Books - युग प्रवाह को मोड़ देने वाले निर्भीक विचारक
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Language: HINDI
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व्यक्तित्व की छाप छोड़ने वाले—महेन्द्र जी
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हिन्दी साहित्य के जाने माने हास्य कवि गोपालप्रसाद व्यास ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा है—‘‘कुश्ती कसरत करना, सुबह शाम नियम से ठंडाई छानना, चौपड़—शतरंज खेलना, कवित्त लिखना-पढ़ना यही मेरे प्रिय व्यसन थे। हाथ खर्च चलाने के लिए कम्पोजीटरी सीख ली थी, प्रूफ आदि भी देख लेता था।..............आज सोचता हूं गुरुवर डा. सत्येन्द्र ने मुझे महेन्द्र जी तक न पहुंचा दिया होता और उन्होंने भी मुझे अपने अनुज की तरह न अपनाया होता तो मैं आज कहां होता?’’
महेन्द्र जी का व्यक्तित्व सचमुच ऐसा ही वट-विटप था जिसकी छांह में कितने ही क्लांत पथिकों ने विश्राम लिया था, कितने ही साहित्यिक और साहित्येत्तर शुक-पिकों ने कल कूजन किया था। वह विटप जब धराशायी हुआ तो जाने कितने ही लोगों के मर्म-स्थल से ऐसी आह ऐसी भावांजलियां निकली होंगी जैसी पद्म श्री गोपाल प्रसाद व्यास के हृदय से निकली है। यह आहत कर देने वाली वेदना और बांह पकड़ कर प्रगति, परमार्थ पथ पर खींच लेने वाली प्रेरणा जो व्यक्ति जितने अधिक मनुष्यों के साथ जोड़ सका उतना ही उसका जीवन सफल सार्थक होता है। नहीं तो बड़े बूढ़ों के शब्दों में जगत में की गयी भलाई के अतिरिक्त साथ कुछ नहीं जाता’ की यह बात जानते हुए भी व्यक्ति खाली हाथ जाने को विवश होता है। इस दृष्टि से महेन्द्र जी का जीवन निश्चय ही सार्थक था—सफल था।
आगरा के पुराने मोहल्ले मानपाड़ा के जर्जर घर में जन्मा यह बालक माता-पिता का स्नेह-दुलार अधिक नहीं पा सका। पालन पोषण किया सहृदय नाना जी ने। थोड़ी बहुत लिखाई पढ़ाई हुई कि नानाजी की सुखद छाया भी सिर से उठ गयी। संघर्ष और जीवन की साधना शुरू हुई। अपने पुरुषार्थ के बल पर एक एक कदम आगे बढ़ता हुआ यही व्यक्ति शहर की तंग गली के उस जीर्ण घर से चलकर सिविल लाइन्स के सुन्दर से आवास में प्रतिष्ठित हो गया। यह मानवीय महत्वाकांक्षाओं और कर्मण्यता का प्रेरक उदाहरण है। ज्ञान की जो सम्पदा जन-जीवन में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी थी उसे बड़ी तत्परता से बटोरा-सहेजा और उस पर कृपण बनकर बैठा ही नहीं उसे जीवन में उतारा भी सही।
प्रेस के एक सामान्य कर्मचारी से प्रगति करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार, प्रकाशक, हिन्दी सेवी, राष्ट्र सेवी और नगर के सम्मानित नागरिक बन जाने वाले महेन्द्र जी ने अपने मन को कभी छोटा नहीं समझा, अपने व्यक्तित्व के पात्र को कभी छोटा नहीं पड़ने दिया। धन, सम्पदा, यश, मान सब कुछ आया पर वह सब अपने और अपने परिवार के पालन पोषण, की वृद्धि तक ही सीमित नहीं रहा वह दूसरों को आगे बढ़ाने, राष्ट्र व समाज का हित करने में भी नियोजित हुआ। परिवार का पालन पोषण तो सभी करते हैं अपने व्यापार व्यवसाय को सभी बढ़ाते-पनपते हैं, यह कोई बड़ी बात नहीं। मनुष्य को जो सामर्थ्य मिली है वह इतना भर करने तक की ही नहीं है। अपने काम के साथ-साथ समाज और राष्ट्र की सेवा को शुद्धाचरण के साथ जोड़कर चलना और अपना कर दिखाना ही सच्चे मानव की कसौटी है जिसमें बिरले ही खरे उतरते हैं। महेन्द्र जी उन बिरले व्यक्तियों में से एक थे।
वे मानते थे कि महत्वाकांक्षा बुरी नहीं है किन्तु उनके साथ अपना ही हित जोड़े रखना बुरा है। सच पूछा जाय तो वे परहित के लिए ही महत्वाकांक्षाएं उपजाया करते थे और यही उनकी सफलता का कारण भी था। लोग समझते थे उनके पास प्रकाशन संस्थान, प्रेस, पत्र, व्यक्तित्व, परिचय क्षेत्र सब कुछ है किन्तु जो अन्तरंग थे वे लोग ही जानते थे कि उनसे उनका परमार्थ यज्ञ पूरा नहीं होता था। उन्होंने अपनी स्थाई आय का स्रोत बीमा कम्पनी की एजेंटशिप व स्वदेशी एडवरटाइजिंग एजेंसी को बना रखा था। इनकी आय से वे अपने सामाजिक दायित्व निपटाते थे। कई साहित्यकारों व निर्धन छात्रों की उन्होंने एक तरह से स्थायी मासिक सहायता की राशि बांध रखी थी।
कई व्यक्ति उन्हें अपना निर्माता मानते हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को भी कुछ इस प्रकार का विकसित किया था कि व्यक्ति उनसे बहुत कुछ सीख सकता था। साहित्यकार, पत्रकार, साहित्य, व्यवसायी, प्रकाशक, सम्पादक समाज सेवी स्वतन्त्रता संग्राम के सैनिक, आगरा नगर के निर्माता, स्वदेशी वस्तुओं के प्रचारक आदि कितने ही रूपों में उन्हें दुनिया जानती मानती थी। मित्र बनाने की कला में भी प्रवीण थे। बड़े-बड़े नेताओं साहित्यकारों से लेकर छोटे-छोटे कर्मचारी तक उनके मित्र थे।
उनकी लम्बी चौड़ी काया और उस पर कोकटी खादी का सादा परिधान उनकी सादगी गाम्भीर्य विद्वता का परिचायक था। भाषा, साहित्य संस्कृति और राष्ट्र इन चारों की सेवा करके वे स्वयं ही धन्य नहीं हुए वरन् उन्होंने कितने ही लोगों को इन पुण्य कार्यों में लगाया भी सही। उनका कार्य वह था जब हिन्दी का रिक्त कोष भरा जा रहा था, साहित्यकार गढ़े जा रहे थे, भारत पराधीन था स्वाधीन होने के लिए पुरजोर प्रयास चल रहे थे, प्रकाशन व्यवसाय और पत्र कारिता उन दिनों घाटे का सौदा बनी हुई थी यदि निष्पक्ष और सदाचरण के साथ देखा जाय तो, भारतीय जीवन दर्शन व संस्कृति पाश्चात्य चकाचौंध के आगे फीकी सी दीख रही थी। ऐसे समय में स्वयं सेवकों और साहित्य सेवियों की कमी को पूरा करने का सामयिक दायित्व उन्होंने बखूबी निभाया। साहित्य प्रकाशन और पत्रकारिता समाज सेवा व राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रबल बनाती हुई भी परिवार का ही नहीं भावनात्मक परिवार की आर्थिक गाड़ी को खींच सकती है इस सत्य को उन्होंने व्यवहार में लाकर बताया। घाटे के डर से जो पुण्य कार्यों को हाथ नहीं लेना चाहते उनको महेन्द्र जी का यह उदाहरण सम्बल देने को पर्याप्त है।
वे आगरा की नागरी प्रचारिणी सभा के निर्माता थे। आगरा से सत्याग्रह कार्यक्रम, ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान समाचार’’ ‘‘सैनिक-सिंहनाद’’ ‘‘आगरा-पंच’’ और ‘‘साहित्य-संदेश’’ आदि पत्रों का प्रकाशन, सम्पादन उन्हीं ने किया था। साहित्य प्रेस, साहित्य रत्न भण्डार, साहित्य कुंज आदि के संस्थापक संचालक और आगरा मण्डल के स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में उन्हें जाना गया।
वे ‘‘सैनिक’’ के दैनिक व साप्ताहिक संस्करणों के सम्पादक, प्रबन्ध सम्पादक भी रहे थे। ‘‘सैनिक’’ के सम्पादन प्रकाशन तक ही नहीं वे सचमुच के सैनिक बन कर सत्याग्रह संग्राम में लड़े भी थे। जब भी सैनिक प्रेस पर ताला डाला जाता महेन्द्र जी का काम बढ़ जाता था। सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी सैनिक या अन्य नामों से आंदोलन को गतिशील बनाने वाले पत्र निकलते ही रहते थे। यह महेन्द्र जी का चातुर्य ही था। उन्होंने कई भूमिगत प्रेसों से ‘‘सैनिक’’ ‘‘आगरा सत्याग्रह समाचार’’ ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान समाचार’’ नामक पत्र प्रकाशित किये। देश भक्तों के रक्त में उबाल लाने के लिये इन समाचार पत्रों का प्रकाशन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य सा था।
एक बार घर की तलाशी हुई तो वहां कुछ ऐसी सामग्री मिली जो उनके राष्ट्रीय आंदोलन कर्ता और राज द्रोह की पुष्टि करती थी। अतः उन्हें छह महीने कारावास और ढाई सौ रुपये का अर्थ दण्ड भी भोगना पड़ा। उसके बाद तो उनका एक पांव जेल में ही रहने लगा। कभी वे तो कभी उनकी सहधर्मिणी श्रीमती अंगूरी देवी जेल में होती। कभी-कभी तो दोनों ही परिवार और व्यवसाय को, बच्चों और परिजनों के हाथ छोड़कर जेल में होते।
आदर्श को व्यवहारिक बनाने में भी उनका अपना एक ही उदाहरण है। वे अपने पास आने वाले सैकड़ों समाचार पत्रों को नागरी प्रचारिणी सभा के वाचनालय में पाठकों के पढ़ने के लिए भेज देते थे। इससे सभा को प्रतिमाह कितने ही रुपयों की बचत हो जाती थी। अपने पुस्तक विक्रय केन्द्र ‘‘साहित्य रत्न भण्डार’’ पर भी उन्होंने ऐसी ही व्यवस्था साहित्यकारों के लिए बना रखी थी। उन्हें नयी-नयी पुस्तकें यों ही पढ़ने को मिल जाती थीं। उनका यह ‘‘साहित्य-रत्न भण्डार’’ सचमुच में अपना नाम को सार्थक करता था। यह साहित्यकारों की मिलन स्थली बन गया था।
यों सब कामों में वे आगे रहे और सफल हुए पर दूसरों को पीछे धकेल कर स्वयं आगे आने और निंदा स्तुति व प्रचार पटुता की तथाकथित राजनीति से वे दूर ही रहे। यदि इसे असफलता मानी जाय तो वे बस यही असफल रहे कि शुद्धाचरण छोड़ न सके।
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*समाप्त*
महेन्द्र जी का व्यक्तित्व सचमुच ऐसा ही वट-विटप था जिसकी छांह में कितने ही क्लांत पथिकों ने विश्राम लिया था, कितने ही साहित्यिक और साहित्येत्तर शुक-पिकों ने कल कूजन किया था। वह विटप जब धराशायी हुआ तो जाने कितने ही लोगों के मर्म-स्थल से ऐसी आह ऐसी भावांजलियां निकली होंगी जैसी पद्म श्री गोपाल प्रसाद व्यास के हृदय से निकली है। यह आहत कर देने वाली वेदना और बांह पकड़ कर प्रगति, परमार्थ पथ पर खींच लेने वाली प्रेरणा जो व्यक्ति जितने अधिक मनुष्यों के साथ जोड़ सका उतना ही उसका जीवन सफल सार्थक होता है। नहीं तो बड़े बूढ़ों के शब्दों में जगत में की गयी भलाई के अतिरिक्त साथ कुछ नहीं जाता’ की यह बात जानते हुए भी व्यक्ति खाली हाथ जाने को विवश होता है। इस दृष्टि से महेन्द्र जी का जीवन निश्चय ही सार्थक था—सफल था।
आगरा के पुराने मोहल्ले मानपाड़ा के जर्जर घर में जन्मा यह बालक माता-पिता का स्नेह-दुलार अधिक नहीं पा सका। पालन पोषण किया सहृदय नाना जी ने। थोड़ी बहुत लिखाई पढ़ाई हुई कि नानाजी की सुखद छाया भी सिर से उठ गयी। संघर्ष और जीवन की साधना शुरू हुई। अपने पुरुषार्थ के बल पर एक एक कदम आगे बढ़ता हुआ यही व्यक्ति शहर की तंग गली के उस जीर्ण घर से चलकर सिविल लाइन्स के सुन्दर से आवास में प्रतिष्ठित हो गया। यह मानवीय महत्वाकांक्षाओं और कर्मण्यता का प्रेरक उदाहरण है। ज्ञान की जो सम्पदा जन-जीवन में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी थी उसे बड़ी तत्परता से बटोरा-सहेजा और उस पर कृपण बनकर बैठा ही नहीं उसे जीवन में उतारा भी सही।
प्रेस के एक सामान्य कर्मचारी से प्रगति करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार, प्रकाशक, हिन्दी सेवी, राष्ट्र सेवी और नगर के सम्मानित नागरिक बन जाने वाले महेन्द्र जी ने अपने मन को कभी छोटा नहीं समझा, अपने व्यक्तित्व के पात्र को कभी छोटा नहीं पड़ने दिया। धन, सम्पदा, यश, मान सब कुछ आया पर वह सब अपने और अपने परिवार के पालन पोषण, की वृद्धि तक ही सीमित नहीं रहा वह दूसरों को आगे बढ़ाने, राष्ट्र व समाज का हित करने में भी नियोजित हुआ। परिवार का पालन पोषण तो सभी करते हैं अपने व्यापार व्यवसाय को सभी बढ़ाते-पनपते हैं, यह कोई बड़ी बात नहीं। मनुष्य को जो सामर्थ्य मिली है वह इतना भर करने तक की ही नहीं है। अपने काम के साथ-साथ समाज और राष्ट्र की सेवा को शुद्धाचरण के साथ जोड़कर चलना और अपना कर दिखाना ही सच्चे मानव की कसौटी है जिसमें बिरले ही खरे उतरते हैं। महेन्द्र जी उन बिरले व्यक्तियों में से एक थे।
वे मानते थे कि महत्वाकांक्षा बुरी नहीं है किन्तु उनके साथ अपना ही हित जोड़े रखना बुरा है। सच पूछा जाय तो वे परहित के लिए ही महत्वाकांक्षाएं उपजाया करते थे और यही उनकी सफलता का कारण भी था। लोग समझते थे उनके पास प्रकाशन संस्थान, प्रेस, पत्र, व्यक्तित्व, परिचय क्षेत्र सब कुछ है किन्तु जो अन्तरंग थे वे लोग ही जानते थे कि उनसे उनका परमार्थ यज्ञ पूरा नहीं होता था। उन्होंने अपनी स्थाई आय का स्रोत बीमा कम्पनी की एजेंटशिप व स्वदेशी एडवरटाइजिंग एजेंसी को बना रखा था। इनकी आय से वे अपने सामाजिक दायित्व निपटाते थे। कई साहित्यकारों व निर्धन छात्रों की उन्होंने एक तरह से स्थायी मासिक सहायता की राशि बांध रखी थी।
कई व्यक्ति उन्हें अपना निर्माता मानते हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को भी कुछ इस प्रकार का विकसित किया था कि व्यक्ति उनसे बहुत कुछ सीख सकता था। साहित्यकार, पत्रकार, साहित्य, व्यवसायी, प्रकाशक, सम्पादक समाज सेवी स्वतन्त्रता संग्राम के सैनिक, आगरा नगर के निर्माता, स्वदेशी वस्तुओं के प्रचारक आदि कितने ही रूपों में उन्हें दुनिया जानती मानती थी। मित्र बनाने की कला में भी प्रवीण थे। बड़े-बड़े नेताओं साहित्यकारों से लेकर छोटे-छोटे कर्मचारी तक उनके मित्र थे।
उनकी लम्बी चौड़ी काया और उस पर कोकटी खादी का सादा परिधान उनकी सादगी गाम्भीर्य विद्वता का परिचायक था। भाषा, साहित्य संस्कृति और राष्ट्र इन चारों की सेवा करके वे स्वयं ही धन्य नहीं हुए वरन् उन्होंने कितने ही लोगों को इन पुण्य कार्यों में लगाया भी सही। उनका कार्य वह था जब हिन्दी का रिक्त कोष भरा जा रहा था, साहित्यकार गढ़े जा रहे थे, भारत पराधीन था स्वाधीन होने के लिए पुरजोर प्रयास चल रहे थे, प्रकाशन व्यवसाय और पत्र कारिता उन दिनों घाटे का सौदा बनी हुई थी यदि निष्पक्ष और सदाचरण के साथ देखा जाय तो, भारतीय जीवन दर्शन व संस्कृति पाश्चात्य चकाचौंध के आगे फीकी सी दीख रही थी। ऐसे समय में स्वयं सेवकों और साहित्य सेवियों की कमी को पूरा करने का सामयिक दायित्व उन्होंने बखूबी निभाया। साहित्य प्रकाशन और पत्रकारिता समाज सेवा व राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रबल बनाती हुई भी परिवार का ही नहीं भावनात्मक परिवार की आर्थिक गाड़ी को खींच सकती है इस सत्य को उन्होंने व्यवहार में लाकर बताया। घाटे के डर से जो पुण्य कार्यों को हाथ नहीं लेना चाहते उनको महेन्द्र जी का यह उदाहरण सम्बल देने को पर्याप्त है।
वे आगरा की नागरी प्रचारिणी सभा के निर्माता थे। आगरा से सत्याग्रह कार्यक्रम, ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान समाचार’’ ‘‘सैनिक-सिंहनाद’’ ‘‘आगरा-पंच’’ और ‘‘साहित्य-संदेश’’ आदि पत्रों का प्रकाशन, सम्पादन उन्हीं ने किया था। साहित्य प्रेस, साहित्य रत्न भण्डार, साहित्य कुंज आदि के संस्थापक संचालक और आगरा मण्डल के स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में उन्हें जाना गया।
वे ‘‘सैनिक’’ के दैनिक व साप्ताहिक संस्करणों के सम्पादक, प्रबन्ध सम्पादक भी रहे थे। ‘‘सैनिक’’ के सम्पादन प्रकाशन तक ही नहीं वे सचमुच के सैनिक बन कर सत्याग्रह संग्राम में लड़े भी थे। जब भी सैनिक प्रेस पर ताला डाला जाता महेन्द्र जी का काम बढ़ जाता था। सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी सैनिक या अन्य नामों से आंदोलन को गतिशील बनाने वाले पत्र निकलते ही रहते थे। यह महेन्द्र जी का चातुर्य ही था। उन्होंने कई भूमिगत प्रेसों से ‘‘सैनिक’’ ‘‘आगरा सत्याग्रह समाचार’’ ‘‘दैनिक हिन्दुस्तान समाचार’’ नामक पत्र प्रकाशित किये। देश भक्तों के रक्त में उबाल लाने के लिये इन समाचार पत्रों का प्रकाशन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य सा था।
एक बार घर की तलाशी हुई तो वहां कुछ ऐसी सामग्री मिली जो उनके राष्ट्रीय आंदोलन कर्ता और राज द्रोह की पुष्टि करती थी। अतः उन्हें छह महीने कारावास और ढाई सौ रुपये का अर्थ दण्ड भी भोगना पड़ा। उसके बाद तो उनका एक पांव जेल में ही रहने लगा। कभी वे तो कभी उनकी सहधर्मिणी श्रीमती अंगूरी देवी जेल में होती। कभी-कभी तो दोनों ही परिवार और व्यवसाय को, बच्चों और परिजनों के हाथ छोड़कर जेल में होते।
आदर्श को व्यवहारिक बनाने में भी उनका अपना एक ही उदाहरण है। वे अपने पास आने वाले सैकड़ों समाचार पत्रों को नागरी प्रचारिणी सभा के वाचनालय में पाठकों के पढ़ने के लिए भेज देते थे। इससे सभा को प्रतिमाह कितने ही रुपयों की बचत हो जाती थी। अपने पुस्तक विक्रय केन्द्र ‘‘साहित्य रत्न भण्डार’’ पर भी उन्होंने ऐसी ही व्यवस्था साहित्यकारों के लिए बना रखी थी। उन्हें नयी-नयी पुस्तकें यों ही पढ़ने को मिल जाती थीं। उनका यह ‘‘साहित्य-रत्न भण्डार’’ सचमुच में अपना नाम को सार्थक करता था। यह साहित्यकारों की मिलन स्थली बन गया था।
यों सब कामों में वे आगे रहे और सफल हुए पर दूसरों को पीछे धकेल कर स्वयं आगे आने और निंदा स्तुति व प्रचार पटुता की तथाकथित राजनीति से वे दूर ही रहे। यदि इसे असफलता मानी जाय तो वे बस यही असफल रहे कि शुद्धाचरण छोड़ न सके।
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