Books - स्वच्छता मनुष्यता का गौरव
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
हमारी कठिनाइयाँ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सूरगाँव (वर्धा) में इस तरह का प्रयोग किया गया है। पहले वर्ष एक खेत में बिना कुछ खाद दिये हुए धान बोया गया। दूसरे वर्ष उसी में मल-मूत्र की खाद देकर धान बोया गया। दोनों फसलों की पैदावार का अनुपात निकाला गया तो यह देखा गया कि मल-मूत्र की खाद उपज को डेढ़ गुना अधिक तक बढ़ा देती है। यह अनुपात गोबर की खाद की उपज से किसी भी प्रकार कम नहीं है। इस निष्कर्ष पर पहुँचकर मल-मूत्र की उपयोगिता सहज ही समझ में आ जाती है।
हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि मल-मूत्र को कृषि से संबंधित करने में धार्मिक बुराई मानते हैं पर यदि ऐसा ही सोचा जाय तो फिर गाँवों के अधिकांश व्यक्ति खेतों में ही पाखाना करते हैं, उन्हें ऐसा न करना चाहिए। वस्तुतः हम जिसे मल कहते हैं उसे यदि खुले में ही छोड़ दिया जाय और वह सूखी मिट्टी की लपेट में रहे तो कुछ दिन के सम्पर्क से ही उसमें ऐसा रासायनिक परिवर्तन होता है कि वह सारा मल मिट्टी के रूप में बदल जाता है। खुला रहने के कारण दुर्गन्ध के साथ तो उसकी बहुमूल्य उपजाऊ शक्ति उड़ ही जाती है। यदि उसे मिट्टी से ढक देने की प्रक्रिया देहातों में प्रारंभ कर दी जाय तो उसी मल को प्रकृति बड़े मजे से खाद में बदल देती है। जब मल प्राकृतिक रुप से धरती का ही अंग बनकर उसी में मिल जाता है तो उसमें धार्मिक बुराई जैसी कोइ बात समझ में नहीं आती।
लोगों की ऐसी भी मान्यता है कि मल के खाद्य का फसलों पर दूषित प्रभाव पड़ता है। चीन में भी कुछ दिन लोगों की ऐसी ही धारणा रही कि मल का खेती में उपयोग करने से बीमारी फैलती है। पर यदि मल को एक ढंग से प्रयोग में लाया जाय, अर्थात् पूरी तरह गल जाने के बाद ही उसका खाद के रुप में उपयोग किया जाय तो हानि की कोई संभावना नहीं रहती। महात्मा गाँधी के आश्रम में जब वे थे तभी से विभिन्न फसलों में मैले की खाद का उपयोग किया जाता रहा, और भी कई संस्थानों ने ऐसे प्रयोग किये पर उससे ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला कि मैले की खाद का खाद्य पर अथवा उसके सेवन करने वालों पर कोई बुरा असर पड़ता हो।
हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि मल-मूत्र को कृषि से संबंधित करने में धार्मिक बुराई मानते हैं पर यदि ऐसा ही सोचा जाय तो फिर गाँवों के अधिकांश व्यक्ति खेतों में ही पाखाना करते हैं, उन्हें ऐसा न करना चाहिए। वस्तुतः हम जिसे मल कहते हैं उसे यदि खुले में ही छोड़ दिया जाय और वह सूखी मिट्टी की लपेट में रहे तो कुछ दिन के सम्पर्क से ही उसमें ऐसा रासायनिक परिवर्तन होता है कि वह सारा मल मिट्टी के रूप में बदल जाता है। खुला रहने के कारण दुर्गन्ध के साथ तो उसकी बहुमूल्य उपजाऊ शक्ति उड़ ही जाती है। यदि उसे मिट्टी से ढक देने की प्रक्रिया देहातों में प्रारंभ कर दी जाय तो उसी मल को प्रकृति बड़े मजे से खाद में बदल देती है। जब मल प्राकृतिक रुप से धरती का ही अंग बनकर उसी में मिल जाता है तो उसमें धार्मिक बुराई जैसी कोइ बात समझ में नहीं आती।
लोगों की ऐसी भी मान्यता है कि मल के खाद्य का फसलों पर दूषित प्रभाव पड़ता है। चीन में भी कुछ दिन लोगों की ऐसी ही धारणा रही कि मल का खेती में उपयोग करने से बीमारी फैलती है। पर यदि मल को एक ढंग से प्रयोग में लाया जाय, अर्थात् पूरी तरह गल जाने के बाद ही उसका खाद के रुप में उपयोग किया जाय तो हानि की कोई संभावना नहीं रहती। महात्मा गाँधी के आश्रम में जब वे थे तभी से विभिन्न फसलों में मैले की खाद का उपयोग किया जाता रहा, और भी कई संस्थानों ने ऐसे प्रयोग किये पर उससे ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला कि मैले की खाद का खाद्य पर अथवा उसके सेवन करने वालों पर कोई बुरा असर पड़ता हो।