Saturday 09, November 2024
शुक्ल पक्ष अष्टमी, कार्तिक 2024
पंचांग 09/11/2024 • November 09, 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | अष्टमी तिथि 10:45 PM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र श्रवण 11:47 AM तक उपरांत धनिष्ठा | वृद्धि योग 04:23 AM तक, उसके बाद ध्रुव योग | करण विष्टि 11:25 AM तक, बाद बव 10:45 PM तक, बाद बालव |
नवम्बर 09 शनिवार को राहु 09:21 AM से 10:41 AM तक है | 11:27 PM तक चन्द्रमा मकर उपरांत कुंभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:42 AM सूर्यास्त 5:20 PM चन्द्रोदय 1:15 PM चन्द्रास्त 12:12 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- शुक्ल पक्ष अष्टमी - Nov 08 11:56 PM – Nov 09 10:45 PM
- शुक्ल पक्ष नवमी - Nov 09 10:45 PM – Nov 10 09:01 PM
नक्षत्र
- श्रवण - Nov 08 12:03 PM – Nov 09 11:47 AM
- धनिष्ठा - Nov 09 11:47 AM – Nov 10 10:59 AM
गुरुकार्य मे साधनों की कमी नहीं रहती |
घृणा नहीं प्रेम कीजिए |
चिंतन निष्ठा पवित्र और दृढ बनाएँ |
Ep:- 9 परम वंदनीय माताजी के प्रज्ञा गीत |
जमाने के साथ बदलिए |
खुद के काम आप स्वयं ही करे |
अहंकार हमारा शत्रु |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 09 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
दुनिया के लोगों के स्वभाव को बदल देना एक बहुत बड़ी सेवा है स्वभाव के कारण ही मनुष्यों के पतन होते हैं और आदमी दुःख की दुःख की परिस्थितियों में जागिरते हैं स्वभावों को यदि बदल दिया जाए तो आदमी सोनेे से लोहा लोहे से सोना बन सकता है पारस पत्थर की उपमा दी जाती है मालूम नहीं पारस पत्थर कहीं है कि नहीं लेकिन यह पारस पत्थर है जरूर जो आदमी जो जो किसी मनुष्यों के बुरी आदतों को अच्छी आदतों में बदल देते हैं अच्छी आदतों में बदल देने की सेवा अगर हम कर सकें दूसरा व्रत खोलने से और प्याऊ खोलने से अन्नकूट कराने से ब्रह्मभोज कराने की अपेक्षा कहीं अधिक सेवा है यह सेवा महापुरुषों ने अपने जीवन में की है उनके पास धन नहीं था उनके पास कोई और विभूतियां थी नहीं लेकिन उन्होंने दूसरे लोगों के स्वभाव और आदतों को बदलने के लिए बड़ा प्रयास किया उससे उनका कल्याण भी हुआ |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
इस संसार को माया इसलिए कहा गया है कि यहाँ भ्रान्तियों की भरमार है। जो जैसा है, वैसा नहीं दीखता। यहाँ हर प्रसंग में कबीर को उलटबांसियों की भरमार हैं। पहेली बुझाने की तरह हर बात पर सोचना पड़ता है। प्रस्तुत गोरख धन्धा बिना बुद्धि पर असाधारण जोर लगाए समझ में ही नहीं आता। तिलस्म की इस इमारत में भूल-भुलैया ही भरी पड़ी हे। आँख मिचौनी का बेल यहाँ कोई जादूगर खेलता खिलाता रहता है।
प्रस्तुत परिस्थितियों को विधि की विडम्बना नियति की प्रवंचना भी कहा जा सकता है पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रतीत होता हैं कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता परखने के लिये उस चतुर चित ने पग-पग पर कसौटियाँ बिछा रखी हैं, जिनके माध्यम से गुजरने वाले के स्तर का पता लगता रहे। लगता है नियन्ता ने अपने युवराज को क्रमशः अधिकाधिक अनुदान देने की व्यवस्था बनाई है और उपयुक्त अधिकारी को उपयुक्त जिम्मेदारियाँ-विभूतियाँ सौंपते चलने की योजना विनिर्मित की है।
दूरदर्शी और अदूरदर्शी का पता इस गुत्थी को सुलझा सकने, न सुलझा सकने से लग जाता है कि सच्चा स्वार्थ साधन किसमें है, किसमें नहीं। बाधक मात्र एक ही प्रवंचना होती है कि तात्कालिक आकर्षणों में यह चंचल मन इतना मचल जाता है कि बुद्धि को उसकी ललक पूरी करने तक का अवसर नहीं मिलता। तरकस से तीर निकल जाने पर पता चलता है कि निशाना जहाँ लगाना चाहिए था, वहाँ न लगकर कहीं से कहीं चला गया। सफलता और असफलता का निर्धारण यहीं हो जाता है। व्यवहार बुद्धि का आश्रय लेने वाले दूरदर्शी इसी कसौटी पर खरे उतरते एवं माया-प्रपंच से बचकर सफलता के साथ आत्मिक प्रगति के पथ पर प्रशस्त होते देखे जा सकते हैं।
अखण्ड ज्योति फ़रवरी 1973 पृष्ठ 1
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
श्रावस्ती नगरी में सर्वत्र तपस्वी सुधारक की ही चर्चा थी। लोभ और मोह, वासना और तृष्णा पर उन्होंने विजय पा ली थी। तत्वदर्शियों ने साधना से सिद्धि के तीन सोपान बताये हैं–’मातृवत् परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्ठवत् और आत्मवत् सर्वभूतेषु’। साधु−सुधारक रूपी आरम्भिक दो सोपानों पर चढ़ चुके थे। उनके तप और त्याग से–निस्पृह जीवन चर्या से हर कोई प्रभावित था। लोगों की श्रद्धा एवं सम्मान के सुमन उन पर चढ़ रहे थे। उग्र साधन के ताप में इन्द्रियों की वासना विगलित हो चुकी थी। संयम और तितिक्षा की अग्नि में तपने के बाद मन ने वित्तेषणा की निस्सारता सिद्ध कर दी थी, पर अभी भी लोकेषणा मन के एक कोने में अपना अड्डा मजबूती से जमाये हुई थी। जिसके कारण साधना की अहम्यता पोषण पा रही थी। शास्त्रकारों ने लोकेषणा को सबसे सूक्ष्म और प्रबलतम शत्रु माना है जिस पर विजय पाना प्रायः कठिन पड़ता है। यही तपस्वी सुधारक के साथ हुआ। सम्मान और श्रेय प्राप्त कर सुधारक का अहंकार बढ़ता ही गया।
निरासक्त तपस्वी के प्रति उमड़ने वाली श्रद्धा ने वन, सम्पत्ति, वस्त्र आदि उपादानों के अम्बार लगा दिए। यह देखकर सुधारक के मन में वितर्क उठा कि–अब मेरी तपस्या सफल हो गयी। योग सिद्ध हो गया, जीवन मुक्ति का अधिकारी बन गया। अहंकार साधक के पतन का कारण बनता है। अनेकों स्थानों पर परिव्रज्या के निर्मित परिभ्रमण करने के उपरान्त जब वे आश्रम में वापिस लौटे तो वृद्ध गुरु की तीक्ष्ण दृष्टि से उनका अहंभाव छुपा न रह सका। एक दिन गुरु ने उन्हें पास बुलाया और कहा “वत्स! आश्रम में समिधाएँ समाप्त हो चुकी है। जाओ जंगल से समिधाएँ ले आओ। प्रातःकाल के यज्ञ की तैयारी करनी है। सुधारक ने उपेक्षा दर्शाते हुए कहा–”मुझे अब कर्म करने की आवश्यकता नहीं है। मैं अर्हत् मार्ग पर आरुढ़ हो चुका हूँ।” तत्वदर्शी गुरु भावी आशंका से चिन्तित हो उठे। उन्होंने स्नेह मिश्रित स्वर में कहा–”तात! तुम यह काम रहने दो, पर एक काम अवश्य करो। भगवान बुद्ध श्रावस्ती नगरी में पधारे है। उनसे एक बार अवश्य मिल आओ।” सुधारक ने बुद्ध की ख्याति सुन रखी थी। मन में उत्कण्ठा भी थी मिलने की। गुरु के प्रस्ताव को स्वीकार करके वह महाप्राज्ञ से मिलने चल पड़े।
जैतवन बौद्ध बिहार में बौद्ध भिक्षुकों की मण्डली ठहरी थी। वहाँ पहुँचने पर सुधारक को मालूम हुआ कि बुद्ध भिक्षाटन कि लिए गये है। इतने भिक्षुओं के रहते हुए भी बुद्ध को भिक्षाटन के लिए जाना पड़ता है, यह बात सुधारक की समझ में न आ सकी। खोजते−खोजते एक गृहस्थ के यहाँ भीख मांगते बुद्ध से उनकी भेंट हो गयी। अपना परिचय सुधारक न स्वयं एक तपस्वी के रूप में दिया तथा बन्धन मुक्ति का उपदेश देने का आग्रह किया। महाप्राज्ञ मौन रहे और सुधारक के साथ जैतवन वापिस लौटे। रात्रि विश्राम करने का आदेश देने तथा प्रातः− कान सम्बन्धित विषय पर चर्चा करने के साथ संक्षेप में वार्ता समाप्त की।
दूसरे दिन भगवान बुद्ध के सामने अपनी जिज्ञासा लिए सुधाकर बैठे थे। अंतर्दृष्टा महाप्राज्ञ से सुधारक की स्थिति दर्पण की भाँति स्पष्ट थी। तपस्वी और त्यागी होते हुए भी सुधारक अहंकारी है, यह अपनी सूक्ष्म दृष्टि से, वे देख चुके थे। उनकी मर्मभेदी वाणी फूट पड़ी–”वत्स! जीवन मुक्ति, ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोधक है–अहंकार। यह लोकेषणा की कामना से बढ़त है, पर निरासक्त कर्मयोग–सेवा भावना से भावना से घटता है। लोकसेवा में निरत होकर ही अहंकार पर विजय प्राप्त की जा सकती है। आत्मवत् सर्वभूतेषु की उच्चस्तरीय अनुभूति इस सेवा साधना से ही सम्भव है।”
सुधारक को अपनी भूल ज्ञान हुई। भगवान बुद्ध के चरणों में गिरकर उन्होंने क्षमा माँगी और लोकसेवा में प्रवृत्त होकर अपनी अवरुद्ध आत्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने में लग गये।
अखण्ड ज्योति, मई 1982
Newer Post | Home | Older Post |