Friday 08, November 2024
शुक्ल पक्ष सप्तमी, कार्तिक 2024
पंचांग 08/11/2024 • November 08, 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | सप्तमी तिथि 11:56 PM तक उपरांत अष्टमी | नक्षत्र उत्तराषाढ़ा 12:03 PM तक उपरांत श्रवण | शूल योग 08:27 AM तक, उसके बाद गण्ड योग 06:38 AM तक, उसके बाद वृद्धि योग | करण गर 12:20 PM तक, बाद वणिज 11:56 PM तक, बाद विष्टि |
नवम्बर 08 शुक्रवार को राहु 10:41 AM से 12:01 PM तक है | चन्द्रमा मकर राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:41 AM सूर्यास्त 5:21 PM चन्द्रोदय 12:36 PM चन्द्रास्त 11:06 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- शुक्ल पक्ष सप्तमी - Nov 08 12:35 AM – Nov 08 11:56 PM
- शुक्ल पक्ष अष्टमी - Nov 08 11:56 PM – Nov 09 10:45 PM
नक्षत्र
- उत्तराषाढ़ा - Nov 07 11:47 AM – Nov 08 12:03 PM
- श्रवण - Nov 08 12:03 PM – Nov 09 11:47 AM
सत्य की किरण |
कर्मयोग का रहस्य |
EP:- 04, सफलता की जननी संकल्प शक्ति (भाग -01) | सफल जीवन की दिशा धारा |
हम जो बोते है वही पाते है The law of karma |
स्वाधाय के लिए समय जरुर निकाले |
अध्यात्म के सूत्र |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 08 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
जो तपश्चर्या मुझे शक्ति दे करके गई है और जिसकी वजह से जो मैं यह हिम्मत कर सका येे मानव जाति के भाग्य और संसार के भविष्य के निर्माण करने में योगदान देने का जो साहस और वह शक्ति वह शक्ति भी मुझे प्रातःकाल के द्वारा से ही मिली अगर मुझे मेरी बुरी आदत दूसरे लोगों की तरीके से भी रही होती और मैं देर से सोया होता और देर से उठा होता तो मेरे लिए ना यह संभव होता कि मैं साहित्य लिखूं और ना मेरे लिए यह संभव होता चैबीस पुरश्चरण करूं ना मेरे पास समय बचता जिससे कि मैं समाज सेवा के नए काम करू इसलिए स्वयं मेरा ये काम ही ऐसा है जिसको देख करके यह माना जा सकता है प्रातःकाल का उठना और जल्दी सोना कितना महत्वपूर्ण और कितना आवश्यक है स्वास्थ्य की दृष्टि से भी विद्या वृद्धि की दृष्टि से भी आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से भी बहुत ही दिव्य समय है अगर हम इस स्वभाव और आदत को दूसरे लोगों में फैला सके और यह स्वभाव दूसरे लोगों का भी बना सके तो मैं समझता हूं कि आप दुनिया की बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
श्रीकृष्ण स्वयं भी महाभारत रोक न सके। इस बात पर महामुनि उत्तंक को बड़ा क्रोध आ रहा था। दैवयोग से भगवान श्रीकृष्ण उसी दिन द्वारिका जाते हुए मुनि उत्तंक के आश्रम में आ पहुँचे। मुनि ने उन्हें देखते ही कटु शब्द कहना प्रारंभ किया- आप इतने महाज्ञानी और सामर्थ्यवान होकर भी युद्ध नहीं रोक सके। आपको उसके लिये शाप दे दूँ तो क्या यह उचित न होगा?
भगवान कृष्ण हंसे और बोले- महामुनि! किसी को ज्ञान दिया जाये, समझाया-बुझाया और रास्ता दिखाया जाये तो भी वह विपरीत आचरण करे, तो इसमें ज्ञान देने वाले का क्या दोष? यदि मैं स्वयं ही सब कुछ कर लेता, तो संसार के इतने सारे लोगों की क्या आवश्यकता थी?
मुनि का क्रोध शाँत न हुआ। लगता था वे मानेंगे नहीं- शाप दे ही देंगे। तब भगवान कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर कहा-महामुनि! मैंने आज तक किसी का अहित नहीं किया। निष्पाप व्यक्ति चट्टान की तरह सुदृढ़ होता है। आप शाप देकर देख लें, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। हाँ, आपको किसी वरदान की आवश्यकता हो तो हमसे अवश्य माँग लें।
उत्तंक ने कहा- तो फिर आप ऐसा करें कि इस मरुस्थल में भी जल-वृष्टि हो और यहाँ भी सर्वत्र हरा-भरा हो जाये। कृष्ण ने कहा ‘तथास्तु’ और वहाँ से आगे बढ़ गये।
महामुनि उत्तंक एक दिन प्रातःकालीन भ्रमण में कुछ दूर तक निकल गये। दिन चढ़ते ही धूल भरी आँधी आ गई और मुनि मरुस्थल में भटक गये। जब मरुद्गणों का कोप शाँत हुआ, तब उत्तंक ने अपने आपको निर्जन मरुस्थल में पड़ा पाया। धूप तप रही थी, प्यास के मारे उत्तंक के प्राण निकलने लगे।
तभी महामुनि उत्तंक ने देखा-चमड़े के पात्र में जल लिये एक चाँडाल सामने खड़ा है और पानी पीने के लिए कह रहा है। उत्तंक उत्तेजित हो उठे और बिगड़ कर बोले-शूद्र! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी शाप देकर भस्म कर दूँगा। चाँडाल होकर तू मुझे पानी पिलाने आया है। उन्हें साथ-साथ कृष्ण पर भी क्रोध आ गया। मुझे उस दिन मूर्ख बनाकर चले गये। पर आज उत्तंक के क्रोध से बचना कठिन है।
जैसे ही शाप देने के लिए उन्होंने मुख खोला कि सामने भगवान श्रीकृष्ण दिखाई दिये। कृष्ण ने पूछा- नाराज न हों महामुनि! आप तो कहा करते हैं कि आत्मा ही आत्मा है, आत्मा ही इन्द्र और आत्मा ही साक्षात परमात्मा है। फिर आप ही बताइये कि इस चाँडाल की आत्मा में क्या इन्द्र नहीं थे? यह इन्द्र ही थे, जो आपको अमृत पिलाने आये थे, पर आपने उसे ठुकरा दिया। बताइये, अब मैं आपकी कैसे सहायता कर सकता हूँ। यह कहकर भगवान कृष्ण भी वहाँ से अदृश्य हो गये और वह चाण्डाल भी।
मुनि को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जाति, कुल और योग्यता के अभिमान में डूबे हुए मेरे जैसे व्यक्ति ने शास्त्र-ज्ञान को व्यावहारिक नहीं बनाया, तो फिर यदि कौरवों-पाँडवों ने श्रीकृष्ण की बात को नहीं माना तो इसमें उनका क्या दोष? महापुरुष केवल मार्ग दर्शन कर सकते हैं। यदि कोई उस प्राप्त ज्ञान को आचरण में न लाये और यथार्थ लाभ से वंचित रहे, तो इसमें उनका क्या दोष?
अखण्ड ज्योति, अक्टूबर 1970
यदि कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गयें। कर्म-फल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भुगतना अवश्य ही पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिये होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य -धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं। जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की और बढऩे का शुभारम्भ कर दिया।
लाठी के बल पर जानवरों को इस या उस रास्ते पर चलाया जाता है और अगर ईश्वर भी बलपूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता, इससे उसकी स्वतंत्र आत्म-चेतना विकसित हुई या नहीं इसका पता ही नहीं चलता। भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अन्तर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो।
अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित ही था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व सम्भाल सकने मे समर्थ है या नहीं? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रप्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता। आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा। देर हो सकती है अन्धेर नहीं। ईश्वरीय कठोर व्यवस्था, उचित न्याय और उचित कर्म-फल के आधार पर ही बनी हुई है सो तुरन्त न सही कुछ देर बाद अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम- वांग्मय 66 पृष्ठ 6.17
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