Books - स्वस्थ रहने के सरल उपाय
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स्वस्थ रहना हो तो खाने पकाने के ढर्रे को बदलें
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स्वस्थ एवं नीरोग रहने के लिए कड़ी भूख लगने पर चबा- चबाकर खाएँ
इस बहुमूल्य शर्त का नियमित पालन करने से ही पाचन ठीक तरह
से होता चलता है तथा पेट में किसी तरह की शिकायत होने की
संभावना नहीं रहती है। इसके लिए प्रायः निर्देश दिया जाता है-
प्रातः तथा संध्या, खाने के लिए समय निर्धारित कर लें तथा जब
चाहें, तब खाने से बचें। बार- बार मुँह चलाने तथा पेट में खाद्य
पदार्थों को अनियंत्रित रूप से पहुँचाते रहने से भोजन ठीक तरह
से कभी पच नहीं पाता। साथ ही भोज्य पदार्थ को सही रूप में चबायें
ताकि उसमें पाचक रस की उपयुक्त मात्रा समाविष्ट करने का काम
दाँत का ही है। यदि उसका उपयोग न किया गया है और जल्दी- जल्दी
में भोजन को पेट की भट्ठी में झोंक दिया तो इसका परिणाम अपच
दस्त तथा गैस उत्पत्ति के रूप में अनुभव किया जा सकता है।
खाने के साथ- साथ पकाने की गलत विधि से भी खाद्य पदार्थो के अधिकांश पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। तलने- भूनने व मिर्च- मसाले के समावेश के कारण वह जायकेदार तो अवश्य बन जाता है, परंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से वह निरूपयोगी व बेकार ही साबित होता हैं।
इसके अतिरिक्त सब्जियों व फलादि को प्रायः छिलके उतारकर ही खाने के काम में लाया जाता है। इससे उसके अधिकांश पोषक तत्व हमारे किसी काम नहीं आ पाते। आहार विज्ञान की वर्तमान खोजों से यह तथ्य प्रमाणित हुआ है कि आलू के छिलके में एसकार्बिक एसिड (विटामिन सी) की अधिकांश मात्रा उपलब्ध होती है। उसे हटा देने पर १२ से ३५ प्रतिशत विटामिन सी नष्ट हो जाता है। इसी तरह गाजर के छिलकों में ही विटामिन बी कॉम्पलेक्स, थियामिन, रिवोफ्लेबिन की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। सेव के छिलकों में एसकार्बिक एसिड की मात्रा पाई जाती है। सेव के छिलको में एसकार्बिक एसिड की मात्रा उसके गूदे की तुलना में १० गुना अधिक होती है तथा निआसिन व रिवोफ्लेबिन भी अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। अभिज्ञात है कि एसकार्बिक एसिड (विटामिन सी) स्कर्वी रोग, त्वचा व ऊत्तकों के अंतराल में रक्तस्राव तथा एनिमिया दांत टूटने आदि को रोकने की भूमिका निभाता है। यह प्रायः ताजे फल व सब्जियों से उपलब्ध होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए ७० मिलीग्राम प्रतिदिन की मात्रा में आवश्यक होता है।
जहाँ कीटनाशक दवाईयाँ छिड़की जाती हैं वहाँ छिलको में वे सोख ली जाती हैं- इस लिए उनको अच्छी तरह धोकर या नमक के पानी से धोकर ही खाना उचित है।
अनाजों में भी पोषक तत्वों की अधिकांश मात्रा उसके बाह्य परतों व शीर्ष भाग में विद्यमान होती है, परंतु वर्तमान फैशनपरस्ती का शिकार अनाजों को भी होना पड़ा है। देखने में वह स्वच्छ व चमकीले तारे सदृश लगें, इसके लिए उसकी मिलों में घिसाई पिसाई की जाती है। चावल,दाल आदि की स्थिति यही है ।। गेहूँ को भी चक्की में पीसने तथा घर में उसके आटे से चोकर को पृथक कर डालने की प्रक्रिया अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। चावल को खाना बनाने से पूर्व बार- बार धोया जाता है तथा पका लेने के उपरांत उसके अतिरिक्त जल(माँड) को फेंक दिया जाता है। इन सब प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप सच कहा जाए तो, हम पोषक तत्त्वों से हीन छूँछ का ही भक्षण करते हैं।
प्रायः सब्जियों को काट व छीलकर जल में काफी देर तक डुबोया जाता है, इससे उसके पोषक तत्व काफी मात्रा में जल में घुल जाते हैं। उदाहरण स्वरूप बंदगोभी को काटकर धोने से उसका ९ से १५ प्रतिशत एसकार्बिक एसिड १ से ५ प्रतिशत थियामिन और ३ प्रतिशत तक रिवोफ्लेबिन नष्ट हो जाता है। यदि उन्हें १ से ३ घंटे तक उसी तरह रहने दिया जाए, तो क्रमशः ८ प्रतिशत ११ प्रतिशत एसकार्बिक एसिड नष्ट हो जाते हैं। मूली को छीलकर २४ घंटे तक उसी स्थितिमें छोड़ देने से २७ प्रतिशत विटामिन नष्ट हो जाते हैं। कटे हुए सेव में भी १ से २ घंटे में २० प्रतिशत और ३ घंटे में ३५ प्रतिशत एसकार्बिक एसिड नष्ट हो जाता है। यह खुली हवा में आक्सीजन से प्रतिक्रिया करके नष्ट हो जाता है वैसे पूर्ण रूप में यह चयापचय प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने, कॉलेजन- स्वस्थ -त्वचा, अस्थि, सहायक ऊतक के निर्माण तथा जख्म -उपचार में सहायक, प्रोटीन को संश्लेषित करने, रक्त नलिका की संरचनात्मक सामर्थ्य को कायम रखने, कुछेक एमिनो एसिड़स के चयापचय तथा संक्रमण से रक्षा करने का कार्य संपादित करता है।
खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों को बचाने के लिए उसे अधिक उबालने तलने, भूनने के स्थान पर प्रेशर कूकर अथवा भाप से खाना पकाने की विधि अपनानी चाहिए। खाना कम तापमान पर पकाया जाए, कम समय में उसे तैयार किया जाए तथा कम चौड़े बर्तन में उसे पकाया जाए।
प्राचीन समय में व्यंजनों को रंगयुक्त बनाने के लिए केसर, धनिया व अन्य वनस्पतियों को प्रयुक्त किया जाता था। परंतु आज इसका स्थान कृत्रिम रंगों ने ले लिया है। इस समय विश्व में अधिकतर कृत्रिम रंगों का प्रयोग हो रहा है। भारत में ही अनेक कृत्रिम रंगों का आम प्रचलन है। आश्चर्य तो इस बात का है कि इन रंगों के खतरनाक साबित हो जाने के बाद भी इनका प्रयोग बढ़ता जा रहा है। परिणाम स्वरूप अनेकानेक रोग उत्पन्न होते पाये जा रहे हैं, जैसे प्रजनन अंग, पेट व जिगर का क्षतिग्रस्त होना, शरीर का विकास रूकना, खून में लाल कणों की कमी, जिगर पर छाले पड़ना आदि। बुद्धिमानी इसी में है कि हम इन अनुपयुक्त व अप्राकृतिक पदार्थों का सेवन न करें।
खाने के साथ- साथ उपवास का भी विशेष महत्त्व है। उससे शरीर रूपी मशीन को थोड़ा विश्राम करने का अवसर मिलता है तथा उसी अवधि में उसकी धुलाई- सफाई भी हो जाती है। उपवास के विषय में आयुर्वेद कहता है- ‘‘लंघनम् परमौषधम् ’’ अर्थात ‘‘उपवास सर्वश्रेष्ठ औषधि है।’’
(युग निर्माण योजना- २००५)
खाने के साथ- साथ पकाने की गलत विधि से भी खाद्य पदार्थो के अधिकांश पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। तलने- भूनने व मिर्च- मसाले के समावेश के कारण वह जायकेदार तो अवश्य बन जाता है, परंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से वह निरूपयोगी व बेकार ही साबित होता हैं।
इसके अतिरिक्त सब्जियों व फलादि को प्रायः छिलके उतारकर ही खाने के काम में लाया जाता है। इससे उसके अधिकांश पोषक तत्व हमारे किसी काम नहीं आ पाते। आहार विज्ञान की वर्तमान खोजों से यह तथ्य प्रमाणित हुआ है कि आलू के छिलके में एसकार्बिक एसिड (विटामिन सी) की अधिकांश मात्रा उपलब्ध होती है। उसे हटा देने पर १२ से ३५ प्रतिशत विटामिन सी नष्ट हो जाता है। इसी तरह गाजर के छिलकों में ही विटामिन बी कॉम्पलेक्स, थियामिन, रिवोफ्लेबिन की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। सेव के छिलकों में एसकार्बिक एसिड की मात्रा पाई जाती है। सेव के छिलको में एसकार्बिक एसिड की मात्रा उसके गूदे की तुलना में १० गुना अधिक होती है तथा निआसिन व रिवोफ्लेबिन भी अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। अभिज्ञात है कि एसकार्बिक एसिड (विटामिन सी) स्कर्वी रोग, त्वचा व ऊत्तकों के अंतराल में रक्तस्राव तथा एनिमिया दांत टूटने आदि को रोकने की भूमिका निभाता है। यह प्रायः ताजे फल व सब्जियों से उपलब्ध होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए ७० मिलीग्राम प्रतिदिन की मात्रा में आवश्यक होता है।
जहाँ कीटनाशक दवाईयाँ छिड़की जाती हैं वहाँ छिलको में वे सोख ली जाती हैं- इस लिए उनको अच्छी तरह धोकर या नमक के पानी से धोकर ही खाना उचित है।
अनाजों में भी पोषक तत्वों की अधिकांश मात्रा उसके बाह्य परतों व शीर्ष भाग में विद्यमान होती है, परंतु वर्तमान फैशनपरस्ती का शिकार अनाजों को भी होना पड़ा है। देखने में वह स्वच्छ व चमकीले तारे सदृश लगें, इसके लिए उसकी मिलों में घिसाई पिसाई की जाती है। चावल,दाल आदि की स्थिति यही है ।। गेहूँ को भी चक्की में पीसने तथा घर में उसके आटे से चोकर को पृथक कर डालने की प्रक्रिया अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। चावल को खाना बनाने से पूर्व बार- बार धोया जाता है तथा पका लेने के उपरांत उसके अतिरिक्त जल(माँड) को फेंक दिया जाता है। इन सब प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप सच कहा जाए तो, हम पोषक तत्त्वों से हीन छूँछ का ही भक्षण करते हैं।
प्रायः सब्जियों को काट व छीलकर जल में काफी देर तक डुबोया जाता है, इससे उसके पोषक तत्व काफी मात्रा में जल में घुल जाते हैं। उदाहरण स्वरूप बंदगोभी को काटकर धोने से उसका ९ से १५ प्रतिशत एसकार्बिक एसिड १ से ५ प्रतिशत थियामिन और ३ प्रतिशत तक रिवोफ्लेबिन नष्ट हो जाता है। यदि उन्हें १ से ३ घंटे तक उसी तरह रहने दिया जाए, तो क्रमशः ८ प्रतिशत ११ प्रतिशत एसकार्बिक एसिड नष्ट हो जाते हैं। मूली को छीलकर २४ घंटे तक उसी स्थितिमें छोड़ देने से २७ प्रतिशत विटामिन नष्ट हो जाते हैं। कटे हुए सेव में भी १ से २ घंटे में २० प्रतिशत और ३ घंटे में ३५ प्रतिशत एसकार्बिक एसिड नष्ट हो जाता है। यह खुली हवा में आक्सीजन से प्रतिक्रिया करके नष्ट हो जाता है वैसे पूर्ण रूप में यह चयापचय प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने, कॉलेजन- स्वस्थ -त्वचा, अस्थि, सहायक ऊतक के निर्माण तथा जख्म -उपचार में सहायक, प्रोटीन को संश्लेषित करने, रक्त नलिका की संरचनात्मक सामर्थ्य को कायम रखने, कुछेक एमिनो एसिड़स के चयापचय तथा संक्रमण से रक्षा करने का कार्य संपादित करता है।
खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों को बचाने के लिए उसे अधिक उबालने तलने, भूनने के स्थान पर प्रेशर कूकर अथवा भाप से खाना पकाने की विधि अपनानी चाहिए। खाना कम तापमान पर पकाया जाए, कम समय में उसे तैयार किया जाए तथा कम चौड़े बर्तन में उसे पकाया जाए।
प्राचीन समय में व्यंजनों को रंगयुक्त बनाने के लिए केसर, धनिया व अन्य वनस्पतियों को प्रयुक्त किया जाता था। परंतु आज इसका स्थान कृत्रिम रंगों ने ले लिया है। इस समय विश्व में अधिकतर कृत्रिम रंगों का प्रयोग हो रहा है। भारत में ही अनेक कृत्रिम रंगों का आम प्रचलन है। आश्चर्य तो इस बात का है कि इन रंगों के खतरनाक साबित हो जाने के बाद भी इनका प्रयोग बढ़ता जा रहा है। परिणाम स्वरूप अनेकानेक रोग उत्पन्न होते पाये जा रहे हैं, जैसे प्रजनन अंग, पेट व जिगर का क्षतिग्रस्त होना, शरीर का विकास रूकना, खून में लाल कणों की कमी, जिगर पर छाले पड़ना आदि। बुद्धिमानी इसी में है कि हम इन अनुपयुक्त व अप्राकृतिक पदार्थों का सेवन न करें।
खाने के साथ- साथ उपवास का भी विशेष महत्त्व है। उससे शरीर रूपी मशीन को थोड़ा विश्राम करने का अवसर मिलता है तथा उसी अवधि में उसकी धुलाई- सफाई भी हो जाती है। उपवास के विषय में आयुर्वेद कहता है- ‘‘लंघनम् परमौषधम् ’’ अर्थात ‘‘उपवास सर्वश्रेष्ठ औषधि है।’’
(युग निर्माण योजना- २००५)