Books - युगऋषि की सूक्ष्मीकरण साधना
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हमारा निर्णय और परिजनों का असमंजस
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[महापुरुष शरीर में रहते हुए भी आत्म भाव में प्रतिष्ठित रहते हैं। स्वयं को आत्मा रूप में कर्त्ता तथा शरीर को उपकरण भर मानते हैं। संत तुलसीदास जी ने भी मनुष्य शरीर को ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वार’ कहा है। आत्मा अपना कर्म कौशल इसी के माध्यम से प्रकट कर पाती है। अस्तु, मोह ग्रस्तों के लिए यह शरीर जीवात्मा के पतन का कारण बन जाता है, तो योग युक्तों के लिए वही अत्यंत उपयोगी साधन उपकरण बन जाता है। युगऋषि यहाँ इसी योग दृष्टि के अनुसार आत्मा एवं शरीर के शाश्वत सम्बन्धों पर प्रकाश डाल रहे हैं।] शरीर और आत्मा का चोली दामन जैसा साथ है। आत्मा को इसमें रहने का स्वेच्छा से आकर्षण होता है। इसलिए गर्भनिवास, मृत्यु कष्ट जैसी अनेकों यातनाएँ सहते और आये दिन संघर्ष करने का कष्ट सहते हुए भी वह उसी में बार- बार निवास करने के लिए मचलती है। कहने को जन्म- मरण की व्यथा पर क्षोभ प्रकट करते हुए भी विज्ञजन इसी को धारण करने के लिए लौट पड़ते हैं। कितने ही जीवन मुक्त इसके लिए बाधित किये जाते हैं। भगवान् के पार्षद सदा रिजर्व फोर्स के रूप में उनके समीप ही नहीं बैठे रहते, वरन् समय की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए समय- समय पर मार्गदर्शकों की भूमिका निभाने के लिए लौटते हैं। आत्मा अमर है, अदृश्य है, तो भी उसका परिचय इस शरीर से ही मिलता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण वह आत्मा को परम प्रिय है। उसे सजाने, सुविधाओं के अम्बार लगाने में वह चूकता भी नहीं। यहाँ तक कि कुकर्मी होकर भावी दुष्परिणामों को जानते हुए भी उसे सन्तोष देने, प्रसन्न करने के लिए वैसा ही कुछ करता है, जैसा कि स्नेह दुलार भरे अभिभावक अपने इकलौते बेटे की मनमर्जी- हठधर्मी पूरी करने के लिए करते रहते हैं। संक्षेप में यही है शरीर और आत्मा का मध्यवर्ती सम्पर्क सूत्र और सघन सहयोग का सार संक्षेप।
[सैद्धान्तिक रूप में आत्मा और काया के सम्बन्धों का सार संक्षेप प्रस्तुत करने के बाद ऋषि स्वयं को आत्मा के रूप में अनुभव करते हुए अपने तथा अपने शरीर के तालमेल पर प्रकाश डालते हैं तथा इस अनन्य सहयोगी के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हैं।]
अपने को भी यह शरीर लेकर जन्मना पड़ा और जो कुछ भी भला- बुरा बन पड़ा है, सो इसी के माध्यम से सम्पन्न किया है। इसे निरोग और दीर्घजीवी रखने के लिए ईमानदारी और सतर्कता के साथ प्रयत्न किया है। सदा इसे स्रष्टा की अमानत माना और उसमें सन्निहित क्षमताओं को उभारते हुए श्रेष्ठतम सदुपयोग का ध्यान रखा है। आत्मोत्कर्ष और लोकमंगल के निमित्त जो प्रयास बन पड़े हैं, उनके पीछे प्रेरणा तो चेतना में से ही उभरी है, पर श्रम तो शरीर को ही करना पड़ा है।
इसलिए इस अनन्य सेवक और परम सहयोगी शरीर के प्रति हमारा घनिष्ठ मैत्री भाव है। इसके प्रति असीम स्नेह और सम्मान भी। इसे सार्थक और श्रेयाधिकारी बनाने के लिए कुछ उठा नहीं रखा है। जीवन को निरर्थक मानने, उसे भारभूत समझने की भूल कभी भी नहीं की। मल- मूत्र की गठरी इसे कोई भी क्यों न कहता रहे, झंझटों से निपटने के लिए मरने की प्रतीक्षा अन्य कोई भले ही करता रहे, पर अपने मन में ऐसे विचार कभी भी नहीं उठे। न मरने की जल्दी पड़ी और न इसे भार- भूत समझकर ऐसे ही खीजते- खिजाते दिन गुजारे। समय के एक- एक क्षण का सदुपयोग करने की बात हर समय ध्यान में रही। सोचा जाता रहा कि स्रष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति का अनुदान मिला है, तो इसी जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्यों न कर लिया जाय। गिनी हुई साँसें मिली हैं। इनका सदुपयोग करने में ही बुद्धिमानी है। जब बुद्धि मिल ही गई, तो जीवन की हर इकाई का, हर साँस का श्रेष्ठतम प्रयोग करने में क्यों चूका जाय? यही चिंतन सिर पर सदा छाया रहा, फलतः समय कदाचित् ही कभी निरर्थक गया हो। शरीर को नित्यकर्म और आवश्यक क्षणिक विश्राम के उपरान्त कदाचित् ही कभी खाली रहने दिया गया हो। इसका सन्तोष है।
तरह- तरह के असमंजस-
सर्वप्रथम अपने को- जिसने आजीवन एक से एक बढ़कर कठिन और महत्त्वपूर्ण काम करने की आदत डाली और प्रसन्नता अनुभव की हो, उसको समर्थ रहते निष्क्रिय होकर बैठना कितना कठिन पड़ेगा। कितना मन मारना पड़ेगा। इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। निष्क्रिय पड़े लोहे को जंग खा जाती है। प्रकृति के नियम सब पर एक समान लागू होते हैं। निठल्लापन चढ़ते ही हाथ- पैर जकड़ सकते हैं, ऊब चढ़ सकती है, भारभूत जिन्दगी जल्दी समाप्त हो सकती है।
द्वितीय वर्ग वह आता है, जो हमें लोकसेवक की दृष्टि से देखता है। उसे आघात लगेगा- स्थूल दृष्टि से करनी और कथनी में अन्तर देखकर अपने द्वारा हर किसी को युग धर्म निभाने के समय निकालने के उपदेश दिये जाते रहे हैं। लाखों ने उन्हें अपनाया भी है। तथाकथित भजनानन्दी लोगों को कुटिया छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने की प्रेरणा मिली है। जिनके पास जो समय बचता है, उसे जन कल्याण में लगाने का नया व्रत लिया है औरों को ऐसा उपदेश देने के उपरान्त स्वयं एकान्तसेवी बन जाना, हर किसी को अटपटा लगेगा। सामने न सही पीठ पीछे तो लोग इसमें करनी और कथनी का अंतर देखेंगे ही और जो मन में है, उसे प्रकट भी करेंगे। इस प्रकार प्रशंसा निन्दा में बदलेगी। कहने वाले इसे समाज के साथ विश्वासघात भी कहेंगे। जिनके पास है और वे दें नहीं, तो कृपण या निष्ठुर कहे जाते हैं, ऐसा लांछन अपने ऊपर भी तो लग सकता है। संचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा पर इस कारण हड़ताल और फिर कालिख भी पुत सकती है।
तीसरा वर्ग वह है कि जो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर साथ देता और साथ चलता रहा है। इस वर्ग में से जो अधिक साहसी हैं, वे प्रथम पंक्ति में आकर जीवनदानी बने हैं। शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस एवं गायत्री तपोभूमि में आकर रह रहे हैं। सन्त और ब्राह्मण की जीवनचर्या जिनने अपनाई है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह और बारह घण्टे जमकर काम करने का जिनने ऋषि- मुनियों जैसा जीवनक्रम अपनाया है। फिर ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैं, जो हरिद्वार तो नहीं बुलाये गये, पर अपने- अपने कार्यक्षेत्रों में रहकर काम करने के लिए नियुक्त कर दिये गये हैं। प्रज्ञा पीठों का संचालन प्रायः ऐसे ही लोग कर रहे हैं। वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों की परिव्राजक की भूमिका निरन्तर निभा रहे हैं।
चौथा वर्ग समाज सेवा से जिनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, जो व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हैं, जो पत्रिकाओं के- साहित्य के माध्यम से प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, जो पत्र- व्यवहार द्वारा गुत्थियों को सुलझाने और सुखी- समुन्नत बनने के लिए प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। जिनका सहज स्नेह है वे ऐसे ही जब मन में उमंग उठती है, तब हरिद्वार अकारण भी दौड़ पड़ते हैं। तीर्थयात्रा पर्यटन के बहाने परिवार को लेकर हजारों- लाखों हर वर्ष आते हैं। ठहरने की सुविधा शहर में होते हुए भी ढेरों मार्ग व्यय और आने जाने का झंझट उठाते हुए भी शांतिकुंज पहुँचते हैं, ठहरते हैं। इस समुदाय में हैरानियों से राहत पाने के इच्छुक ही नहीं, उत्साहवर्धक प्रगति पथ प्राप्त करने के उत्सुक ही नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका सहज स्नेह है। वह स्नेह ही उन्हें ढेरों पैसा और समय खर्च करके दर्शन करने का नाम लेकर एक बार नहीं, बार- बार आने को विवश करता है। इनकी सहज और सघन आत्मीयता सहज ही जानी और छलकती देखी जा सकती है।
इस समुदाय को जब विदित होगा कि निष्क्रियता ही नहीं अपनाई गई, मिल- जुल कर बोलना, बात करना भी बन्द कर दिया गया, तो निश्चित ही उन्हें चोट लगेगी। जो लोग हमें प्रेम, बटोरने और लुटाने वाला मानते रहे हैं, उन्हें नीरस- निष्ठुर कहते भी देर न लगेगी। इसमें उनका कसूर भी नहीं है, जो आँखों के सामने प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, उसे झुठलाया भी कैसे जाय?
हरिद्वार से शान्तिकुंज जाने वाले ताँगे- रिक्शे वाले तक यह कहते सुने गये हैं कि गुरुजी अब समाधि ले रहे हैं, तो हरिद्वार के सबसे अधिक चहल -पहल वाले आश्रम में भी सन्नाटा छा जायेगा। जब वे मिलेंगे- दिखेंगे ही नहीं, तो दर्शनार्थियों- शिविरार्थियों की भीड़ क्यों आयेगी? हमारी भी रोजी- रोटी में कटौती होगी और आश्रम की शोभा महत्ता तो घट ही जायेगी। ईर्ष्यालुओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। वे तरह- तरह की नुक्ताचीनी करते रहने का एक बहाना तो पा जाते थे। अब बहाना भी न रहेगा, तो चुहल- बाजों का एक प्रसंग भी हाथ से चला जायेगा। अब किसी और को भड़ास निकालने के लिए तलाशना पड़ेगा।
पाँचवाँ वर्ग- अनेकों ने अध्यात्म की सजीव प्रतिमा के रूप में हमें समझा है और उस तत्त्वज्ञान को अपनाये जाने का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है? उसे समझने- समझाने के लिए एक जीवन्त उदाहरण सामने पाया है। साधना से सिद्धि के सिद्धांत पर जिन्हें अनेकों संदेह थे, जो फल श्रुतियों को प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देखते थे, उन्हें ऋद्धि- सिद्धियों की बात कपोल- कल्पना भर लगती थी, ऐसे निराश, उदास, दुःखी, असंतुष्ट, अन्यमनस्क और अविश्वास की ओर चल पड़े लोगों में से अनेकों ने अपने विचार बदले हैं। प्रत्यक्ष परिणति देखकर उनके डगमगाते हुए पैर रुके हैं। अब जब वह प्रत्यक्ष प्रकाश भी बुझने जा रहा है, तो किसी दूसरे का कब किस प्रकार वह विश्वास और साहस प्राप्त कर सकेगा, जो पिछले दिनों करता रहा है?
[सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान युगऋषि कायारूप में लोगों से मिल जुल नहीं रहे थे। लेकिन चेतना स्तर पर वे जनसामान्य से लेकर विशिष्ट सहयोगियों तक के मनों का अध्ययन कितनी गहराई से कर रहे थे, यह तथ्य यहाँ स्पष्ट होता है। यही नहीं, वे उन सब के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी अनुभव करते हैं और सहज संवेदना के नाते सबके समुचित समाधान का भी प्रयास करते हैं।] ऐसे- ऐसे अनेकों आक्षेप, असमंजस इस नये निर्णय से उठते हैं। विगत वसंत पर्व से यह नया निर्णय घोषित होने के उपरान्त फरवरी, मार्च एवं अप्रैल के महीनों में जितने भी प्रज्ञा परिजन वसन्त के सत्रों में अथवा सहानुभूतिवश शांतिकुंज आये हैं, उन सबके चेहरों पर इस असमंजस को उभरता देखा गया है। उचित समझा गया कि उसका निराकरण समय रहते कर दिया जाय। विपन्न मनोदशा में न स्वयं ही रहना चाहिए और न दूसरों को रहने देना चाहिये। यही उचित है। यह लेखमाला विशेष रूप से इसी निराकरण हेतु लिखी गई है।
[सैद्धान्तिक रूप में आत्मा और काया के सम्बन्धों का सार संक्षेप प्रस्तुत करने के बाद ऋषि स्वयं को आत्मा के रूप में अनुभव करते हुए अपने तथा अपने शरीर के तालमेल पर प्रकाश डालते हैं तथा इस अनन्य सहयोगी के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हैं।]
अपने को भी यह शरीर लेकर जन्मना पड़ा और जो कुछ भी भला- बुरा बन पड़ा है, सो इसी के माध्यम से सम्पन्न किया है। इसे निरोग और दीर्घजीवी रखने के लिए ईमानदारी और सतर्कता के साथ प्रयत्न किया है। सदा इसे स्रष्टा की अमानत माना और उसमें सन्निहित क्षमताओं को उभारते हुए श्रेष्ठतम सदुपयोग का ध्यान रखा है। आत्मोत्कर्ष और लोकमंगल के निमित्त जो प्रयास बन पड़े हैं, उनके पीछे प्रेरणा तो चेतना में से ही उभरी है, पर श्रम तो शरीर को ही करना पड़ा है।
इसलिए इस अनन्य सेवक और परम सहयोगी शरीर के प्रति हमारा घनिष्ठ मैत्री भाव है। इसके प्रति असीम स्नेह और सम्मान भी। इसे सार्थक और श्रेयाधिकारी बनाने के लिए कुछ उठा नहीं रखा है। जीवन को निरर्थक मानने, उसे भारभूत समझने की भूल कभी भी नहीं की। मल- मूत्र की गठरी इसे कोई भी क्यों न कहता रहे, झंझटों से निपटने के लिए मरने की प्रतीक्षा अन्य कोई भले ही करता रहे, पर अपने मन में ऐसे विचार कभी भी नहीं उठे। न मरने की जल्दी पड़ी और न इसे भार- भूत समझकर ऐसे ही खीजते- खिजाते दिन गुजारे। समय के एक- एक क्षण का सदुपयोग करने की बात हर समय ध्यान में रही। सोचा जाता रहा कि स्रष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति का अनुदान मिला है, तो इसी जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्यों न कर लिया जाय। गिनी हुई साँसें मिली हैं। इनका सदुपयोग करने में ही बुद्धिमानी है। जब बुद्धि मिल ही गई, तो जीवन की हर इकाई का, हर साँस का श्रेष्ठतम प्रयोग करने में क्यों चूका जाय? यही चिंतन सिर पर सदा छाया रहा, फलतः समय कदाचित् ही कभी निरर्थक गया हो। शरीर को नित्यकर्म और आवश्यक क्षणिक विश्राम के उपरान्त कदाचित् ही कभी खाली रहने दिया गया हो। इसका सन्तोष है।
तरह- तरह के असमंजस-
सर्वप्रथम अपने को- जिसने आजीवन एक से एक बढ़कर कठिन और महत्त्वपूर्ण काम करने की आदत डाली और प्रसन्नता अनुभव की हो, उसको समर्थ रहते निष्क्रिय होकर बैठना कितना कठिन पड़ेगा। कितना मन मारना पड़ेगा। इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। निष्क्रिय पड़े लोहे को जंग खा जाती है। प्रकृति के नियम सब पर एक समान लागू होते हैं। निठल्लापन चढ़ते ही हाथ- पैर जकड़ सकते हैं, ऊब चढ़ सकती है, भारभूत जिन्दगी जल्दी समाप्त हो सकती है।
द्वितीय वर्ग वह आता है, जो हमें लोकसेवक की दृष्टि से देखता है। उसे आघात लगेगा- स्थूल दृष्टि से करनी और कथनी में अन्तर देखकर अपने द्वारा हर किसी को युग धर्म निभाने के समय निकालने के उपदेश दिये जाते रहे हैं। लाखों ने उन्हें अपनाया भी है। तथाकथित भजनानन्दी लोगों को कुटिया छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने की प्रेरणा मिली है। जिनके पास जो समय बचता है, उसे जन कल्याण में लगाने का नया व्रत लिया है औरों को ऐसा उपदेश देने के उपरान्त स्वयं एकान्तसेवी बन जाना, हर किसी को अटपटा लगेगा। सामने न सही पीठ पीछे तो लोग इसमें करनी और कथनी का अंतर देखेंगे ही और जो मन में है, उसे प्रकट भी करेंगे। इस प्रकार प्रशंसा निन्दा में बदलेगी। कहने वाले इसे समाज के साथ विश्वासघात भी कहेंगे। जिनके पास है और वे दें नहीं, तो कृपण या निष्ठुर कहे जाते हैं, ऐसा लांछन अपने ऊपर भी तो लग सकता है। संचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा पर इस कारण हड़ताल और फिर कालिख भी पुत सकती है।
तीसरा वर्ग वह है कि जो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर साथ देता और साथ चलता रहा है। इस वर्ग में से जो अधिक साहसी हैं, वे प्रथम पंक्ति में आकर जीवनदानी बने हैं। शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस एवं गायत्री तपोभूमि में आकर रह रहे हैं। सन्त और ब्राह्मण की जीवनचर्या जिनने अपनाई है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह और बारह घण्टे जमकर काम करने का जिनने ऋषि- मुनियों जैसा जीवनक्रम अपनाया है। फिर ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैं, जो हरिद्वार तो नहीं बुलाये गये, पर अपने- अपने कार्यक्षेत्रों में रहकर काम करने के लिए नियुक्त कर दिये गये हैं। प्रज्ञा पीठों का संचालन प्रायः ऐसे ही लोग कर रहे हैं। वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों की परिव्राजक की भूमिका निरन्तर निभा रहे हैं।
चौथा वर्ग समाज सेवा से जिनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, जो व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हैं, जो पत्रिकाओं के- साहित्य के माध्यम से प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, जो पत्र- व्यवहार द्वारा गुत्थियों को सुलझाने और सुखी- समुन्नत बनने के लिए प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। जिनका सहज स्नेह है वे ऐसे ही जब मन में उमंग उठती है, तब हरिद्वार अकारण भी दौड़ पड़ते हैं। तीर्थयात्रा पर्यटन के बहाने परिवार को लेकर हजारों- लाखों हर वर्ष आते हैं। ठहरने की सुविधा शहर में होते हुए भी ढेरों मार्ग व्यय और आने जाने का झंझट उठाते हुए भी शांतिकुंज पहुँचते हैं, ठहरते हैं। इस समुदाय में हैरानियों से राहत पाने के इच्छुक ही नहीं, उत्साहवर्धक प्रगति पथ प्राप्त करने के उत्सुक ही नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका सहज स्नेह है। वह स्नेह ही उन्हें ढेरों पैसा और समय खर्च करके दर्शन करने का नाम लेकर एक बार नहीं, बार- बार आने को विवश करता है। इनकी सहज और सघन आत्मीयता सहज ही जानी और छलकती देखी जा सकती है।
इस समुदाय को जब विदित होगा कि निष्क्रियता ही नहीं अपनाई गई, मिल- जुल कर बोलना, बात करना भी बन्द कर दिया गया, तो निश्चित ही उन्हें चोट लगेगी। जो लोग हमें प्रेम, बटोरने और लुटाने वाला मानते रहे हैं, उन्हें नीरस- निष्ठुर कहते भी देर न लगेगी। इसमें उनका कसूर भी नहीं है, जो आँखों के सामने प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, उसे झुठलाया भी कैसे जाय?
हरिद्वार से शान्तिकुंज जाने वाले ताँगे- रिक्शे वाले तक यह कहते सुने गये हैं कि गुरुजी अब समाधि ले रहे हैं, तो हरिद्वार के सबसे अधिक चहल -पहल वाले आश्रम में भी सन्नाटा छा जायेगा। जब वे मिलेंगे- दिखेंगे ही नहीं, तो दर्शनार्थियों- शिविरार्थियों की भीड़ क्यों आयेगी? हमारी भी रोजी- रोटी में कटौती होगी और आश्रम की शोभा महत्ता तो घट ही जायेगी। ईर्ष्यालुओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। वे तरह- तरह की नुक्ताचीनी करते रहने का एक बहाना तो पा जाते थे। अब बहाना भी न रहेगा, तो चुहल- बाजों का एक प्रसंग भी हाथ से चला जायेगा। अब किसी और को भड़ास निकालने के लिए तलाशना पड़ेगा।
पाँचवाँ वर्ग- अनेकों ने अध्यात्म की सजीव प्रतिमा के रूप में हमें समझा है और उस तत्त्वज्ञान को अपनाये जाने का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है? उसे समझने- समझाने के लिए एक जीवन्त उदाहरण सामने पाया है। साधना से सिद्धि के सिद्धांत पर जिन्हें अनेकों संदेह थे, जो फल श्रुतियों को प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देखते थे, उन्हें ऋद्धि- सिद्धियों की बात कपोल- कल्पना भर लगती थी, ऐसे निराश, उदास, दुःखी, असंतुष्ट, अन्यमनस्क और अविश्वास की ओर चल पड़े लोगों में से अनेकों ने अपने विचार बदले हैं। प्रत्यक्ष परिणति देखकर उनके डगमगाते हुए पैर रुके हैं। अब जब वह प्रत्यक्ष प्रकाश भी बुझने जा रहा है, तो किसी दूसरे का कब किस प्रकार वह विश्वास और साहस प्राप्त कर सकेगा, जो पिछले दिनों करता रहा है?
[सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान युगऋषि कायारूप में लोगों से मिल जुल नहीं रहे थे। लेकिन चेतना स्तर पर वे जनसामान्य से लेकर विशिष्ट सहयोगियों तक के मनों का अध्ययन कितनी गहराई से कर रहे थे, यह तथ्य यहाँ स्पष्ट होता है। यही नहीं, वे उन सब के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी अनुभव करते हैं और सहज संवेदना के नाते सबके समुचित समाधान का भी प्रयास करते हैं।] ऐसे- ऐसे अनेकों आक्षेप, असमंजस इस नये निर्णय से उठते हैं। विगत वसंत पर्व से यह नया निर्णय घोषित होने के उपरान्त फरवरी, मार्च एवं अप्रैल के महीनों में जितने भी प्रज्ञा परिजन वसन्त के सत्रों में अथवा सहानुभूतिवश शांतिकुंज आये हैं, उन सबके चेहरों पर इस असमंजस को उभरता देखा गया है। उचित समझा गया कि उसका निराकरण समय रहते कर दिया जाय। विपन्न मनोदशा में न स्वयं ही रहना चाहिए और न दूसरों को रहने देना चाहिये। यही उचित है। यह लेखमाला विशेष रूप से इसी निराकरण हेतु लिखी गई है।