Books - युगऋषि की सूक्ष्मीकरण साधना
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दार्शनिकों-वैज्ञानिकों की दिशा बदलनी ही होगी
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किसी समय मुनि, मनीषी और दार्शनिक समाज के सर्वोच्च वर्ग में गिने जाते थे; क्योंकि उन्हीं के प्रतिपादन शासनाध्यक्षों तथा अन्यान्य विशिष्ट वर्गों को मान्य होते थे। उनकी अवज्ञा करने का दुस्साहस कोई करता नहीं था; क्योंकि समय के अनुरूप राह बताने और निर्धारण करने की उनकी क्षमता असाधारण भी होती थी और उनका वर्चस्व भी था।
दार्शनिक इसी श्रेणी में आते थे। वे शास्त्र रचते थे और सामयिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते थे। प्रवचन के लिए व्यास पीठों पर उन्हीं का अधिकार था। राजा से लेकर रंक तक उनकी असामान्य मान्यता थी। आज भी यह वर्ग लेखकों, कवियों, कलाकारों के रूप में है तो सही, पर अपनी गरिमा गँवा बैठा है। उसका अपना न तो स्तर है, न लक्ष्य। इनमें से अधिकांश को धनाध्यक्षों की सेवा में चारणों की तरह निरत रहना पड़ता है। जो उनसे सोचने के लिए कहते हैं सो ही वे सोचते हैं, जो लिखने का निर्देश मिलता है सो ही लिखते हैं।
चूँकि प्रेस प्रकाशन एक व्यवसाय बन गया है और व्यवसाय सदा धनिक चलाते हैं। जो संचालक है उसी की नीति भी चलेगी। इन दिनों अनेक पत्र- पत्रिकाएँ निकलती हैं। पुस्तकें भी छपती हैं। पर उनमें लेखक की अपनी कोई स्वतन्त्र आवाज नहीं। प्रकाशक को जिसमें अपना लाभ दीखता है, लेखक वही लिखता है; क्योंकि पैसा उसे अपने मालिक की मर्जी के अनुरूप लिखने को मिलता है। अब स्वतन्त्र लेखक रह नहीं गये हैं, जो अपनी मर्जी से लिखें। यदि मर्जी हो भी तो वह मालिक की मर्जी से भिन्न नहीं होनी चाहिए। अन्यथा मालिक ऐसे धन्धे में पैसा क्यों लगायेगा? जिसमें उसे लाभ नहीं दिखता। लेखक का अपना निज का कोई प्रेस नहीं। जो कहीं, जहाँ- तहाँ हैं, वे प्रतिस्पर्धा में ठहर न पाने के कारण लँगड़े- लूले ज्यों करके चलते हैं। उन्हें न ग्राहक मिलते हैं और न खपत का जुगाड़ बनता है। ऐसी दशा में स्वतन्त्र प्रेस का अस्तित्व प्रायः नहीं के बराबर है। लेखक, चिन्तक या दार्शनिक अब घटते या मिटते जा रहे हैं।
मनीषियों का दूसरा वर्ग वैज्ञानिकों का है। पुरातन काल में वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की जिम्मेदारी एक ही वर्ग उठाता था। जिनकी रुचि भौतिक क्षेत्र में होती वे चरक, कणाद, नागार्जुन, याज्ञवल्क्य, द्रोणाचार्य आदि की तरह भौतिक अनुसन्धानों को हाथ में लेते थे। अन्यथा व्यास, कपिल, वसिष्ठ, गौतम की तरह युग दर्शन में नये अध्याय जोड़ते रहते थे।
प्रतिभा का भटकाव-
इन दिनों दोनों की ही दुर्गति हुई है। वैज्ञानिक आविष्कारकों की एक पीढ़ी बहुत ही प्रसिद्ध और कृतकृत्य हुई थी। उसने सामान्य योग्यता रहते हुए भी ऐसे आविष्कार किये थे, जिससे जन- साधारण को असीम और असाधारण लाभ पहुँचा। बिजली का आविष्कार उसमें सर्वाधिक महत्त्व का है। अब वह मनुष्य जीवन का अविच्छिन्न अंग बनकर रह रही है। इसके बाद वाहनों का नम्बर आता है। साइकिल से लेकर रेल, मोटर, जलयान, वायुयान इसी स्तर के हैं, जिनने लम्बी यात्राएँ सरल बना दीं। भार वहन का खर्च भी बहुत कम कर दिया। फलतः व्यापार तेजी से पनपने लगे। टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन की उपयोगिता ऐसी ही है। एक युग था जब मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में वैज्ञानिकों ने— उनके आविष्कारकों ने असाधारण सेवा- सहायता की। उत्पादन में काम आने वाले अनेक छोटे- बड़े यन्त्र भी ऐसे हैं, जिनके लिए मनुष्य जाति उनकी सदा कृतज्ञ रहेगी। कोल्हू, चक्की, पम्प आदि की गणना ऐसे ही संयन्त्रों में होती है।
किन्तु वह वर्ग भी अपनी गरिमा दार्शनिकों की तरह अक्षुण्ण बनाये न रह सका। आविष्कारकों का अपना कोई उत्पादन क्षेत्र न था। उन्हें उत्पादक धनाध्यक्षों के लिए काम करने के लिए बाधित होना पड़ा। बात यहीं से गड़बड़ी की आरम्भ होती है। फिल्म उद्योग लोकशिक्षण का एक उपयोगी माध्यम हो सकता था, पर उसके उत्पादनों को देखकर दुःख होता है। फिल्म दर्शक और साहित्य पाठक अन्ततः इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि यदि इनसे दूर रहते तो भ्रम जंजाल से बचकर कहीं अधिक नफे में रहते।
इन दिनों प्रायः पचास हजार ऊँची श्रेणी के वैज्ञानिक मात्र युद्ध आयुध बनाने की नई- नई विधियाँ खोजने में निरत हैं। उन्हें इसके लिए पूरा सम्मान और पूरा पैसा दिया जा रहा है। इतना वे अन्यत्र कहीं नहीं पा सकते। इसलिए मौलिक चिन्तन के सुनियोजन का रास्ता ही बन्द है। सरलता और सुख- सुविधा हर किसी को प्रिय लगती है। चाहे दार्शनिक हो या वैज्ञानिक। स्थिति को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि दोनों ही क्षेत्रों में मौलिक विचारकता समाप्त प्राय हो गई। दोनों को ही अपने मालिकों और धनाध्यक्षों के लिए काम करना पड़ रहा है।
इस दुर्गति से उबारना ही होगा- यह दुर्भाग्य पूर्ण दुर्गति है। इससे उबरा कैसे जाय? उबारे कौन? वैज्ञानिकों के लिए कुटीर उद्योग से सम्बन्धित अगणित यन्त्र ऐसे बनाने के लिए पड़े हैं जिन्हें बनाया जा सके, तो असंख्यों को बेकारी से त्राण पाने का अवसर मिले और अभावजन्य कठिनाइयों से पीछा छूटे। घरेलू आटा चक्की, घरेलू तेल कोल्हू, घरेलू चरखा, करघा, लुहारी, बढ़ईगीरी की मशीनें, कुम्हार के चाक जैसे यन्त्र ऐसे निकल सकते हैं, जिनके सहारे सामान्य जीवन की सुविधा भी बढ़े और आमदनी भी। सस्ते पम्प सेटों की हर जगह आवश्यकता है। कागज बनाने का उद्योग हर देहात में चल सकता है। सूर्य की गर्मी से चालित भट्ठी एवं चूल्हे से मुफ्त में गरम पानी मिलने और वस्तुएँ पकाने- सुखाने का काम हो सकता है।
इन सब कार्यों में अपने वैज्ञानिक पूरी तरह समर्थ हो सकते हैं और उन यन्त्रों के उत्पादन का एक नया बड़ा उद्योग चल सकता है। पर ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। जो कुटीर उद्योग के नाम पर बना हुआ है वह इतना लँगड़ा, लूला है कि लगाने वालों की कमर तोड़कर उसे मजा चखा देता है। इन सभी उपकरणों के निर्माताओं का- आविष्कारकों का पारस्परिक सहयोग यदि सच्चे मन से हुआ होता और उसके लिए आवश्यक पूँजी जुट सकी होती, प्रयोक्ताओं को व्यावहारिक शिक्षा मिल सकी होती, सहकारी माध्यमों से कच्चा माल देने और बनी वस्तुएँ लेने का, उपयुक्त मण्डियों में बेचने का यदि प्रबन्ध हुआ होता, तो परिस्थितियाँ कुछ और हुई होतीं। तब हम मात्र कृषि पर निर्भर न रहते। गोबर के अतिरिक्त दूसरे सस्ते वानस्पतिक खाद भी आविष्कृत कर रहे होते। पशुओं के लिए खेतों में सस्ती और अधिक फसल वर्ष भर देने वाली घास उगाते और पशुपालन घाटे का सौदा न रहा होता।
[जागरूक पाठकगण यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं कि ९० के दशक से इस दिशा में पर्याप्त प्रयास हुए हैं तथा इक्कीसवीं सदी प्रारंभ होने तक काफी कुछ सफल शोध प्रयोग हुए हैं। जन सामान्य ने उक्त शोध प्रयोगों का लाभ उठाना शुरू कर दिया है।]
शिकायतें कौन किसकी करे? पर गुंजाइश इस बात की पूरी- पूरी है कि देश को कुटीर उद्योग स्तर पर योजनाबद्ध ढंग से खड़ा किया जाय। यों चलने को तो यह सब कुछ अभी भी चल रहा है, पर उसे अपर्याप्त और असन्तोषजनक ही कहा जा सकता है। जापान जैसी लगन हमारे वैज्ञानिकों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं की लगी होती, तो अपने देश के मनीषी ही इस क्षेत्र में चमत्कार करके दिखा सकते थे। पर बने कैसे? जबकि सबको अधिक कमाने की, हाथों- हाथ सुविधा समेटने की पड़ी है। प्रतिभाएँ विदेशों को- पूँजीवादी राष्ट्रों की ओर भागती चली जा रही हैं। कुटीर उद्योग जहाँ भी चल रहे हैं, घाटा दे रहे हैं। जिनने पैर बढ़ाया उनका जोश ठण्डा कर रहे हैं।
यही बात दार्शनिकों- मनीषियों के सम्बन्ध में भी है। समय जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से समस्याएँ भी उपजी तथा उलझी हैं। वे सभी अपने समाधान चाहती हैं- बुद्धि संगत, व्यावहारिक और तथ्यों पर निर्धारित। ऐसे मार्गदर्शन का साहित्य लिखा गया होता, छपता और पाठकों तक उचित मूल्य में पहुँचता तो कैसा अच्छा होता? पर दिखता इस क्षेत्र में भी अँधेरा ही है।
पुस्तकों के नाम पर पहाड़ के बराबर हर दिन कागज काला होता है। पत्र- पत्रिकाएँ भी आये दिन एक गोदाम खाली कर देती हैं। वह छपता भी है और बिकता भी है। इसे कोई न कोई लिखता भी है पर आदि से अन्त तक इस मुद्रण- प्रकाशन की समीक्षा की जाय, तो निराशा ही हाथ लगती है।
जिन व्यावहारिक जानकारियों की जन- साधारण को आवश्यकता है, क्या वे गम्भीरतापूर्वक सोची- समझी गई हैं और इन पर अपने पिछड़े देश की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए कुछ ऐसा प्रस्तुतीकरण हुआ है, जिसे काम का कहा जा सके? अँग्रेजी किताबों के पन्ने उलट- पुलट कर उनका भाषान्तर होता रहता है और लोग अपने नामों से छापते रहते हैं। कम समय में अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करने की दृष्टि से यही तरीका सरल भी पड़ता है। अब उन मनीषियों की पीढ़ी मिटती चली जा रही है, जो जन समस्याओं पर सामयिक, व्यावहारिक एवं तथ्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण अपना कर्तव्य समझते थे। अब वे कार्ल मार्क्स कहाँ हैं, जो सत्रह वर्ष की निरन्तर परिश्रम साधना कर एक ग्रन्थ लिखें। अब वे परिवार, पत्नी, बच्चे कहाँ हैं, जो पुराने कपड़ों को काटकर नये कपड़े बनायें और अपना पेट पालते हुए लेखक को अपनी तपस्या में लगा रहने दें।
दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का क्षेत्र सूना हो जाना अथवा उनका अपने स्तर से नीचे उतर आना, भटक जाना बहुत ही बुरी बात है। इस स्तर के ब्रह्मचेता लोग जब भटकते हैं और दिशा भ्रम देने वाला- हैरानी में धकेलने वाला कर्तृत्व रचते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत भयंकर होती है। पुराने जमाने में उन्हें ब्रह्मराक्षस कहा जाता था। अब वैसा कोई नया नामकरण हुआ है या नहीं, इसका पता नहीं, पर पीढ़ी निःसंदेह उन्हीं की बढ़ रही है।
[युगऋषि बहुधा यह कहते रहे हैं कि यह देश ब्रह्म -राक्षसों द्वारा सताया गया है। इसका अर्थ होता है, ऐसे व्यक्ति जो प्रत्यक्ष ब्राह्मण दिखते हैं, किन्तु उनके परोक्ष कार्य राक्षसों जैसे हैं। देव संस्कृति में ब्राह्मण जन्म जाति से नहीं गुण, कर्म के अनुसार माने जाते रहे हैं। ब्राह्मण का अर्थ होता है- ऐसा प्रतिभाशाली, आदर्शनिष्ठ व्यक्ति जिसने अपनी आवश्यकताएँ बहुत सीमित कर ली है तथा शेष पूरी सामर्थ्य लोकहित के लिए समर्पित कर दी है। लोगों को आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणा देने, शिक्षा, चिकित्सा जैसे कार्य ब्राह्मणों के जिम्मे रहा करते थे। वे किसी कार्य को व्यवसाय नहीं बनाते थे, सेवा के बदले केवल सादगीपूर्ण निर्वाह भर लेते थे, इसलिए अपने महान दायित्व के साथ न्याय कर पाते थे।कालान्तर में वह परम्परा विकृत हुई। सेवा कार्य व्यवसाय बुद्धि से किये जाने लगे। लोभ- मोह में पड़कर ब्राह्मण कर्मी जनहित को भूलकर शासकों, सम्पन्नवानों के संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति करने लगे। शोषण उत्पीड़न के माध्यम बनकर तो ब्राह्मण दिखने वाले प्रतिभा सम्पन्न राक्षसी कार्यों में भागीदार बनने लगें, तो उन्हें ब्रह्मराक्षस कहा जाने लगा।] पर्यवेक्षण के साथ सार्थक प्रयास-
यह वस्तुस्थिति का पर्यवेक्षण हुआ। इतने भर से बात क्या बनती है? समीक्षाएँ, भर्त्सनाएँ आये दिन होती रहती हैं। उन्हें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। होना तो कुछ ऐसा चाहिए, जिससे काम बने। हम अब वही करने जा रहे हैं। वैज्ञानिक और दार्शनिक हमारी एक मुहिम में हैं। वैज्ञानिकों को भड़कायेंगे कि युद्ध के घातक शस्त्र बनाने में उनकी बुद्धि सहयोग देना बंद कर दे। गाड़ी अधर में लटक जाये।
युद्धोन्माद ग्रस्त- दोनों पक्ष इसी फिराक में हैं कि उनके वैज्ञानिक ऐसे अमोघ उपाय निकाल लेंगे, जिससे अपनी जीत निश्चित रहे और सामने वाला अपंग होकर बैठा रहे। सूक्ष्मीकरण के उपरांत अब हम वैसा न होने देंगे। उच्चस्तरीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा और सूझ-बूझ उन्हें वैसा न करने देगी। जैसा कि अपेक्षा की जा रही है। अब उनका मस्तिष्क ऐसे छोटे उपकरण बनाने की ओर लौटेगा, जिससे कुटीर उद्योगों को सहायता देने वाला नया माहौल उफन पड़े। इसका उदाहरण देने के लिए एक नमूना अपने सामने बनाकर जायेंगे।
[युगऋषि ने शांतिकुंज में प्रतीकात्मक रूप में लोकसेवी (युग शिल्पी) के साथ कुटीर उद्योग प्रशिक्षण भी उन्हीं दिनों चालू कर दिया गया था। उनकी अनेक धाराएँ विकसित हो रही हैं। देवसंस्कृति विश्व विद्यालय में ग्राम स्वावलम्बन, ग्राम प्रबन्धन का पाठ्यक्रम भी चालू कर दिया गया है।]
लेखकों, दार्शनिकों का अब एक नया वर्ग उठेगा, वह अपनी प्रतिभा के बलबूते एकाकी सोचने और एकाकी लिखने का प्रयत्न करेगा। उन्हें उद्देश्य में सहायता मिलेगी। मस्तिष्क के कपाट खुलते जायेंगे और उन्हें सूझ पड़ेगा कि इन दिनों क्या लिखने योग्य है? एक मात्र वही लिखा जाना है।
क्या बिना सम्पन्न लोगों की सहायता लिये, बिना वर्तमान पुस्तक विक्रेताओं की मोटे मुनाफे की माँग पूरी किये, ऐसा हो सकता है कि जनसाधारण का उपयोगी लोक साहित्य लागत मूल्य पर छपने लगे और घर-घर तक पहुँचने लगे? हमारा विश्वास है कि यह असंभव नहीं है। समय अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए रास्ता निकालेगा और छाये हुए अँधेरे में किसी चमकने वाले सितारे का प्रकाश दृष्टिगोचर होगा।
दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों ही मुड़ेंगे। इन दिनों खदानों में से ऐसे नररत्न निकलेंगे, जो उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में आश्चर्यजनक योगदान दे सकें। ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित करने में हमारा योगदान होगा, भले ही परोक्ष होने के कारण लोग इसे देख या समझ न सकें।
दार्शनिक इसी श्रेणी में आते थे। वे शास्त्र रचते थे और सामयिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते थे। प्रवचन के लिए व्यास पीठों पर उन्हीं का अधिकार था। राजा से लेकर रंक तक उनकी असामान्य मान्यता थी। आज भी यह वर्ग लेखकों, कवियों, कलाकारों के रूप में है तो सही, पर अपनी गरिमा गँवा बैठा है। उसका अपना न तो स्तर है, न लक्ष्य। इनमें से अधिकांश को धनाध्यक्षों की सेवा में चारणों की तरह निरत रहना पड़ता है। जो उनसे सोचने के लिए कहते हैं सो ही वे सोचते हैं, जो लिखने का निर्देश मिलता है सो ही लिखते हैं।
चूँकि प्रेस प्रकाशन एक व्यवसाय बन गया है और व्यवसाय सदा धनिक चलाते हैं। जो संचालक है उसी की नीति भी चलेगी। इन दिनों अनेक पत्र- पत्रिकाएँ निकलती हैं। पुस्तकें भी छपती हैं। पर उनमें लेखक की अपनी कोई स्वतन्त्र आवाज नहीं। प्रकाशक को जिसमें अपना लाभ दीखता है, लेखक वही लिखता है; क्योंकि पैसा उसे अपने मालिक की मर्जी के अनुरूप लिखने को मिलता है। अब स्वतन्त्र लेखक रह नहीं गये हैं, जो अपनी मर्जी से लिखें। यदि मर्जी हो भी तो वह मालिक की मर्जी से भिन्न नहीं होनी चाहिए। अन्यथा मालिक ऐसे धन्धे में पैसा क्यों लगायेगा? जिसमें उसे लाभ नहीं दिखता। लेखक का अपना निज का कोई प्रेस नहीं। जो कहीं, जहाँ- तहाँ हैं, वे प्रतिस्पर्धा में ठहर न पाने के कारण लँगड़े- लूले ज्यों करके चलते हैं। उन्हें न ग्राहक मिलते हैं और न खपत का जुगाड़ बनता है। ऐसी दशा में स्वतन्त्र प्रेस का अस्तित्व प्रायः नहीं के बराबर है। लेखक, चिन्तक या दार्शनिक अब घटते या मिटते जा रहे हैं।
मनीषियों का दूसरा वर्ग वैज्ञानिकों का है। पुरातन काल में वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की जिम्मेदारी एक ही वर्ग उठाता था। जिनकी रुचि भौतिक क्षेत्र में होती वे चरक, कणाद, नागार्जुन, याज्ञवल्क्य, द्रोणाचार्य आदि की तरह भौतिक अनुसन्धानों को हाथ में लेते थे। अन्यथा व्यास, कपिल, वसिष्ठ, गौतम की तरह युग दर्शन में नये अध्याय जोड़ते रहते थे।
प्रतिभा का भटकाव-
इन दिनों दोनों की ही दुर्गति हुई है। वैज्ञानिक आविष्कारकों की एक पीढ़ी बहुत ही प्रसिद्ध और कृतकृत्य हुई थी। उसने सामान्य योग्यता रहते हुए भी ऐसे आविष्कार किये थे, जिससे जन- साधारण को असीम और असाधारण लाभ पहुँचा। बिजली का आविष्कार उसमें सर्वाधिक महत्त्व का है। अब वह मनुष्य जीवन का अविच्छिन्न अंग बनकर रह रही है। इसके बाद वाहनों का नम्बर आता है। साइकिल से लेकर रेल, मोटर, जलयान, वायुयान इसी स्तर के हैं, जिनने लम्बी यात्राएँ सरल बना दीं। भार वहन का खर्च भी बहुत कम कर दिया। फलतः व्यापार तेजी से पनपने लगे। टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन की उपयोगिता ऐसी ही है। एक युग था जब मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में वैज्ञानिकों ने— उनके आविष्कारकों ने असाधारण सेवा- सहायता की। उत्पादन में काम आने वाले अनेक छोटे- बड़े यन्त्र भी ऐसे हैं, जिनके लिए मनुष्य जाति उनकी सदा कृतज्ञ रहेगी। कोल्हू, चक्की, पम्प आदि की गणना ऐसे ही संयन्त्रों में होती है।
किन्तु वह वर्ग भी अपनी गरिमा दार्शनिकों की तरह अक्षुण्ण बनाये न रह सका। आविष्कारकों का अपना कोई उत्पादन क्षेत्र न था। उन्हें उत्पादक धनाध्यक्षों के लिए काम करने के लिए बाधित होना पड़ा। बात यहीं से गड़बड़ी की आरम्भ होती है। फिल्म उद्योग लोकशिक्षण का एक उपयोगी माध्यम हो सकता था, पर उसके उत्पादनों को देखकर दुःख होता है। फिल्म दर्शक और साहित्य पाठक अन्ततः इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि यदि इनसे दूर रहते तो भ्रम जंजाल से बचकर कहीं अधिक नफे में रहते।
इन दिनों प्रायः पचास हजार ऊँची श्रेणी के वैज्ञानिक मात्र युद्ध आयुध बनाने की नई- नई विधियाँ खोजने में निरत हैं। उन्हें इसके लिए पूरा सम्मान और पूरा पैसा दिया जा रहा है। इतना वे अन्यत्र कहीं नहीं पा सकते। इसलिए मौलिक चिन्तन के सुनियोजन का रास्ता ही बन्द है। सरलता और सुख- सुविधा हर किसी को प्रिय लगती है। चाहे दार्शनिक हो या वैज्ञानिक। स्थिति को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि दोनों ही क्षेत्रों में मौलिक विचारकता समाप्त प्राय हो गई। दोनों को ही अपने मालिकों और धनाध्यक्षों के लिए काम करना पड़ रहा है।
इस दुर्गति से उबारना ही होगा- यह दुर्भाग्य पूर्ण दुर्गति है। इससे उबरा कैसे जाय? उबारे कौन? वैज्ञानिकों के लिए कुटीर उद्योग से सम्बन्धित अगणित यन्त्र ऐसे बनाने के लिए पड़े हैं जिन्हें बनाया जा सके, तो असंख्यों को बेकारी से त्राण पाने का अवसर मिले और अभावजन्य कठिनाइयों से पीछा छूटे। घरेलू आटा चक्की, घरेलू तेल कोल्हू, घरेलू चरखा, करघा, लुहारी, बढ़ईगीरी की मशीनें, कुम्हार के चाक जैसे यन्त्र ऐसे निकल सकते हैं, जिनके सहारे सामान्य जीवन की सुविधा भी बढ़े और आमदनी भी। सस्ते पम्प सेटों की हर जगह आवश्यकता है। कागज बनाने का उद्योग हर देहात में चल सकता है। सूर्य की गर्मी से चालित भट्ठी एवं चूल्हे से मुफ्त में गरम पानी मिलने और वस्तुएँ पकाने- सुखाने का काम हो सकता है।
इन सब कार्यों में अपने वैज्ञानिक पूरी तरह समर्थ हो सकते हैं और उन यन्त्रों के उत्पादन का एक नया बड़ा उद्योग चल सकता है। पर ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। जो कुटीर उद्योग के नाम पर बना हुआ है वह इतना लँगड़ा, लूला है कि लगाने वालों की कमर तोड़कर उसे मजा चखा देता है। इन सभी उपकरणों के निर्माताओं का- आविष्कारकों का पारस्परिक सहयोग यदि सच्चे मन से हुआ होता और उसके लिए आवश्यक पूँजी जुट सकी होती, प्रयोक्ताओं को व्यावहारिक शिक्षा मिल सकी होती, सहकारी माध्यमों से कच्चा माल देने और बनी वस्तुएँ लेने का, उपयुक्त मण्डियों में बेचने का यदि प्रबन्ध हुआ होता, तो परिस्थितियाँ कुछ और हुई होतीं। तब हम मात्र कृषि पर निर्भर न रहते। गोबर के अतिरिक्त दूसरे सस्ते वानस्पतिक खाद भी आविष्कृत कर रहे होते। पशुओं के लिए खेतों में सस्ती और अधिक फसल वर्ष भर देने वाली घास उगाते और पशुपालन घाटे का सौदा न रहा होता।
[जागरूक पाठकगण यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं कि ९० के दशक से इस दिशा में पर्याप्त प्रयास हुए हैं तथा इक्कीसवीं सदी प्रारंभ होने तक काफी कुछ सफल शोध प्रयोग हुए हैं। जन सामान्य ने उक्त शोध प्रयोगों का लाभ उठाना शुरू कर दिया है।]
शिकायतें कौन किसकी करे? पर गुंजाइश इस बात की पूरी- पूरी है कि देश को कुटीर उद्योग स्तर पर योजनाबद्ध ढंग से खड़ा किया जाय। यों चलने को तो यह सब कुछ अभी भी चल रहा है, पर उसे अपर्याप्त और असन्तोषजनक ही कहा जा सकता है। जापान जैसी लगन हमारे वैज्ञानिकों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं की लगी होती, तो अपने देश के मनीषी ही इस क्षेत्र में चमत्कार करके दिखा सकते थे। पर बने कैसे? जबकि सबको अधिक कमाने की, हाथों- हाथ सुविधा समेटने की पड़ी है। प्रतिभाएँ विदेशों को- पूँजीवादी राष्ट्रों की ओर भागती चली जा रही हैं। कुटीर उद्योग जहाँ भी चल रहे हैं, घाटा दे रहे हैं। जिनने पैर बढ़ाया उनका जोश ठण्डा कर रहे हैं।
यही बात दार्शनिकों- मनीषियों के सम्बन्ध में भी है। समय जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से समस्याएँ भी उपजी तथा उलझी हैं। वे सभी अपने समाधान चाहती हैं- बुद्धि संगत, व्यावहारिक और तथ्यों पर निर्धारित। ऐसे मार्गदर्शन का साहित्य लिखा गया होता, छपता और पाठकों तक उचित मूल्य में पहुँचता तो कैसा अच्छा होता? पर दिखता इस क्षेत्र में भी अँधेरा ही है।
पुस्तकों के नाम पर पहाड़ के बराबर हर दिन कागज काला होता है। पत्र- पत्रिकाएँ भी आये दिन एक गोदाम खाली कर देती हैं। वह छपता भी है और बिकता भी है। इसे कोई न कोई लिखता भी है पर आदि से अन्त तक इस मुद्रण- प्रकाशन की समीक्षा की जाय, तो निराशा ही हाथ लगती है।
जिन व्यावहारिक जानकारियों की जन- साधारण को आवश्यकता है, क्या वे गम्भीरतापूर्वक सोची- समझी गई हैं और इन पर अपने पिछड़े देश की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए कुछ ऐसा प्रस्तुतीकरण हुआ है, जिसे काम का कहा जा सके? अँग्रेजी किताबों के पन्ने उलट- पुलट कर उनका भाषान्तर होता रहता है और लोग अपने नामों से छापते रहते हैं। कम समय में अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करने की दृष्टि से यही तरीका सरल भी पड़ता है। अब उन मनीषियों की पीढ़ी मिटती चली जा रही है, जो जन समस्याओं पर सामयिक, व्यावहारिक एवं तथ्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण अपना कर्तव्य समझते थे। अब वे कार्ल मार्क्स कहाँ हैं, जो सत्रह वर्ष की निरन्तर परिश्रम साधना कर एक ग्रन्थ लिखें। अब वे परिवार, पत्नी, बच्चे कहाँ हैं, जो पुराने कपड़ों को काटकर नये कपड़े बनायें और अपना पेट पालते हुए लेखक को अपनी तपस्या में लगा रहने दें।
दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का क्षेत्र सूना हो जाना अथवा उनका अपने स्तर से नीचे उतर आना, भटक जाना बहुत ही बुरी बात है। इस स्तर के ब्रह्मचेता लोग जब भटकते हैं और दिशा भ्रम देने वाला- हैरानी में धकेलने वाला कर्तृत्व रचते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत भयंकर होती है। पुराने जमाने में उन्हें ब्रह्मराक्षस कहा जाता था। अब वैसा कोई नया नामकरण हुआ है या नहीं, इसका पता नहीं, पर पीढ़ी निःसंदेह उन्हीं की बढ़ रही है।
[युगऋषि बहुधा यह कहते रहे हैं कि यह देश ब्रह्म -राक्षसों द्वारा सताया गया है। इसका अर्थ होता है, ऐसे व्यक्ति जो प्रत्यक्ष ब्राह्मण दिखते हैं, किन्तु उनके परोक्ष कार्य राक्षसों जैसे हैं। देव संस्कृति में ब्राह्मण जन्म जाति से नहीं गुण, कर्म के अनुसार माने जाते रहे हैं। ब्राह्मण का अर्थ होता है- ऐसा प्रतिभाशाली, आदर्शनिष्ठ व्यक्ति जिसने अपनी आवश्यकताएँ बहुत सीमित कर ली है तथा शेष पूरी सामर्थ्य लोकहित के लिए समर्पित कर दी है। लोगों को आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणा देने, शिक्षा, चिकित्सा जैसे कार्य ब्राह्मणों के जिम्मे रहा करते थे। वे किसी कार्य को व्यवसाय नहीं बनाते थे, सेवा के बदले केवल सादगीपूर्ण निर्वाह भर लेते थे, इसलिए अपने महान दायित्व के साथ न्याय कर पाते थे।कालान्तर में वह परम्परा विकृत हुई। सेवा कार्य व्यवसाय बुद्धि से किये जाने लगे। लोभ- मोह में पड़कर ब्राह्मण कर्मी जनहित को भूलकर शासकों, सम्पन्नवानों के संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति करने लगे। शोषण उत्पीड़न के माध्यम बनकर तो ब्राह्मण दिखने वाले प्रतिभा सम्पन्न राक्षसी कार्यों में भागीदार बनने लगें, तो उन्हें ब्रह्मराक्षस कहा जाने लगा।] पर्यवेक्षण के साथ सार्थक प्रयास-
यह वस्तुस्थिति का पर्यवेक्षण हुआ। इतने भर से बात क्या बनती है? समीक्षाएँ, भर्त्सनाएँ आये दिन होती रहती हैं। उन्हें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। होना तो कुछ ऐसा चाहिए, जिससे काम बने। हम अब वही करने जा रहे हैं। वैज्ञानिक और दार्शनिक हमारी एक मुहिम में हैं। वैज्ञानिकों को भड़कायेंगे कि युद्ध के घातक शस्त्र बनाने में उनकी बुद्धि सहयोग देना बंद कर दे। गाड़ी अधर में लटक जाये।
युद्धोन्माद ग्रस्त- दोनों पक्ष इसी फिराक में हैं कि उनके वैज्ञानिक ऐसे अमोघ उपाय निकाल लेंगे, जिससे अपनी जीत निश्चित रहे और सामने वाला अपंग होकर बैठा रहे। सूक्ष्मीकरण के उपरांत अब हम वैसा न होने देंगे। उच्चस्तरीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा और सूझ-बूझ उन्हें वैसा न करने देगी। जैसा कि अपेक्षा की जा रही है। अब उनका मस्तिष्क ऐसे छोटे उपकरण बनाने की ओर लौटेगा, जिससे कुटीर उद्योगों को सहायता देने वाला नया माहौल उफन पड़े। इसका उदाहरण देने के लिए एक नमूना अपने सामने बनाकर जायेंगे।
[युगऋषि ने शांतिकुंज में प्रतीकात्मक रूप में लोकसेवी (युग शिल्पी) के साथ कुटीर उद्योग प्रशिक्षण भी उन्हीं दिनों चालू कर दिया गया था। उनकी अनेक धाराएँ विकसित हो रही हैं। देवसंस्कृति विश्व विद्यालय में ग्राम स्वावलम्बन, ग्राम प्रबन्धन का पाठ्यक्रम भी चालू कर दिया गया है।]
लेखकों, दार्शनिकों का अब एक नया वर्ग उठेगा, वह अपनी प्रतिभा के बलबूते एकाकी सोचने और एकाकी लिखने का प्रयत्न करेगा। उन्हें उद्देश्य में सहायता मिलेगी। मस्तिष्क के कपाट खुलते जायेंगे और उन्हें सूझ पड़ेगा कि इन दिनों क्या लिखने योग्य है? एक मात्र वही लिखा जाना है।
क्या बिना सम्पन्न लोगों की सहायता लिये, बिना वर्तमान पुस्तक विक्रेताओं की मोटे मुनाफे की माँग पूरी किये, ऐसा हो सकता है कि जनसाधारण का उपयोगी लोक साहित्य लागत मूल्य पर छपने लगे और घर-घर तक पहुँचने लगे? हमारा विश्वास है कि यह असंभव नहीं है। समय अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए रास्ता निकालेगा और छाये हुए अँधेरे में किसी चमकने वाले सितारे का प्रकाश दृष्टिगोचर होगा।
दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों ही मुड़ेंगे। इन दिनों खदानों में से ऐसे नररत्न निकलेंगे, जो उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में आश्चर्यजनक योगदान दे सकें। ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित करने में हमारा योगदान होगा, भले ही परोक्ष होने के कारण लोग इसे देख या समझ न सकें।