Books - यज्ञ का ज्ञान विज्ञान
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यज्ञ क्यों करें?
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यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्रतीक है । हिन्दू धर्म में जितना महत्व यज्ञ को दिया गया है उतना ओर किसी को नहीं दिया गया । हमारा कोई भी शुभ अशुभ धर्म कार्य इसके बिना पूरा नहीं होता । जन्म से मृत्यु तक सभी संस्कारों में यज्ञ आवश्यक है । हमारे धर्म में वेदों का जो महत्व है वही महत्व यज्ञों को भी प्राप्त है क्योंकि वेदों का प्रधान विषय ही यज्ञ है । वेदों में यज्ञ के वर्णन पर जितने मंत्र हैं उतने अन्य किसी विषय पर नहीं । यदि यह कहा जाये कि यज्ञ वैदिक धर्म का प्राण है तो इसमें भी अत्युक्ति नहीं । वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान धर्म है । यज्ञ को निकाल दें तो वैदिक धर्म निष्प्राण हो जायेगा । यज्ञ से ही समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई ।
भगवान स्वयं यज्ञ रूप हैं और तदुत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टि भी यज्ञ रूप है तो यज्ञ के अतिरिक्त संसार में कुछ है ही नहीं । चारों वेद भी इस यज्ञ रूप भगवान से उत्पन्न हुए है, अतः यह भी यज्ञ रूप है और उनमें जो कुछ भी है वह भी यज्ञ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ऋगवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्रश्न पूछा है कि मैं तुमसे पूछता हूँ कि सम्पूर्ण जगत को बांधने वाली वस्तु कौन है? इसका उत्तर दिया है कि यज्ञ ही इस विश्व ब्रह्माण्ड को बांधने वाला है । हमारे पूर्वज भली प्रकार जानते थे कि-
स्वास्थ्य सुख सम्पत्ति दाता, दुःख हारी यज्ञ है ।
भूलोक से ले सूर्य तक, शुभ परम पावन यज्ञ है॥
सर्व भूतों के सभी विध, दुख नसावन यज्ञ है ।
इसलिए प्राचीन काल में घर-घर में यज्ञ होते थे इस पुण्य भूमि में इतने यज्ञ होते रहे कि हमारा देश ही यज्ञिय देश कहलाया गया । पहले बड़े-बड़े राजा महाराजा भी यज्ञ के रहस्य को भली प्रकार समझते थे ओर बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन किया करते थे । महाराजा रघु ने दिग्विजय के उपरान्त विश्वजित नामक यज्ञ में समस्तम खजाना खाली कर दिया था । उनके पास धातु का एक पात्र तक नहीं बचा था । पाण्डवों ने भगवान ने कृष्ण की अनुमति से महाभारत के बाद राजसूय यज्ञ कराया था । भगवान राम ने अश्वमेधादि बहुत बड़े-बड़े यज्ञ कराये थे । दैत्यराज बलि ने इतना बड़ा यज्ञ कराया था कि यज्ञ की शक्ति से सम्पन्न होकर उसने इन्द्र को स्वर्गलोक से निकाल दिया था । जिस पर उदिति की तपस्या करने पर, इन्द्र को इन्द्रासन वापिस दिलाने के लिये विवश होकर भगवान को स्वयं वामन रूप में उपस्थित होना पड़ा इन्द्र ने यज्ञों के बल पर ही इन्द्रासन प्राप्त किया था ।
रावण यज्ञ की शक्ति से ही सब देवताओं को कैद करने में समर्थ हुआ था अर्थात उसे सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हुई । महाभारत के शांति पर्व में अश्वजित के पुत्र का अश्वमेध, दुष्यन्त के पुत्र भरत के एक सहस्त्र अश्वमेध, भागीरथ के अनेक अश्वमेध, दिलीप के एक सौ अश्वमेध इत्यादि का वर्णन मिलता है कैकई पुत्र महाराजा अश्वपति ने ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा हे-महाश्रोत्रियो! मेरे राज्य में कोई चोर, कृपण, शराबी विद्यमान नहीं है । ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जो प्रतिदिन यज्ञ न करता हो । मेरे राष्ट्र में कोई भी व्यक्ति व्यभिचारी नहीं है!
तीर्थों की स्थापना का आधार यज्ञ ही थे । जहाँ प्रचुर मात्रा में बड़े-बड़े यज्ञ होते थे उसी स्थान को तीर्थ मान लिया जाता था । प्रयाग, काशी, रामेश्वरम् कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य आदि सभी क्षेत्रों में तीर्थों का उद्भव यज्ञों से ही हुआ है ।
हमारे वेद शास्त्रों का पन्ना-पन्ना यज्ञ की महिमा से भरा पड़ा है । देखिये ऋग्वेद में विश्व शान्ति का सवर्श्रेष्ठ आधार यज्ञ ही हैं,(10/66/2).......यज्ञ को आगे करके कार्य आरम्भ करो, यज्ञ के साथ आरम्भ किये हुये कार्य सफल होते हैं (10/101/2)...... यज्ञ से परमात्मा प्रसन्न होते हैं ।
(1/14/4)........मुक्ति के अधिकारी याजेय देव हैं, सचमुच यज्ञ के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती (1/45/2).....यह यज्ञ देव (परमात्मा) तक ले जाने वाला है, यह पवित्र है ओर पवित्र करने वाला है । यजुर्वेद में यज्ञ की महत्ता पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया हैं यज्ञ तप का स्वरूप है (4/2/26)....यज्ञ में दी हुई आहुतियां कल्याण कारक होती हैं, जिन्हें कल्याण की इच्छा हो वह यज्ञ में आहुतियां दें (2/30)...... जो यज्ञ को छोड़ता है, उसे यज्ञ रूप परमात्मा भी छोड़ देता है (2/23).....यज्ञ ही मुख्य धर्म है (31/6) .......
मन, वाणी, बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञपति की उपासना की जाये । (30/1).......यज्ञ से सब दिशायें अनुकूल बन जाती है (13/5).....यह अग्नि सहस्त्रों संख्यावाले , बल का स्वामी है । धनों का मुख्य दाता और क्रान्ति दर्शक है (15/21)....... अग्नि विश्व का प्रेरक है (15/33)....... अथर्ववेद का कथन है यज्ञ करने वाले को स्वर्ग सुख प्राप्त होता है, जिन्हें स्वर्गीय सुख प्राप्त करना अभीष्ट हो वे यज्ञ किया करें (18/4/2).......
यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है अथवा अपनी तेजस्विता स्थिर रखने के लिये यज्ञ किया कीजिये........जो इस अग्नि के चारों ओर बैठकर दिव्य उद्देश्य से है । (6/75) ब्राह्मण ग्रंथों में देखिये यज्ञ का पुण्य फल कभी नष्ट नहीं होता, बुद्विमानी पूर्वक यज्ञ का अक्ष्य पुहवि चढ़ाते हैं, उनके हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है (तै० व्र०114/9) यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है । ..... यह अग्नि होम निश्चय ही स्वर्ग सुख प्राप्त कराने वाली विशेष नौका है । ..... यज्ञ ही विष्णु है, यज्ञ ही प्रजापति है, यह ही सूर्य है । (शतपथ) गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है मैं ही यज्ञ हूँ और कई स्थलों पर उपदेश देते हुये बताया यज्ञ न करने वाले को यह लोक ओर परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता....... यज्ञ के निमित्त किये गये कर्मो के सिवाय दूसरे कर्मों के करने से यह मनुष्य कर्म बन्धन में बंधता है....... यज्ञ से बचे हुये अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं । ...... हवन क्रिया ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, बह्म रूप अग्नि में हवन किया जाता है और ब्रह्म ही हवन कर्ता है । इस प्रकार जिस की बुद्धि में सभी कर्म ब्रह्म हो जाते हैं, वह ब्रह्म को ही प्राप्त होता है...... यज्ञ करने योग्य कर्म है ।
मनुजी ने लिखा है महायज्ञ और यज्ञ करने से ही यह शरीर ब्रह्नमी या ब्राह्मण बनता है । पुराणों में इस प्रकार उल्लेख है । अग्नि होम (यज्ञ) से बढ़कर और कोई धर्म नहीं, यज्ञ करने वाला ही सच्चा धर्मात्मा है । (कर्म पुराण) यज्ञ ही कल्याण का हेतु है । पृथ्वी यज्ञ से धारण की हुई है । यज्ञ ही प्रजा को तारता है । (करलिका पुराण) यज्ञ से देवता तथा पितृ जीते हैं(विष्णु धमोर्त्तर पुराण)
कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला पुरुष ऋग्, यजु० साम-तीनों वेदों के साथ सम्बन्ध जोड़कर यज्ञ दान, तप-रूप तीनों कर्मों को करता रहने वाला मनुष्य जन्म मृत्यु से तर जाता है । अग्नि स्वर्ग को प्राप्त करने का, अनन्त जीवन का और सम्पूर्ण संसार के स्थिर होने के कारण है । (क्योंकि सूर्य की आकर्षण शक्ति से जगत स्थिर है) ।
प्रश्नोपनिषद् में यज्ञ को देवताओं, पितरों और ऋषियों का जीवन-प्राण बताया गया है । मुण्डकोपनिषद् का कथन है अग्नि होत्री को यह आहुतियां सूर्य की किरणें बनकर उस स्वर्ग लोक में पहुँचा देती हैं, जहां देवताओं का एकमात्र पति निवास करता है (द्वितीय खण्ड श्लोक 5) छांदोग्योपनिषद् में उदकोशल नामक एक ब्रह्मचारी को, जो सत्यकाम जावाल के यहां ब्रह्म विद्या सीखने गया था, अग्नियों द्वारा ब्रह्म विद्या का उपदेश मिलने का वर्णन मिलता है, क्योंकि उसने बारह वर्षों तक अग्नियों की सेवा की थी ।
रामायण में भी यज्ञ की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है ।
भगवान राम का जन्म यज्ञ द्वारा हुआ अथवा वह अपने अवतार का श्रेय यज्ञ को ही देते हैँ । सीताजी का विवाह एक विशाल यज्ञ द्वारा सम्पन्न हुआ । महर्षि विश्वामित्र जी ने एक महायज्ञ किया था, जिसमें राक्षसों से रक्षार्थ राम और लक्ष्मण को मांग कर ले गये थे, चुंकि यज्ञ में दैवीतत्व बलवान होता हैं और असुरता का नाश होता है, इसलिये रावण ने राक्षसों को आदेश दिया था कि जहां जहां भी यज्ञ होते दिखाई दें उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करो रावण को जब अपनी हार दिखती है तो वह यज्ञ का ही सहारा लेता है और अपने पुत्र मेघनाथ को एक बड़ा तांत्रिक यज्ञ करके अजेय शक्ति को प्राप्त करने का आदेश देता है । यदि मेघनाथ इस यज्ञ को पूर्ण कर लेता तो उसने अजेय हो निष्फल कर दिया था ।
भगवान राम ने बनवास से वापिस लौटने पर प्रजा के लिये, समस्त संसार के लिये, समस्त प्राणी-मात्र के लिये बड़े से बड़े यज्ञों के आयोजन किये थे । यज्ञ को महत्वपूर्ण धर्मकार्य समझ कर उन्होंने प्रतिर्वष अश्वमेध दश सहस्त्र वर्ष तक किए और सहस्त्र वर्ष के पीछे वाजपेय यज्ञ किया ।
भागवत में भी यज्ञ की महिमा अकथनीय है । ऋषि राजा वेन को समझाते हैं हे राजन्! स्वर्ग लोक और देवता यज्ञ में निवास करते हैं, उन वेदत्रयीमय, दिव्यमय एवं मपोमय ईश्वर को विप्रगण आपके कल्याण तथा प्रजा की समृद्धि के लिए नाना विधि विधानों से, चित्र, विचित्र यज्ञों द्वारा यजन करते हैं
। राजा पृथु ने ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसके फलस्वरूप उनके राज्य में किसी तरह का अभाव न था । क्षीर, दधि, गोरस तथा अनय रसों की उनके राज्य में सरितायें बह चलीं । विशालकाय तरुवरो में मधु श्रावि असंख्य फल देते ही रहते । सिन्धुओं ने अपार धन राशि प्रदान की । राजा पृथु के सौ अश्वमेध समाप्त होने पर इन्द्र को इन्द्रसन छिन जाने की आशंका हुई और उसने दो बार घोड़ा चुराया । पहली बार उसका पुत्र घोड़ा छुड़ा लाया परन्तु दूसरी बार पृथु को क्रोध आ गया । जिस पर उसने धनुष पर भयंकर बाण चढ़ा कर इन्द्र का नाश करने की ठानी । ऋषियों ने पृथु को रोक कर कहा कि इससे तो इन्द्र सहित सारे देवलोक का ही नाश हो जायेगा अतः उस अनर्थकारी, ईर्ष्यालु और अभिमानी इन्द्र को यज्ञ के सार पूर्ण मंत्रों द्वारा आवाहन करके इस यज्ञ अग्नि में होम कर देंगे । राजा पृथु के यज्ञों से इतनी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उसके एक बाण से ही सारा देवलोक नाश हो सकता था । ऋषियों को वेद मंत्रों तथा यज्ञ की शक्ति पर इतना दृढ़ विश्वास था कि उनके लिये इन्द्र का आवाहन करना कुछ असम्भव नहीं था और वस्तुतः हुआ भी ऐसा ही ।
भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत, जिसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ, ने यज्ञों द्वारा ही इस देश की तपोभूमि विश्वब्रह्मांड का सवर्श्रेष्ठ भाग बना दिया था । उन्होंने सौ-सौ बार अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसलिये उस समय किसी पुरुष की दूसरे पुरुष से अपने लिये स्वप्न में भी कुछ भी प्रार्थना करने की इच्छा नहीं होती थी और कोई दूसरे की वस्तु पर लोभ दृष्टि नहीं करता था । सभी में सदा स्नेह और शील का उद्रेक होता था राजर्षि और प्रसिद्ध भक्त अम्बरीष अनेक अश्वमेधाधि महायज्ञों द्वारा यज्ञपति भगवान की आराधना किया करते थे । यज्ञाराधन में तल्लीन रहने के कारण उनके पलक भी नहीं गिरते थे । यज्ञ द्वारा उत्पादित पवित्रता के प्रवाह से अम्बरीष की प्रजा में भी स्वर्ग सुख भोग की वासना नहीं रह गई थी । सभी केवल निष्काम भाव से यज्ञ द्वारा यज्ञेश्वर भगवान की अर्चना, पूजा, भक्ति और गान एवं ध्यान में प्रवृत्त रहते थे ।
राजा बलि ने विश्व विजय यज्ञ किया था । उस अग्नि में से स्वर्ण के पट से बंधा एक रथ, इन्द्र के घोड़ों के समान हरित वर्ण के घोड़े, स्वर्ण बन्दों से बंधा हुआ विव्य धनुष, अक्षय बाणी से पूर्ण दो तुण ओर दिव्य कवच, ये वस्तुयें निकली । यज्ञ से शक्ति प्राप्त करके उस रथ पर बैठ कर दिव्य अस्त्र शस्त्रादि एवं सैन्य लेकर बलि ने इन्द्रलोक पर आक्रमण कर दिया । सभी देवगण घबड़ा उठे और बृहस्पति के पास गये । उन्होंने कहा बिना लड़ाई किये हट जाने में ही भलाई है क्योंकि बलि देवों से अधिक शक्तिशाली है । यज्ञ से उत्पन्न हुई शक्ति का इससे अधिक और क्या प्रमाण मिल सकता है ।
परीक्षित के सर्प से काटे जाने पर क्रोधित होकर राजा जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था, जिसमें विश्व के कोने-कोने से सर्प आ आकर यज्ञाग्नि में भस्म हो रहे थे ।
यज्ञ में महान् शक्ति का यह कितना ज्वलन्त प्रमाण है । एक बार शौनक आदि 88000 ऋषियों ने स्वर्ग प्राप्ति के हेतु नैमिषारण्य के पवित्र क्षेत्र में दस हजार वर्ष तक लगातार एक दीर्घ महायज्ञ करने का संकल्प किया । इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था जिसके कारण उसे ब्रह्महत्या लगी । उसी के निवारणार्थ इन्द्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था । युधिष्ठिर संध्या आदि के पश्चात् नित्य अग्नि होत्र करते थे ।
भगवान कृष्ण की दिनचर्या का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि वह प्रतिदिन विधिपूवर्क संध्या उपासना, गायत्री जाप आदि कर्म करने के उपरांत अग्निहोत्र करते थे । भगवान कृष्ण भक्तराज उद्धव को वर्णाश्रम धर्म का निरूपण करते हुये बतलाते हैं कि गृहस्थ आश्रम में यज्ञ करना,पढ़ना और दान देना यह धर्म तो द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिये विहित हैं ।) और आगे चलकर क्रिया योग का वर्णन करते हुये अग्निहोत्र को नित्यप्रति करने का आवश्यक धर्म कृत्य बतलाते हैं । सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र में आये हुये वसुदेव जी ऋषियों से यह पूछते हैं कि जिन कर्मों का परिहार किया जा सकता है वह आप हमें सुनाइये । उन मुनीश्वरों ने वसुदेव जी को इस प्रकार उत्तर दिया कर्म द्वारा कर्म-निरास करने का उपाय सबसे अच्छा यही बताया गया है कि यज्ञ आदि द्वारा सवर्यज्ञपति भगवान का पूजन करे । विद्वानों ने शास्त्र दृष्टि से यही चित्त की शान्ति का उपाय, सुगम मोक्ष साधन और चित्त को प्रसन्न करने वाला धर्म बतलाया है । अपने न्यायार्जित धन से श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान का यजन करना यही सद् गृहस्थ के लिये कल्याणकारी मार्ग है ।
राजा परीक्षित ने कलियुग को सम्बोधित करते हुए कहा हे अधर्म के मित्र! धर्म और सत्य के रहने योग्य स्थान इस ब्रह्मवर्त देश में तू न रहना, क्योंकि यहाँ यज्ञ विधि के जानने वाले महात्मागण यज्ञों द्वारा पूजित होकर याजकों का कल्याण करते हैं । याजकों की महत्ता प्रगट करते हुये महामुनि शमीक अपने पुत्र से, जिसने परीक्षित को शमीक के गले में सर्प उडेलने के अपराध में शाप दिया था, कहा था कि परिक्षित अश्वमेधों द्वारा यजन करने वाले परम भागवत भक्त हैं ।
नारद पुराण में आया है कि महाराजा बाहू ने सातोंद्वीपों में सात अश्वमेध यज्ञ किये थे । उन्होंने चोर डाकुओं को यथेष्ट दण्ड देकर शासन में रखा और दूसरों सन्ताप दूर करके अपने को कृतार्थ माना । उसके राज्य काल में यज्ञों की महिमा से पृथ्वी पर बिना जोते-बोये अन्न पैदा होता था और वह फल-फूलों से भरी रहती थी । देवराज इन्द्र उनके राज्य की भूमि पर समयानुसार वर्षा करते थे और पापाचारियों का अन्त हो जाने के कारण वहाँ की प्रजा धर्म से सुरक्षित थी ।भविष्य पुराण में च्यवन ऋषि का अश्विनी कुमारों का यज्ञ करके देवलोक में सुरदुर्लभ् ऐश्वर्य प्राप्त करने का वर्णन मिलता है । स्कन्दपूराण में आया कि इन्दद्युम्न ने सहस्त्रों यज्ञ किये और वह इन यज्ञों के साथ-साथ परम पुनीत दिव्यता को प्राप्त करता गया ।
महाभारत में जाजलि और तुलाधार के संवाद में तुलाधार जाजलि से कहना है हे महामुने! जो बुद्धिमान विप्रश्रेष्ठ सदा यज्ञ करते हैं, वे यज्ञ करने से ही देवलोक को प्राप्त होते हैं । भीष्म पितामह या को आवश्यक कर्तव्य बतलाते हैं और चेतावनी देते हैं कि जो यज्ञ नहीं करते वे उस लोक अर्थात परलोक को नहीं प्राप्त करते । कोई भी व्यक्ति चाहे वह चोर हो, पापी हो, पाप करने वालों में भी सबसे नीच हो, यदि वह यज्ञ करना चाहता है तो वह सज्जन ही है । यज्ञों से संतुष्ट हुये देवता संसार का कल्याण करते हैं । यज्ञ द्वारा लोक परलोक का सुख प्राप्त होता है । यज्ञ से स्वर्ण की प्राप्ति होती है । यज्ञ के समान कोई दान नहीं, यज्ञ के समान कोई विधि-विधान नहीं । यज्ञ में ही सब धर्मों का उद्देश्य समाया हुआ है । असुर और सुर सभी पुण्य के मूल हेतु यज्ञ के लिए प्रयत्न करते हैं । सत्पुरुषों को सदा यज्ञ परायण होना चाहिए । यज्ञों से ही बहुत से सत्पुरुष देवता बने हैं । पापियों की शुद्धि यज्ञादि से हो जाती है ।-महाभारत
भगवान स्वयं यज्ञ रूप हैं और तदुत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टि भी यज्ञ रूप है तो यज्ञ के अतिरिक्त संसार में कुछ है ही नहीं । चारों वेद भी इस यज्ञ रूप भगवान से उत्पन्न हुए है, अतः यह भी यज्ञ रूप है और उनमें जो कुछ भी है वह भी यज्ञ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ऋगवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्रश्न पूछा है कि मैं तुमसे पूछता हूँ कि सम्पूर्ण जगत को बांधने वाली वस्तु कौन है? इसका उत्तर दिया है कि यज्ञ ही इस विश्व ब्रह्माण्ड को बांधने वाला है । हमारे पूर्वज भली प्रकार जानते थे कि-
स्वास्थ्य सुख सम्पत्ति दाता, दुःख हारी यज्ञ है ।
भूलोक से ले सूर्य तक, शुभ परम पावन यज्ञ है॥
सर्व भूतों के सभी विध, दुख नसावन यज्ञ है ।
इसलिए प्राचीन काल में घर-घर में यज्ञ होते थे इस पुण्य भूमि में इतने यज्ञ होते रहे कि हमारा देश ही यज्ञिय देश कहलाया गया । पहले बड़े-बड़े राजा महाराजा भी यज्ञ के रहस्य को भली प्रकार समझते थे ओर बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन किया करते थे । महाराजा रघु ने दिग्विजय के उपरान्त विश्वजित नामक यज्ञ में समस्तम खजाना खाली कर दिया था । उनके पास धातु का एक पात्र तक नहीं बचा था । पाण्डवों ने भगवान ने कृष्ण की अनुमति से महाभारत के बाद राजसूय यज्ञ कराया था । भगवान राम ने अश्वमेधादि बहुत बड़े-बड़े यज्ञ कराये थे । दैत्यराज बलि ने इतना बड़ा यज्ञ कराया था कि यज्ञ की शक्ति से सम्पन्न होकर उसने इन्द्र को स्वर्गलोक से निकाल दिया था । जिस पर उदिति की तपस्या करने पर, इन्द्र को इन्द्रासन वापिस दिलाने के लिये विवश होकर भगवान को स्वयं वामन रूप में उपस्थित होना पड़ा इन्द्र ने यज्ञों के बल पर ही इन्द्रासन प्राप्त किया था ।
रावण यज्ञ की शक्ति से ही सब देवताओं को कैद करने में समर्थ हुआ था अर्थात उसे सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हुई । महाभारत के शांति पर्व में अश्वजित के पुत्र का अश्वमेध, दुष्यन्त के पुत्र भरत के एक सहस्त्र अश्वमेध, भागीरथ के अनेक अश्वमेध, दिलीप के एक सौ अश्वमेध इत्यादि का वर्णन मिलता है कैकई पुत्र महाराजा अश्वपति ने ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा हे-महाश्रोत्रियो! मेरे राज्य में कोई चोर, कृपण, शराबी विद्यमान नहीं है । ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जो प्रतिदिन यज्ञ न करता हो । मेरे राष्ट्र में कोई भी व्यक्ति व्यभिचारी नहीं है!
तीर्थों की स्थापना का आधार यज्ञ ही थे । जहाँ प्रचुर मात्रा में बड़े-बड़े यज्ञ होते थे उसी स्थान को तीर्थ मान लिया जाता था । प्रयाग, काशी, रामेश्वरम् कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य आदि सभी क्षेत्रों में तीर्थों का उद्भव यज्ञों से ही हुआ है ।
हमारे वेद शास्त्रों का पन्ना-पन्ना यज्ञ की महिमा से भरा पड़ा है । देखिये ऋग्वेद में विश्व शान्ति का सवर्श्रेष्ठ आधार यज्ञ ही हैं,(10/66/2).......यज्ञ को आगे करके कार्य आरम्भ करो, यज्ञ के साथ आरम्भ किये हुये कार्य सफल होते हैं (10/101/2)...... यज्ञ से परमात्मा प्रसन्न होते हैं ।
(1/14/4)........मुक्ति के अधिकारी याजेय देव हैं, सचमुच यज्ञ के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती (1/45/2).....यह यज्ञ देव (परमात्मा) तक ले जाने वाला है, यह पवित्र है ओर पवित्र करने वाला है । यजुर्वेद में यज्ञ की महत्ता पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया हैं यज्ञ तप का स्वरूप है (4/2/26)....यज्ञ में दी हुई आहुतियां कल्याण कारक होती हैं, जिन्हें कल्याण की इच्छा हो वह यज्ञ में आहुतियां दें (2/30)...... जो यज्ञ को छोड़ता है, उसे यज्ञ रूप परमात्मा भी छोड़ देता है (2/23).....यज्ञ ही मुख्य धर्म है (31/6) .......
मन, वाणी, बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञपति की उपासना की जाये । (30/1).......यज्ञ से सब दिशायें अनुकूल बन जाती है (13/5).....यह अग्नि सहस्त्रों संख्यावाले , बल का स्वामी है । धनों का मुख्य दाता और क्रान्ति दर्शक है (15/21)....... अग्नि विश्व का प्रेरक है (15/33)....... अथर्ववेद का कथन है यज्ञ करने वाले को स्वर्ग सुख प्राप्त होता है, जिन्हें स्वर्गीय सुख प्राप्त करना अभीष्ट हो वे यज्ञ किया करें (18/4/2).......
यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है अथवा अपनी तेजस्विता स्थिर रखने के लिये यज्ञ किया कीजिये........जो इस अग्नि के चारों ओर बैठकर दिव्य उद्देश्य से है । (6/75) ब्राह्मण ग्रंथों में देखिये यज्ञ का पुण्य फल कभी नष्ट नहीं होता, बुद्विमानी पूर्वक यज्ञ का अक्ष्य पुहवि चढ़ाते हैं, उनके हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है (तै० व्र०114/9) यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है । ..... यह अग्नि होम निश्चय ही स्वर्ग सुख प्राप्त कराने वाली विशेष नौका है । ..... यज्ञ ही विष्णु है, यज्ञ ही प्रजापति है, यह ही सूर्य है । (शतपथ) गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है मैं ही यज्ञ हूँ और कई स्थलों पर उपदेश देते हुये बताया यज्ञ न करने वाले को यह लोक ओर परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता....... यज्ञ के निमित्त किये गये कर्मो के सिवाय दूसरे कर्मों के करने से यह मनुष्य कर्म बन्धन में बंधता है....... यज्ञ से बचे हुये अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं । ...... हवन क्रिया ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, बह्म रूप अग्नि में हवन किया जाता है और ब्रह्म ही हवन कर्ता है । इस प्रकार जिस की बुद्धि में सभी कर्म ब्रह्म हो जाते हैं, वह ब्रह्म को ही प्राप्त होता है...... यज्ञ करने योग्य कर्म है ।
मनुजी ने लिखा है महायज्ञ और यज्ञ करने से ही यह शरीर ब्रह्नमी या ब्राह्मण बनता है । पुराणों में इस प्रकार उल्लेख है । अग्नि होम (यज्ञ) से बढ़कर और कोई धर्म नहीं, यज्ञ करने वाला ही सच्चा धर्मात्मा है । (कर्म पुराण) यज्ञ ही कल्याण का हेतु है । पृथ्वी यज्ञ से धारण की हुई है । यज्ञ ही प्रजा को तारता है । (करलिका पुराण) यज्ञ से देवता तथा पितृ जीते हैं(विष्णु धमोर्त्तर पुराण)
कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला पुरुष ऋग्, यजु० साम-तीनों वेदों के साथ सम्बन्ध जोड़कर यज्ञ दान, तप-रूप तीनों कर्मों को करता रहने वाला मनुष्य जन्म मृत्यु से तर जाता है । अग्नि स्वर्ग को प्राप्त करने का, अनन्त जीवन का और सम्पूर्ण संसार के स्थिर होने के कारण है । (क्योंकि सूर्य की आकर्षण शक्ति से जगत स्थिर है) ।
प्रश्नोपनिषद् में यज्ञ को देवताओं, पितरों और ऋषियों का जीवन-प्राण बताया गया है । मुण्डकोपनिषद् का कथन है अग्नि होत्री को यह आहुतियां सूर्य की किरणें बनकर उस स्वर्ग लोक में पहुँचा देती हैं, जहां देवताओं का एकमात्र पति निवास करता है (द्वितीय खण्ड श्लोक 5) छांदोग्योपनिषद् में उदकोशल नामक एक ब्रह्मचारी को, जो सत्यकाम जावाल के यहां ब्रह्म विद्या सीखने गया था, अग्नियों द्वारा ब्रह्म विद्या का उपदेश मिलने का वर्णन मिलता है, क्योंकि उसने बारह वर्षों तक अग्नियों की सेवा की थी ।
रामायण में भी यज्ञ की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है ।
भगवान राम का जन्म यज्ञ द्वारा हुआ अथवा वह अपने अवतार का श्रेय यज्ञ को ही देते हैँ । सीताजी का विवाह एक विशाल यज्ञ द्वारा सम्पन्न हुआ । महर्षि विश्वामित्र जी ने एक महायज्ञ किया था, जिसमें राक्षसों से रक्षार्थ राम और लक्ष्मण को मांग कर ले गये थे, चुंकि यज्ञ में दैवीतत्व बलवान होता हैं और असुरता का नाश होता है, इसलिये रावण ने राक्षसों को आदेश दिया था कि जहां जहां भी यज्ञ होते दिखाई दें उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करो रावण को जब अपनी हार दिखती है तो वह यज्ञ का ही सहारा लेता है और अपने पुत्र मेघनाथ को एक बड़ा तांत्रिक यज्ञ करके अजेय शक्ति को प्राप्त करने का आदेश देता है । यदि मेघनाथ इस यज्ञ को पूर्ण कर लेता तो उसने अजेय हो निष्फल कर दिया था ।
भगवान राम ने बनवास से वापिस लौटने पर प्रजा के लिये, समस्त संसार के लिये, समस्त प्राणी-मात्र के लिये बड़े से बड़े यज्ञों के आयोजन किये थे । यज्ञ को महत्वपूर्ण धर्मकार्य समझ कर उन्होंने प्रतिर्वष अश्वमेध दश सहस्त्र वर्ष तक किए और सहस्त्र वर्ष के पीछे वाजपेय यज्ञ किया ।
भागवत में भी यज्ञ की महिमा अकथनीय है । ऋषि राजा वेन को समझाते हैं हे राजन्! स्वर्ग लोक और देवता यज्ञ में निवास करते हैं, उन वेदत्रयीमय, दिव्यमय एवं मपोमय ईश्वर को विप्रगण आपके कल्याण तथा प्रजा की समृद्धि के लिए नाना विधि विधानों से, चित्र, विचित्र यज्ञों द्वारा यजन करते हैं
। राजा पृथु ने ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसके फलस्वरूप उनके राज्य में किसी तरह का अभाव न था । क्षीर, दधि, गोरस तथा अनय रसों की उनके राज्य में सरितायें बह चलीं । विशालकाय तरुवरो में मधु श्रावि असंख्य फल देते ही रहते । सिन्धुओं ने अपार धन राशि प्रदान की । राजा पृथु के सौ अश्वमेध समाप्त होने पर इन्द्र को इन्द्रसन छिन जाने की आशंका हुई और उसने दो बार घोड़ा चुराया । पहली बार उसका पुत्र घोड़ा छुड़ा लाया परन्तु दूसरी बार पृथु को क्रोध आ गया । जिस पर उसने धनुष पर भयंकर बाण चढ़ा कर इन्द्र का नाश करने की ठानी । ऋषियों ने पृथु को रोक कर कहा कि इससे तो इन्द्र सहित सारे देवलोक का ही नाश हो जायेगा अतः उस अनर्थकारी, ईर्ष्यालु और अभिमानी इन्द्र को यज्ञ के सार पूर्ण मंत्रों द्वारा आवाहन करके इस यज्ञ अग्नि में होम कर देंगे । राजा पृथु के यज्ञों से इतनी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उसके एक बाण से ही सारा देवलोक नाश हो सकता था । ऋषियों को वेद मंत्रों तथा यज्ञ की शक्ति पर इतना दृढ़ विश्वास था कि उनके लिये इन्द्र का आवाहन करना कुछ असम्भव नहीं था और वस्तुतः हुआ भी ऐसा ही ।
भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत, जिसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ, ने यज्ञों द्वारा ही इस देश की तपोभूमि विश्वब्रह्मांड का सवर्श्रेष्ठ भाग बना दिया था । उन्होंने सौ-सौ बार अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसलिये उस समय किसी पुरुष की दूसरे पुरुष से अपने लिये स्वप्न में भी कुछ भी प्रार्थना करने की इच्छा नहीं होती थी और कोई दूसरे की वस्तु पर लोभ दृष्टि नहीं करता था । सभी में सदा स्नेह और शील का उद्रेक होता था राजर्षि और प्रसिद्ध भक्त अम्बरीष अनेक अश्वमेधाधि महायज्ञों द्वारा यज्ञपति भगवान की आराधना किया करते थे । यज्ञाराधन में तल्लीन रहने के कारण उनके पलक भी नहीं गिरते थे । यज्ञ द्वारा उत्पादित पवित्रता के प्रवाह से अम्बरीष की प्रजा में भी स्वर्ग सुख भोग की वासना नहीं रह गई थी । सभी केवल निष्काम भाव से यज्ञ द्वारा यज्ञेश्वर भगवान की अर्चना, पूजा, भक्ति और गान एवं ध्यान में प्रवृत्त रहते थे ।
राजा बलि ने विश्व विजय यज्ञ किया था । उस अग्नि में से स्वर्ण के पट से बंधा एक रथ, इन्द्र के घोड़ों के समान हरित वर्ण के घोड़े, स्वर्ण बन्दों से बंधा हुआ विव्य धनुष, अक्षय बाणी से पूर्ण दो तुण ओर दिव्य कवच, ये वस्तुयें निकली । यज्ञ से शक्ति प्राप्त करके उस रथ पर बैठ कर दिव्य अस्त्र शस्त्रादि एवं सैन्य लेकर बलि ने इन्द्रलोक पर आक्रमण कर दिया । सभी देवगण घबड़ा उठे और बृहस्पति के पास गये । उन्होंने कहा बिना लड़ाई किये हट जाने में ही भलाई है क्योंकि बलि देवों से अधिक शक्तिशाली है । यज्ञ से उत्पन्न हुई शक्ति का इससे अधिक और क्या प्रमाण मिल सकता है ।
परीक्षित के सर्प से काटे जाने पर क्रोधित होकर राजा जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था, जिसमें विश्व के कोने-कोने से सर्प आ आकर यज्ञाग्नि में भस्म हो रहे थे ।
यज्ञ में महान् शक्ति का यह कितना ज्वलन्त प्रमाण है । एक बार शौनक आदि 88000 ऋषियों ने स्वर्ग प्राप्ति के हेतु नैमिषारण्य के पवित्र क्षेत्र में दस हजार वर्ष तक लगातार एक दीर्घ महायज्ञ करने का संकल्प किया । इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था जिसके कारण उसे ब्रह्महत्या लगी । उसी के निवारणार्थ इन्द्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था । युधिष्ठिर संध्या आदि के पश्चात् नित्य अग्नि होत्र करते थे ।
भगवान कृष्ण की दिनचर्या का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि वह प्रतिदिन विधिपूवर्क संध्या उपासना, गायत्री जाप आदि कर्म करने के उपरांत अग्निहोत्र करते थे । भगवान कृष्ण भक्तराज उद्धव को वर्णाश्रम धर्म का निरूपण करते हुये बतलाते हैं कि गृहस्थ आश्रम में यज्ञ करना,पढ़ना और दान देना यह धर्म तो द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिये विहित हैं ।) और आगे चलकर क्रिया योग का वर्णन करते हुये अग्निहोत्र को नित्यप्रति करने का आवश्यक धर्म कृत्य बतलाते हैं । सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र में आये हुये वसुदेव जी ऋषियों से यह पूछते हैं कि जिन कर्मों का परिहार किया जा सकता है वह आप हमें सुनाइये । उन मुनीश्वरों ने वसुदेव जी को इस प्रकार उत्तर दिया कर्म द्वारा कर्म-निरास करने का उपाय सबसे अच्छा यही बताया गया है कि यज्ञ आदि द्वारा सवर्यज्ञपति भगवान का पूजन करे । विद्वानों ने शास्त्र दृष्टि से यही चित्त की शान्ति का उपाय, सुगम मोक्ष साधन और चित्त को प्रसन्न करने वाला धर्म बतलाया है । अपने न्यायार्जित धन से श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान का यजन करना यही सद् गृहस्थ के लिये कल्याणकारी मार्ग है ।
राजा परीक्षित ने कलियुग को सम्बोधित करते हुए कहा हे अधर्म के मित्र! धर्म और सत्य के रहने योग्य स्थान इस ब्रह्मवर्त देश में तू न रहना, क्योंकि यहाँ यज्ञ विधि के जानने वाले महात्मागण यज्ञों द्वारा पूजित होकर याजकों का कल्याण करते हैं । याजकों की महत्ता प्रगट करते हुये महामुनि शमीक अपने पुत्र से, जिसने परीक्षित को शमीक के गले में सर्प उडेलने के अपराध में शाप दिया था, कहा था कि परिक्षित अश्वमेधों द्वारा यजन करने वाले परम भागवत भक्त हैं ।
नारद पुराण में आया है कि महाराजा बाहू ने सातोंद्वीपों में सात अश्वमेध यज्ञ किये थे । उन्होंने चोर डाकुओं को यथेष्ट दण्ड देकर शासन में रखा और दूसरों सन्ताप दूर करके अपने को कृतार्थ माना । उसके राज्य काल में यज्ञों की महिमा से पृथ्वी पर बिना जोते-बोये अन्न पैदा होता था और वह फल-फूलों से भरी रहती थी । देवराज इन्द्र उनके राज्य की भूमि पर समयानुसार वर्षा करते थे और पापाचारियों का अन्त हो जाने के कारण वहाँ की प्रजा धर्म से सुरक्षित थी ।भविष्य पुराण में च्यवन ऋषि का अश्विनी कुमारों का यज्ञ करके देवलोक में सुरदुर्लभ् ऐश्वर्य प्राप्त करने का वर्णन मिलता है । स्कन्दपूराण में आया कि इन्दद्युम्न ने सहस्त्रों यज्ञ किये और वह इन यज्ञों के साथ-साथ परम पुनीत दिव्यता को प्राप्त करता गया ।
महाभारत में जाजलि और तुलाधार के संवाद में तुलाधार जाजलि से कहना है हे महामुने! जो बुद्धिमान विप्रश्रेष्ठ सदा यज्ञ करते हैं, वे यज्ञ करने से ही देवलोक को प्राप्त होते हैं । भीष्म पितामह या को आवश्यक कर्तव्य बतलाते हैं और चेतावनी देते हैं कि जो यज्ञ नहीं करते वे उस लोक अर्थात परलोक को नहीं प्राप्त करते । कोई भी व्यक्ति चाहे वह चोर हो, पापी हो, पाप करने वालों में भी सबसे नीच हो, यदि वह यज्ञ करना चाहता है तो वह सज्जन ही है । यज्ञों से संतुष्ट हुये देवता संसार का कल्याण करते हैं । यज्ञ द्वारा लोक परलोक का सुख प्राप्त होता है । यज्ञ से स्वर्ण की प्राप्ति होती है । यज्ञ के समान कोई दान नहीं, यज्ञ के समान कोई विधि-विधान नहीं । यज्ञ में ही सब धर्मों का उद्देश्य समाया हुआ है । असुर और सुर सभी पुण्य के मूल हेतु यज्ञ के लिए प्रयत्न करते हैं । सत्पुरुषों को सदा यज्ञ परायण होना चाहिए । यज्ञों से ही बहुत से सत्पुरुष देवता बने हैं । पापियों की शुद्धि यज्ञादि से हो जाती है ।-महाभारत