Friday 25, October 2024
कृष्ण पक्ष नवमी, कार्तिक 2081
पंचांग 25/10/2024 • October 25, 2024
कार्तिक कृष्ण पक्ष नवमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), आश्विन | नवमी तिथि 03:23 AM तक उपरांत दशमी | नक्षत्र पुष्य 07:40 AM तक उपरांत आश्लेषा | शुभ योग 05:26 AM तक, उसके बाद शुक्ल योग | करण तैतिल 02:35 PM तक, बाद गर 03:23 AM तक, बाद वणिज |
अक्टूबर 25 शुक्रवार को राहु 10:38 AM से 12:01 PM तक है | चन्द्रमा कर्क राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:30 AM सूर्यास्त 5:32 PM चन्द्रोदय12:47 AM चन्द्रास्त 2:01 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - आश्विन
तिथि
- कृष्ण पक्ष नवमी - Oct 25 01:58 AM – Oct 26 03:23 AM
- कृष्ण पक्ष दशमी - Oct 26 03:23 AM – Oct 27 05:24 AM
नक्षत्र
- पुष्य - Oct 24 06:15 AM – Oct 25 07:40 AM
- आश्लेषा - Oct 25 07:40 AM – Oct 26 09:45 AM
स्वजनों को हमारा आशीर्वाद पंहुचा दे
व्यावहारिक अध्यात्मवाद
परमार्थ प्रवृत्तियों का शोषण करने वाली इस विडम्बना से हम में से हर एक को बाहर निकल आना चाहिए कि “ईश्वर एक व्यक्ति है और वह कुछ पदार्थ अथवा प्रशंसा का भूखा है, उसे रिश्वत या खुशामद का प्रलोभन देकर उल्लू बनाया जा सकता है और मनोकामना तथा स्वर्ग मुक्ति की आकाँक्षायें पूरी करे के लिये लुभाया जा सकता है।
इस अज्ञान में भटकता हुआ जन-समाज अपनी बहुमूल्य शक्तियों को निरर्थक विडम्बनाओं में बर्बाद करता रहता है। वस्तुतः ईश्वर एक शक्ति है जो अन्तः चेतना के रूप में सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के रूप में हमारे अन्तरंग में विकसित होती हैं। ईश्वर-भक्ति का रूप पूजा-पत्री की टण्ट-घण्ट नहीं विश्व-मानव के भावनात्मक दृष्टि से समुन्नत बनाने का प्रबल पुरुषार्थ ही हो सकता है। देवताओं की प्रतिमायें तो ध्यान के मनोवैज्ञानिक व्यायाम की आवश्यकता पूर्ति करने की धारणा मात्र है। वस्तुतः जैसे देवी-देवता मूर्तियों और चित्रों में अंकित किये गये है उनका अस्तित्व कहीं भी नहीं है।
उच्च भावनाओं का अलंकारिक रूप ही ईश्वर के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। ऋतम्भरा प्रज्ञा को ही सरस्वती कहते हैं। मन को सधाने के लिए ही उसकी अलंकारिक छवि विनिर्मित की गई है। वस्तुतः अन्तरंग में समुत्पन्न सद्ज्ञान ही सरस्वती है। इस तथ्य को समझे बिना अध्यात्म भी कोई जाल-जंजाल ही सिद्ध होगा और मनुष्य को आत्म प्रवंचना में भटका कर उसकी उन शक्तियों में बर्बाद कर देगा जो लोक-मंगल की दिशा में प्रयुक्त होने पर व्यक्ति और समाज का भारी हित साधन कर सकती थी। हमारा परामर्श है कि परिजन कल्पित ईश्वर की खुशामद में बहुत सिर फोड़े। अपने अन्तरंग को और विश्व-मानव को समुन्नत करने के प्रयत्नोँ में जुट जायें और उस त्याग बलिदान की वास्तविक ईश्वर भक्ति तथा तपश्चर्या समझें। इस प्रक्रिया को अपना कर वे ईश्वरीय अनुग्रह जल्दी प्राप्त कर सकेंगे।
पूजा उपासना का मूल प्रयोजन अन्तरंग पर चढ़े हुए मल आवरण विक्षेपों पर साबुन लगाकर अपने ज्ञान और कर्म को अधिकाधिक परिष्कृत करना भर है। ईश्वर को न किसी की खुशामद पसन्द है न धूप दीप बिना उसका कोई काम रुका पड़ है। व्यक्तित्व को परिष्कृत और उदार बनाकर ही हम ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी बन सकते हैं। इस तथ्य को हमारा हर परिजन हृदयंगम करले तो वह मन्त्र-तन्त्र में उलझा रहने की अपेक्षा उस दिशा में बहुत दूर तक चल सकता है जिससे कि विश्व कल्याण और ईश्वरीय प्रसन्नता के दोनों आधार अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५८
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 25 October 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! आज के दिव्य दर्शन 25 October 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
आपका चिंतन, और आपका चरित्र, और आपका व्यक्त्वि ऐसा होना चाहिए, जिससे कि देवता आपकी बराबर सहायता करते हुए चले जाएँ, इससे कम में बात बनेगी नहीं। इसके लिए आपको त्याग करना ही चाहिए, आपको अपनी बुराइयाँ छोड़नी ही चाहिए आपको उसको उदार होना ही चाहिए आपका आपको अपने दृदृष्टिकोण में महानता साबित करनी चाहिए। भगवान को हम क्या करें, देते तो बहुत हैं, लेकिन वो उस परीक्षा के बिना कहाँ देते हैं इसलिए देने की बात विचार कीजिए, परिशोधन की बात सोचिये, पवित्रता की बात सोचिये, अपने व्यकित्व को ऊँचा उठाने की बात सोचिये, इतना अगर आप सोच सकते हों, तो फिर आप देखिये किस कदर आपको किस कदर आपको भगवान की सहायता मिलती है देवताओं की कैसी सहायता मिलती है आपके मंत्र कैसे चमत्कारी सिद्ध होते हैं, आपका व्रत और अनुष्ठान से कितना ज्यादा फायदा मिलता है प्राचीनकाल के असंख्य इतिहास ऐसे हैं, जिसमें की देवताओं ने सहायता की है और अनुग्रह किये हैं, आपको जरूर सहायता मिलेगी |
पंडित श्री राम आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
धर्म के विस्तार एवं विविधता की खोज अनावश्यक है। आवश्यक है धर्म के तत्त्व की खोज, इसकी अनेकता में एकता की खोज, इसके परम सार की खोज। यह खोज जितनी अनिवार्य एवं पवित्र है, इसकी विधि उतनी ही रहस्यमय और आश्चर्यपूर्ण है। इसे न समझने वाले जीवन की भँवरों की भटकन में भटकते रहते हैं। धर्म को खोजते हुए स्वयं को खो देते हैं। क्योंकि वे धर्म के तत्त्व को नहीं उसके विस्तार एवं विविधता को खोजते हैं।
धर्म के तत्त्व की खोज तो स्वयं की खोज में पूरी होती है। स्वयं का सत्य मिलने पर धर्म अपने-आप ही मिल जाता है। यह तत्त्व शास्त्रों में नहीं है। शास्त्रों में तो जो है, वह केवल संकेत है। धर्म-ग्रन्थों में जो लिखा है, वह तो बस चन्द्रमा की ओर इशारा करती हुई अंगुली भर है। जो इस अंगुली को चन्द्रमा समझने की भूल करता है, वह अंगुली को तो थाम लेता है, पर चन्द्रमा को हमेशा के लिए खो देता है।
शास्त्रों की ही भाँति सम्प्रदाय भी है। धर्म का तत्त्व इन सम्प्रदायों में भी नहीं है। सम्प्रदाय तो संगठन है। ये सुव्यवस्थित रीति से केवल अपने मत का प्रचार करते हैं। बहुत हुआ तो धर्म की ओर रुचि पैदा करते हैं। अधिक से अधिक उसकी ओर उन्मुख कर देते हैं। धर्म का तत्त्व तो निज की अत्यन्त निजता में है। उसके लिए स्वयं के बाहर नहीं, भीतर चलना आवश्यक है।
धर्म का तत्त्व तो स्वयं की श्वास-श्वास में है। बस उसे उघाड़ने की दृष्टि नहीं है। धर्म का तत्त्व स्वयं के रक्त की प्रत्येक बूंद में है। बस उसे खोजने का साहस और संकल्प नहीं है। धर्म का तत्त्व तो सूर्य की भांति स्पष्ट है, लेकिन उसे देखने के लिए आँख खोलने की हिम्मत तो जुटानी ही होगी।
धर्म का यही तत्त्व तो अपना सच्चा जीवन है। लेकिन इसकी अनुभूति तभी हो सकेगी, जब हम देह की कब्रों से बाहर निकल सकेंगे। दैहिक आसक्ति एवं भोग-विलास के आकर्षण से छुटकारा पा सकेंगे। यह परम सत्य है कि धर्म की यथार्थता जड़ता में नहीं चैतन्यता में है। इसलिए सोओ नहीं, जागो और चलो। परन्तु चलने की दिशा बाहर की ओर नहीं, अन्दर की ओर हो। अन्तर्गमन ही धर्म के तत्त्व को खोजने और पाने का राजमार्ग है।
डॉ प्रणव पंड्या
जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 10
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