Sunday 10, November 2024
शुक्ल पक्ष नवमी, कार्तिक 2024
पंचांग 10/11/2024 • November 10, 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | नवमी तिथि 09:01 PM तक उपरांत दशमी | नक्षत्र धनिष्ठा 10:59 AM तक उपरांत शतभिषा | ध्रुव योग 01:41 AM तक, उसके बाद व्याघात योग | करण बालव 09:57 AM तक, बाद कौलव 09:01 PM तक, बाद तैतिल |
नवम्बर 10 रविवार को राहु 04:00 PM से 05:19 PM तक है | चन्द्रमा कुंभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:42 AM सूर्यास्त 5:19 PM चन्द्रोदय 1:51 PM चन्द्रास्त:17 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- शुक्ल पक्ष नवमी - Nov 09 10:45 PM – Nov 10 09:01 PM
- शुक्ल पक्ष दशमी - Nov 10 09:01 PM – Nov 11 06:46 PM
नक्षत्र
- धनिष्ठा - Nov 09 11:47 AM – Nov 10 10:59 AM
- शतभिषा - Nov 10 10:59 AM – Nov 11 09:40 AM
शान्त विचारों की शक्ति |
साधना का सत्य |
गुण कर्म स्वभाव का विकास: भाग 4
प्रज्ञायोग की साधना |
हमारे सिद्धांत किसी से कम नहीं |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! महाकाल महादेव मंदिर #Mahadev_Mandir गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 10 November 2024 !!
!! अखण्ड दीपक Akhand Deepak (1926 से प्रज्ज्वलित) एवं चरण पादुका गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 07 November 2024 !!
!! प्रज्ञेश्वर महादेव मंदिर Prageshwar Mahadev 10 November 2024 !!
!! सप्त ऋषि मंदिर गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 10 November 2024 !!
!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 10 November 2024 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
!! गायत्री माता मंदिर Gayatri Mata Mandir गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 10 November 2024 !!
!! आज के दिव्य दर्शन 10 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! देवात्मा हिमालय मंदिर Devatma HimalayaMandir गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 10 November 2024 !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
किसी आदमी को भूखा रहना पड़े तो कब तक जिंदा रहेगा कमजोर होता ही जाएगा दुबला होता ही जाएगा बीमार होता ही जाएगा बिना खुराक के बिना कब तक आदमी जिएगा और बिना खुराक के बिना हमारी भावनाएं और हमारा मस्तिष्क और हमारी विचारणाएं और हमारी अंतः करण कब तक जिएंगे स्वाध्याय हमारी जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता थी लेकिन भुला दिया लोगों ने उसकी कमी नहीं भर सकती इसी प्रकार से भगवान की भक्ति के भजन व कीर्तन आत्मा का पूरा कर देते लेकिन कैसा गंदा समय आ गया जब वो सारे की सारे चीजें सेवा की दूसरी संगीत की चीजों में छीन लिए गए जहां भगवान की भक्ति का भी नाम होता है वहां रूखे और नीरस कीर्तन भर होते हैं और उसमें केवल केवल मात्र भगवान के नाम को ही बार बार दोहराया जाता रहता है नाम भगवान का दोहराया जाना चाहिये लेकिन साथ साथ में शिक्षा का प्रेरणा का दिशा का प्रकाश का समावेश भी होना चाहिए |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
अन्न को ब्रह्म कहा गया है। शास्त्रकार इसी को प्राण कहते हैं। उपनिषद्कारों ने अन्न ब्रह्म की उपासना हेतु साधक की सहमत करने के लिए अनेकानेक तर्क, तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इनका अवगाहन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि आमतौर से आहार से क्षुधा निवृत्ति और स्वाद तृप्ति भर का जो लाभ समझा जाता है, वह मान्यता अधूरी अविवेकपूर्ण है। आहार प्रकारान्तर से जीवन है, साधक के लिये तो सफलता प्राप्ति के मार्ग का एक महत्वपूर्ण ‘माइलस्टोन’ है। यदि इस देवता की आराधना ठीक प्रकार से की जा सके तो शरीर को आरोग्य, मस्तिष्क को ज्ञान−विज्ञान, अन्तःकरण को देवत्व का अनुदान, व्यक्तित्व को प्रतिभावान एवं भविष्य को उज्ज्वल सम्भावनाओं से जाज्वल्यमान बनाया जा सकता है।
जैसा खाये अन्न वैसा बने मन’ वाली उक्ति बहुत ही सारगर्भित है। मन को सात्विक बनाना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। उसके लिए आहार शुद्धि को प्रथम चरण माना गया है। तमोगुणी, उत्तेजित करने वाला, अनीति उपार्जित, कुसंस्कारियों द्वारा पकाया, परोसा भोजन न केवल मनोविकार उत्पन्न करता है वरन् रक्त को अशुद्ध, पाचन को विकृत करके स्वास्थ्य संकट भी उत्पन्न करता है। आत्मिक प्रगति में, साधना की सफलता में तो कुधान्य का, अभक्ष्य का विषवत् प्रभाव पड़ता है। मन की चंचलता इतनी तीव्र हो जाती है कि सामान्य क्रिया−कलापों में एकचित्त होकर कुछ कर सकना कठिन हो जाता है। फिर साधना में जिस एकाग्रता की, मनोयोग की आवश्यकता है, वह अभक्ष्य एवं अधिक पूजा पाल मात्रा में खाने पर मिल ही नहीं सकती।
पिप्पलाद ऋषि पीपल वृक्ष के फल मात्र खाकर अपना निर्वाह करते थे। कणाद ऋषि जंगली धान्य समेट कर उससे अपनी क्षुधा शान्त करते थे। कृष्ण−रुक्मिणी का जंगली बेर खाकर तथा पार्वती के सूखे पत्तों पर रहकर तप करना प्रसिद्ध है। उच्चस्तरीय साधनाओं में व्रत−उपवास का अविच्छिन्न स्थान है। इ*सके लिये अन्न की सात्विकता पर ध्यान देना अनिवार्य हो जाता है। ऐसा न करने से वही स्थिति होती है जो भीष्म पितामह की हुई।* वे शरशैय्या पर लेटे युधिष्ठिर को धर्मोपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रौपदी हँस पड़ी। वे बोले–”बेटी! तू इतनी शीलवती है। फिर असमय क्यों बड़ों के समक्ष तू हँसी।” द्रौपदी ने कहा–”पितामह! अपराध क्षमा करें। जब मेरे वस्त्र खींचे जा रहे थे और दुर्योधन की उस राज सभा में आप भी वहाँ विराजे हुए थे, तब आपका यह ब्रह्म ज्ञान कहाँ चला गया था।” “बेटी तेरा सोचना ठीक है”, भीष्म पितामह ने गुत्थी हल करते हुए कहा–”उस समय में दुर्योधन का अन्यायपूर्वक अर्जित कुधान्य खा रहा था तो मेरी बुद्धि भी अशुद्ध थी वह मन भी कुसंस्कार युक्त। इसी कारण मैं अन्याय के विरुद्ध बोल न सका।” कितना मार्मिक प्रेरणाप्रद प्रसंग है यह, जो प्रत्यक्षतः अन्न और चिन्तन का पारस्परिक सम्बन्ध बताता है।
आज प्राचीनकाल के योगाभ्यासी ऋषियों की भाँति अन्न शुद्धि कर आहार लेना दुष्कर कार्य लगता है। वन्य प्रदेशों में उपलब्ध कन्द, मूल, फलों से वे अपना निर्वाह करते थे। उनके निवास भी उन्हीं क्षेत्रों में होते थे। अब वैसी स्थिति तो नहीं रही। पर जितना भी सम्भव हो सके, आहार की सात्विकता और ग्रहण की गयी मात्रा पर अधिकाधिक अंकुश रखना अन्नमय कोष से प्रारम्भ होने वाली साधना प्रक्रिया की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक माना जाय। इस सम्बन्ध में शास्त्रमतों व वर्तमान परिस्थितियों में तालमेल बैठाकर कुछ निर्धारण कर लिये जाँय। सप्ताह में एक दिन उपवास, नियम अवधि के लिए अस्वाद व्रत का पालन, एक समय अन्नाहार–एक समय शाकाहार, दूध−छाछ−रस−द्रव्य कल्प, दलिया या अमृताशन इत्यादि में से किसी एक को अपनाकर साधनावधि इसी प्रकार व्यतीत की जाय। इस तपश्चर्या का माहात्म्य अवर्णनीय है। सामान्य जन तो इसकी फलश्रुति चर्मचक्षुओं से स्वास्थ्य में परिवर्तन देखकर ही आश्चर्यचकित हो जाते हैं। जब साधना का, सात्विक जीवन क्रम का तथा सोद्देश्य चिन्तन व दिशा निर्धारण का इसमें समावेश हो जाता है तो अगणित विभूतियों के रूप में इसके परिणाम सामने आते हैं।
साधना पथ के हर जिज्ञासु को इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। आहार सम्बन्धी सतर्कता अपनाकर अपने साधना पुरुषार्थ को सफल बनाना हर किसी के लिए सम्भव है।
अखण्ड ज्योति, फरवरी 1982
मनुष्य विद्युत-शक्ति का भण्डार है। उसमें प्राण तत्व इतनी प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है कि उसके आधार पर असम्भव और आश्चर्यजनक कार्यों को भी पूरा किया जा सकता है, किन्तु हम उसका सदुपयोग करना सीख जायें, तो जीवन की दिशा दूसरी हो सकती है। मानवीय विद्युत का समुचित उपयोग करना, सीखना वैसा ही उपयोगी है, जैसे बैंक में जमा हुए रुपये को निकालने की जानकारी रखना। वे मनुष्य बड़े अभागे हैं, जिनकी विपुल सम्पत्ति बैंक में जमा है, किन्तु उसे निकालने की विधि नहीं जानते और पैसे-पैसे को मुहताज फिरते हैं। आध्यात्मिक साधना का यह प्रथम फल बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि अपनी अपरिमेय शक्ति का समुचित उपयोग करना मालूम हो जाय।
दु:खों को दूर करने और सुख प्राप्त करने का हम सतत प्रयत्न करते हैं, सारा जीवन इन्हीं दोनों की उलट-पुलट में व्यतीत हो जाता है, किन्तु मनोकामना पूरी नहीं होती। यदि कोई ऐसा उद्ïगम प्राप्त हो जाय, जहाँ से सुख और दु:ख का उदय होता है और वहाँ अपनी इच्छानुसार चाहे जिसे ले लेने की सुविधा हो, तो क्या इसे मामूली चीज समझना चाहिए? विद्या, धन, स्वास्थ्य, स्त्री, सन्तान प्राप्त करने पर भी जिस सुख को हम नहीं प्राप्त कर सकते उसकी सच्ची स्थिति प्राप्ति का सच्चा मार्ग केवल आध्यात्मिक साधना द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
अपनी शक्ति को विकसित करना यह कितना महान लाभ है। मानवीय अन्त:स्थल में ऐसे-ऐसे अस्त्र-शस्त्र छिपे पड़े हैं जो भौतिक विज्ञान द्वारा अब तक न तो बन सके हैं और न भविष्य में बनने की संभावना है। यह हथियार वाल्मीकि जैसे डाकुओं को ऋषि के रूप में परिणित करने की भी शक्ति रखते हैं। सुदामा और नरसी जैसे दरिद्रों के सामने क्षण भर में स्वर्ण सम्पदा के पर्वत खड़े कर सकते हैं, कोढिय़ों को स्वर्णकाय बना सकते हैं और डूबते दरिद्रों को पार कर सकते हैं। यह दिव्य शक्तियाँ भी आत्म-साधना द्वारा ही सम्भव हैं।
हम स्वयं क्या हैं? संसार क्या है? स्वर्ग और मुक्ति क्या है? इनका ठीक ज्ञान के बजाय साधना तत्व के बारे में जान लिया जाय। कारण हजारों मन सिद्धान्तों के ज्ञान से एक छटाक भर साधनों का आचरण अधिक लाभप्रद है। इसलिए अपने दैनिक जीवन में योग, धर्म एवं दर्शन शास्त्रों में बताए हुए साधनों का अभ्यास कीजिए, जिससे मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य- ‘आत्म-साक्षात्कार’ की शीघ्र प्राप्ति हो।
इस साधनपट में उपरोक्त साधनों का तत्व एवं सनातन धर्म का विशुद्ध स्वरूप ३२ शिक्षाओं द्वारा दिया गया है। उनका अभ्यास वर्तमान काल के अत्यन्त कार्यग्रस्त स्त्री पुरुषों के लिए भी सुशक्य है। उनके समय और परिमाण में यथानुकूल परिवर्तन कर लीजिए और उनकी मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाते जाइये। आप अपने चरित्र या स्वभाव में एकाएक परिवर्तन नहीं कर सकेंगे, इसलिए आरम्भ में इनमें थोड़ी ऐसी शिक्षाओं के आचरण का संकल्प कीजिए, जिनसे आपके वर्तमान स्वभाव और चरित्र में थोड़ा निश्चित सुधार हो। क्रमश: इन साधनों का समय और परिमाण बढ़ाते जाइये। यदि किसी दिन बीमारी, सांसारिक कार्यों की अधिकता या किसी अनिवार्य कारणों से आप निश्चित साधनाओं को न कर सकें तो उनके बदले पूरे समय या यथासम्भव ईश्वर नाम स्मरण या जप कीजिए, जो चलते-फिरते या अपने सांसारिक कर्म करते हुए भी किया जा सकता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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