Books - यज्ञ का ज्ञान विज्ञान
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Language: HINDI
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विसर्जन -पुष्पांजलिः
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यह विदाई सत्कार है । पुरुष सूक्त के मन्त्रों को आरम्भ करके देव आगमन पर
उनका आतिथ्य, स्वागत-सत्कार किया गया था । यह विदाई सत्कार मन्त्र
पुष्पाजंलि के रूप में किया जाता है ।
सब लोग हाथ में पुष्प अथवा चन्दन-केशर से रँगे हुए पीले चावल लेते हैं । पुष्पांजलि मन्त्र बोला जाता है और पुष्प वर्षा की तरह ही उसे देव शक्तियों पर बरसा दिया जाता है । पुष्पहार, गुलदस्ता आदि भी प्रस्तुत किया जा सकता है । पुष्प भावभरी सहज श्रद्धा के प्रतीक माने जाते हैं । उन्हें अर्पित करने का तात्पर्य है, अपनी सम्मान भावना की अभिव्यक्ति ।
इस विश्व में असुरता और देवत्व के दो ही वर्ग अन्धकार और प्रकाश के रूप में हैं । इन्हीं को स्वार्थ और परमार्थ-निष्कृष्टता और उत्कृष्टता कहते हैं । दोनों में से एक को प्रधान दूसरे को गौण रखना पड़ता है । यदि भोगवादी असुरता प्रिय होगी, तो मोह, लोभ, अहंकार, तृष्णा, वासना में रुचि रहेगी और उन्हीं के लिए निरन्तर मरते-खपते रहा जायेगा । फिर जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए सत्कर्म करने की न इच्छा होगी और न अवसर मिलेगा, परन्तु यदि लक्ष्य देवत्व हो, तो शरीर को निर्वाह भर के और परिवार को उचित आवश्यकता पूरी करने भर के साधन जुटाने के उपरान्त उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कतर्ृत्व के लिए मस्तिष्क में पर्याप्त स्थान और शरीर को पर्याप्त अवसर मिल सकता है । देवत्व का मार्ग उत्थान का और असुरता का मार्ग कष्ट-क्लेशों से भरे पतन का है । दोनों में से किसे चुना? किससे मैत्री स्थापित की? किसे लक्ष्य बनाया? इसका उत्तर पुष्पांजलि के अवसर पर दिया जाता है । विदाई के अवसर पर भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना मानो यह कहना है कि हमें देवत्व प्रिय है, हमने उसी को लक्ष्य चुना है और उसी मार्ग पर चलेंगे ।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र र्पूवे साध्याः सन्ति देवाः । ॐ मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि॥ -३१.१६
सब लोग हाथ में पुष्प अथवा चन्दन-केशर से रँगे हुए पीले चावल लेते हैं । पुष्पांजलि मन्त्र बोला जाता है और पुष्प वर्षा की तरह ही उसे देव शक्तियों पर बरसा दिया जाता है । पुष्पहार, गुलदस्ता आदि भी प्रस्तुत किया जा सकता है । पुष्प भावभरी सहज श्रद्धा के प्रतीक माने जाते हैं । उन्हें अर्पित करने का तात्पर्य है, अपनी सम्मान भावना की अभिव्यक्ति ।
इस विश्व में असुरता और देवत्व के दो ही वर्ग अन्धकार और प्रकाश के रूप में हैं । इन्हीं को स्वार्थ और परमार्थ-निष्कृष्टता और उत्कृष्टता कहते हैं । दोनों में से एक को प्रधान दूसरे को गौण रखना पड़ता है । यदि भोगवादी असुरता प्रिय होगी, तो मोह, लोभ, अहंकार, तृष्णा, वासना में रुचि रहेगी और उन्हीं के लिए निरन्तर मरते-खपते रहा जायेगा । फिर जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए सत्कर्म करने की न इच्छा होगी और न अवसर मिलेगा, परन्तु यदि लक्ष्य देवत्व हो, तो शरीर को निर्वाह भर के और परिवार को उचित आवश्यकता पूरी करने भर के साधन जुटाने के उपरान्त उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कतर्ृत्व के लिए मस्तिष्क में पर्याप्त स्थान और शरीर को पर्याप्त अवसर मिल सकता है । देवत्व का मार्ग उत्थान का और असुरता का मार्ग कष्ट-क्लेशों से भरे पतन का है । दोनों में से किसे चुना? किससे मैत्री स्थापित की? किसे लक्ष्य बनाया? इसका उत्तर पुष्पांजलि के अवसर पर दिया जाता है । विदाई के अवसर पर भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना मानो यह कहना है कि हमें देवत्व प्रिय है, हमने उसी को लक्ष्य चुना है और उसी मार्ग पर चलेंगे ।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र र्पूवे साध्याः सन्ति देवाः । ॐ मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि॥ -३१.१६