नहीं लगती। सामान बिखरा, अस्त व्यस्त पड़ा रहता है पर उसे सुव्यवस्थित रखने की सूझ सूझती ही नहीं। जैसा कुछ ढर्रा चल रहा है, चलता रहता है। छतों में मकड़ी के जाले हों पर उन्हें हटाने की कभी इच्छा नहीं होती। दीवाल-तिखलों में अनावश्यक कूड़ा-कबाड़ा भरा रहता है पर यह विचार नहीं किया जाता कि इसकी क्या उपयोगिता है? पुरानी, टूटी, रद्दी, बेकार, निकम्मी चीजें घर के कौने में भरी रहती हैं। वे जो कभी किसी काम में आने वाली नहीं है, ऐसी चीजें ढेरों जगह घेरे पड़ी रहती हैं और अपनी छाया में गन्दगी के पर्त जमा करती रहती हैं। यदि दृष्टिकोण परिष्कृत हो और ऐसा कबाड़ी की दुकान जैसा घर अनुपयुक्त लगे तो यह सूझ सूझेगी ही कि क्या चीज रखे जाने योग्य है, क्या हटाये जाने योग्य। किस सामान के लिए कौन-सा स्थान उपयुक्त और कौन-सा अनुपयुक्त। यह सुरुचि जागृत हो और हर वस्तु यथास्थान-सुव्यवस्थित ढंग से रखने पर उत्पन्न हाने वाली सुन्दरता अन्तःकरण को आकर्षित करती हो तो कोई कारण नहीं कि वह उत्साह न उठे जिसके कारण बात ही बात में वह सारा कबाड़खाना एक सुरुचिपूर्ण सद्गृहस्थ के सुरम्य निवास का रूप धारण न कर ले।
चोर वहाँ सेंध लगाते हैं, जहाँ उन पर किसी की निगाह न पड़ती हो। सोते हुए बेखबर लोगों के घरों में ही अक्सर चोरी होती है। जो जागते रहते है, सावधान रहते हैं, चोरों के प्रवेश न होने देने के बारे में सावधानी बरतते हैं, उनके यहाँ चोरी कदाचित् ही होती है। गन्दगी के सम्बन्ध में भी यही बात है। जो उसकी उपेक्षा करते हैं, हटाने का प्रबन्ध नहीं करते, आलस और उदासीनता का दृष्टिकोण अपनाये रहते हैं, उनके घर में धीर-धीरे मलीनता जमा होती चली जाती है, पर जिनकी आँखों में वह इतनी अखरे कि एक क्षण भी बर्दाश्त न कर सकें, उसे हटाना अपना प्रथम कर्त्तव्य समझें तो फिर यह सम्भव नहीं कि वहाँ गन्दगी के पैर जम सकें।
रक्त में ऐसे श्वेत कण होते हैं, जो बाहर से रोग कृमि प्रवेश होते ही उनसे लड़ने को तैयार हो जाते हैं और उन्हें मार भगाने के लिए तत्काल संघर्ष ठान लेते हैं। शरीर में जब तक यह क्रिया चलती रहती है, तब तक बीमारियाँ पैर नहीं जमाने पातीं, पर जब रक्त के श्वेत कण निर्बल हो जाते हैं और रोग कीटाणुओं से उतनी तत्परता पूर्वक लड़ नहीं पाते तो फिर रोगों का अड्डा शरीर में जमने लगता है। गन्दगी एक प्रकार से रोगकृमियों की सेना ही है। उसे हटाने की तीव्र प्रतिक्रिया जब तक हमारे स्वभाव का अंग बनी रहती है, तब तक उसके पैर टिकना सम्भव नहीं होता। अवांछनीय तत्वों से संघर्ष न हो तो वे कभी भी हटने का नाम न लें। शत्रुओं को, गुण्डे-बदमाशों को यदि प्रतिरोध का भय न हो तो वे अपनी करतूतें बढ़ाते ही चले जायेंगे। इसलिए आत्म -रक्षा के लिए संघर्ष करना मनुष्य का आवश्यक धर्म कर्तव्य माना गया है। इस कर्तव्य को जो छोड़ देगा, उसके लिए जीवित रह सकना कठिन हो जायगा। गन्दगी की लानत द्वारा जिसे अपना गौरव नष्ट होने से बचाना हो, उसे संघर्षशील होना ही होगा, जहाँ भी गन्दगी दिखाई पड़े वहीं भिड़ जाना होगा। उसे जब तक हटा न दिया जाय चैन न पड़े, तुरन्त जाय, कोई सहायक न मिले तो अकेला ही जुट पड़े। तब ही यह सम्भव है कि स्वच्छता का गर्व, गौरव एवं आनन्द उपलब्ध किया जा सके।
निवास-स्थान तथा उसके आस-पास गन्दगी का रहना स्वास्थ्य के लिए स्पष्ट खतरा है। गन्दगी जितनी निकट आती जाती है, उतनी ही उसकी भयंकरता और बढ़ती जाती है। आग की तरह वह जितनी समीप आवेगी उतनी ही अधिक घातक बनती जायगी। कपड़े मैले-कुचैले होंगे तो उनकी दुर्गन्ध और कुरुपता हर किसी को अखरेगी। वस्त्र चाहे कितना ही कीमती क्यों न हो , यदि मैला-कुचेला होगा तो उसकी कीमत देखने वाले की आँखों में दो कौड़ी की भी न रहेगी क्योंकि वह बेजान, बेजवान होते हुए भी पहनने वाले की, अपने मालिक की भरपेट चुगली कर रहा होगा, कह रहा होगा-मेरा कीमती होना भी इस गन्दे आदमी ने बेकार बना दिया।
मनुष्यता का प्रथम चिह्न-मनुष्यता के प्रथम चिह्न स्वच्छता की ओर हमें अधिक तत्परता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। इस दिशा में जितनी प्रगति हो सकेगी उतना ही यह समझा जायेगा कि पशुता केा छोड़ा जा रहा है। स्वच्छता में मानवता का सम्मान है। भले ही कोई व्यक्ति निर्धन हो, अभाव के कारण घटिया, कम या फटे- चिथड़े पहन कर दिन गुजारता हो पर यदि उसके वस्त्र धुले हुए हैं, सलवट हटाने के लिए दबाये हुए है, फटी हुई जगह पर सिले हुए हैं, करीने से पहने हुए हैं, बटन ठीक लगे हुए हैं तो आर्थिक गरीबी में भी दिल की अमीरी का इजहार कर रहे होंगे। ऐसा मनुष्य आर्थिक दृष्टि से अभाव-ग्रस्त सिद्ध होते हए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से अपनी महत्ता अक्षुण्ण रख रहा होगा। वह दूसरों की सहानुभूति का पात्र तो हो सकता है, घृणा का नहीं।
शरीर, वस्त्र, घर, सामान इन सभी क्षेत्रों में जो मलीनता पाई जाती है उसका कारण कोई भौतिक कठिनाई नहीं, मनुष्य का घटिया व्यक्तित्व ही एकमात्र कारण होता है। फुरसत न मिलना, नौकर न होना, घर के अन्य लोगों का ध्यान न देना आदि बहाने हो सकते हैं, तथ्य नहीं। तथ्य यह है कि स्वच्छता का मूल्य एवं महत्व नहीं समझा गया। उसके अभाव में होने वाली हानि को नहीं जाना गया। यदि जाना जाता तो बहानेबाजी का रास्ता अपनाने की अपेक्षा, आलस्य छोड़कर, गन्दगी को हटाने के लिए परिश्रम किया होता। इसमें समय एवं श्रम भी उतना नहीं पड़ता, आवश्यकता केवल सतर्कता की होती है। शारीरिक आलस्य जितनी गन्दगी फैलाता है, उससे ज्यादा मानसिक आलस्य का हाथ होता है। मन में गन्दगी के प्रति घृणा नहीं होती तो वह जमकर बैठने लगती है। यदि मन में सतर्कता रहे और यह भावना बनी रहे कि गन्दी में लिपट कर हमें अपना व्यक्तित्व ओछा नहीं बनाना है, तो अवश्य ही यह सूझता रहेगा कि कहाँ मलीनता एकत्रित हो गई और उसे किस प्रकार दूर किया जाय? जब तक हमें किसी बात का लाभ समझ में नहीं आता, तब तक हम उसे करने के लिए तैयार नहीं होते। सच बात यह है कि न तो हमने गन्दगी की हानि को समझा है और न स्वच्छता के लाभ को जाना है। इसलिए मनोभूमि ऐसी बन गई है कि उसे गन्दगी के साथ समझौता कर लेने जैसी कहा जा सकता है।
आँख के आगे कूड़े-करकट के ढेर लगे रहते हैं पर वे खटकते नहीं, घर में नाली, पाखाना, पेशाबघर बुरी तरह सड़ते रहते हैं वे अखरते नहीं। कपड़े गन्दे-गलीज रहते हैं पर उनमें कोई बुराई नहीं लगती। सामान बिखरा, अस्त व्यस्त पड़ा रहता है पर उसे सुव्यवस्थित रखने की सूझ सूझती ही नहीं। जैसा कुछ ढर्रा चल रहा है, चलता रहता है। छतों में मकड़ी के जाले हों पर उन्हें हटाने की कभी इच्छा नहीं होती। दीवाल-तिखलों में अनावश्यक कूड़ा-कबाड़ा भरा रहता है पर यह विचार नहीं किया जाता कि इसकी क्या उपयोगिता है? पुरानी, टूटी, रद्दी, बेकार, निकम्मी चीजें घर के कौने में भरी रहती हैं। वे जो कभी किसी काम में आने वाली नहीं है, ऐसी चीजें ढेरों जगह घेरे पड़ी रहती हैं और अपनी छाया में गन्दगी के पर्त जमा करती रहती हैं। यदि दृष्टिकोण परिष्कृत हो और ऐसा कबाड़ी की दुकान जैसा घर अनुपयुक्त लगे तो यह सूझ सूझेगी ही कि क्या चीज रखे जाने योग्य है, क्या हटाये जाने योग्य। किस सामान के लिए कौन-सा स्थान उपयुक्त और कौन-सा अनुपयुक्त। यह सुरुचि जागृत हो और हर वस्तु यथास्थान-सुव्यवस्थित ढंग से रखने पर उत्पन्न हाने वाली सुन्दरता अन्तःकरण को आकर्षित करती हो तो कोई कारण नहीं कि वह उत्साह न उठे जिसके कारण बात ही बात में वह सारा कबाड़खाना एक सुरुचिपूर्ण सद्गृहस्थ के सुरम्य निवास का रूप धारण न कर ले।
चोर वहाँ सेंध लगाते हैं, जहाँ उन पर किसी की निगाह न पड़ती हो। सोते हुए बेखबर लोगों के घरों में ही अक्सर चोरी होती है। जो जागते रहते है, सावधान रहते हैं, चोरों के प्रवेश न होने देने के बारे में सावधानी बरतते हैं, उनके यहाँ चोरी कदाचित् ही होती है। गन्दगी के सम्बन्ध में भी यही बात है। जो उसकी उपेक्षा करते हैं, हटाने का प्रबन्ध नहीं करते, आलस और उदासीनता का दृष्टिकोण अपनाये रहते हैं, उनके घर में धीर-धीरे मलीनता जमा होती चली जाती है, पर जिनकी आँखों में वह इतनी अखरे कि एक क्षण भी बर्दाश्त न कर सकें, उसे हटाना अपना प्रथम कर्त्तव्य समझें तो फिर यह सम्भव नहीं कि वहाँ गन्दगी के पैर जम सकें।
रक्त में ऐसे श्वेत कण होते हैं, जो बाहर से रोग कृमि प्रवेश होते ही उनसे लड़ने को तैयार हो जाते हैं और उन्हें मार भगाने के लिए तत्काल संघर्ष ठान लेते हैं। शरीर में जब तक यह क्रिया चलती रहती है, तब तक बीमारियाँ पैर नहीं जमाने पातीं, पर जब रक्त के श्वेत कण निर्बल हो जाते हैं और रोग कीटाणुओं से उतनी तत्परता पूर्वक लड़ नहीं पाते तो फिर रोगों का अड्डा शरीर में जमने लगता है। गन्दगी एक प्रकार से रोगकृमियों की सेना ही है। उसे हटाने की तीव्र प्रतिक्रिया जब तक हमारे स्वभाव का अंग बनी रहती है, तब तक उसके पैर टिकना सम्भव नहीं होता। अवांछनीय तत्वों से संघर्ष न हो तो वे कभी भी हटने का नाम न लें। शत्रुओं को, गुण्डे-बदमाशों को यदि प्रतिरोध का भय न हो तो वे अपनी करतूतें बढ़ाते ही चले जायेंगे। इसलिए आत्म -रक्षा के लिए संघर्ष करना मनुष्य का आवश्यक धर्म कर्तव्य माना गया है। इस कर्तव्य को जो छोड़ देगा, उसके लिए जीवित रह सकना कठिन हो जायगा। गन्दगी की लानत द्वारा जिसे अपना गौरव नष्ट होने से बचाना हो, उसे संघर्षशील होना ही होगा, जहाँ भी गन्दगी दिखाई पड़े वहीं भिड़ जाना होगा। उसे जब तक हटा न दिया जाय चैन न पड़े, तुरन्त जाय, कोई सहायक न मिले तो अकेला ही जुट पड़े। तब ही यह सम्भव है कि स्वच्छता का गर्व, गौरव एवं आनन्द उपलब्ध किया जा सके।