Books - स्वामी विवेकानंद
Language: HINDI
विश्व विख्यात विवेकानन्द
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भारतवर्ष की घोर कंगाली और दुर्दशा उनके सामने मूर्तिमय होकर खड़ी हो गई। उसके साथ अमरीका की श्रीमन्ताई की तुलना करने पर वह कोमल शैया उनको काँटों की तरह गडऩे लगी। रोते- रोते वे बेसुध हो गए और कहने लगे- ‘‘माँ! जब मेरी जन्मभूमि गरीबी में पड़ी हुई सिसक रही है, तब मैं इस नाम और यश को लेकर क्या करूँगा? हम भारतवासी किस अवस्था को प्राप्त हो गए हैं? हमारे देश में लाखों अभागे एक मुट्ठी अनाज के बिना मर जाते हैं, जबकि यहाँ केवल ऊपरी शान- शौकत के लिए लाखों करोड़ों धन पानी की तरह बहा दिया जाता है। भारत के गरीबों का उद्धार कौन करेगा? मुझे वह रास्ता दिखला जिससे मैं उनकी सहायता कर सकूँ।’’
स्वामीजी के ये उद्गार सिद्ध करते हैं कि वे सच्चे महामानव थे। यश और वैभव पाने पर भी जो अपने भाग्यहीन भाइयों की याद न भूले और उनके कष्टों को अपने ऊपर पडऩे वाले कष्टों के समान ही अनुभव करे, वही असली संत अथवा साधु माना जा सकता है। अन्यथा केवल कपड़ा रंग लेने अथवा छापा- तिलक लगा लेने वाले नामधारी तो लाखों दिखाई पड़ रहे हैं, पर उनके द्वारा धर्म का उद्धार तो दूर रहा, उल्टा दिन पर दिन पतन होता जा रहा है।
शीघ्र ही अमरीका की एक व्याख्यान संस्था ने स्वामीजी को समस्त अमरीका में व्याख्यान देने का निमंत्रण दिया। यह एक व्यावसायिक ढंग पर काम करने वाली संस्था थी। स्वामीजी ने सोचा कि यह इस देश में अपने विचार फैलाने का सबसे सुगम तरीका है। इससे जो धन प्राप्त होगा उससे भारतवर्ष के अनेक लोकोपकारी कार्यों में सहायता की जा सकेगी। उन्होंने इस व्यवस्था के अनुसार अनेक शहरों में जाकर भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म पर भाषण दिए।
इन भाषणों से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि अमरीका निवासियों को भारतवर्ष की स्थिति की वास्तविक जानकारी होने लगी। इसके पहिले वे केवल ईसाई पादरियों की उल्टी- सीधी बातें सुनकर भारतवर्ष को बहुत गिरा हुआ और पतित देश मानने लग गए थे। इसी प्रकार मनगढ़न्त बातें सुनाकर पादरी लोग भारत में अपने धर्म प्रचार के नाम पर अमरीकनों से करोड़ों रूपया दानस्वरूप प्राप्त किया करते थे। अब इन भाषणों से लोगों की आँखें खुलने लगीं।
स्वामीजी ईसा के प्रति पूर्ण सम्मान का भाव रखते थे, पर वर्तमान ईसाई सभ्यता के दोषों को खोलने में किसी की परवाह नहीं करते थे। उदाहरणार्थ उनके एक भाषण का, जो ‘डेट्राइट’ नगर में फरवरी १८९४ में दिया गया था, एक अंश इस प्रकार था- ‘‘एक बात मैं तुमसे कहूँ यद्यपि किसी की झूठी आलोचना करने का मेरा तनिक भी विचार नहीं है। तुम अपने यहाँ के लोगों को पढ़ा- लिखाकर और पादरी बनाकर अच्छा वेतन क्यों देते हो? क्या इसका उद्देश्य यह है कि वे मेरे देश में आकर मेरे बाप- दादा, मेरे धर्म, मेरे सभी कार्यों की निंदा करें, गालियाँ दें? हमारे मंदिरों के पास से निकलते हुए ये पादरी कहने लग जाते हैं- ‘ऐ पत्थर- पूजको! तुम नरक में डाले जाओगे।’ हिंदू शांत और गंभीर स्वभाव के हैं, वे हँसकर टाल देते हैं और मूर्ख लोग इसी तरह बकते हैं, यह कहकर मुँह फेर लेते हैं। तुम हमको गालियाँ देने और आलोचना करने के लिए ही पादरी तैयार करते हो तो तुम्हारी मर्जी, हमें उसकी कुछ चिंता नहीं। पर मैं जब सदुद्देश्य से भी तुम लोगों की कड़ी आलोचना करता हूँ, तो तुम बिगड़ कर चिल्लाने लगते हो- हमसे मत बोलना, हम तो अमरीकन हैं। हम चाहे दुनिया भर के गैर ईसाई लोगों की आलोचना क्यों न करें, पर तुम हमसे मत बोलना। हम तो लजवंती के पौधे हैं।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम्हारा धर्म तुमको मुबारक, पर हमको भी अपना धर्म पालने दो। तुमको चाहे कुछ कडुवा लगे, तो भी मैं कह देना चाहता हूँ कि जिस ईसाई सदाचार और पंथ की महत्ता के इतने गीत तुम गाते हो, वह पूर्णत: बौद्ध धर्म से लिया गया है, उन्हीं के प्रचारकों ने तुमको इसे सिखलाया है। पर किस तरह से! खून की एक भी बूँद गिराए बिना। पर तुम्हारा ईसाई धर्म कहीं भी तलवार के बिना नहीं फैला है। मुझे तुम संसार में एक भी, केवल एक ही उदाहरण ऐसा बतला दो, जहाँ यह बिना जोर- जबर्दस्ती के फैलाया गया हो। इसका अर्थ यह हुआ कि तुम समझते हो कि दुनिया में बस हम ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि हम मार सकते हैं। अरब वाले भी ऐसा ही कहते थे, ऐसी ही शेखी मारते थे, पर आज वे किस अवस्था में हैं? वहाँ केवल रेगिस्तान में भटकने वाले बद्दू ही दिखाई पड़ते हैं। रोमन लोग भी ऐसे ही बड़प्पन का दम भरते थे, पर आज कहीं उनका चिन्ह भी शेष है? और हम हिंदू लोग तो जहाँ के तहाँ अपनी मजबूत पत्थर की शिलाओं पर बैठे हुए हैं।’’
‘‘स्मरण करो जिस किसी वस्तु का आधार स्वार्थ पर है, जिसके साधनों में द्वेषभाव है, जिसका उद्देश्य इंद्रिय सुख है, उस प्रत्येक वस्तु का जल्दी या देर में विनाश होना निश्चित है। तुमको जीवित रहना है तो ईसा की तरफ लौटो। तुम इस समय ईसाई नहीं रहे। ईसा को कहीं बैठने को हाथ भर जमीन भी नहीं मिलती थी और तुम धर्म के नाम पर विलासिता का उपदेश दे रहे हो। ईश्वर और भजकलदारम- इन दोनों की सेवा एक साथ नहीं हो सकती। क्या यह सब विलास और तलवार की धमकी ईसा के उपदेशों के अनुसार है? यदि आज वह जीवित होते तो इस झूठी शान को अवश्य ही अस्वीकार कर देते।’’
ऐसे भाषणों से ईसाई पादरियों के पेट में तो चूहे कूदने लगे। स्वामीजी के कार्य का स्पष्ट परिणाम उनको यह दिखाई पड़ रहा था कि ‘ईसाई धर्म प्रचारिणी संस्था’ की आमदनी पहले से आधी रह गई थी। अमरीका के बहुसंख्यक व्यक्तियों ने पादरियों को पहले की तरह सम्मान की दृष्टि से देखना छोड़ दिया था। इसलिए वहाँ के प्रमुख धर्म नेता स्वामीजी के विरुद्ध झूठी, सच्ची और सर्वथा निराधार बातें लिखकर उनको बदनाम करने की चेष्टा करने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने कई अत्यंत सुंदरी रमणियों को बहुत- सा रुपया देकर इसलिए भेजा कि वे स्वामीजी का चरित्र- भ्रष्ट कर दें। ऐसा काम आजकल धर्म के नाम पर हो सकता है, इस पर जल्दी विश्वास नहीं होता, पर ये सब बातें नग्न सत्य हैं। किंतु भारतीय साधकों के स्वर्ग की अप्सराओं द्वारा न बहकाए जा सकने की कथाओं के ज्ञाता स्वामीजी ने उन कामिनियों को दूर से ही प्रणाम कर लिया।
पादरियों द्वारा हिंदू स्त्रियों के संबंध में फैलाई हुई बातों को सुनकर एक अमरीकन महिला ने स्वामीजी से भाषण के समय पूछा- ‘‘स्वामीजी! क्या यह सच है कि हिंदू स्त्रियाँ अपने लडक़ों को नदी में मगरमच्छों के सामने फेंक देती हैं?’’ स्वामीजी ने व्यंग्य में उत्तर दिया- ‘‘हाँ श्रीमतीजी! आपके पादरी ऐसा ही कहते हैं। मुझे भी मेरी माँ ने फेंक दिया था, पर मैं बाइबिल में वर्णित ‘जोना’ की तरह मगर के मुँह से बाहर वापस चला गया।’’
इन पादरियों ने बदला लेने के ख्याल से भारतवर्ष में भी स्वामीजी के विरुद्ध झूठा प्रचार करने में कुछ कसर नहीं रखी। कलकत्ता के ‘बंगवासी’ के समान कुछ ढोंगी सनातनधर्मी भारतीय पत्र भी उनके विरुद्ध विष वमन करने लगे और पादरियों के स्वर में स्वर मिलाकर उन्हें नीचा गिराने की कुचेष्टा करके कृतघ्नता का परिचय देने लगे। यहाँ के कुछ शिष्य गुरु की निंदा को सुनकर विचलित होने लगे। पहले तो स्वामीजी ने ऐसी मनगढ़न्त बातों पर कुछ ध्यान न दिया, पर जब शिष्यगण बार- बार पत्र भेजने लगे तो दो- डेढ़ वर्ष बाद उनको एक पत्र में स्वामीजी ने वास्तविक स्थिति को समझाते हुए रोषपूर्वक लिखा था- ‘‘मुझे आश्चर्य है कि तुम ईसाई पादरियों द्वारा प्रचारित इन मूर्खतापूर्ण बातों को सुनकर विचलित होते हो। अगर भारत के कोई हिंदू मुझे कट्टर हिन्दुओं की तरह खान- पान रखने का परामर्श देते हैं तो उनसे कहो कि वे एक ब्राह्मण रसोइया और कुछ धन भेज दें। एक पैसे की सहायता करने की प्रवृत्ति नहीं, परंतु समझदार व्यक्ति की तरह उपदेश देने की खूब योग्यता है, यह देखकर मैं हँसी रोक नहीं सकता। दूसरी ओर यदि ईसाई पादरी कहते हैं कि मैंने कामिनी- काँचन के त्यागरूप महान व्रत को भंग किया है, तो उनसे कह दो कि वे घोर मिथ्यावादी हैं।
स्मरण रखो कि मैं किसी के निर्देश पर नहीं चल सकता। अपने जीवन का उद्देश्य मैं भलीभाँति जानता हूँ। किसी प्रकार के हल्ला- गुल्ला और निंदा आदि की मैं परवाह नहीं करता। क्या मैं किसी व्यक्ति या जाति का गुलाम हूँ? मैं सभी प्रकार की कायरता से घृणा करता हूँ। ऐसी झूठी बातें फैलाने वाले कायर पुरुषों तथा राजनीतिक झगड़ों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। ईश्वर तथा सत्य ही मेरी एकमात्र राजनीति है, बाकी जो कुछ है वह सब केवल कूड़ा- करकट है।’’
वास्तव में सच्चे महापुरुष ऐसी लोकचर्चा और द्वेष बुद्धि रखने वालों की कटूक्तियों की परवाह नहीं करते, क्योंकि यदि वे ऐसा करें तो उनके जीवन उद्देश्य की हानि होगी। स्वामीजी इस तथ्य को भली प्रकार समझते थे और इसलिए इन दोषयुक्त देशी- विदेशी आलोचकों की तरफ ध्यान न देकर अमरीका में हिंदू धर्म की नींव जमाने का प्रयत्न करने में लगे रहे। उनके विद्वतापूर्ण भाषणों के प्रभाव से कुछ अमरीकन उनके अनुयायी बन गए और नियमित रूप से योग, वेदांत, गीता, उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त करने लगे। उनके लिए ब्रुकलीन नगर में एक छोटी- सी शिक्षा संस्था (क्लास) खोली गई। कुछ समय पश्चात दो अमरीकन युवकों तथा एक महिला ने उनसे संन्यास की दीक्षा भी ले ली और उनके नाम क्रमश: कृपानंदू, अभयानंद और हरिदास रखे गए। अब ये लोग स्वयं ही अमरीकनों में हिंदू- धर्म के उच्च सिद्धांतों का प्रचार करने लगे। जब स्वामीजी अमरीका का कार्य पूरा करके इंग्लैण्ड को चलने लगे तो उन लोगों ने प्रार्थना की आप- अपने किसी गुरु भाई को ही यहाँ भेज दें। इस पर स्वामी शारदानंद को वहाँ पर भेज दिया गया। इन सब लोगों के धर्म प्रचार का यह परिणाम हुआ कि न्यूयार्क में एक वेदांत सोसाइटी की स्थापना की गई जिसका प्रचार बाद में अन्य नगरों में भी हो गया। ये संस्थाएँ अभी तक उस देश में कार्य कर रही हैं और इनके द्वारा अमरीकनों में अध्यात्म भावनाओं का प्रचार ही नहीं हुआ, यहाँ की जनता में भारत के प्रति सहानुभूति भी उत्पन्न हो गई, जिससे भारत को पर्याप्त सहायता मिली है।