Books - स्वच्छता मनुष्यता का गौरव
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
गन्दगी हटाने में उत्साह रहे
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कई व्यक्ति गन्दगी से घृणा तो करते हैं, पर उसे हटाने से कतराते हैं। यह घृणा का विलक्षण तरीका है। चोर से घृणा तो की जाय पर जब वह घर में घुसे तो उससे दूर ही खड़ा रहा जाय, ऐसा करने से चोर को हटाया जाना कैसे सम्भव होगा? घर में कहीं बिल्ली ने टट्टी कर दी है अथवा चूहा मरा पड़ा है या कोई और ऐसी ही बात है, आप उसे छूने या हटाने से झिझकते हैं तो फिर वह गन्दगी हटेगी कैसे? मलीनता से घृणा करना उसी का सार्थक है, जो उसे हटाने के लिए जुट जाए। जिससे ऐसा न बने उसके बारे में तो यही कहा जायगा कि स्वच्छता से घृणा नहीं करता है। यदि ऐसा न होता ता गन्दगी को हटाने के लिए अपने शत्रु को खदेड़ने के वास्ते तत्परता प्रदर्शित क्यों न करता?
होना यह चाहिए कि जहाँ भी गन्दगी दिखाई दे, हम तत्काल एक क्षण भी बिना गँवाए उसे हटाने के लिए जितना अधिक उत्साही एवं सक्रिय रहेगा उसे उतना ही स्वच्छ रहने का आनंद मिलेगा। जो सफाई तो चाहते हैं पर मैलेपन को हटाने से कतराते हैं, वे भला किस तरह अपनी अपनी चाहना को साकार बना सकेंगे? जहाँ कूड़ा-करकट देखा कि बुहारी लेकर उसे झाड़ने में तुरन्त जुट गए, जहाँ सामान अस्त-व्यस्त देखा, वहाँ तुरन्त उसे यथास्थान रखने में लग गये, यह स्वभाव जिसका बन जाय, समझना चाहिए कि उसे स्वच्छता प्रिय मनुष्य का सम्मान मिलेगा। जो गन्दगी को देखकर कुड़कुड़ाता तो है, नाक भी सिकोड़ता है, पर उससे बचता-बचता फिरता है, छूना नहीं चाहता, हटाने में गन्दगी के सम्पर्क में आना पड़ता है, उससे बचता है। वह स्वच्छता का नहीं, घृणा उपासक कहा जायगा। स्वच्छता तो एक वरदान है जो उसे मिलता है जिसे गन्दगी से लड़ने की साधना करने में उत्साह रहे।
गाँधी जी के साबरमती आश्रम में यह नियम था कि आश्रमवासी टट्टियाँ स्वयं साफ करें, दूसरे स्थानों की गन्दगी भी स्वयं हटावें। यह नियम उन्होंने इसलिए बनाया था कि आश्रमवासी अपनी स्वच्छता की अभिरुचि परिष्कृत करने की, मानवता की प्रथम परीक्षा को भली-भाँति उत्तीर्ण कर सकें। कोई यह पूछता था कि यह कार्य मेहतर से क्यों न कराया जाय? तो वे यही उत्तर देते थे कि ऐसा करने पर अपनी गन्दगी को हटाने की परिष्कृत अभिरुचि का विकास न हो सकेगा और केवल शौचालय में ही नहीं वरन् अपने कार्यालय में भी आप गन्दगी के ढेर लगाये रहेंगे, इसलिए स्वच्छता के लिए गन्दगी हटाने की तत्परता आपको एक आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना की तरह ही करनी चाहिए।
गन्दगी में इतना ही दोष नहीं है कि उससे बीमारियाँ फैलने का डर है या देखने में कुरुपता प्रतीत होती है। यदि इतनी ही हानि होती तो उसे सहन भी किया जा सकता था। यह भौतिक हानियाँ मात्र थीं, उनकी एक सीमा तक उपेक्षा भी की जा सकती है। बड़ी हानि तो स्वभाव के दूषित होने की है। गन्दगी सहने की आदत जिसे पड़ गई, उसका कोई कार्यक्रम व्यवस्थित नहीं रह सकता। अव्यवस्था उसके स्वभाव का अंग बन जाती है। जो भी काम करता है, वे अधूरे, बेतरतीब, लँगड़े-लूले, टूटे-फूटे बने रहते हैं। आदि से अन्त तक वह एक भी काम केा यथावत् नहीं कर पाता, फलस्वरूप उसका प्रतिफल भी संदिग्ध ही रहता है। अभी एक कार्य आरम्भ किया, वह पूरा न होने पाया कि दूसरा आरम्भ कर दिया, वह भी समेटा नहीं कि तीसरा शुरु हो गया। यह मानसिक अस्त-व्यस्तता ही गन्दगी की जननी है। क्या घर का सामान, बिस्तर, कपड़े, बर्तन, पुस्तक, क्या उपार्जन-अध्ययन का कार्यक्रम दोनों में एक स्वभाव काम करता है। घरों में यही होता है कपड़ा उतारा, उसे यथास्थान ठीक तरह रखने से पूर्व ही दूसरा काम शुरु कर दिया, कपड़ा या बर्तन जहाँ का तहाँ पड़ा रहा, नया काम चल पड़ा। गर्मी में बाहर से आये हैं, पंखा झलने लगे, पानी पीकर गिलास एक ओर पटक दिया, कपड़े उतार कर इधर-उधर डाल दिये और दूसरे काम में लग गये। अव्यवस्था इसी प्रकार बढ़ती है। बच्चे यही सब तो करते रहते हैं। वे हर काम अधूरा छोड़ते हैं। यह बचपन जिनके स्वभाव का अंग बन गया है, वे दफ्तर में या दुकान में क्या लोक-व्यवहार में, हर जगह ऐसी ही अस्त-व्यवस्थतता बरतते हैं। हर काम अधूरा-जिसकी गति-विधियाँ इस प्रकार चल रही हों उसे बड़े कामों में तो क्या, दैनिक छोटे-छोटे कामों में भी पग-पग पर असफलता का मुँह देखना पड़ता है।
होना यह चाहिए कि जहाँ भी गन्दगी दिखाई दे, हम तत्काल एक क्षण भी बिना गँवाए उसे हटाने के लिए जितना अधिक उत्साही एवं सक्रिय रहेगा उसे उतना ही स्वच्छ रहने का आनंद मिलेगा। जो सफाई तो चाहते हैं पर मैलेपन को हटाने से कतराते हैं, वे भला किस तरह अपनी अपनी चाहना को साकार बना सकेंगे? जहाँ कूड़ा-करकट देखा कि बुहारी लेकर उसे झाड़ने में तुरन्त जुट गए, जहाँ सामान अस्त-व्यस्त देखा, वहाँ तुरन्त उसे यथास्थान रखने में लग गये, यह स्वभाव जिसका बन जाय, समझना चाहिए कि उसे स्वच्छता प्रिय मनुष्य का सम्मान मिलेगा। जो गन्दगी को देखकर कुड़कुड़ाता तो है, नाक भी सिकोड़ता है, पर उससे बचता-बचता फिरता है, छूना नहीं चाहता, हटाने में गन्दगी के सम्पर्क में आना पड़ता है, उससे बचता है। वह स्वच्छता का नहीं, घृणा उपासक कहा जायगा। स्वच्छता तो एक वरदान है जो उसे मिलता है जिसे गन्दगी से लड़ने की साधना करने में उत्साह रहे।
गाँधी जी के साबरमती आश्रम में यह नियम था कि आश्रमवासी टट्टियाँ स्वयं साफ करें, दूसरे स्थानों की गन्दगी भी स्वयं हटावें। यह नियम उन्होंने इसलिए बनाया था कि आश्रमवासी अपनी स्वच्छता की अभिरुचि परिष्कृत करने की, मानवता की प्रथम परीक्षा को भली-भाँति उत्तीर्ण कर सकें। कोई यह पूछता था कि यह कार्य मेहतर से क्यों न कराया जाय? तो वे यही उत्तर देते थे कि ऐसा करने पर अपनी गन्दगी को हटाने की परिष्कृत अभिरुचि का विकास न हो सकेगा और केवल शौचालय में ही नहीं वरन् अपने कार्यालय में भी आप गन्दगी के ढेर लगाये रहेंगे, इसलिए स्वच्छता के लिए गन्दगी हटाने की तत्परता आपको एक आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना की तरह ही करनी चाहिए।
गन्दगी में इतना ही दोष नहीं है कि उससे बीमारियाँ फैलने का डर है या देखने में कुरुपता प्रतीत होती है। यदि इतनी ही हानि होती तो उसे सहन भी किया जा सकता था। यह भौतिक हानियाँ मात्र थीं, उनकी एक सीमा तक उपेक्षा भी की जा सकती है। बड़ी हानि तो स्वभाव के दूषित होने की है। गन्दगी सहने की आदत जिसे पड़ गई, उसका कोई कार्यक्रम व्यवस्थित नहीं रह सकता। अव्यवस्था उसके स्वभाव का अंग बन जाती है। जो भी काम करता है, वे अधूरे, बेतरतीब, लँगड़े-लूले, टूटे-फूटे बने रहते हैं। आदि से अन्त तक वह एक भी काम केा यथावत् नहीं कर पाता, फलस्वरूप उसका प्रतिफल भी संदिग्ध ही रहता है। अभी एक कार्य आरम्भ किया, वह पूरा न होने पाया कि दूसरा आरम्भ कर दिया, वह भी समेटा नहीं कि तीसरा शुरु हो गया। यह मानसिक अस्त-व्यस्तता ही गन्दगी की जननी है। क्या घर का सामान, बिस्तर, कपड़े, बर्तन, पुस्तक, क्या उपार्जन-अध्ययन का कार्यक्रम दोनों में एक स्वभाव काम करता है। घरों में यही होता है कपड़ा उतारा, उसे यथास्थान ठीक तरह रखने से पूर्व ही दूसरा काम शुरु कर दिया, कपड़ा या बर्तन जहाँ का तहाँ पड़ा रहा, नया काम चल पड़ा। गर्मी में बाहर से आये हैं, पंखा झलने लगे, पानी पीकर गिलास एक ओर पटक दिया, कपड़े उतार कर इधर-उधर डाल दिये और दूसरे काम में लग गये। अव्यवस्था इसी प्रकार बढ़ती है। बच्चे यही सब तो करते रहते हैं। वे हर काम अधूरा छोड़ते हैं। यह बचपन जिनके स्वभाव का अंग बन गया है, वे दफ्तर में या दुकान में क्या लोक-व्यवहार में, हर जगह ऐसी ही अस्त-व्यवस्थतता बरतते हैं। हर काम अधूरा-जिसकी गति-विधियाँ इस प्रकार चल रही हों उसे बड़े कामों में तो क्या, दैनिक छोटे-छोटे कामों में भी पग-पग पर असफलता का मुँह देखना पड़ता है।