Books - तीर्थ यात्रा इस तरह की जाये
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तीर्थ यात्रा इस तरह की जाये
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धनवानों का कर्तव्य है कि वे अपनी उपार्जित कमाई का उपभोग अपने और अपने परिवार तक ही सीमित न रखें, वरन् व्यापक पीड़ा और पतन के निवारण के लिए भी उसे दान रूप में नियोजित करें। धर्मकृत्यों में इसी लिए पग-पग पर दान-पुण्य का निर्देश है। जो अपनी कमाई को आप ही खाता है उस स्वार्थी को पाप खाने वाला, चोर, कृपण आदि कहकर कटु शब्दों में भर्त्सना की गई है।
ठीक इसी प्रकार भावनाशील बुद्धिमान, प्रतिभा सम्पन्न लोगों के लिए भी यह आवश्यक माना गया है कि वे अपनी इस विभूति सम्पदा का लाभ शरीर और परिवार को ही देते रहने की कृपणता न बरतें, वरन् मनुष्य जाति का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदारता पूर्वक इसके वितरण की योजना बनायें और उसे कार्यान्वित करें। धनदान से अधिक ब्रह्मदान का माहात्म्य बताया गया है। यही कारण है कि धन दानियों की तुलना में ब्रह्मदानी, ज्ञानदानी, साधु ब्राह्मणों को कहीं अधिक सम्मान दिया जाता रहा है। धन का महत्व सर्वविदित है। वह प्रत्यक्ष और दृश्य है। इसलिए अभावग्रस्त लोग—धनदानी का पता लगा लेते हैं और स्वयं उसके घर पर जा पहुंचते हैं, किन्तु ज्ञान के बारे में ऐसी बात नहीं है। वह सूक्ष्म है। उसकी आवश्यकता और उपयोगिता से कोई विरले ही परिचित होते हैं। समझा जाता है कि धन कमा लेने से सुख शान्ति मिलती है, किन्तु तथ्य यह है कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन उत्पन्न करके तथा उनका सदुपयोग करके समृद्धि और प्रगति का सच्चा एवं चिरस्थायी आनन्द ले सकता है। लोग धन कमाने और परिस्थितियां बदलने में तो उलझे रहते हैं, पर पत्तों से ध्यान हटाकर जड़ सींचने पर ध्यान नहीं देते, जिससे कि जीवन-कल्पवृक्ष सहज ही हरित पल्लवों, सुगन्धित पुष्पों और मधुर फलों से लदा हुआ दीख पड़े। मनःस्थिति के आधार पर परिस्थितियां अवलम्बित रहती हैं। जो यह जानता है उसे सूर्य की तरह यह तथ्य स्पष्ट दीख पड़ता है कि व्यक्ति और समाज की असंख्यों उलझनों के समाधान का एक ही उपाय है—उसके दृष्टिकोण में समाया हुआ पिछड़ापन दूर करना। ज्ञानवान लोग सदा से यह तथ्य समझते रहे हैं कि जन मानस का परिष्कार करके ही सतयुग का वातावरण उत्पन्न किया जा सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए यदि मनुष्य को सहमत किया जा सके तो वह दयनीय दुर्दशा में से स्वयं उबर सकता है और स्वल्प साधनों में भी महामानव स्तर का देवोपम जीवन जी सकता है।
शरीर की आवश्यकताएं साधनों से पूरी होती हैं पर आत्मा की भूख तो प्रखर व्यक्तित्व ही बुझा सकता है। इस तथ्य को दूरदर्शी विवेकवान ही समझते हैं। वे जानते हैं कि लोगों के चर्मचक्षु साधनों का मूल्य समझते हैं, विचार शक्ति का नहीं। अस्तु वे न ज्ञान की इच्छा रखेंगे और न उसे मांगने के लिए ज्ञानवानों के पास आयेंगे। चारपाई पकड़ लेने वाला रोगी चिकित्सक के घर नहीं जा पाता। चिकित्सक को ही रोगी के घर जाना पड़ता है। दुर्भिक्ष, भूकम्प आदि प्रकृति प्रकोप से पीड़ितों की सहायता करने धनवानों का धन दुखियों के पास पहुंचता है। महामारी, बाढ़, दुर्घटना आदि के अवसरों पर स्वयं सेवक अपनी शारीरिक सेवाएं देने घटनास्थलों पर ही पहुंचते हैं। ठीक इसी प्रकार ज्ञानवान्, विवेकवान्, धर्मात्माओं को जन-मानस के परिष्कार का उद्देश्य लेकर घर-घर जाना पड़ता है। बादल भी खेतों को अपने घर बुलाने की प्रतीक्षा न करके स्वयं ही सूखे मरुस्थलों को सींचने के लिए जहां-तहां पहुंचते और अपने श्रम सम्पदा को उदारतापूर्वक बिखेरते हैं।
तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य और यही शास्त्र सम्मत स्वरूप है, जिसका कि माहात्म्य अत्यधिक पुण्यफल के रूप में शास्त्रकारों ने गाया बताया है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार तीर्थयात्रा पैदल ही होती थी। कोई विशिष्ट ज्ञानवान् व्यक्ति अपने साथ छोटी धर्म प्रचार मण्डली लेते थे और गांव-गांव अलख जगाते, पड़ाव डालते, लम्बी यात्रा की योजना बनाते थे। किस मार्ग से चलकर, कहां होते हुए, किधर से लौटा जाय, यात्रा का आरम्भ और अन्त कहां किया जाय, इसका निर्णय करते समय प्रेरणाप्रद ऐतिहासिक स्थान व प्रकृति के शोभा स्थलों का भी ध्यान रखा जाता था। महामानवों की कर्मभूमियां तीर्थ कहलाती थीं। वहां स्वभावतः स्मृतियों को सजीव रखने वाले देवालय, खण्डहर आदि रहते थे। प्राकृतिक शोभा स्थलों में नदी पर्वत होते हैं। देवालयों का दर्शन, नदियों का स्नान, पर्वतों का आरोहण, यह भी तीर्थयात्रा का आवरण कलेवर था, उसका प्राण तो ज्ञानार्जन और ज्ञान प्रचार में ही सन्निहित रहता था।
पर्यटन के अनेक अन्य लाभ भी हैं। इसमें स्वास्थ्य सुधार, अनुभवों की वृद्धि, परिचय क्षेत्र का विस्तार आदि प्रमुख हैं। व्यवसाय विस्तार की सम्भावनाएं खोजने का अवसर भी पर्यटन में मिलता है। पर्यटन अपने आप में एक उद्योग है, उससे यात्रा स्थलों के दुकानदारों को, श्रमिकों को प्रत्यक्ष रूप से और अनेक स्थानीय लोगों को परोक्ष रूप से आगन्तुकों की आवश्यकता पूरी करते हुए आजीविका मिलती है। यात्रियों को मनोरंजन, परिवर्तन, अनुभव एवं स्वास्थ्य लाभ तो प्रत्यक्ष ही मिलता है। प्राचीनकाल में तीर्थस्थलों में ऐसे महापुरुषों के आश्रम थे जहां आगन्तुक सत्संग लाभ लेकर अपनी जीवन समस्याएं सुलझाते और भविष्य के लिए उपयोगी समाधान लेकर वापिस लौटते थे। तीर्थयात्राओं का मार्ग-निर्धारण इसी दृष्टि से होता था।
चारों धाम की यात्रा, नर्मदा परिक्रमा, उत्तरखण्ड यात्रा आदि अनेक प्रचलन अभी भी विद्यमान हैं। ऐतिहासिक स्थलों की, नव निर्माण के दर्शनीय संस्थानों की यात्राएं अभी भी निकलती हैं। तीर्थयात्रा ट्रेन-स्पेशल बसें-रिआयती-रेल-टिकटें, छात्रों को भाड़ा-रियायत आदि की सुविधा इसी दृष्टि से रहती है कि पर्यटन के साथ लोगों को ज्ञान वृद्धि का अवसर मिले।
प्राचीनकाल में धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपनी धर्ममण्डलियों सहित पद यात्रा करते हुए तीर्थ यात्रा पर और भी ऊंचा उद्देश्य लेकर निकलते थे उनका लक्ष्य था—जन-साधारण से सम्पर्क स्थापित करके स्थानीय समस्याओं के अनुरूप उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया जाय और पिछड़ेपन का अन्धकार जहां भी जिस कोने में भी छिपा पड़ा हो उसे भगा कर अभिनव आलोक का व्यापक विस्तार किया जाय।
उन दिनों ‘धर्म’ शब्द के अन्तर्गत ही व्यक्ति और समाज की समस्त उत्कृष्टताओं का समावेश था। आदर्शवादिता और सद्विचारणा का का विभाजन-विस्तार उन दिनों नहीं था। इसलिए उत्कृष्टता और प्रगतिशीलता का समावेश एक ‘धर्म’ शब्द में ही हो जाता था। धर्म के व्याख्याकारों ने उसकी परिभाषा भौतिक अभ्युदय और आत्मिक ‘निःश्रेयस’ कर सकने वाले चिन्तन एवं कर्तृत्व के रूप में की है। धर्म प्रयोजनों की मूर्धन्य प्रक्रिया—तीर्थ यात्रा को इतना पुण्य फलदायक इसी दृष्टि से बताया गया है कि उससे व्यक्ति एवं समाज की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता—परिष्कृत दृष्टिकोण के विकास विस्तारक की पूर्ति भली प्रकार होती थी।
धर्म-प्रचार मण्डलियों, तीर्थयात्रा टोलियों के लिए ही धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, सदावर्त आदि की व्यवस्था धनवान लोग किया करते थे। अतिथि सत्कार, भिक्षा दान आदि का पुण्यफल इसी से बताया गया है कि इन यात्रा टोलियों को स्थान-स्थान पर निर्वाह की सुविधा मिलती रहे। मन्दिरों में स्थान तथा निर्वाह साधनों की सुविधा प्रस्तुत करने में तीर्थयात्री टोलियों को सुविधा देना ही प्रधान लक्ष्य रहता है।
कुम्भ जैसे विशाल पर्व तथा क्षेत्रीय मेला सम्मेलन भी धर्म सम्मेलनों के रूप में होते थे। तीर्थयात्रा मण्डलियां क्षेत्र-क्षेत्र में पैदल चलकर वहां पहुंचती थीं। सामूहिक सम्मेलन में देश की सामयिक परिस्थितियों की समीक्षा होती थी और भविष्य के लिए नीति निर्धारित होती थी। इस महत्वपूर्ण चर्चा को सुनने और धर्म प्रचारकों से सम्पर्क बनाने की उपयोगिता समझकर जनता भी वहां पहुंचती थी। यही था प्राचीन काल के ‘पर्व समारोहों’ का स्वरूप।
आज तो सब कुछ गड़बड़ हो गया। तीर्थयात्रा द्रुतगामी वाहनों से होती है और यात्री लोग देवदर्शन करके नदी सरोवरों में डुबकी मारकर, ताबड़ तोड़ वापिस लौटते हैं। इस भगदड़ में किसे क्या लाभ मिलता होगा यह समझ सकना कठिन है। धर्मशालाओं और सदाव्रतों का उपयोग किन लोगों द्वारा होता है, इस पर जब दृष्टि डाली जाती है तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमारी तीर्थयात्रा जैसी महान परम्परा मात्र लकीर पीटने तक ही रह गई है। उन चिन्ह पूजा से वाहनों के स्वामी, तीर्थ स्थानों के व्यापारी तथा व्यवसायी भले ही लाभ उठाते हों, बेचारा भावुक यात्री तो जेब कटाकर खाली हाथ ही वापिस लौट जाता है।
जो हो हमें अपनी महान सांस्कृतिक परम्परा को जीवन्त स्थिति में वापिस लाना चाहिए। आज इसकी प्राचीनकाल से भी अधिक आवश्यकता है। उन दिनों साधन तो स्वल्प थे, पर जीवन दर्शन स्वच्छ होने से समृद्धि और प्रगति का वातावरण बना हुआ था। आज तो चिंतन और क्रिया कलाप में बेहिसाब विकृतियां भर गई हैं, फलतः हर क्षेत्र में उलझनों, विपत्तियों और संकटों के पहाड़ जैसे अवरोध खड़े हो गये हैं। एक का हल निकल नहीं पाता कि दूसरा संकट सामने आ खड़ा होता है। साधन बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं, सो चलें। हमें धर्मपक्ष को इतना सबल बनाना चाहिए कि उपार्जित उपलब्धियों का सदुपयोग हो सके। प्रस्तुत समस्त समस्याओं का एक ही हल है, दृष्टिकोण का परिष्कार। इसी आधार पर व्यक्तित्वों में प्रखरता उत्पन्न होगी और उसी विकास से सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थायी सुख शान्ति का लाभ लिया जा सकेगा। चरित्रनिष्ठ और उदात्त अन्तःकरण सम्पन्न मनुष्यों का समाज ही सुसंस्कृत और समुन्नत बन सकेगा। उज्ज्वल भविष्य का आधार यही हो सकता है। विश्वशान्ति का लक्ष्य इसी मार्ग पर चलने से सम्भव हो सकता है।
तीर्थयात्रा मण्डलियों का गठन और प्राचीन आधार पर उनका प्रचलन किया जा सके, तो जन जागरण की महती आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। यदि सुयोग्य, सुसंस्कृत और भावनाशील व्यक्ति लोकमंगल की आवश्यकता को समझें और अपने ज्ञान के साथ-साथ समय श्रम को उसके लिए नियोजित करने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो संस्कृति पुनरुत्थान की, धर्म जागरण की, भावनात्मक परिष्कार की महती आवश्यकता पूरी करने का मार्ग निकल सकता है। अपने देश में आज की स्थिति में नव जागरण का यही सर्वोत्तम उपाय है।
सर्व विदित है कि भारत में 70 प्रतिशत अशिक्षित हैं और 80 प्रतिशत आबादी छोटे देहातों में रहती है। यही है असली भारत का चित्र। अखबारों, संस्थानों, प्रचारकों रेडियो, टेलीविजन जैसे साधनों की सीमा बड़े शहरों और मझोले कस्बों तक सीमित है। उन्हीं क्षेत्रों में शिक्षित भी अधिक हैं और प्रचार साधनों का भी बाहुल्य है। अस्तु सुधार के, प्रगति के नाम पर जो कुछ होता रहता है उसका अधिकांश भाग इसी क्षेत्र तक सीमित रह जाता है। देहात की अशिक्षा दरिद्रता और यातायात की असुविधा सुधार-साधनों को वहां तक नहीं पहुंचने देती, फलतः प्रगति के ढोल बहुत छोटे क्षेत्र में पिटकर रह जाते हैं। देहात अभी भी नवयुग के प्रकाश से वंचित हैं। वहां तक पहुंचने में तीर्थयात्रियों की धर्म प्रचार टोलियां ही समर्थ हो सकती हैं।
तीर्थयात्रा के अभिनव प्रयोग समय-समय पर होते रहे हैं। कितने ही ऋषि-मुनि अपनी छात्र-मंडली समेत पदयात्रा करते रहते थे और विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए उनके अनुभव की वृद्धि तथा लोकमानस के निर्माण का तीन गुना पुण्य प्रयोजन सिद्ध करते थे। दार्शनिक सुकरात समय-समय पर अपनी शिष्य मण्डली समेत लम्बी पद-यात्राओं पर निकलते थे। भगवान बुद्ध के स्थापित विहारों में तीर्थयात्रा की ही शिक्षा दी जाती थी। उसमें विश्व व्यापी धर्म प्रचार के उद्देश्य से ही भिक्षु और भिक्षुणी भर्ती किये जाते थे और जब वे चरित्र, ज्ञान की दृष्टि से प्रखर एवं जिस क्षेत्र में जाना है वहां की भाषा, परिस्थिति से अवगत हो जाते थे तो फिर उन्हें सुदूर प्रदेशों में धर्म प्रचार के लिए भेज दिया जाता था। इतिहास साक्षी है कि बौद्ध प्रचारक एशिया के कोने-कोने में छा गये थे। उन्होंने प्राणघातक रेगिस्तान, हिमाच्छादित पर्वतों, दलदलों सघन वनों, उफनते नदी, तालाबों, समुद्री अवरोधों की चिन्ता न की और अपने संकल्प एवं पुरुषार्थ के बल पर पिछड़े क्षेत्रों में डेरे डालकर प्रगतिशीलता का आलोक वहां फैलाया। भगवान बुद्ध स्वयं आजीवन पर्यटक बनकर रहे। उनके विराम स्वल्पकालीन ही रहते थे। भगवान महावीर ने भी इसी परम्परा को निवाहा। मध्यकालीन सन्तों ने भी अपनी मण्डलियों समेत धर्म प्रचार की यात्राओं में ही जीवन का अधिक समय बिताया था। सन्त का अर्थ ही पर्यटक होता था। आश्रम व्यवस्था बनाकर रहने वाले तो ब्राह्मण कहलाते थे।
महात्मा गांधी की डांडी नमक यात्रा और नोआखाली की शान्ति यात्रा सर्वविदित है। सन्त विनोबा की भूदान यात्रा के सत्परिणामों से कौन परिचित नहीं है। इन दूरगामी परिणामों को प्राचीन काल में भली प्रकार समझा गया था और अपने धर्मकृत्यों में धर्मप्रचार की तीर्थ यात्रा को प्रमुख स्थान देने के लिए प्रत्येक धर्म प्रेमी से कहा गया था। जो असमर्थ रहते थे वे भी उच्च-आदर्श का स्मरण करने के लिए प्रतीक रूप में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, देवालयों की परिक्रमा करके किसी प्रकार मन की साध पूरी करते थे। अभी भी पीपल की, आंवले की, तुलसी की परिक्रमा होती हैं। मथुरा वृन्दावन में हर एकादशी को परिक्रमा में हजारों नर-नारी निकलते हैं। दो महीने की ब्रजयात्रा होती है। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा लोग अति श्रद्धापूर्वक करते हैं। ऐसे ही प्रचलन अन्य क्षेत्रों में भी पाये जाते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्म परम्परा को पुनर्जीवित किया जाय और उसके लिए नये सिरे से नये आधार पर अभिनव गठन किया जाय। यों तो बांस की खपच्चियों और रंगीन कागज के सहारे बनाये गये विशालकाय किन्तु निर्जीव हाथी की तरह वह अभी भी विद्यमान है, पर प्राणों के अभाव में उसकी आकृति मात्र ही शेष है। प्राणों का उसमें से पलायन हो जाय तो पुण्यफल की आशा किस आधार पर की जाय। जीवित तीर्थ यात्रा ही भारतीय संस्कृति की आत्मा को गौरवान्वित कर सकती है और उसी से व्यक्ति तथा समाज का सच्चा हित साधन हो सकता है। आज की सामयिक समस्याओं के समाधान में तो वे और भी अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।
जन मानस का परिष्कार, मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्गीय वातावरण, सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन यही है अपना लक्ष्य, जिसे आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के आधार पर जन-जन के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया जाता रहा है और किया जाता रहेगा। राजतन्त्र और अर्थतन्त्र के क्षेत्र, देश की सुरक्षा, व्यवस्था और समृद्धि के बढ़ाने में लगे हैं। वे अपने आप में उपयोगी कार्य हैं उन्हें अपने ढंग से अपना कार्य करने में लगे रहने देना चाहिए। भावना क्षेत्र को नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। यह कार्य धर्मतन्त्र का है क्योंकि अन्तःकरण की गहराई में प्रवेश करके आस्थाओं का स्पर्श कर सकना, जीवन दर्शन का बदलना, परिष्कृत दृष्टिकोण आदर्शवादी क्रियाकलाप की आधारशिला रख सकना उसी के लिए सम्भव है।
विचारशील लोगों को, साधु ब्राह्मणों को, वानप्रस्थों को, धर्म प्रचारकों को पुण्य परम्परा—तीर्थ यात्रा को पुनर्जीवित करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्हें अपने मानवी उत्तरदायित्वों को समझना चाहिए। जिन्हें ईश्वर ने सद्ज्ञान और सद्भाव की सम्पदा प्रदान की है उसे उन्हें अभावग्रस्त क्षेत्र में वितरित करने की उदारता दिखानी चाहिए। अपने उपार्जन का अपने लिए ही उपयोग करते रहने वाले स्वार्थी, अनुदार और कृपण कहे जाते हैं, वह लांछन, सद्भाव—सम्पन्न विज्ञ जनों पर नहीं लगना चाहिए। ज्ञान वितरण का उद्देश्य लेकर उन्हें भी अपने देश के पिछले क्षेत्र में मानवी आदर्शवादिता और युग के अनुरूप प्रगतिशीलता वितरित करने के लिए आगे आना चाहिए। अगले दिनों तीर्थयात्रा मंडलियां इसी उद्देश्य के लिए निकलें। इसलिए विचारशील लोग अपनी टोलियां गठित करें।
अपना कार्य क्षेत्र प्रधानतया छोटी देहातों को बनाना है। शहरों में इतने अधिक सभा, सम्मेलन होते रहते हैं कि वहां बड़े आकर्षण होने पर ही लोक रुचि उत्पन्न हो सकती है। दूसरे उस क्षेत्र में पहले से ही उद्बोधनकर्ताओं की भरमार है। तीसरे उन लोगों को पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, लाइब्रेरियों का लाभ भी मिल जाता है। चौथे वे लोग अत्यधिक व्यस्त होने के कारण इस प्रयोजन में रुचि भी कम लेंगे। पांचवे परस्पर विरोधी राजनैतिक तथा सामाजिक संस्थाओं की प्रतिद्वन्दिता ने उस क्षेत्र की जनता को दिग्भ्रांत कर दिया है और वह सभी प्रचारकों को एक लाठी से हांकती, अविश्वस्त ठहराती है। ऐसे ही अन्य अनेक कारण हैं, जिनसे हमें देहात को अपना कार्य क्षेत्र बनाना चाहिए।
अस्सी प्रतिशत भारत उसी इलाके में रहता है। यातायात की कठिनाई, निर्धनता, गैर जानकारी के कारण नेताओं के स्वागत सत्कार की कमी, स्वल्प उपस्थिति जैसे कारणों से उद्बोधनकर्ता उस क्षेत्र में पहुंचते नहीं हैं। देश में सत्तर प्रतिशत अशिक्षा अभी भी है। इसका अधिकांश भाग देहातों में है। रूढ़िवादिता, मूढ़ मान्यता, अन्ध विश्वास जैसी विकृतियां उस क्षेत्र में अभी भी उतनी ही भरी पड़ी हैं जितनी अब से तीन सौ वर्ष पूर्व थीं। प्रगतिशीलता का प्रकाश वहां अभी भी बहुत कम पहुंचा है। हमें इसी क्षेत्र को जगाने में जुटने का साहस समेटना चाहिए। कहना न होगा कि यह जनता समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र राजनीति आदि को उतना नहीं समझती जितना कि परम्परागत धर्म परम्परा को। धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण का महत्व प्रधानतया इसी वर्ग के लोगों के लिए है। जाना हमें इसी क्षेत्र की जनता के पास है।
उनके बौद्धिक विकास को देखते हुए अपनी सेवा साधना में दो तथ्यों का समावेश करना ही होगा—एक तो यह कि जो कहना है उसमें धर्म कथाओं का पुट लगाते हुए कथन को श्रद्धा सिक्त बनाते चला जाय। दूसरे संगीत सहगान, कीर्तन, भजन को प्रमुखता दी जाय। संगीत में स्वभावतः जन साधारण की रुचि होती है—बाल वृद्ध, शिक्षित अशिक्षित उसे चावपूर्वक सुनते हैं। बौद्धिक प्रभाव ग्रहण करने के साथ-साथ भावान्दोलन की विशेषता भी उसमें रहती है। अस्तु तीर्थयात्रा पर निकलने वाली प्रचार मंडलियों को जन मानस में नवयुग के अनुरूप प्रगतिशीलता स्थापित करने के लिए प्रवचन शैली में धर्म कथाओं का समावेश एवं सहगान कीर्तन की समन्वित शैली को अपना कर चलना चाहिए।
मण्डली में इतनी योग्यता होनी चाहिए कि वह इन प्रयोजनों को भली प्रकार पूरी कर सके। बेकार की भीड़ साथ ले चलने से तो अव्यवस्था ही फैलेगी और असुविधा ही रहेगी। प्रायः पांच प्रचारकों की तीर्थयात्रा टोली रहें यही उपयुक्त है। इस प्रयास में अधिक लोग सहयोग देने को उत्सुक हों तो एक साथ ही बड़ी भीड़ लगाने की अपेक्षा उन्हें पांच पांच की टोलियों में—कई क्षेत्रों में चल पड़ना चाहिए। यदि सुनने सीखने की दृष्टि से ही कुछ लोग साथ चलना चाहें तो पांच प्रचारक और पांच साथी दस की मण्डली पर्याप्त समझी जानी चाहिए अन्यथा अधिक लोगों के साथ चलने और दैनिक व्यवस्था जुटाने में ही सिर दर्द खड़ा हो जायेगा। ब्रज चौरासी कोस की भाद्रपद की यात्रा के समान पूरे साज सरंजाम और दलबल समेत निकलना हो तो बात दूसरी है। ऐसी बड़ी पद यात्राओं की व्यवस्था में खान पान, तम्बू डेरा, पानी, दूध, प्रवचन पण्डाल आदि पूरा ठाट बाट लेकर चलना होता है और उतने लोगों के स्नान शौच, भोजन आदि का पहले से ही प्रबन्ध करना होता है। सामान ढोने, उसे यथास्थान जमाने, सुविधाएं उत्पन्न करने के लिए वाहनों और कर्मचारियों की अतिरिक्त भीड़ साथ चले तो ही उतनी बड़ी व्यवस्था बन सकती है। यह बड़ी योजनाओं का अंग है वैसा प्रबन्ध कोई बड़े अनुभवी और साधन सम्पन्न लोग ही कर सकते हैं। हमें फिलहाल छोटी प्रचार टोलियों की बात ही सोचनी चाहिए और अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने में समर्थ व्यक्ति ही उन टोलियों के सदस्य होने चाहिए।
तीर्थयात्रा को पद यात्रा ही समझा जाना चाहिए। प्रचारकों को गांव-गांव, झोंपड़े-झोंपड़े जाने का लक्ष्य रखकर चलना है तो वह कार्य द्रुतगामी वाहनों पर सवार होकर बढ़िया रास्तों से गुजरने पर सम्भव न हो सकेगा। उसमें पगडण्डियां ही लांघनी होंगी। ऐसी दशा में पद यात्रा की ही उपयोगिता बनती है। प्राचीन काल में भी पदयात्रा और तीर्थयात्रा पर्यायवाची शब्द थे। अभी भी वह परिभाषा यथावत् रहनी चाहिए। नहाने धोने के लिए वस्त्र, लाउडस्पीकर जैसे प्रचार साधन, दीवारों पर वाक्य लिखने के उपकरण जैसी वस्तुएं यात्रा में स्वभावतः साथ चलेंगी ही। उन्हें कन्धे पर लादकर नहीं चला जा सकता। इसके लिए साइकिल का उपयोग भार वाहन के रूप में करना अपेक्षाकृत अधिक सस्ता और सरल रहेगा। पर इसका कोई बन्धन नहीं हैं। जहां गधा, घोड़ा बैल-गाड़ी आदि की सुविधा हो सकती हो भोजन बनाने आदि कार्यों के लिए स्वयंसेवक या कर्मचारी चल सकता हो तो उसमें भी हर्ज नहीं। बात खर्च बढ़ने भर की है। जहां जैसा प्रबन्ध बन पड़े वहां उसके लिए प्रसन्नता पूर्वक प्रबन्ध किया जा सकता है। सुविधा साधन बढ़ने से तो काम करने में सरलता ही पड़ती है।
तीर्थयात्रा धर्म परम्परा के पुनर्जीवन का लक्ष्य लेकर निकली हुई टोलियों के सामने निर्धारित लक्ष्य और कार्यक्रम रहेगा। वे निरुद्देश्य यत्र तत्र भटकती हुई समय और धन का अपव्यय नहीं करेंगी। निश्चित है कि गांव-गांव, दीवार-दीवार पर नव युग का सन्देश देने वाले प्रेरणाप्रद वाक्य लिखे जाने चाहिए। बोलती दीवारों का सृजन करना चाहिए। हर गांव में कीर्तन गान करते हुए मण्डलियों को गली कूंचों की परिक्रमा करनी चाहिए। पीत वस्त्रधारी—तीर्थयात्री शंख ध्वनि करते हुए—कीर्तन गाते हुए जब गांव की परिक्रमा करेंगे तो स्वभावतः गांववासी उसके साथ चलेंगे। नारे लगाने में वे भी योग देंगे। परिक्रमा समाप्त होने पर टोली के सदस्य एक छोटा प्रवचन अपने भ्रमण प्रयोजन के सम्बन्ध में दें और शिक्षितों से सम्पर्क कर उन्हें अपने मिशन का परिचय दें। इसके बाद अगले गांवों के लिए प्रयाण करें।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मार्ग के गांवों में परिक्रमा, दीवार लेखन करते हुए पड़ाव के लिए नियत गांव में पहुंचा जाय। टोली स्वयं परिक्रमा करे और नियत सत्संग स्थल पर जन साधारण को पहुंचने के लिए आमन्त्रित करें। प्रायः आठ से साड़े दस का समय ग्रामीणों को सुविधाजनक रहता है। भोजन से निवृत्त होकर वे आ सकते हैं और कथा कीर्तन के माध्यम से नव-चेतना उपलब्ध करने का लाभ उठा सकते हैं। प्रातःकाल संक्षिप्त यज्ञ, प्रभावित लोगों को बुलाकर उन्हें कुछ काम सौंपना संकल्प देना, जलपान से निवृत्त होना और अगले दिन के कार्यक्रम पर चल देना। यह टोलियों का कार्यक्रम है। कहीं अत्यधिक आग्रह हो तो बात दूसरी है अन्यथा भोजन व्यवस्था का भर स्वयं ही टोलियों को वहन करना चाहिए। पकाया एक बार ही जाय। दूसरे समय के लिए बना हुआ रखा रहे। सवेरे या शाम कब पकाने में सुविधा रहेगी, क्या रसोई बने, यह निर्धारित करना टोली सदस्यों की रुचि, सुविधा एवं व्यवस्था पर निर्भर रहेगा।
गर्मियों के दिनों में छात्रों, अध्यापकों, किसानों तथा दूसरे अनेक वर्गों के लोगों को अवकाश रहता है। मई, जून के दो महीने इन टोलियों के लिए अतीव सुविधाजनक हैं। इन दिनों बिस्तर या भारी कपड़े लेकर चलने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यह दो महीने तो हर क्षेत्र में तीर्थयात्रा के लिए अतीव उत्साहपूर्वक प्रयुक्त होने चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य महीनों में जब जहां जैसी व्यवस्था बन पड़े तब वहां उस प्रकार की योजना बना ली जानी चाहिए।
कर्मचारियों एवं दुकानदारों को साप्ताहिक अवकाश रहता है। वह पूरा दिन इस प्रयोजन के लिए लगा देने की बात बन सकती है। साल में 52 सप्ताह तथा प्रायः 13 त्यौहार इस प्रकार 65 दिन की छुट्टी तो रहती हैं। पांच दिन काट दें तो प्रायः दो महीने इस कार्य के लिए लगाये जा सकते हैं। दूसरे वर्ग के लोग भी अपनी सुविधा के समय का अपने ढंग से उपयोग कर सकते हैं। जिनके पास पूरा समय है तो वे नई-नई टोलियों का गठन और नेतृत्व करते हुए दूरवर्ती क्षेत्रों में भी अपनी गतिविधियां सुविस्तृत कर सकते हैं।
जो दूर नहीं जा सकते, घर नहीं छोड़ सकते वे नित्य एक-दो घण्टे समीपवर्ती गली-मुहल्लों, बाजारों, कारखानों में जन सम्पर्क के लिए निकाल सकते हैं और झोला पुस्तकालयों की, ढकेल गाड़ी—चल पुस्तकालयों की, सरल प्रक्रिया अपनाकर सत्साहित्य पढ़ने देने एवं वापिस लेने का कार्य कर सकते हैं। साप्ताहिक अवकाश का अधिकांश समय इस पुण्य कार्य में लगा सकते हैं। कथा कहने के लिए साप्ताहिक, मासिक तथा एक-एक दिन एक-एक घर, मुहल्ले में कार्यक्रम बनाये जा सकते हैं। स्लाइड प्रोजेक्टर का प्रबन्ध हो सके तो प्रकाश चित्र दिखाते हुए हर रात्रि को एक मुहल्ले में लोकरंजन और लोक शिक्षण की दुहरी प्रचार प्रक्रिया चल सकती है। चित्र प्रदर्शनियां बन सकें तो उन्हें भी यत्र तत्र दिखाया जा सकता है। कुछ साधन न हों तो ऐसे ही जन सम्पर्क के लिए वार्तालाप सामान्य प्रसंगों से आरम्भ करके किसी आदर्शवादी निष्कर्ष तक पहुंचने का उपक्रम अभ्यास में लाया जा सकता है। बच्चों में कहानियां कहने की अपनी एक शैली है जिसमें बाल, वृद्ध सभी समान रूप से रस ले सकते हैं। प्रचार के ऐसे ऐसे अनेकों साधन ढूंढ़े जा सकते हैं। तीर्थयात्रा की धर्म परम्परा का आंशिक निर्वाह इन छोटे एवं स्थानीय कार्यक्रमों से भी हो सकता है। बड़े रूप में तो कुम्भ के मेले में जहां तहां से जाने वाली साधु मण्डलियों जैसा विशाल रूप भी न सकता है। वे रास्ते में पड़ाव डालती हुई अपने दलबल के साथ चलती है और जहां ठहरती हैं वहां आकर्षण का केन्द्र बनाती हैं। रूपरेखा क्या रहे—योजना किस स्तर की बने यह निर्णय करना टोलियों की मनःस्थिति एवं परिस्थिति पर निर्भर है। किन्तु उन्हें किसी न किसी रूप में चल पड़ना तो सर्वत्र ही चाहिए। ‘अलख निरंजन’ की—घर घर धर्म प्रेरणा की साधु परम्परा पुनर्जीवित होनी ही चाहिए। विज्ञ, विचारशील लोगों को आगे बढ़कर उसका शुभारम्भ एवं नेतृत्व करना ही चाहिए।
इस सन्दर्भ में एक बात सबसे अधिक महत्व की है कि जब देश का प्रत्येक देहाती क्षेत्र इस धर्म-प्रचार योजना के अन्तर्गत लिया जाना हो तो तीर्थ स्थानों का भी अभिनव सृजन होना चाहिए। प्राचीन तीर्थों तक सीमित रहने से तो वह गतिविधियां अमुक क्षेत्रों तक ही सीमाबद्ध होकर रह जायेंगी। अमुक क्षेत्र में ही तीर्थयात्री जाया करें तो उनका आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा दूसरे अन्य पिछड़े स्थान उस लाभ से वंचित ही बने रहेंगे। यों अपनी तीर्थयात्रा के लिए आवश्यक नहीं कि उनमें किन्हीं देवालयों का दर्शन या विराम जुड़ा ही रहे। सदुद्देश्य के लिए जिधर भी जाया जायेगा उधर ही तीर्थ बन जायेगा। फिर भी यदि तीर्थ स्थानों की बात भी उस प्रयोजन के साथ जुड़ी रह सके तो इससे सोने और सुगन्ध का दुहरा उद्देश्य पूरा होगा।
जब पुनर्जीवन ही अपना लक्ष्य है तो लगे हाथों नये तीर्थों की स्थापना की बात भी हाथ में लेकर चला जा सकता है। काम कठिन तो है, पर कठिन भी तो मनुष्य ही करते हैं। प्राचीन काल में भी तो मनीषियों ने तीर्थों की स्थापना के लिए प्रयास किया था। अकेले आद्य शंकराचार्य ने ही देश के चार कोनों पर, चार धामों की स्थापना की थी। मथुरा, वृन्दावन के अधिकांश तीर्थों के स्थान चैतन्य महाप्रभु ने अपनी दिव्य दृष्टि से बनाये थे और उन विस्मृत स्थानों पर उनके अनुयायियों ने स्मारक खड़े किये थे। अन्यत्र भी आगे पीछे ऐसी ही परम्परा चलती रही है। अकेले हजारी किसान ने बिहार के हजारी बाग जिले में हजार आम के बगीचे लगाने में सफलता पाई थी, तो कोई कारण नहीं कि अपना भाव भरा परिवार अपने संगठित प्रयत्नों के द्वारा अभिनव तीर्थों का सृजन न कर सके।
परम्परागत तीर्थ प्रायः पौराणिक देव गाथाओं से जुड़े हैं। कहीं कहीं ऋषियों, महापुरुषों की स्मृति स्मृति स्वरूप तीर्थ बने हैं। उनसे अतीत पर श्रद्धा एवं भक्ति भावना की स्फुरणा तो होती है, पर बहुत खींच तान करने पर भी वह प्रकाश नहीं मिलता जो दर्शकों को नव युग के अनुरूप प्रेरणा दे सके। समय की मांग है कि उद्देश्य के अनुरूप आधार भी खड़े किये जायं। प्रेरणा प्राप्त करने के लिए प्रेरणा स्रोत ढूंढ़े जायं। इस दृष्टि से एक सुनियोजित योजना बनाकर देश के कोने कोने में, विशेषतया देहाती क्षेत्र में ऐसे तीर्थ स्थापित करने की तैयारी करनी चाहिए जो पदयात्रा टोलियों के लिए ही नहीं समीपवर्ती क्षेत्रों के लिए भी आदर्शवादी उत्साह का केन्द्र बन सकें।
यह तीर्थ स्थापना योजना आदर्शवादिता को सम्मान के उच्चस्तर पर प्रतिष्ठापित करने की नव युग के अनुरूप प्रक्रिया है। अब तक लोक-सम्मान धनवानों, सत्ताधीशों कलाकारों, विभूतिवानों के इर्द गिर्द ही मंडराता रहा है अब उसे आदर्शवादिता के प्रति समर्पित होने के लिए मोड़ा जाना चाहिए। अन्यथा सम्मान प्राप्ति की मानवी आकांक्षा अपनी पूर्ति भौतिक साधनों में ही ढूंढ़ती रहेगी। आदर्शवादिता के विकसित होने में सबसे बड़ा अवरोध एक ही है कि उस मार्ग पर चलने वालों को आर्थिक दृष्टि से तो घाटा रहता ही है, लोक सम्मान का स्वाभाविक अधिकार भी दूसरे लोग ही हड़प जाते हैं। अब इस स्थिति का अन्त होना चाहिए। आदर्शवादी तत्वों का अन्वेषण किया जाना चाहिए और जो दिवंगत हो चुके हैं उनकी स्मृति बनाये रहने से उन आत्माओं को भी सन्तोष होगा कि जीवन काल में न सही मरणोत्तर उन्हें लोक मान्यता मिल गई। ऐसे जीवन वृत्तांत उभरने चाहिए जो जन साधारण के लिए प्रेरणा केन्द्र बन सकें, जिनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति उपलब्ध लोक सम्मान को देखकर सहज ही विकसित हो सके। जन मानस के परिष्कार में यह प्रक्रिया कितनी अधिक सहायक हो सकती है इसकी अभी तो कल्पना ही की जा सकती है। पर विश्वास यह है कि जब इस स्थापना का परिणाम सामने आवेगा तो व्यक्तियों को उत्कृष्टता की दिशा में उछालने की दृष्टि से अतीव आशाजनक सिद्ध होगा। इस प्रकार के असंख्य तीर्थ बनें और जीवन चरित्र छपें तो प्रतीत होगा कि अपना देश इस गई गुजरी परिस्थितियों में भी महामानवों की खदान ना रहा है। उनकी महान् परम्पराएं अभी भी जीवन्त हैं। हमारे लिए यह सब भी कम गर्व गौरव का प्रसंग नहीं हैं। इन प्रयासों से समूचे वातावरण में क्रान्तिकारी परिवर्तन होगा और लोक मान्यता में आदर्शवादिता की पुनः प्राण प्रतिष्ठापना होगी। तीर्थयात्रा टोलियां गठित करना और उनके परिभ्रमण का कार्यक्रम बनाना सरल है। इस प्रयास में सामान्य प्रयत्नों से—सामान्य व्यक्तित्व भी भली प्रकार सफल हो सकते हैं। पर तीर्थ स्थापना का काम बड़ा है उसके लिए देश व्यापी सर्वे करना होगा। तीर्थयात्रा धर्म परम्परा के निर्वाह में नये नये तीर्थों की संगति बिठानी पड़ेगी कि मण्डलियां किस रास्ते, कितना चलकर, कहां विराम करेंगी? ऐतिहासिक तथ्यों को मिलाकर ही यह प्रतिष्ठापनाएं होंगी। अस्तु इसे एक सुविस्तृत योजना समझा जायेगा और इसके लिए सर्वेक्षण के साथ-साथ यह भी सोचा जायेगा कि कहां क्या कर सकना सम्भव हो सकता है?
राजा मान्धाता की सहायता से आद्य शंकराचार्य के लिए चारों धामों की प्रतिष्ठापना कर सकना सम्भव हुआ था। बुद्ध के हर्ष वर्धन सरीखे अनुयायियों ने अनेकों बौद्ध विहारों की स्थापना की थी। अब वैसा एकाकी प्रयत्नों से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए किन्हीं बड़े आयोगों की आवश्यकता पड़ेगी और उसका संचालन प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ही सम्पन्न करेंगे। यों इसके लिए आर्थिक एवं श्रम सहयोग स्थानीय जनता का मिलेगा पर उसकी रूपरेखा बनाने एवं साधन सामग्री जुटने का कार्य तो क्रिया कुशल हाथों से ही होना चाहिए। इन्दौर की रानी अहिल्या बाई ने मन्दिरों घाटों का जीर्णोद्धार कराने में ख्याति प्राप्त की थी। आवश्यकता ऐसे व्यक्तित्वों की है जो उसी प्रकार भूमिका निभा सकें। स्वयं आगे आयें और उस धर्म क्षेत्र के पुनरुत्थान की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने में अन्य अनेकों का भी सहयोग जुटा सकें। ऐसे व्यक्तित्व अपने परिवार में से ही उभर कर आयें इसकी अपेक्षा समय की आवश्यकता ने की है। युग की इस चुनौती को भी हमें स्वीकार करना होगा।
ठीक इसी प्रकार भावनाशील बुद्धिमान, प्रतिभा सम्पन्न लोगों के लिए भी यह आवश्यक माना गया है कि वे अपनी इस विभूति सम्पदा का लाभ शरीर और परिवार को ही देते रहने की कृपणता न बरतें, वरन् मनुष्य जाति का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदारता पूर्वक इसके वितरण की योजना बनायें और उसे कार्यान्वित करें। धनदान से अधिक ब्रह्मदान का माहात्म्य बताया गया है। यही कारण है कि धन दानियों की तुलना में ब्रह्मदानी, ज्ञानदानी, साधु ब्राह्मणों को कहीं अधिक सम्मान दिया जाता रहा है। धन का महत्व सर्वविदित है। वह प्रत्यक्ष और दृश्य है। इसलिए अभावग्रस्त लोग—धनदानी का पता लगा लेते हैं और स्वयं उसके घर पर जा पहुंचते हैं, किन्तु ज्ञान के बारे में ऐसी बात नहीं है। वह सूक्ष्म है। उसकी आवश्यकता और उपयोगिता से कोई विरले ही परिचित होते हैं। समझा जाता है कि धन कमा लेने से सुख शान्ति मिलती है, किन्तु तथ्य यह है कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन उत्पन्न करके तथा उनका सदुपयोग करके समृद्धि और प्रगति का सच्चा एवं चिरस्थायी आनन्द ले सकता है। लोग धन कमाने और परिस्थितियां बदलने में तो उलझे रहते हैं, पर पत्तों से ध्यान हटाकर जड़ सींचने पर ध्यान नहीं देते, जिससे कि जीवन-कल्पवृक्ष सहज ही हरित पल्लवों, सुगन्धित पुष्पों और मधुर फलों से लदा हुआ दीख पड़े। मनःस्थिति के आधार पर परिस्थितियां अवलम्बित रहती हैं। जो यह जानता है उसे सूर्य की तरह यह तथ्य स्पष्ट दीख पड़ता है कि व्यक्ति और समाज की असंख्यों उलझनों के समाधान का एक ही उपाय है—उसके दृष्टिकोण में समाया हुआ पिछड़ापन दूर करना। ज्ञानवान लोग सदा से यह तथ्य समझते रहे हैं कि जन मानस का परिष्कार करके ही सतयुग का वातावरण उत्पन्न किया जा सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए यदि मनुष्य को सहमत किया जा सके तो वह दयनीय दुर्दशा में से स्वयं उबर सकता है और स्वल्प साधनों में भी महामानव स्तर का देवोपम जीवन जी सकता है।
शरीर की आवश्यकताएं साधनों से पूरी होती हैं पर आत्मा की भूख तो प्रखर व्यक्तित्व ही बुझा सकता है। इस तथ्य को दूरदर्शी विवेकवान ही समझते हैं। वे जानते हैं कि लोगों के चर्मचक्षु साधनों का मूल्य समझते हैं, विचार शक्ति का नहीं। अस्तु वे न ज्ञान की इच्छा रखेंगे और न उसे मांगने के लिए ज्ञानवानों के पास आयेंगे। चारपाई पकड़ लेने वाला रोगी चिकित्सक के घर नहीं जा पाता। चिकित्सक को ही रोगी के घर जाना पड़ता है। दुर्भिक्ष, भूकम्प आदि प्रकृति प्रकोप से पीड़ितों की सहायता करने धनवानों का धन दुखियों के पास पहुंचता है। महामारी, बाढ़, दुर्घटना आदि के अवसरों पर स्वयं सेवक अपनी शारीरिक सेवाएं देने घटनास्थलों पर ही पहुंचते हैं। ठीक इसी प्रकार ज्ञानवान्, विवेकवान्, धर्मात्माओं को जन-मानस के परिष्कार का उद्देश्य लेकर घर-घर जाना पड़ता है। बादल भी खेतों को अपने घर बुलाने की प्रतीक्षा न करके स्वयं ही सूखे मरुस्थलों को सींचने के लिए जहां-तहां पहुंचते और अपने श्रम सम्पदा को उदारतापूर्वक बिखेरते हैं।
तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य और यही शास्त्र सम्मत स्वरूप है, जिसका कि माहात्म्य अत्यधिक पुण्यफल के रूप में शास्त्रकारों ने गाया बताया है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार तीर्थयात्रा पैदल ही होती थी। कोई विशिष्ट ज्ञानवान् व्यक्ति अपने साथ छोटी धर्म प्रचार मण्डली लेते थे और गांव-गांव अलख जगाते, पड़ाव डालते, लम्बी यात्रा की योजना बनाते थे। किस मार्ग से चलकर, कहां होते हुए, किधर से लौटा जाय, यात्रा का आरम्भ और अन्त कहां किया जाय, इसका निर्णय करते समय प्रेरणाप्रद ऐतिहासिक स्थान व प्रकृति के शोभा स्थलों का भी ध्यान रखा जाता था। महामानवों की कर्मभूमियां तीर्थ कहलाती थीं। वहां स्वभावतः स्मृतियों को सजीव रखने वाले देवालय, खण्डहर आदि रहते थे। प्राकृतिक शोभा स्थलों में नदी पर्वत होते हैं। देवालयों का दर्शन, नदियों का स्नान, पर्वतों का आरोहण, यह भी तीर्थयात्रा का आवरण कलेवर था, उसका प्राण तो ज्ञानार्जन और ज्ञान प्रचार में ही सन्निहित रहता था।
पर्यटन के अनेक अन्य लाभ भी हैं। इसमें स्वास्थ्य सुधार, अनुभवों की वृद्धि, परिचय क्षेत्र का विस्तार आदि प्रमुख हैं। व्यवसाय विस्तार की सम्भावनाएं खोजने का अवसर भी पर्यटन में मिलता है। पर्यटन अपने आप में एक उद्योग है, उससे यात्रा स्थलों के दुकानदारों को, श्रमिकों को प्रत्यक्ष रूप से और अनेक स्थानीय लोगों को परोक्ष रूप से आगन्तुकों की आवश्यकता पूरी करते हुए आजीविका मिलती है। यात्रियों को मनोरंजन, परिवर्तन, अनुभव एवं स्वास्थ्य लाभ तो प्रत्यक्ष ही मिलता है। प्राचीनकाल में तीर्थस्थलों में ऐसे महापुरुषों के आश्रम थे जहां आगन्तुक सत्संग लाभ लेकर अपनी जीवन समस्याएं सुलझाते और भविष्य के लिए उपयोगी समाधान लेकर वापिस लौटते थे। तीर्थयात्राओं का मार्ग-निर्धारण इसी दृष्टि से होता था।
चारों धाम की यात्रा, नर्मदा परिक्रमा, उत्तरखण्ड यात्रा आदि अनेक प्रचलन अभी भी विद्यमान हैं। ऐतिहासिक स्थलों की, नव निर्माण के दर्शनीय संस्थानों की यात्राएं अभी भी निकलती हैं। तीर्थयात्रा ट्रेन-स्पेशल बसें-रिआयती-रेल-टिकटें, छात्रों को भाड़ा-रियायत आदि की सुविधा इसी दृष्टि से रहती है कि पर्यटन के साथ लोगों को ज्ञान वृद्धि का अवसर मिले।
प्राचीनकाल में धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपनी धर्ममण्डलियों सहित पद यात्रा करते हुए तीर्थ यात्रा पर और भी ऊंचा उद्देश्य लेकर निकलते थे उनका लक्ष्य था—जन-साधारण से सम्पर्क स्थापित करके स्थानीय समस्याओं के अनुरूप उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया जाय और पिछड़ेपन का अन्धकार जहां भी जिस कोने में भी छिपा पड़ा हो उसे भगा कर अभिनव आलोक का व्यापक विस्तार किया जाय।
उन दिनों ‘धर्म’ शब्द के अन्तर्गत ही व्यक्ति और समाज की समस्त उत्कृष्टताओं का समावेश था। आदर्शवादिता और सद्विचारणा का का विभाजन-विस्तार उन दिनों नहीं था। इसलिए उत्कृष्टता और प्रगतिशीलता का समावेश एक ‘धर्म’ शब्द में ही हो जाता था। धर्म के व्याख्याकारों ने उसकी परिभाषा भौतिक अभ्युदय और आत्मिक ‘निःश्रेयस’ कर सकने वाले चिन्तन एवं कर्तृत्व के रूप में की है। धर्म प्रयोजनों की मूर्धन्य प्रक्रिया—तीर्थ यात्रा को इतना पुण्य फलदायक इसी दृष्टि से बताया गया है कि उससे व्यक्ति एवं समाज की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता—परिष्कृत दृष्टिकोण के विकास विस्तारक की पूर्ति भली प्रकार होती थी।
धर्म-प्रचार मण्डलियों, तीर्थयात्रा टोलियों के लिए ही धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, सदावर्त आदि की व्यवस्था धनवान लोग किया करते थे। अतिथि सत्कार, भिक्षा दान आदि का पुण्यफल इसी से बताया गया है कि इन यात्रा टोलियों को स्थान-स्थान पर निर्वाह की सुविधा मिलती रहे। मन्दिरों में स्थान तथा निर्वाह साधनों की सुविधा प्रस्तुत करने में तीर्थयात्री टोलियों को सुविधा देना ही प्रधान लक्ष्य रहता है।
कुम्भ जैसे विशाल पर्व तथा क्षेत्रीय मेला सम्मेलन भी धर्म सम्मेलनों के रूप में होते थे। तीर्थयात्रा मण्डलियां क्षेत्र-क्षेत्र में पैदल चलकर वहां पहुंचती थीं। सामूहिक सम्मेलन में देश की सामयिक परिस्थितियों की समीक्षा होती थी और भविष्य के लिए नीति निर्धारित होती थी। इस महत्वपूर्ण चर्चा को सुनने और धर्म प्रचारकों से सम्पर्क बनाने की उपयोगिता समझकर जनता भी वहां पहुंचती थी। यही था प्राचीन काल के ‘पर्व समारोहों’ का स्वरूप।
आज तो सब कुछ गड़बड़ हो गया। तीर्थयात्रा द्रुतगामी वाहनों से होती है और यात्री लोग देवदर्शन करके नदी सरोवरों में डुबकी मारकर, ताबड़ तोड़ वापिस लौटते हैं। इस भगदड़ में किसे क्या लाभ मिलता होगा यह समझ सकना कठिन है। धर्मशालाओं और सदाव्रतों का उपयोग किन लोगों द्वारा होता है, इस पर जब दृष्टि डाली जाती है तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमारी तीर्थयात्रा जैसी महान परम्परा मात्र लकीर पीटने तक ही रह गई है। उन चिन्ह पूजा से वाहनों के स्वामी, तीर्थ स्थानों के व्यापारी तथा व्यवसायी भले ही लाभ उठाते हों, बेचारा भावुक यात्री तो जेब कटाकर खाली हाथ ही वापिस लौट जाता है।
जो हो हमें अपनी महान सांस्कृतिक परम्परा को जीवन्त स्थिति में वापिस लाना चाहिए। आज इसकी प्राचीनकाल से भी अधिक आवश्यकता है। उन दिनों साधन तो स्वल्प थे, पर जीवन दर्शन स्वच्छ होने से समृद्धि और प्रगति का वातावरण बना हुआ था। आज तो चिंतन और क्रिया कलाप में बेहिसाब विकृतियां भर गई हैं, फलतः हर क्षेत्र में उलझनों, विपत्तियों और संकटों के पहाड़ जैसे अवरोध खड़े हो गये हैं। एक का हल निकल नहीं पाता कि दूसरा संकट सामने आ खड़ा होता है। साधन बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं, सो चलें। हमें धर्मपक्ष को इतना सबल बनाना चाहिए कि उपार्जित उपलब्धियों का सदुपयोग हो सके। प्रस्तुत समस्त समस्याओं का एक ही हल है, दृष्टिकोण का परिष्कार। इसी आधार पर व्यक्तित्वों में प्रखरता उत्पन्न होगी और उसी विकास से सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थायी सुख शान्ति का लाभ लिया जा सकेगा। चरित्रनिष्ठ और उदात्त अन्तःकरण सम्पन्न मनुष्यों का समाज ही सुसंस्कृत और समुन्नत बन सकेगा। उज्ज्वल भविष्य का आधार यही हो सकता है। विश्वशान्ति का लक्ष्य इसी मार्ग पर चलने से सम्भव हो सकता है।
तीर्थयात्रा मण्डलियों का गठन और प्राचीन आधार पर उनका प्रचलन किया जा सके, तो जन जागरण की महती आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। यदि सुयोग्य, सुसंस्कृत और भावनाशील व्यक्ति लोकमंगल की आवश्यकता को समझें और अपने ज्ञान के साथ-साथ समय श्रम को उसके लिए नियोजित करने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो संस्कृति पुनरुत्थान की, धर्म जागरण की, भावनात्मक परिष्कार की महती आवश्यकता पूरी करने का मार्ग निकल सकता है। अपने देश में आज की स्थिति में नव जागरण का यही सर्वोत्तम उपाय है।
सर्व विदित है कि भारत में 70 प्रतिशत अशिक्षित हैं और 80 प्रतिशत आबादी छोटे देहातों में रहती है। यही है असली भारत का चित्र। अखबारों, संस्थानों, प्रचारकों रेडियो, टेलीविजन जैसे साधनों की सीमा बड़े शहरों और मझोले कस्बों तक सीमित है। उन्हीं क्षेत्रों में शिक्षित भी अधिक हैं और प्रचार साधनों का भी बाहुल्य है। अस्तु सुधार के, प्रगति के नाम पर जो कुछ होता रहता है उसका अधिकांश भाग इसी क्षेत्र तक सीमित रह जाता है। देहात की अशिक्षा दरिद्रता और यातायात की असुविधा सुधार-साधनों को वहां तक नहीं पहुंचने देती, फलतः प्रगति के ढोल बहुत छोटे क्षेत्र में पिटकर रह जाते हैं। देहात अभी भी नवयुग के प्रकाश से वंचित हैं। वहां तक पहुंचने में तीर्थयात्रियों की धर्म प्रचार टोलियां ही समर्थ हो सकती हैं।
तीर्थयात्रा के अभिनव प्रयोग समय-समय पर होते रहे हैं। कितने ही ऋषि-मुनि अपनी छात्र-मंडली समेत पदयात्रा करते रहते थे और विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए उनके अनुभव की वृद्धि तथा लोकमानस के निर्माण का तीन गुना पुण्य प्रयोजन सिद्ध करते थे। दार्शनिक सुकरात समय-समय पर अपनी शिष्य मण्डली समेत लम्बी पद-यात्राओं पर निकलते थे। भगवान बुद्ध के स्थापित विहारों में तीर्थयात्रा की ही शिक्षा दी जाती थी। उसमें विश्व व्यापी धर्म प्रचार के उद्देश्य से ही भिक्षु और भिक्षुणी भर्ती किये जाते थे और जब वे चरित्र, ज्ञान की दृष्टि से प्रखर एवं जिस क्षेत्र में जाना है वहां की भाषा, परिस्थिति से अवगत हो जाते थे तो फिर उन्हें सुदूर प्रदेशों में धर्म प्रचार के लिए भेज दिया जाता था। इतिहास साक्षी है कि बौद्ध प्रचारक एशिया के कोने-कोने में छा गये थे। उन्होंने प्राणघातक रेगिस्तान, हिमाच्छादित पर्वतों, दलदलों सघन वनों, उफनते नदी, तालाबों, समुद्री अवरोधों की चिन्ता न की और अपने संकल्प एवं पुरुषार्थ के बल पर पिछड़े क्षेत्रों में डेरे डालकर प्रगतिशीलता का आलोक वहां फैलाया। भगवान बुद्ध स्वयं आजीवन पर्यटक बनकर रहे। उनके विराम स्वल्पकालीन ही रहते थे। भगवान महावीर ने भी इसी परम्परा को निवाहा। मध्यकालीन सन्तों ने भी अपनी मण्डलियों समेत धर्म प्रचार की यात्राओं में ही जीवन का अधिक समय बिताया था। सन्त का अर्थ ही पर्यटक होता था। आश्रम व्यवस्था बनाकर रहने वाले तो ब्राह्मण कहलाते थे।
महात्मा गांधी की डांडी नमक यात्रा और नोआखाली की शान्ति यात्रा सर्वविदित है। सन्त विनोबा की भूदान यात्रा के सत्परिणामों से कौन परिचित नहीं है। इन दूरगामी परिणामों को प्राचीन काल में भली प्रकार समझा गया था और अपने धर्मकृत्यों में धर्मप्रचार की तीर्थ यात्रा को प्रमुख स्थान देने के लिए प्रत्येक धर्म प्रेमी से कहा गया था। जो असमर्थ रहते थे वे भी उच्च-आदर्श का स्मरण करने के लिए प्रतीक रूप में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, देवालयों की परिक्रमा करके किसी प्रकार मन की साध पूरी करते थे। अभी भी पीपल की, आंवले की, तुलसी की परिक्रमा होती हैं। मथुरा वृन्दावन में हर एकादशी को परिक्रमा में हजारों नर-नारी निकलते हैं। दो महीने की ब्रजयात्रा होती है। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा लोग अति श्रद्धापूर्वक करते हैं। ऐसे ही प्रचलन अन्य क्षेत्रों में भी पाये जाते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्म परम्परा को पुनर्जीवित किया जाय और उसके लिए नये सिरे से नये आधार पर अभिनव गठन किया जाय। यों तो बांस की खपच्चियों और रंगीन कागज के सहारे बनाये गये विशालकाय किन्तु निर्जीव हाथी की तरह वह अभी भी विद्यमान है, पर प्राणों के अभाव में उसकी आकृति मात्र ही शेष है। प्राणों का उसमें से पलायन हो जाय तो पुण्यफल की आशा किस आधार पर की जाय। जीवित तीर्थ यात्रा ही भारतीय संस्कृति की आत्मा को गौरवान्वित कर सकती है और उसी से व्यक्ति तथा समाज का सच्चा हित साधन हो सकता है। आज की सामयिक समस्याओं के समाधान में तो वे और भी अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।
जन मानस का परिष्कार, मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्गीय वातावरण, सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन यही है अपना लक्ष्य, जिसे आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के आधार पर जन-जन के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया जाता रहा है और किया जाता रहेगा। राजतन्त्र और अर्थतन्त्र के क्षेत्र, देश की सुरक्षा, व्यवस्था और समृद्धि के बढ़ाने में लगे हैं। वे अपने आप में उपयोगी कार्य हैं उन्हें अपने ढंग से अपना कार्य करने में लगे रहने देना चाहिए। भावना क्षेत्र को नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। यह कार्य धर्मतन्त्र का है क्योंकि अन्तःकरण की गहराई में प्रवेश करके आस्थाओं का स्पर्श कर सकना, जीवन दर्शन का बदलना, परिष्कृत दृष्टिकोण आदर्शवादी क्रियाकलाप की आधारशिला रख सकना उसी के लिए सम्भव है।
विचारशील लोगों को, साधु ब्राह्मणों को, वानप्रस्थों को, धर्म प्रचारकों को पुण्य परम्परा—तीर्थ यात्रा को पुनर्जीवित करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्हें अपने मानवी उत्तरदायित्वों को समझना चाहिए। जिन्हें ईश्वर ने सद्ज्ञान और सद्भाव की सम्पदा प्रदान की है उसे उन्हें अभावग्रस्त क्षेत्र में वितरित करने की उदारता दिखानी चाहिए। अपने उपार्जन का अपने लिए ही उपयोग करते रहने वाले स्वार्थी, अनुदार और कृपण कहे जाते हैं, वह लांछन, सद्भाव—सम्पन्न विज्ञ जनों पर नहीं लगना चाहिए। ज्ञान वितरण का उद्देश्य लेकर उन्हें भी अपने देश के पिछले क्षेत्र में मानवी आदर्शवादिता और युग के अनुरूप प्रगतिशीलता वितरित करने के लिए आगे आना चाहिए। अगले दिनों तीर्थयात्रा मंडलियां इसी उद्देश्य के लिए निकलें। इसलिए विचारशील लोग अपनी टोलियां गठित करें।
अपना कार्य क्षेत्र प्रधानतया छोटी देहातों को बनाना है। शहरों में इतने अधिक सभा, सम्मेलन होते रहते हैं कि वहां बड़े आकर्षण होने पर ही लोक रुचि उत्पन्न हो सकती है। दूसरे उस क्षेत्र में पहले से ही उद्बोधनकर्ताओं की भरमार है। तीसरे उन लोगों को पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, लाइब्रेरियों का लाभ भी मिल जाता है। चौथे वे लोग अत्यधिक व्यस्त होने के कारण इस प्रयोजन में रुचि भी कम लेंगे। पांचवे परस्पर विरोधी राजनैतिक तथा सामाजिक संस्थाओं की प्रतिद्वन्दिता ने उस क्षेत्र की जनता को दिग्भ्रांत कर दिया है और वह सभी प्रचारकों को एक लाठी से हांकती, अविश्वस्त ठहराती है। ऐसे ही अन्य अनेक कारण हैं, जिनसे हमें देहात को अपना कार्य क्षेत्र बनाना चाहिए।
अस्सी प्रतिशत भारत उसी इलाके में रहता है। यातायात की कठिनाई, निर्धनता, गैर जानकारी के कारण नेताओं के स्वागत सत्कार की कमी, स्वल्प उपस्थिति जैसे कारणों से उद्बोधनकर्ता उस क्षेत्र में पहुंचते नहीं हैं। देश में सत्तर प्रतिशत अशिक्षा अभी भी है। इसका अधिकांश भाग देहातों में है। रूढ़िवादिता, मूढ़ मान्यता, अन्ध विश्वास जैसी विकृतियां उस क्षेत्र में अभी भी उतनी ही भरी पड़ी हैं जितनी अब से तीन सौ वर्ष पूर्व थीं। प्रगतिशीलता का प्रकाश वहां अभी भी बहुत कम पहुंचा है। हमें इसी क्षेत्र को जगाने में जुटने का साहस समेटना चाहिए। कहना न होगा कि यह जनता समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र राजनीति आदि को उतना नहीं समझती जितना कि परम्परागत धर्म परम्परा को। धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण का महत्व प्रधानतया इसी वर्ग के लोगों के लिए है। जाना हमें इसी क्षेत्र की जनता के पास है।
उनके बौद्धिक विकास को देखते हुए अपनी सेवा साधना में दो तथ्यों का समावेश करना ही होगा—एक तो यह कि जो कहना है उसमें धर्म कथाओं का पुट लगाते हुए कथन को श्रद्धा सिक्त बनाते चला जाय। दूसरे संगीत सहगान, कीर्तन, भजन को प्रमुखता दी जाय। संगीत में स्वभावतः जन साधारण की रुचि होती है—बाल वृद्ध, शिक्षित अशिक्षित उसे चावपूर्वक सुनते हैं। बौद्धिक प्रभाव ग्रहण करने के साथ-साथ भावान्दोलन की विशेषता भी उसमें रहती है। अस्तु तीर्थयात्रा पर निकलने वाली प्रचार मंडलियों को जन मानस में नवयुग के अनुरूप प्रगतिशीलता स्थापित करने के लिए प्रवचन शैली में धर्म कथाओं का समावेश एवं सहगान कीर्तन की समन्वित शैली को अपना कर चलना चाहिए।
मण्डली में इतनी योग्यता होनी चाहिए कि वह इन प्रयोजनों को भली प्रकार पूरी कर सके। बेकार की भीड़ साथ ले चलने से तो अव्यवस्था ही फैलेगी और असुविधा ही रहेगी। प्रायः पांच प्रचारकों की तीर्थयात्रा टोली रहें यही उपयुक्त है। इस प्रयास में अधिक लोग सहयोग देने को उत्सुक हों तो एक साथ ही बड़ी भीड़ लगाने की अपेक्षा उन्हें पांच पांच की टोलियों में—कई क्षेत्रों में चल पड़ना चाहिए। यदि सुनने सीखने की दृष्टि से ही कुछ लोग साथ चलना चाहें तो पांच प्रचारक और पांच साथी दस की मण्डली पर्याप्त समझी जानी चाहिए अन्यथा अधिक लोगों के साथ चलने और दैनिक व्यवस्था जुटाने में ही सिर दर्द खड़ा हो जायेगा। ब्रज चौरासी कोस की भाद्रपद की यात्रा के समान पूरे साज सरंजाम और दलबल समेत निकलना हो तो बात दूसरी है। ऐसी बड़ी पद यात्राओं की व्यवस्था में खान पान, तम्बू डेरा, पानी, दूध, प्रवचन पण्डाल आदि पूरा ठाट बाट लेकर चलना होता है और उतने लोगों के स्नान शौच, भोजन आदि का पहले से ही प्रबन्ध करना होता है। सामान ढोने, उसे यथास्थान जमाने, सुविधाएं उत्पन्न करने के लिए वाहनों और कर्मचारियों की अतिरिक्त भीड़ साथ चले तो ही उतनी बड़ी व्यवस्था बन सकती है। यह बड़ी योजनाओं का अंग है वैसा प्रबन्ध कोई बड़े अनुभवी और साधन सम्पन्न लोग ही कर सकते हैं। हमें फिलहाल छोटी प्रचार टोलियों की बात ही सोचनी चाहिए और अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने में समर्थ व्यक्ति ही उन टोलियों के सदस्य होने चाहिए।
तीर्थयात्रा को पद यात्रा ही समझा जाना चाहिए। प्रचारकों को गांव-गांव, झोंपड़े-झोंपड़े जाने का लक्ष्य रखकर चलना है तो वह कार्य द्रुतगामी वाहनों पर सवार होकर बढ़िया रास्तों से गुजरने पर सम्भव न हो सकेगा। उसमें पगडण्डियां ही लांघनी होंगी। ऐसी दशा में पद यात्रा की ही उपयोगिता बनती है। प्राचीन काल में भी पदयात्रा और तीर्थयात्रा पर्यायवाची शब्द थे। अभी भी वह परिभाषा यथावत् रहनी चाहिए। नहाने धोने के लिए वस्त्र, लाउडस्पीकर जैसे प्रचार साधन, दीवारों पर वाक्य लिखने के उपकरण जैसी वस्तुएं यात्रा में स्वभावतः साथ चलेंगी ही। उन्हें कन्धे पर लादकर नहीं चला जा सकता। इसके लिए साइकिल का उपयोग भार वाहन के रूप में करना अपेक्षाकृत अधिक सस्ता और सरल रहेगा। पर इसका कोई बन्धन नहीं हैं। जहां गधा, घोड़ा बैल-गाड़ी आदि की सुविधा हो सकती हो भोजन बनाने आदि कार्यों के लिए स्वयंसेवक या कर्मचारी चल सकता हो तो उसमें भी हर्ज नहीं। बात खर्च बढ़ने भर की है। जहां जैसा प्रबन्ध बन पड़े वहां उसके लिए प्रसन्नता पूर्वक प्रबन्ध किया जा सकता है। सुविधा साधन बढ़ने से तो काम करने में सरलता ही पड़ती है।
तीर्थयात्रा धर्म परम्परा के पुनर्जीवन का लक्ष्य लेकर निकली हुई टोलियों के सामने निर्धारित लक्ष्य और कार्यक्रम रहेगा। वे निरुद्देश्य यत्र तत्र भटकती हुई समय और धन का अपव्यय नहीं करेंगी। निश्चित है कि गांव-गांव, दीवार-दीवार पर नव युग का सन्देश देने वाले प्रेरणाप्रद वाक्य लिखे जाने चाहिए। बोलती दीवारों का सृजन करना चाहिए। हर गांव में कीर्तन गान करते हुए मण्डलियों को गली कूंचों की परिक्रमा करनी चाहिए। पीत वस्त्रधारी—तीर्थयात्री शंख ध्वनि करते हुए—कीर्तन गाते हुए जब गांव की परिक्रमा करेंगे तो स्वभावतः गांववासी उसके साथ चलेंगे। नारे लगाने में वे भी योग देंगे। परिक्रमा समाप्त होने पर टोली के सदस्य एक छोटा प्रवचन अपने भ्रमण प्रयोजन के सम्बन्ध में दें और शिक्षितों से सम्पर्क कर उन्हें अपने मिशन का परिचय दें। इसके बाद अगले गांवों के लिए प्रयाण करें।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मार्ग के गांवों में परिक्रमा, दीवार लेखन करते हुए पड़ाव के लिए नियत गांव में पहुंचा जाय। टोली स्वयं परिक्रमा करे और नियत सत्संग स्थल पर जन साधारण को पहुंचने के लिए आमन्त्रित करें। प्रायः आठ से साड़े दस का समय ग्रामीणों को सुविधाजनक रहता है। भोजन से निवृत्त होकर वे आ सकते हैं और कथा कीर्तन के माध्यम से नव-चेतना उपलब्ध करने का लाभ उठा सकते हैं। प्रातःकाल संक्षिप्त यज्ञ, प्रभावित लोगों को बुलाकर उन्हें कुछ काम सौंपना संकल्प देना, जलपान से निवृत्त होना और अगले दिन के कार्यक्रम पर चल देना। यह टोलियों का कार्यक्रम है। कहीं अत्यधिक आग्रह हो तो बात दूसरी है अन्यथा भोजन व्यवस्था का भर स्वयं ही टोलियों को वहन करना चाहिए। पकाया एक बार ही जाय। दूसरे समय के लिए बना हुआ रखा रहे। सवेरे या शाम कब पकाने में सुविधा रहेगी, क्या रसोई बने, यह निर्धारित करना टोली सदस्यों की रुचि, सुविधा एवं व्यवस्था पर निर्भर रहेगा।
गर्मियों के दिनों में छात्रों, अध्यापकों, किसानों तथा दूसरे अनेक वर्गों के लोगों को अवकाश रहता है। मई, जून के दो महीने इन टोलियों के लिए अतीव सुविधाजनक हैं। इन दिनों बिस्तर या भारी कपड़े लेकर चलने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यह दो महीने तो हर क्षेत्र में तीर्थयात्रा के लिए अतीव उत्साहपूर्वक प्रयुक्त होने चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य महीनों में जब जहां जैसी व्यवस्था बन पड़े तब वहां उस प्रकार की योजना बना ली जानी चाहिए।
कर्मचारियों एवं दुकानदारों को साप्ताहिक अवकाश रहता है। वह पूरा दिन इस प्रयोजन के लिए लगा देने की बात बन सकती है। साल में 52 सप्ताह तथा प्रायः 13 त्यौहार इस प्रकार 65 दिन की छुट्टी तो रहती हैं। पांच दिन काट दें तो प्रायः दो महीने इस कार्य के लिए लगाये जा सकते हैं। दूसरे वर्ग के लोग भी अपनी सुविधा के समय का अपने ढंग से उपयोग कर सकते हैं। जिनके पास पूरा समय है तो वे नई-नई टोलियों का गठन और नेतृत्व करते हुए दूरवर्ती क्षेत्रों में भी अपनी गतिविधियां सुविस्तृत कर सकते हैं।
जो दूर नहीं जा सकते, घर नहीं छोड़ सकते वे नित्य एक-दो घण्टे समीपवर्ती गली-मुहल्लों, बाजारों, कारखानों में जन सम्पर्क के लिए निकाल सकते हैं और झोला पुस्तकालयों की, ढकेल गाड़ी—चल पुस्तकालयों की, सरल प्रक्रिया अपनाकर सत्साहित्य पढ़ने देने एवं वापिस लेने का कार्य कर सकते हैं। साप्ताहिक अवकाश का अधिकांश समय इस पुण्य कार्य में लगा सकते हैं। कथा कहने के लिए साप्ताहिक, मासिक तथा एक-एक दिन एक-एक घर, मुहल्ले में कार्यक्रम बनाये जा सकते हैं। स्लाइड प्रोजेक्टर का प्रबन्ध हो सके तो प्रकाश चित्र दिखाते हुए हर रात्रि को एक मुहल्ले में लोकरंजन और लोक शिक्षण की दुहरी प्रचार प्रक्रिया चल सकती है। चित्र प्रदर्शनियां बन सकें तो उन्हें भी यत्र तत्र दिखाया जा सकता है। कुछ साधन न हों तो ऐसे ही जन सम्पर्क के लिए वार्तालाप सामान्य प्रसंगों से आरम्भ करके किसी आदर्शवादी निष्कर्ष तक पहुंचने का उपक्रम अभ्यास में लाया जा सकता है। बच्चों में कहानियां कहने की अपनी एक शैली है जिसमें बाल, वृद्ध सभी समान रूप से रस ले सकते हैं। प्रचार के ऐसे ऐसे अनेकों साधन ढूंढ़े जा सकते हैं। तीर्थयात्रा की धर्म परम्परा का आंशिक निर्वाह इन छोटे एवं स्थानीय कार्यक्रमों से भी हो सकता है। बड़े रूप में तो कुम्भ के मेले में जहां तहां से जाने वाली साधु मण्डलियों जैसा विशाल रूप भी न सकता है। वे रास्ते में पड़ाव डालती हुई अपने दलबल के साथ चलती है और जहां ठहरती हैं वहां आकर्षण का केन्द्र बनाती हैं। रूपरेखा क्या रहे—योजना किस स्तर की बने यह निर्णय करना टोलियों की मनःस्थिति एवं परिस्थिति पर निर्भर है। किन्तु उन्हें किसी न किसी रूप में चल पड़ना तो सर्वत्र ही चाहिए। ‘अलख निरंजन’ की—घर घर धर्म प्रेरणा की साधु परम्परा पुनर्जीवित होनी ही चाहिए। विज्ञ, विचारशील लोगों को आगे बढ़कर उसका शुभारम्भ एवं नेतृत्व करना ही चाहिए।
इस सन्दर्भ में एक बात सबसे अधिक महत्व की है कि जब देश का प्रत्येक देहाती क्षेत्र इस धर्म-प्रचार योजना के अन्तर्गत लिया जाना हो तो तीर्थ स्थानों का भी अभिनव सृजन होना चाहिए। प्राचीन तीर्थों तक सीमित रहने से तो वह गतिविधियां अमुक क्षेत्रों तक ही सीमाबद्ध होकर रह जायेंगी। अमुक क्षेत्र में ही तीर्थयात्री जाया करें तो उनका आकर्षण ही समाप्त हो जायेगा दूसरे अन्य पिछड़े स्थान उस लाभ से वंचित ही बने रहेंगे। यों अपनी तीर्थयात्रा के लिए आवश्यक नहीं कि उनमें किन्हीं देवालयों का दर्शन या विराम जुड़ा ही रहे। सदुद्देश्य के लिए जिधर भी जाया जायेगा उधर ही तीर्थ बन जायेगा। फिर भी यदि तीर्थ स्थानों की बात भी उस प्रयोजन के साथ जुड़ी रह सके तो इससे सोने और सुगन्ध का दुहरा उद्देश्य पूरा होगा।
जब पुनर्जीवन ही अपना लक्ष्य है तो लगे हाथों नये तीर्थों की स्थापना की बात भी हाथ में लेकर चला जा सकता है। काम कठिन तो है, पर कठिन भी तो मनुष्य ही करते हैं। प्राचीन काल में भी तो मनीषियों ने तीर्थों की स्थापना के लिए प्रयास किया था। अकेले आद्य शंकराचार्य ने ही देश के चार कोनों पर, चार धामों की स्थापना की थी। मथुरा, वृन्दावन के अधिकांश तीर्थों के स्थान चैतन्य महाप्रभु ने अपनी दिव्य दृष्टि से बनाये थे और उन विस्मृत स्थानों पर उनके अनुयायियों ने स्मारक खड़े किये थे। अन्यत्र भी आगे पीछे ऐसी ही परम्परा चलती रही है। अकेले हजारी किसान ने बिहार के हजारी बाग जिले में हजार आम के बगीचे लगाने में सफलता पाई थी, तो कोई कारण नहीं कि अपना भाव भरा परिवार अपने संगठित प्रयत्नों के द्वारा अभिनव तीर्थों का सृजन न कर सके।
परम्परागत तीर्थ प्रायः पौराणिक देव गाथाओं से जुड़े हैं। कहीं कहीं ऋषियों, महापुरुषों की स्मृति स्मृति स्वरूप तीर्थ बने हैं। उनसे अतीत पर श्रद्धा एवं भक्ति भावना की स्फुरणा तो होती है, पर बहुत खींच तान करने पर भी वह प्रकाश नहीं मिलता जो दर्शकों को नव युग के अनुरूप प्रेरणा दे सके। समय की मांग है कि उद्देश्य के अनुरूप आधार भी खड़े किये जायं। प्रेरणा प्राप्त करने के लिए प्रेरणा स्रोत ढूंढ़े जायं। इस दृष्टि से एक सुनियोजित योजना बनाकर देश के कोने कोने में, विशेषतया देहाती क्षेत्र में ऐसे तीर्थ स्थापित करने की तैयारी करनी चाहिए जो पदयात्रा टोलियों के लिए ही नहीं समीपवर्ती क्षेत्रों के लिए भी आदर्शवादी उत्साह का केन्द्र बन सकें।
यह तीर्थ स्थापना योजना आदर्शवादिता को सम्मान के उच्चस्तर पर प्रतिष्ठापित करने की नव युग के अनुरूप प्रक्रिया है। अब तक लोक-सम्मान धनवानों, सत्ताधीशों कलाकारों, विभूतिवानों के इर्द गिर्द ही मंडराता रहा है अब उसे आदर्शवादिता के प्रति समर्पित होने के लिए मोड़ा जाना चाहिए। अन्यथा सम्मान प्राप्ति की मानवी आकांक्षा अपनी पूर्ति भौतिक साधनों में ही ढूंढ़ती रहेगी। आदर्शवादिता के विकसित होने में सबसे बड़ा अवरोध एक ही है कि उस मार्ग पर चलने वालों को आर्थिक दृष्टि से तो घाटा रहता ही है, लोक सम्मान का स्वाभाविक अधिकार भी दूसरे लोग ही हड़प जाते हैं। अब इस स्थिति का अन्त होना चाहिए। आदर्शवादी तत्वों का अन्वेषण किया जाना चाहिए और जो दिवंगत हो चुके हैं उनकी स्मृति बनाये रहने से उन आत्माओं को भी सन्तोष होगा कि जीवन काल में न सही मरणोत्तर उन्हें लोक मान्यता मिल गई। ऐसे जीवन वृत्तांत उभरने चाहिए जो जन साधारण के लिए प्रेरणा केन्द्र बन सकें, जिनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति उपलब्ध लोक सम्मान को देखकर सहज ही विकसित हो सके। जन मानस के परिष्कार में यह प्रक्रिया कितनी अधिक सहायक हो सकती है इसकी अभी तो कल्पना ही की जा सकती है। पर विश्वास यह है कि जब इस स्थापना का परिणाम सामने आवेगा तो व्यक्तियों को उत्कृष्टता की दिशा में उछालने की दृष्टि से अतीव आशाजनक सिद्ध होगा। इस प्रकार के असंख्य तीर्थ बनें और जीवन चरित्र छपें तो प्रतीत होगा कि अपना देश इस गई गुजरी परिस्थितियों में भी महामानवों की खदान ना रहा है। उनकी महान् परम्पराएं अभी भी जीवन्त हैं। हमारे लिए यह सब भी कम गर्व गौरव का प्रसंग नहीं हैं। इन प्रयासों से समूचे वातावरण में क्रान्तिकारी परिवर्तन होगा और लोक मान्यता में आदर्शवादिता की पुनः प्राण प्रतिष्ठापना होगी। तीर्थयात्रा टोलियां गठित करना और उनके परिभ्रमण का कार्यक्रम बनाना सरल है। इस प्रयास में सामान्य प्रयत्नों से—सामान्य व्यक्तित्व भी भली प्रकार सफल हो सकते हैं। पर तीर्थ स्थापना का काम बड़ा है उसके लिए देश व्यापी सर्वे करना होगा। तीर्थयात्रा धर्म परम्परा के निर्वाह में नये नये तीर्थों की संगति बिठानी पड़ेगी कि मण्डलियां किस रास्ते, कितना चलकर, कहां विराम करेंगी? ऐतिहासिक तथ्यों को मिलाकर ही यह प्रतिष्ठापनाएं होंगी। अस्तु इसे एक सुविस्तृत योजना समझा जायेगा और इसके लिए सर्वेक्षण के साथ-साथ यह भी सोचा जायेगा कि कहां क्या कर सकना सम्भव हो सकता है?
राजा मान्धाता की सहायता से आद्य शंकराचार्य के लिए चारों धामों की प्रतिष्ठापना कर सकना सम्भव हुआ था। बुद्ध के हर्ष वर्धन सरीखे अनुयायियों ने अनेकों बौद्ध विहारों की स्थापना की थी। अब वैसा एकाकी प्रयत्नों से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए किन्हीं बड़े आयोगों की आवश्यकता पड़ेगी और उसका संचालन प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ही सम्पन्न करेंगे। यों इसके लिए आर्थिक एवं श्रम सहयोग स्थानीय जनता का मिलेगा पर उसकी रूपरेखा बनाने एवं साधन सामग्री जुटने का कार्य तो क्रिया कुशल हाथों से ही होना चाहिए। इन्दौर की रानी अहिल्या बाई ने मन्दिरों घाटों का जीर्णोद्धार कराने में ख्याति प्राप्त की थी। आवश्यकता ऐसे व्यक्तित्वों की है जो उसी प्रकार भूमिका निभा सकें। स्वयं आगे आयें और उस धर्म क्षेत्र के पुनरुत्थान की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने में अन्य अनेकों का भी सहयोग जुटा सकें। ऐसे व्यक्तित्व अपने परिवार में से ही उभर कर आयें इसकी अपेक्षा समय की आवश्यकता ने की है। युग की इस चुनौती को भी हमें स्वीकार करना होगा।