Tuesday 05, November 2024
शुक्ल पक्ष चतुर्थी, कार्तिक 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक |
चतुर्थी तिथि 12:17 AM तक उपरांत पंचमी | नक्षत्र ज्येष्ठा 09:45 AM तक उपरांत मूल |
अतिगण्ड योग 11:27 AM तक, उसके बाद सुकर्मा योग | करण वणिज 11:54 AM तक,
बाद विष्टि 12:17 AM तक, बाद बव |
नवम्बर 05 मंगलवार को राहु 02:42 PM से 04:02 PM तक है | 09:45 AM तक चन्द्रमा वृश्चिक
उपरांत धनु राशि पर संचार करेगा |
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
- शुक्ल पक्ष चतुर्थी - Nov 04 11:24 PM – Nov 06 12:17 AM
- शुक्ल पक्ष पंचमी - Nov 06 12:17 AM – Nov 07 12:41 AM
- ज्येष्ठा - Nov 04 08:04 AM – Nov 05 09:45 AM
- मूल - Nov 05 09:45 AM – Nov 06 11:00 AM
पहले अपने को सुधारो |
अमृतवाणी:- विधेयात्मक चिंतन-प्रगति का द्वार
EP: 7 First call of Gurudev Test at Every Step (Part 02)
जीवन दान मिला |
सिद्धियाँ कहाँ है और कैसे प्राप्त करें |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 05 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
आप ज्ञान रथ का महत्व समझिए,
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
समय की स्थिति में सूरज जैसे-जैसे भागता जाता है वैसे-वैसे वातावरण गरम होता जाता है वातावरण गर्म होने से सक्रियता उस प्रकृति में बढ़ती जाती है तेजी बढ़ती जाती है थकान बढ़ती जाती है उत्तेजना बढ़ती जाती है और और रात्रि का पहला पहर अंततः इतना विक्षुब्ध हो जाता है उस समय में यदि कुछ काम किया जाए तो कम ही सफलता मिलेगी जितने भी दुनिया में दुष्कर्म होते हैं उनमें रात्रि को नौ बजे से लेकर के बारह बजे तक का समय ही समय ही ऐसा है जिसमें कि यह सब घटनाएं घटित हो जाती है व्यभिचार रात को नौ से बारह के बीच में ही अधिक अधिकतर होते हैं हत्याएं नौ से बारह के बीच में होती है डकैतियाँ और चोरियां नौ से बारह के बीच में होती है जितने भी दुष्कर्म होते हैं शराब पीने वालों की भीड़ जो पाई जाएगी रात्रि को नौ से बारह के बीच में ही पाई जाएगी रात्रि का यह जो पिछला वाला पहर है मध्य वाला पहर है यह इतना भयानक है उसमें कुछ भी काम किया जाए वह सब गलत ही होता चला जाएगा |
लेखक
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
पतित पावनी भागीरथी के तट पर महर्षि रैम्य और महर्षि भारद्वाज के आश्रम आस पास ही स्थित थे। तपोबल, योगशक्ति और आत्मिक उर्त्कष की स्थिति में कोई किसी से कम नहीं थे, फिर महर्षि रैम्य के आश्रम में प्रतिदिन लोगों का आना जाना बना रहता था। आँगतुकों में हर वर्ग और स्थिति के व्यक्ति होते थे इसका कारण था कि महर्षि रैम्य ने तप साधना के साथ-साथ वेद वेदाँतो के पठन पाठन और अध्ययन मनन द्वारा अपनी ज्ञान संपदा भी बढ़ाई थी। लोग विभिन्न जिज्ञासुओं के समाधान तथा ज्ञान प्राप्ति की आशा से रैम्य आश्रम में आया करते थे।
भारद्वाज आश्रम में अपेक्षाकृत कम लोग ही आते। महर्षि पुत्र यवक्रीत को लगा कि शास्त्रज्ञान अर्जित न करने के कारण मेरे पिता को रैम्य के समान सम्मान नहीं देते व आश्रम की उपेक्षा भी करते है। यद्यपि ऐसी कोई बात नहीं थी, भारद्वाज भी रैम्य की तरह ही विख्यात थे पर यह जान कर लोग उनके आश्रम में कम आते थे कि इसके महर्षि की तप साधना में विध्न पड़ेगा। महर्षि भारद्वाज को भी जनसर्म्पक में कम ही रुचि थी।
यवक्रित ने आश्रम का सम्मान बढ़ाने उद्देश्य से स्वयं ज्ञानार्जन करने का निश्चय किया। इसके लिए वह पंचाग्नि तापते हुए उग्र तप द्वारा अपने शरीर को स्वाहरा करने लगे यवक्रित को कठोर तप करते देख कर इन्द्र देव ऋषिपुत्र के पास आये और उनसे तपक का उद्देश्य पूछा।
यवक्रित ने कहा मैं सम्पूर्ण शास्त्रों और वेदवेदाँतो का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही यह तप कर रहा हूँ।
परन्तु ज्ञान तो गुरुमुख होकर अध्ययन करने से प्राप्त होता है महर्षि कुमार’, इन्द्र ने कहा।
‘गुरुमुख से वेदों की शिक्षा प्राप्त करने से में अधिक समय लगता है। इतना धैर्य मुझमें नहीं है, इसी से तप का मार्ग चुना है भगवन्’-यवक्रित बोलें। ‘
ज्ञान प्राप्ति के लिए यह उत्कृष्ट अभिलाषा तो श्रेयस्कर है कुमार, पर मार्ग वही है, इन्द्र देव ने समझाया-तप द्वारा आत्मा का कल्याण तो संभव है, पर ज्ञान साधना गुरुमुख होकर ही की जाती है।
इसके बाद इन्द्र तो चले गये, किन्तु यवक्रित ने बातों ध्यान नहीं दिया। उन्होंने और कठोर तप आरम्भ कर दिया। निरन्तर कठोर तप साधना में लगे रहने पर यवक्रित का शरीर कृश हो गया। देह में केवल हडिडयों के उभार ही दिखाई देने लगे। फिर भी इष्ट सिद्धि नहीं हुई तो उन्होंने निश्चय किया कि वे और अधिक कठोर तितिक्षा पर करेंगे। इस निश्चय के लिए उन्होंने एक यज्ञ में अपने रक्त से उसमें आहुतियाँ देंगे।
इस निश्चय के बारे में जब देवराज इन्द्र को पता चला तो वे एक वृद्ध ब्राह्मण का रुप धारण कर उस स्थान पर आये जहाँ यवक्रित तप किया करते थे और गंगा के उस स्थान पर इन्द्र प्रतीक्षा करने लगे जहाँ ऋषिकुमार गंगा स्नान के लिए आया करते थे। यवक्रित जब स्नान करने आए तो उन्होंने देखा कि वृद्ध ब्राह्मण अंजलि में बार-बार रेत भर कर गंगा में डाल रहा है। यह देख कर उन्होंने पूछा-विप्रवर! आप यह क्या कर रहे है?”
वृद्ध ब्राह्मण का रुप धरे इन्द्र ने कहा, “यहाँ से लोगों को गंगा पर पुल बाँध देना चाहता हुँ।”
‘भगवन, यवक्रित ने कहा, “आप इस महा प्रवाह को रेत से किसी प्रकार नहीं बाँध सकते। इसलिए इस असंभव कार्य को छोड़कर जो कार्य सम्भव हो, उसके लिए प्रयत्न कीजिए।
अब वृद्ध ब्राह्मण ने घुमकर यवक्रीत की ओर देखा और कहा, “ऋषिकुमार जब आप शरीर को कृश करने वाले तप और देह कठोर त्याग द्वारा विद्या प्राप्ति करने के लिए यत्न कर रहे है और उसमें सफल होने की आशा रखते है तो मेरा यह कार्य असम्भव कैसे है? यवक्रित को समझते देर न लगी कि वृद्ध ब्राह्मण कोन है? उन्होने नम्रता पूर्वक अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कहा, ‘देवराज! मैं अपनी भूल समझ गया। मुझे क्षमा किजिए।” और ऋषिकुमार स्वाध्याय अनुशीलन द्वारा ज्ञान साधना करने में जुट गए।
अखण्ड ज्योति, जनवरी 1980
प्रगति और अवाति का स्वरुप समझने में भूल होते रहने के कारण ही मनुष्य भ्रम में पड़ते, पछताते और दुसह दुःख सहते है। प्रतिष्ठा की परिभाषा को बलिष्ठता, शिक्षा, सम्पदा और प्राप्त करने तक सीमित समझा जाता है। इस दिशा में जो जितना प्रयत्न करता है वह उतना पुरुषार्थी कहलाता है और जो जितना सफल होता है वह उतना भाग्यशाली माना जाता है।
वस्तुओं और सामर्थ्यों का अपना महत्व है, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उन उपलब्धियों का सत्प्रयोजन में प्रयोग हो सकने पर भी उनके द्वारा वास्तविक प्रगति का लाभ मिलता है। प्रगति की वास्तविकता व्यक्तित्व की गरिमा के साथ जुड़ी हुई है मनुष्य का चिन्तन, चरित्र एवं लक्ष्य हो वह आधार है, जिस पर व्यक्तित्व की गरिमा टिकी हुई है। यदि इस केन्द्र बिन्दु पर निकृष्टता आधिपत्य करले तो समस्त उपलब्धियाँ हेय प्रयोजनों के लिए ही प्रयुक्त होती रहेंगी और फलतः पाल, पतन और त्रास विनाश का संकट ही उत्पन्न होता रहेगा। वह प्रगति कैसी जिसमें जलने और जलाने का- गिरने और गिराने का ही उपक्रम चलता रहे।
प्रगति का अर्थ है- ऊर्ध्वगमन, उर्त्कष, अभ्युदय। यह विभूतियाँ अन्तःक्षेत्र की है। दृष्टिकोण और लक्ष्य ऊँचा रहने पर इच्छा और आँकाक्षा का स्तर ऊँचा उठता है। आत्म गौरव का ध्यान रहता है। अपना मूल्य गिरने न पाये यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है वह उतना ही प्रगतिशील है।
सम्पन्नता और सफलता चमत्कृत तो कर सकती है। आकर्षक भी लगती है किन्तु यदि उसका उपयोग सदुद्देश्यों के लिए कर सकने की साहसिकता उत्पन्न न हो सकी तो समझना चाहिए गतिशीलता तो रही पर अवगति के गर्त तक ले पहुँची। प्रगति वह है जिसके सहारे आत्म सन्तोष मिल सके और अपनाई गई आदर्शवादिता के सम्मुख जन जन विवेक का मस्तक झुक सके।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1980
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