Monday 11, November 2024
शुक्ल पक्ष दशमी, कार्तिक
पंचांग 11/11/2024 • November 11, 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष दशमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | दशमी तिथि 06:46 PM तक उपरांत एकादशी | नक्षत्र शतभिषा 09:40 AM तक उपरांत पूर्वभाद्रपदा | व्याघात योग 10:36 PM तक, उसके बाद हर्षण योग | करण तैतिल 07:58 AM तक, बाद गर 06:47 PM तक, बाद वणिज 05:29 AM तक, बाद विष्टि |
नवम्बर 11 सोमवार को राहु 08:03 AM से 09:22 AM तक है | 02:21 AM तक चन्द्रमा कुंभ उपरांत मीन राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:43 AM सूर्यास्त 5:19 PM चन्द्रोदय 2:24 PM चन्द्रास्त 2:23 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- शुक्ल पक्ष दशमी - Nov 10 09:01 PM – Nov 11 06:46 PM
- शुक्ल पक्ष एकादशी - Nov 11 06:46 PM – Nov 12 04:05 PM
नक्षत्र
- शतभिषा - Nov 10 10:59 AM – Nov 11 09:40 AM
- पूर्वभाद्रपदा - Nov 11 09:40 AM – Nov 12 07:52 AM
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!! आज के दिव्य दर्शन 11 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
हम किसी न किसी प्रकार से कोई ऐसा प्रयास करें कि जो लोगों को कठिन भी ना मालूम पड़े जिससे कि आदमी के को रोस और नाराजगी भी पैदा ना हो यह भगवान के नाम और भगवान के शिक्षाओं के साथ साथ जुड़े हुए कीर्तनों के द्वारा भजनों के द्वारा ये संभव है कि आदमी नाराज भी ना हो और सो कर के जग भी जाए सो सो सो करके जगाने के लिए यह गंदे तरीके भी हो सकते हैं कि आप हल्ला मचाए और शोर मचाए लोग गालियां दे और गली मोहल्ले में उधम मचाएं पटाखे छुड़ाएं जग तो तब भी जाएंगे आदमी आदमी को जगाया जा सकता है लेकिन इस तरीके से खीज पैदा करने वाली प्रक्रियाओं के द्वारा जगाये जाने की जरूरत नहीं है हमको जागरण के साथ साथ में संदेश और प्रेरणाएं दिशाएं भी देनी चाहिए और वह उसी तरीके से सम्भव है जैसे कि हमारी युग निर्माण योजना की शाखाएं जगह जगह पर बनी हुई है और उनको करने के लिए तैयारी के पुरुषार्थ किया जा रहा है |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
जीवन की वास्तविक सफलता और समृद्धि आत्मभाव में जागृत रहने में है। जब मनुष्य, अपने को आत्मा अनुभव करने लगता है तो उसकी इच्छा, आकांक्षा और अभिरूचि उन्हीं कामों की ओर मुड़ जाती है, जिनसे आध्यात्मिक सुख मिलता है। मनुष्य परोपकार, परमार्थ, सेवा, सहायता, दान, उदारता, त्याग, तप से भरे हुए पुण्य कर्म करता है। तो हृदय के भीतरी कोने में बड़ा ही सन्तोष, हलकापन, आनन्द एवं उल्लास उठता है। इसका अर्थ है कि यह पुण्य कर्म आत्मा के स्वार्थ के अनुकूल है। वह ऐसे ही कार्यों को पसन्द करता है । आत्मा की आवाज सुनने वाले और उसी की आवाज पर चलने वाले सदा पुण्य कर्मों होते हैं।
आत्मा को तात्कालीन सुख सत्कर्मों में आता है। शरीर की मृत्यु होने के उपरान्त जीव की सद्ïगति मिलने में भी हेतु सत्कर्म ही हैं। लोक और परलोक में आत्मिक सुख शान्ति सत्कर्मो के ऊपर ही निर्भर है। इसलिए आत्मा का स्वार्थ पुण्य प्रयोजन में है। शरीर का स्वार्थ इसके विपरीत है। इन्द्रियाँ और मन संसार के भोगों को अधिकाधिक मात्रा में चाहते हैं। इस कार्य प्रणाली को अपनाने से मनुष्य नाशवान शरीर की इच्छाएँ पूर्ण करने में जीवन को खर्च करता है और पापों का भार इकठ्ठा करता रहता है। इससे शरीर और मन का अभिरंजन तो होता है, पर आत्मा को इस लोक और परलोक में कष्ट उठाना पड़ता है। आत्मा के स्वार्थ के सत्कर्मों में शरीर को भी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं।
तप, त्याग, संयम, ब्रह्मïचर्य, सेवा, दान आदि के कार्यों में शरीर को कसा जाता है। तब ये सत्कर्म सधते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर के स्वार्थ और आत्मा के स्वार्थ आपस में मेल नहीं खाते, एक के सुख में दूसरे का दु:ख होता है। दोनों के स्वार्थ आपस में एक-दूसरे के विरोधी हैं। इन दो विरोधी तत्वों में से हमें एक को चुनना होता है। जो व्यक्ति अपने आपको शरीर समझते हैं, वे आत्मा के सुख की परवाह नहीं करते और शरीर सुख के लिए भौतिक सम्पदायें, भोग सामग्रियाँ एकत्रित करने में ही सारा जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों का जीवन पशुवत् पाप रूप, निकृष्ट प्रकार का हो जाता है। धर्म, ईश्वर, सदाचार, परलोक, पुण्य, परमार्थ की चर्चा वे भले ही करें, पर यथार्थ में उनका पुण्य परलोक स्वार्थ साधन की ही चारदीवारी के अन्दर होता है।
यश के लिए, अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए, दूसरों पर अपना सिक्का जमाने के लिए वे धर्म का कभी-कभी आश्रय ले लेते हैं। वैसे उनकी मन:स्थिति सदैव शरीर से सम्बन्ध रखने वाले स्वार्थ साधनों में ही निमग्न रहती है। परन्तु जब मनुष्य आत्मा के स्वार्थ को स्वीकार कर लेता है, तो उसकी अवस्था विलक्षण एवं विपरीत हो जाती है। भोग और ऐश्वर्य के प्रयत्न उसे बालकों की खिलवाड़ जैसे प्रतीत होते हैं। शरीर जो वास्तव में आत्मा का एक वस्त्र या औजार मात्र है, इतना महत्वपूर्ण उसे दृष्टिगोचर नहीं होता है कि उसी के ऐश-आराम में जीवन जैसे बहुमूल्य तत्व को बर्बाद कर दिया जाय।
आत्म भाव में जगा हुआ मनुष्य अपने आपको आत्मा मानता है और आत्मकल्याण के, आत्म सुख के कार्यों में ही अभिरुचि रखता और प्रयत्नशील रहता है। उसे धर्म संचय के कार्यों में अपने समय की एक-एक घड़ी लगाने की लगन लगी रहती है। इस प्रकार शरीर भावी व्यक्ति अपना जीवन पाप की ओर, पशुत्व की ओर चलता है और आत्मभावी व्यक्ति का प्रवाह पुण्य की ओर, देवत्व की ओर प्रवाहित होता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
कक्षसेन पुत्र अभिप्रतारी और शोनिक का पेय प्रीतिभोज का रसास्वादन ले ही रहे थे कि एक ब्रह्मचारी द्वार पर आ पहुँचा, बड़े अधिकारपूर्वक उसने द्वार खटखटाया और कहा–”अन्न तो मुझे भी चाहिए।”
अभिप्रतारी ने कहलवा दिया–”अपने पकवानों का उपयोग हम स्वयं करेंगे, उसमें से भाग किसी को नहीं बांटेंगे।” भिक्षुक द्वार पर ही बैठा रहा। आचमन करके वे लोग जब बाहर आये तो ब्रह्मचारी ने उनसे पूछा–”एक देवता है जो चार ऋषियों को खा जाता है। अन्न उसी की तृप्ति के लिये पकाया गया था। फिर तुम लोगों ने अकेले ही क्यों खा लिया? उसे क्यों नहीं दिया?”
शोनिक, कापेय और काक्षिसेन सन्न रह गए। उनने विस्मित होकर पूछा–”भला चार ऋषियों को खाने वाला देव कौन है? और कैसे, कौन उसके लिए अन्न पकाता है। हमने तो पेट भरने के लिए ही पकवान बनाए थे। आप जो भी कुछ कह रहे हैं, इसकी जानकारी हमें नहीं है। हे ब्रह्मचारी! कृपया हमारी धृष्टता को क्षमा करते हुए हमारा समाधान करें।”
ब्रह्मचारी ने कहा–”सब में समाया हुआ सूत्रात्मा प्राण ही वह देव है। जल, पवन, अग्नि और यह पदार्थ उसी के ऋषि अन्न हैं। जो कुछ इस संसार में दृश्यमान है, वह समष्टिगत सूत्रात्मा के लिए बनाया गया है।” ब्रह्मचारी ने अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए कहा–”शरीर में वाणी, चक्षु−श्रोत्र और मन ये चार ऋषि हैं। यह चारों और व्यापक ब्रह्म सत्ता की समष्टि आत्मा के लिए ही बनाए गये हैं।
अभिप्रतारी युगल सार्श्चय यह सब सुन रहे थे। उनके कौतूहल का समाधान करने की दृष्टि से ब्रह्मचारी से पूछा–”क्या आप लोगों ने रैक्य ऋषि की रहस्य विद्या के सम्बन्ध में कभी कुछ पढ़ा सुना नहीं। वे कहते रहे हैं समस्त प्राणधारी–एक ही महाप्राण के अविच्छिन्न घटक हैं। एक−एक ही सूत्र में पिरोये हुए हैं। यह जो कुछ उपार्जन होता है, महाप्राण के लिये वही सर्व सम्पदाओं का उत्पादक है और वही उपभोक्ता से पहला अधिकार उसी का है। पीछे घटक उत्पादक का।”
मैं भी उसी महाप्राण का एक घटक हूँ, जिसके आप लोग हैं। मेरी भूख की अनुभूति तुम्हें भी होनी चाहिए थी? महाप्राण की संवेदनाओं का ध्यान रखे बिना तुम क्यों खाते रहे? क्या यह उचित था। महाप्राण की तृप्ति के लिए–यह अन्न पकाया गया था–प्राण ने माँगा–फिर प्राणों को क्यों नहीं दिया गया?”
छान्दोग्योपनिषद् के रचियता ने इस कथानक के मर्म को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है–”वही महान महिमा वाला महाप्राण समस्त अन्नों का उपभोक्ता है। वही सबको खाता है। उसे कोई नहीं खाता।”
उपार्जन और उपभोग का मूल अधिकारी समष्टिगत सूत्रात्मा है। उस विश्व मानव का भाग उसे प्रदान करते हुए ही अपनी तृप्ति करनी चाहिए। इस प्रकार जो खाना जानता है, वही सच्चे अर्थों में मानव है। “अन्ना दो भवति य एवं वेद” जो खिलाकर खाता है, वही खाने का रहस्य जानता है।
कपि गोत्रज शोनिक और कक्षसेन पुत्र अभिप्रतारी की आँखें खुल गयीं। उसने ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मचारी को नमन किया, ज्ञान चक्षु खोल देने के लिये अपनी कृतज्ञता प्रकट की और सेवकों से ब्रह्मचारी को तृप्त करने को कहा वे बोल उठे–”आपने हमारी विस्मृति हटा दी। भविष्य में हम खिलाकर ही खाया करेंगे।
अखण्ड ज्योति, मई 1982
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