Monday 28, October 2024
कृष्ण पक्ष एकादशी, कार्तिक 2081
पंचांग 28/10/2024 • October 28, 2024
कार्तिक कृष्ण पक्ष एकादशी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), आश्विन | एकादशी तिथि 07:51 AM तक उपरांत द्वादशी | नक्षत्र पूर्व फाल्गुनी 03:24 PM तक उपरांत उत्तर फाल्गुनी | ब्रह्म योग 06:47 AM तक, उसके बाद इन्द्र योग | करण बालव 07:51 AM तक, बाद कौलव 09:10 PM तक, बाद तैतिल |
अक्टूबर 28 सोमवार को राहु 07:54 AM से 09:16 AM तक है | 10:11 PM तक चन्द्रमा सिंह उपरांत कन्या राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:32 AM सूर्यास्त 5:29 PM चन्द्रोदय 2:38 AM चन्द्रास्त 3:28 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - आश्विन
तिथि
- कृष्ण पक्ष एकादशी - Oct 27 05:24 AM – Oct 28 07:51 AM
- कृष्ण पक्ष द्वादशी - Oct 28 07:51 AM – Oct 29 10:32 AM
नक्षत्र
- पूर्व फाल्गुनी - Oct 27 12:24 PM – Oct 28 03:24 PM
- उत्तर फाल्गुनी - Oct 28 03:24 PM – Oct 29 06:34 PM
आस्था रखने वाले रीते नहीं रहते |
मन में भी पाप का विचार नहीं लाना
मानव जीवन का तत्त्वज्ञान
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 28 October 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
हमारा भविष्य किस तरीके से उज्जवल बने
आप हंसते हंसाती जिंदगी जिएँ
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
हमारा भविष्य किस तरीके से उज्जवल बने
आप एक लंबी वाली जिंदगी जी रहे हैं अगर आप लंबी वाली जिंदगी जियें तो आपको यह विचार करना पड़ेगा आपका कल शानदार किस तरीके से हो कल के शानदार होने के लिए आज आपको क्या करना होगा एक ही बात करनी पड़ेगी आप अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में इस बात का समावेश करें कि हमारा कल, भविष्य किस तरीके से उज्जवल बने हम और आप में से अधिकांश लोगों में गलती यह है आज की बात को विचार करते हैं कल की बात को विचार नहीं करते कल क्या परिणाम निकलेगा इसको हम भूल जाते हैं आज हमको किन बात में फायदा है बस इतनी ही बात पर हमारी दृष्टि सीमित रहती है और जो आज हमको फायदे फायदेमंद मालूम पड़ता है उसी को करने पर आमादा हो जाते हैं उससे भली से हमारा कल खराब होता हो करना क्या चाहिए करना यह चाहिए कल के परिणामों पर हम ज्यादा विचार करें और आज के अपनी गतिविधियों का निर्धारण इस तरीके से करें जिससे हमारा कल बहुत अच्छा बनता हो शानदार बनता हो |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
कर्मयोग, भक्ति योग, अथवा ज्ञानयोग के साथ मिला होता है। जिस कर्मयोगी ने भक्ति योग से कर्मयोग को मिलाया है उसका निमित्त भाव होता है, वह अनुभव करता है कि ईश्वर सब कुछ कार्य कर सकता है और वह ईश्वर के हाथों में निमित्त मात्र है, इस प्रकार वह धीरे−धीरे कर्मों के बन्धन से छूट जाता है, कर्म के द्वारा उसे मोक्ष मिल जाती है। जिस कर्मयोगी ने ज्ञानयोग और कर्मयोग को मिलाया है वह अपने कर्मों से साक्षी भाव रखता है। वह अनुभव करता है कि प्रकृति सब काम करती है और वह मन और इन्द्रियों की क्रियाओं और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी भाव रख कर कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है।
कर्मयोगी निरन्तर निःस्वार्थ सेवा से अपना चित्त शुद्ध कर लेता है। वह कर्म फल की आशा न रखता हुआ कार्य करता है, वह अहंकारहीन अथवा कर्तापन के विचार रहित होकर कार्य करता है, वह हर एक रूप में ईश्वर को देखता है, वह अनुभव करता है कि सारा संसार परमात्मा के व्यक्तित्व का विकास है और यह जगत वृन्दावन है। वह कठोर ब्रह्मचर्य−व्रत पालन करता है, वह करता हुआ मन से ‘ब्रह्मार्पणम्’ करता रहता है, अपने सारे कार्य ईश्वर के अर्पण करता है और सोने के समय कहता है—’हे प्रभु! आज मैंने जो कुछ किया है आपके लिए है, आप प्रसन्न होकर इसे स्वीकार कीजिए।
वह इस प्रकार कर्मों के फल को भस्म कर देता है और कर्मों के बन्धन में नहीं फँसता, वह कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेता है, निष्काम कर्मयोग से उसका चित्तशुद्धि होता है और चित्तशुद्धि होने पर आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। देश सेवा, समाज सेवा, दरिद्र सेवा, रोगी सेवा, पितृ सेवा गुरु सेवा यह सब कर्मयोग है। सच्चा कर्मयोगी दास कर्म और सम्मान पूर्ण कर्म से भेद नहीं करता, ऐसा भेद अन्य जन ही किया करते हैं, कुछ साधक अपने साधन के प्रारम्भ में बड़े विनीत और नम्र होते हैं, परन्तु जब उन्हें कुछ यश और नाम मिल जाता है तब वे अभिमान के शिकार बन जाते हैं।
श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 7
मई 1984 से हमने अपने स्थूल शरीर से संभव हो सकने वाला स्थूल स्तर का क्रियाकलाप बन्द कर दिया। इसका अर्थ हुआ- भेंट, मिलन वार्तालाप, विचार विनिमय, परामर्श का अब तक चलने वाला सिलसिला एक प्रकार से समाप्त ही हो जाना। कोई विशेष अपवाद हो, तब ही इस प्रक्रिया का व्यक्तिक्रम करेंगे। जड़ नियम जड़ पदार्थों पर लागू होते हैं। चेतना की अपनी विशेष स्थिति है वह जीवित रहते हुए भी मृतक और मृत होते हुए भी जीवितों जैसे आचरण करती पायी जाती है।
हमारी सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया का प्रयोजन पाँच कोशों पर आधारित सामर्थ्यों को अनेक गुनी कर देना है। दो शरीर मिलकर तो गणना में दो ही होते हैं। पर सूक्ष्म-जगत में स्थूल अंक गणित, रेखा गणित, बीज गणित काम नहीं आती। उस लोक का गणना चक्र अलग ही गुणन क्रम से चलता है। स्कूली गणित में 2+2+2+2=8 होंगे। लेकिन सूक्ष्म जगत में 2×2×2×2=16 हो जायेंगे। सूक्ष्मीकृत शक्तियाँ कई बार तो इससे भी बड़े कदम उठाते देखी गई हैं। मनुष्य में पाँच कोश हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय। मोटे तौर से सभी कोशों के जागृत होने पर एक मनुष्य पाँच गुनी सामर्थ्य सम्पन्न माना जाता है। पर दिव्य गणित के हिसाब से 5×5×5×5×5=3125 गुणा हो जाता है। शरीर गत पाँच भौतिक शरीर प्रत्यक्ष गणित के हिसाब से ही कुछ काम कर सकते हैं। चेतना के पाँच प्राण भी शरीर की परिधि में बंधे रहने तक पाँच विज्ञजनों जितना ही होते हैं, पर सूक्ष्मीकृत होने पर गणित की परिपाटी बदल जाती है और एक सूक्ष्म शरीर की प्रखर सत्ता 3125 गुनी हो जाती है।
हनुमान द्वारा रामायण काल में जो अनेकों अद्भुत काम संभव बन पड़े, वे उनके सूक्ष्म शरीर के ही कर्तव्य थे। जब तक वे स्थूल रहे, तब तक उन्हें सुग्रीव का नौकर रहना पड़ा और बातों द्वारा बालि द्वारा सुग्रीव की तरह उन्हें भी अपमानित होना पड़ा। पर सूक्ष्मता का अवलम्बन तो चेतना की सामर्थ्य को कुछ से कुछ बना देता है।
यह कार्य युग परिवर्तन प्रयोजन में भगवान की सहायता करने के लिए मिला है। युग संधि का समय सन् 2000 तक चलेगा। इस अवधि में हमें न बूढ़ा होना है, न मरना। अपनी 3125 गुनी शक्ति के अनुसार काम करना है। कालक्षेत्र के नियमों का भी सीमा बंधन नहीं रहेगा। इसलिए जो काम अभी हाथ में हैं, वे अन्य शरीरों के माध्यम से चलते रहेंगे। लेखन हमारा बड़ा काम है, वह अनवरत रूप से सन् 2000 तक चलेगा। यह दूसरी बात है कि कलम जो हाथ में जिन अंगुलियों द्वारा पकड़ी हुई है वे ही कागज काला करेंगी या दूसरी। वाणी हमारी रुकेगी नहीं। यह प्रश्न अलग है जो जीभ इन दिनों बोलती चालती है, वही बोलेगी या किन्हीं अन्यों को माध्यम बनाकर काम करने लगेगी। अभी हमारा कार्य क्षेत्र मथुरा, हरिद्वार रहा है और हिन्दू धर्म के क्षेत्र में कार्य चलता रहा है। आगे वैसा देश, जाति, लिंग, धर्म, भाषा आदि का कोई बन्धन न रहेगा जहाँ जब जैसी उपयोगिता आवश्यकता प्रतीत होगी वहाँ इन इन्द्रियों की क्षमताओं से समयानुकूल कार्य लिया जाता रहेगा।
सन् 2000 तक किसी अनाड़ी को ही हमारे मरण की बात सोचनी चाहिए। विज्ञजनों को स्मरण रख लेना चाहिए कि इस दृश्यमान शरीर से भेंट दर्शन, परामर्श, हो या नहीं, हमारे अपने कार्य क्षेत्र में उत्तरदायित्वों की पूर्ति में अनेक गुनी तत्परता से काम होते रहेंगे। सहकार और अनुदान क्रम भी चलता रहेगा। हमारे मार्गदर्शक की आयु 600 वर्ष से ऊपर है। उनका सूक्ष्म शरीर ही हमारी रूह में है। हर घड़ी पीछे और सिर पर उनकी छाया विद्यमान है। कोई कारण नहीं कि ठीक इसी प्रकार हम अपनी उपलब्ध सामर्थ्य का सत्पात्रों के लिए सत्प्रयोजनों में लगाने हेतु वैसा ही उत्साह भरा उपयोग न करते रहें। पाठकों-आत्मीय परिजनों को सन् 2000 तक सतत् हमारे विचार ‘ब्रह्मवर्चस’ नाम से पत्रिकाओं पुस्तिकाओं फोल्डरों के माध्यम से मिलते रहेंगे।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई1984 पृष्ठ 1
भारतीय संस्कृति के द्रष्टा, उद्गाता, निर्माता और प्रवर्त्तक भारतीय “ऋषि” रहे हैं, जिन्होंने समाधि के दिव्यतम शिखरों पर स्थित होकर तत्व उपलब्ध किया, देखा, अनुभूति ली और भौतिक जगत की परिस्थिति, स्थान-काल और पात्र यानी मनुष्य की योग्यता, विकास एवं विभिन्न विषयक धारणा-शक्ति के अनुसार इसे स्वरूप प्रदान किया। इसीलिये भारतीय संस्कृति का मूल सदा से आध्यात्म या परमात्मा रहा है। चूँकि भारतीय संस्कृति का मूल भगवान हैं और जिन्होंने इसे देखा-उपलब्ध किया, वे ही दृष्टा-ऋषि हैं, जो परातत्त्व को प्राप्त कर स्वयं भगवान या उनके सदृश गुण-प्रभाव वाले बन गये हैं। उनकी अनुभूति जब विचार, भावना में अवतरित होकर वाणी का स्वरूप धारण करती है तो उसी वाणी को हम वेद-(ज्ञान) शब्द से बोध करते हैं।
ऋषि जब सच्चिदानन्द के उच्च स्तरों से नीचे आकर दुःख, रोग, वासना-पंकिल पापेच्छा-स्वार्थ युक्त कामनाओं से भरी इस सृष्टि को देखते हैं तो अनायास- स्वभावतः ही उन की अन्तरात्मा अभीप्सा करने लगती है कि इस सृष्टि में भी सभी सुखी, आरोग्य, शुभ दृष्टि वाले एवं आनन्द मय बनें। उनकी यही अभीप्सा संसार में फलवती-चरितार्थ हो इसके लिये उन्होंने भिन्न-भिन्न, सद्गुणों का चयन, दुर्गुणों का परित्याग , संयम, नियम, जप, तप, उपासना, दान, उपकार, सत्कर्मों के विधान रचे। पर ये बाह्य कर्म विधानों के रूप- एक ही लक्ष्य स्थान पर जाने वाले विविध पंथों की भाँति कभी एक नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त व्यक्ति यों और समुदायों की मनोवृत्ति तथा रुचि में देश, काल और पात्र के कारण जो भेद रहता है उसके अनुसार भी विभिन्न प्रकार के मार्गों की आवश्यकता पड़ती है।
इसीलिये भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा एक ही काल-देश एवं पात्र के लिये भिन्न-भिन्न विधान रचे गये। परिस्थिति की परिवर्तित स्थिति के अनुसार उन विधानों के स्वरूपों की विविधता बढ़ती ही गयी, पर लक्ष्य की एकता के कारण इन विविध विधानों को एक दूसरे के विरोध में कभी खड़ा नहीं किया गया। जब कभी मन-बुद्धि की सीमितता, अज्ञानता और खण्डित-अपूर्ण दृष्टि के कारण व्यापक-विस्तृत विरोध हुआ तो उसी समय किसी ऋषि के प्रगटीकरण द्वारा उसे प्रेम, ज्ञान, अनुभूति और सामञ्जस्य से दूर किया गया-समाधान पूर्वक अज्ञान के अन्धकार का नाश हुआ।
भारतीयों की इसी आस्था, श्रद्धा, विरबास एवं निष्ठा के कारण ही भारतीय संस्कृति अनेकों बाह्य रूप परिवर्तनों के बीच बहती हुई भी अपनी अखण्डता- अजस्रता-निरन्तरता संरक्षित रखे रही साथ ही सदा समय-समय पर आवश्यक परिमार्जन होते रहने के कारण कोई कालिमा-कलंक और काई इसमें नहीं लगने पाई और न आज भी उस में कोई धूलिकण और धूमिलता का लवलेश वहाँ टिकने पाय है-भले ही यह कहा जा सकता है कि आज उसके लक्ष्य के अनुसार आचरण करने वालों की संख्या में भारी कभी आ गयी है, पर व्यक्ति रूप से ही नहीं-सामाजिक रूप से भी उसका स्वरूप अव्याहत और अक्षुण्ण रहा है। इसीलिये इस संस्कृति और धर्म को सनातन कहा जाता है।
अखंड ज्योति मार्च १९५९
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