Sunday 03, November 2024
शुक्ल पक्ष द्वितीया, कार्तिक 2081
पंचांग 03/11/2024 • November 03, 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | द्वितीया तिथि 10:05 PM तक उपरांत तृतीया | नक्षत्र अनुराधा | सौभाग्य योग 11:39 AM तक, उसके बाद शोभन योग | करण बालव 09:16 AM तक, बाद कौलव 10:05 PM तक, बाद तैतिल |
नवम्बर 03 रविवार को राहु 04:03 PM से 05:24 PM तक है | चन्द्रमा वृश्चिक राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:37 AM सूर्यास्त 5:24 PM चन्द्रोदय 8:06 AM चन्द्रास्त 6:24 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- शुक्ल पक्ष द्वितीया - Nov 02 08:22 PM – Nov 03 10:05 PM
- शुक्ल पक्ष तृतीया - Nov 03 10:05 PM – Nov 04 11:24 PM
नक्षत्र
- अनुराधा - Nov 03 05:58 AM – Nov 04 08:04 AM
आत्मा का आदेश पालन करें
अध्यात्म का अर्थ क्या है?
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप |
बीज की तरह गलें: भाग 03
भाई दूज की अनंत शुभकामनाएं!
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! देवात्मा हिमालय मंदिर Devatma HimalayaMandir गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 03 November 2024 !!
!! सप्त ऋषि मंदिर गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 03 November 2024 !!
!! आज के दिव्य दर्शन 03 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 03 November 2024 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! महाकाल महादेव मंदिर #Mahadev_Mandir गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 03 November 2024 !!
!! प्रज्ञेश्वर महादेव मंदिर Prageshwar Mahadev 03 November 2024 !!
!! अखण्ड दीपक Akhand Deepak (1926 से प्रज्ज्वलित) एवं चरण पादुका गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 03 November 2024 !!
!! गायत्री माता मंदिर Gayatri Mata Mandir गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 03 November 2024 !!
Gyan Ki Prashtbhumi
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
प्रातः काल जो कुछ भी काम किया जाए कितना सुंदर और सुखद होता है रात को सो करके उठा हुआ मनुष्य जब प्रातःकाल जाग्रत होता है और अपने काम करने में संलग्न होता है तो उसकी सारी शक्तियां सजीव होती हैं थकान रात की निद्रा की बाद दूर हो जाती है नवीन सोच और नवीनजाग्रति दोनों ही चीजें पाई जाती हैं शरीर और मन में शरीर सुबह के उठने के बाद स्मूथ पन होता है थकान दूर होने के बाद और मन निद्रा में जाने के बाद चिंता और उसकी परेशानियों से दूर होने के बाद सवेरे जब उठा जाता है तो उसका मन में भी स्फुरणा होती है ये ऐसा समय है जब शरीर भी सक्रिय है और मन भी सक्रिय है उसे जिस किसी काम में भी लगाया जाएगा उस काम में सफलता मिलती हुई चली जाएगी और वह काम श्रेष्ठ होता हुआ चला जाएगा मनुष्य के लिए स्वयं के लिए प्रातःकाल का समय किसी भी महत्वपूर्ण कार्य के लिए अधिक से अधिक उपयुक्त माना जा सकता है सवेरे जो कुछ भी काम किया जाए वह सबसे ज्यादा सफल बनता है
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
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पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
मनुष्य जाति के सामने अगणित समस्यायें उत्पन्न करने वाला, विविध-विधि कष्ट-क्लेश देने वाला ही असुर है-अज्ञान। रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु आदि असुरों ने थोड़े से आदमी मारे खाये थे पर अज्ञान के असुर ने समूची मानव जाति को अपनी दाढ़ों से चबा डाला और उदरस्थ कर लिया है। सर्वसुविधा सम्पन्न इस धरती के निवासियों को स्वर्गीय सुख-शान्ति का उपभोग करना चाहिए था। पर हो बिलकुल उल्टा रहा है-हर व्यक्ति खौलते कढ़ाव में तलने और अंगारों पर चलने से अधिक त्रासदायक क्षणों में मौत के दिन पूरे कर रहा है। जिन्दगी जिस सुरदुर्लभ ईश्वरीय वरदान की तरह हर्षोल्लास के साथ जियी जानी चाहिए थी, वह नारकीय यन्त्रणायें सहते हुए व्यतीत करनी पड़ रही है। उसकी लाश ढोना बहुत भारी पड़ रहा है।
यह स्थिति एक आदमी की नहीं लगभग सभी की है। समझा यह जाता रहा कि पैसा कम पड़ने से यह कष्ट सहने पड़ रहे हैं यदि मनचाही मात्रा में पैसा होता तो सुखी जीवन जिया जा सकता था। यह मान्यता थोड़े ही अंश में ही सही है। यह ठीक है कि अधिक पैसे शरीर को सुख-सुविधा देने वाले अधिक साधन खरीदे जा सकते हैं, पर इससे क्या प्रश्न तो उस मनः स्थिति का है जिसके आधार पर पैसे का उपयोग किया जाना था। उस क्षेत्र के विकृतियों का पुरा साम्राज्य है फलस्वरूप जो धन से खरीदा जाता है उसमें उपयोगी कम और हानिकारक अधिक होता है। इस संदर्भ में हम पैसे वालों की स्थिति का गहरा अन्वेषण विश्लेषण कर सकते हैं। गरीबों की बात कुछ समय के लिए पीछे करके उन अमीरों की स्थिति देखें जिन्हें आवश्यकता से अधिक पैसा मिला है। वे उसका करते क्या है? अपने और अपने परिवार के लिए स्वादिष्ट भोजनों की भरमार करके सब का पेट खराब करते हैं। श्रम से बचने और आरामतलबी का ठाठ-वाट जुटाने में शरीर की श्रम शक्ति गंवा देते हैं। गरीबों से अमीरों के स्वास्थ्य अधिक दुर्बल पाये जायेंगे वे अपेक्षाकृत अधिक रोगी रहते हैं और जल्दी मौत के मुँह में प्रवेश करते हैं।
यहाँ न तो धन की निन्दा की जा रही है और न दरिद्र की प्रशंसा। धन भी विद्या बल, शरीर बन आदि की तरह एक शक्ति है उसका सदुपयोग आता असुरता से लड़ने में हम अपने समस्त साधन झोंक दें है तो अपना-अपने परिवार और समाज का भारी हित साधन किया जा सकता है। पर दृष्टिकोण में छाया हुआ अज्ञान उस धन के सदुपयोग की दिशा सोचने ही नहीं देता। जितनी-इच्छाएँ-जितनी चेष्टाएं होती हैं वे सभी दूषित रहती हैं फलस्वरूप उपार्जित धन अपना, परिवार का, समाज का विविध प्रकार से सत्यानाश ही करता चला जाता है। धन से जो लाभ एवं सन्तोष मिलना चाहिए था उससे धनी वर्ग प्रायः वंचित ही रहता है। यहाँ हजार बार समझना चाहिए दोष धन का नहीं दूषित दृष्टिकोण का है जिसे दूसरे शब्दों में अज्ञान कहा जा सकता है।
विद्या बल की महत्ता और भी अधिक है। ऊँची शिक्षा की-बुद्धि कौशल की, कौन निंदा करेगा। शक्तियों में से किसी की भी निन्दा नहीं की जा सकती, सभी प्रशंसनीय और उपयोगी हैं-शर्त एक ही है कि उनके उपयोग में विवेक से काम लिया जाय। बिजली, भाप, गैस, पैट्रोल अणु ऊर्जा आदि शक्तियाँ कितनी उपयोगी हैं, यह भी जानते हैं पर यदि इनमें किसी का भी दुरुपयोग किया जाय तो वे भयंकर परिणाम उत्पन्न करती हैं। साहित्यकार कैसे साहित्य लिख रहे हैं- कलाकार किन प्रवृत्तियों को उभार रहे हैं इसे अत्यन्त निराशापूर्वक देखा जा सकता है। दुनिया में एक से एक बुद्धिमान भरे पड़े हैं जिनमें से थोड़ी भी प्रतिभाएं यदि जन मानस को दिशा देने में लग गई होती तो दुनिया की स्थिति वैसी न होती, जैसी आज है।
शरीर बल से उपयोगी श्रम हो सकता था-कारखाने उपयोगी सृजन कर सकते हैं। पर हम देखते हैं कि शारीरिक क्षमता, आतंक और अनाचार उत्पन्न करने में लगी हुई हैं। अपराधों और अनाचारों में वे ही लोग अधिक लगे हैं। जिनके स्वास्थ्य अच्छे हैं। भगवान ने जिन्हें रूप दिया है वे उससे कला कोमलता का सृजन करने की अपेक्षा पतन और दुराचार को प्रोत्साहन दे रहे हैं। कल-कारखानों नशेबाजी से लेकर विलासिता के अनेकानेक साधन बनाने में लगे हुए हैं । मनुष्य द्वारा मनुष्य को मारे-काटे जाने के लिए जितनी युद्ध सामग्री बन रही हैं यदि उसे बदल कर सृजनात्मक उपकरण बनाये गये होते तो उतनी धन शक्ति का, जन शक्ति का, क्रिया-कौशल का न जाने संसार की सुख-शान्ति में कितना बड़ा योगदान मिला होता।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, मार्च 1975
आज का हमारा धर्म और अध्यात्म सचमुच उतना ही घिनौना है जिसकी सड़ांध में सहज ही नास्तिकता जैसी महामारियाँ उपजें। धर्म क्या है- अमुक वंश, अमुक वेश के लोगों को लूट-पाट का खुला छूट पत्र। धर्म क्या है- कुरीतियों मूढ़ताओं, रूढ़ियों, भ्रांतियों का पुलिंदा। अध्यात्म क्या है- थोड़ी-सी पूजा-पाठ की विडम्बना रच कर देवताओं सहित ईश्वर को अपना वंशवर्ती बना लेने और उनसे उचित-अनुचित मनोकामनाएं पूरी करने के लिए बन्दर की तरह नचाने का दुःस्वप्न। आज का अध्यात्म लगभग जादू मन्तर के स्तर पर पहुँच गया है जिसके अनुसार कुछ अनगढ़ शब्दों का उच्चारण और कुछ वस्तुओं की औंधी-सीधी, उलट-पुलट। इन्हीं क्रिया कृत्यों की बाल क्रीडा करने वाले लोग शेखचिल्ली जैसी उड़ानों के साथ किसी कल्पना लोक में विचरण करते रहते हैं और चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों के मन-मोदक खाते रहते हैं। इस सनकी समुदाय के हाथ क्या कुछ लग सकता था-लगा भी नहीं, वे टूटे हारे लोग नकटा सम्प्रदाय के गुण गाते रहते हैं और अपनी भूल पर पर्दा डालते रहते हैं। यही है आज के तथाकथित अध्यात्मवादियों की नंगी तस्वीर जिसे देखकर हमारा शिर लज्जा से नीचे झुक जाता है और रुलाई आती है। इतने लोगों का इतना श्रम, समय, धन एवं मन यदि सच्च अध्यात्म के लिये नियोजित हुआ होता तो वे स्वयं धन्य बन सकते थे और अपने प्रकाश से सारे वातावरण में आलोक भर सकते थे।
मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा, सबसे बड़ी सफलता आत्मिक उत्कर्ष रूप से बनता है। यह महानता परलोक के ही लिये उपयोगी नहीं है इस लोक में भी उपार्जनकर्ता को देवोपम स्तर पर ले जाकर रख देती है। भले ही उसके पास भौतिक साधन स्वल्प हों, पर उसके स्थान पर जो आत्म कमाई उसके पास संग्रहित रहती है वह क्षण भंगुर सम्पत्तियों की तुलना में हजारों, लाखों गुना हर्षोल्लास, गौरव वर्चस्व प्रदान करती है। ऐसा व्यक्ति जहाँ भी रहता है वहीं स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करता है। उसके भीतर की सुगन्ध चन्दन वृक्ष की तरह दूर दूर तक फैलती है और समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को भी सुगन्ध युक्त कर देती है। मनुष्य में देवत्व का उदय कोई कल्पना नहीं है। स्वयं प्रकाशित और समीपवर्ती क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला व्यक्ति सच्चे अर्थों में देव है। उसे किसी देवलोक में जाने की अपेक्षा नहीं रहती क्योंकि जहाँ कहीं भी उसका रहना होता है; वहाँ सहज ही देव वातावरण बनकर खड़ा होता है।
अध्यात्म किसी को स्वर्ग में भेजता नहीं वरन् साधक को कहीं भी स्वर्ग का सृजन कर लेने की सामर्थ्य प्रदान करता है। अस्तु हमें अध्यात्म की गरिमा समझनी चाहिए और उसकी उपलब्धि के लिए धन, बल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि संग्रह करने में भी अधिक ध्यान देना चाहिए। शरीर-गत वासनाएँ और मनोगत तृष्णाएँ अपनी तृप्ति माँगती हैं और उसके लिए हमारा सारा समय, श्रम एवं मनोयोग हथिया लेती है। आत्मा की भूख और पुकार की और नितान्त उपेक्षा बढ़ती जाती है; उसके क्षुधार्त रहने से कितनी क्षति उठानी पड़ती है उसे हम वासना, तृष्णा के गुलाम नर कीटक देख समझ ही नहीं पाते। हमारी दृष्टि और दिशा बदली जानी चाहिए।
अखण्ड-ज्योति इन वर्षों में यह बताती सिखाती रही है कि आध्यात्मिक उद्देश्य का एक आरम्भिक चरण उपासना अवश्य है, पर उतने भर से लक्ष्य की प्राप्त नहीं हो सकती। पूजा करते रहने भर से किसी को भी आत्मबल नहीं मिल सकता। इसके लिए जीवन साधना अभीष्ट है। हमारी आस्थाएँ विचारणाएँ गतिविधियाँ तीनों ही उस स्तर तक परिष्कृत होनी चाहिए जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादिता के नाम से कहा समझा जा सकता है। साधना व्यक्तित्व के अन्तरंग और बहिरंग स्वरूप में काया-कल्प उपस्थित करती है। दुनिया वाले जिस तरह सोचते और जिस राह पर चलते हैं। उससे अध्यात्मवादी की दिशा इतनी भिन्न होती है कि गीतकार को योगी और भोगी लोगों में दिन रात जितना अन्तर बताना पड़ा। गीता में एक जगह आता है जब दुनिया सोती है तब योगी जगता है। जब दुनिया जगती है तब योगी सोता है। अलंकारित रूप से संकेत यह है कि पेट और प्रजनन के लिए मरने, खपने वाले अधम नर-पशुओं से भरी हुई इस दुनिया में योगी की गड़रिये की भूमिका प्रस्तुत करनी चाहिए। उनके पीछे नहीं चलना चाहिए वरन् उन अन्धी भेड़ों को अपनी लाठी से हाँकने का प्रयास करना चाहिए। लोगों की सलाह नहीं चाहिए वरन् उन्हें अपनी सलाह पर चलने की जिम्मेदारी सम्भालनी चाहिए।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, फरवरी 1975
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