वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं श्रीराम शर्मा आचार्य - उज्ज्वल भविष्य के द्रष्टा
इतिहास में कभी- कभी ऐसा होता है कि अवतारी सत्ता एक साथ बहुआयामी रूपों में प्रकट होती है एवं करोड़ों ही नहीं, पूरी वसुधा के उद्धार- चेतनात्मक धरातल पर सबके मनों का नये सिरे से निर्माण करने आती है। परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है, जो युगों- युगों में गुरु एवं अवतारी सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई। अस्सी वर्ष का जीवन जीकर एक विराट् ज्योति प्रज्ज्वलित कर उस सूक्ष्म ऋषि चेतना के साथ एकाकार हो गयी, जो आज युग परिवर्तन को सन्निकट लाने को प्रतिबद्ध है। परम वंदनीया माताजी शक्ति का रूप थीं, जो कभी महाकाली, कभी माँ जानकी, कभी माँ शारदा एवं कभी माँ भगवती के रूप में शिव की कल्याणकारी सत्ता का साथ देने आती रही हैं। उनने भी सूक्ष्म में विलीन हो स्वयं को अपने आराध्य के साथ एकाकार कर ज्योतिपुरुष का एक अंग स्वयं को बना लिया। आज दोनों सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु, नूतन सृष्टि कैसे ढाली गयी, कैसे मानव गढ़ने का साँचा बनाया गया है, इसे शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस, गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान एवं युगतीर्थ आँवलखेड़ा जैसी स्थापनाओं तथा संकल्पित सृजन सेनानीगणों के वीरभद्रों की करोड़ों से अधिक की संख्या के रूप में देखा जा सकता है।
परम पूज्य गुरुदेव का वास्तविक मूल्यांकन तो कुछ वर्षों बाद इतिहासविद, मिथक लिखने वाले करेंगे, किन्तु यदि उनको आज भी साक्षात् कोई देखना या उनसे साक्षात्कार करना चाहता हो तो उन्हें उनके द्वारा अपने हाथ से लिखे गये उस विराट् परिमाण में साहित्य के रूप में- युग संजीवनी के रूप में देखा जा सकता है, जो वे अपने वजन से अधिक भार के बराबर लिख गये। इस साहित्य में संवेदना का स्पर्श इस बारीकी से हुआ है कि लगता है लेखनी को उसी की स्याही में डुबाकर लिखा गया हो। हर शब्द ऐसा जो हृदय को छूता, मनो व विचारों को बदलता चला जाता है। लाखों- करोड़ों के मनों के अंतःस्थल को छूकर उसने उनका कायाकल्प कर दिया। रूसो के प्रजातंत्र की, कार्लमार्क्स के साम्यवाद की क्रान्ति भी इसके समक्ष बौनी पड़ जाती है। उनके मात्र इस युगलेखक वाले स्वरूप को लिखने तक में लगता है कि एक विश्वकोश तैयार हो सकता है, फिर उस बहुआयामी रूप को जिसमें वे संगठनकर्ता, साधक, करोड़ों के अभिभावक, गायत्री महाविद्या के उद्धारक, संस्कार परम्परा का पुनर्जीवन करने वाले, ममत्व लुटाने वाले एक पिता, नारी जाति के प्रति अनन्य करुणा बिखेरकर उनके ही उद्धार के लिए धरातल पर चलने वाला नारी जागरण अभियान चलाते देखे जाते हैं, अपनी वाणी के उद्बोधन से एक विराट् गायत्री परिवार एकाकी अपने बलबूते खड़े करते दिखाई देते हैं तो समझ में नहीं आता, क्या- क्या लिखा जाये, कैसे छन्दबद्ध किया जाय, उस महापुरुष के जीवन चरित्र को।
आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1968 (20 सितम्बर, 1911) को स्थूल शरीर से आँवलखेड़ा ग्राम जनपद आगरा, जो लतेसर मार्ग पर आगरा से पन्द्रह मील (24 किमी) की दूरी पर स्थित है, में जन्मे श्रीराम शर्मा जी का बाल्यकाल- कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं. रूपकिशोर जी शर्मा आस- पास के, दूर- दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भागवत् पुराण के कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ- साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। जाति- पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोली में जाकर सेवा कर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया, पर अपना व्रत नहीं छोड़े। उनने किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना आरंभ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी। किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न हो, वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है। हाट- बाजारों में जाकर स्वास्थ्य- शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे- छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे। इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाये, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाये- यह सिखाया।
पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में उनके घर की पूजास्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आधार थी, जबसे महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ। अदृश्य छायाधारी सूक्ष्म रूप में। उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न क्रियाकलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषि सत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं। चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हें तीन संदेश दिए --
1. गायत्री महाशक्ति के चौबीस- चौबीस लक्ष्य के चौबीस महापुरश्चरण जिन्हें आहार के कठोर तप के साथ पूरा करना था।
2. अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन- जन तक इसके प्रकाश को फैलाने के लिए समय अपने ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के 1938 में प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार- क्रान्ति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकट हुआ।
3. चौबीस महापुरश्चरणों के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना।
यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक- दूसरे के पर्याय हैं, जीवन यात्रा का यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें भावी रीति- नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक 'हमारी वसीयत और विरासत' में लिखते हैं कि प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ। दो बातें गुरुसत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई- संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामर्थ्य विकसित होगी, जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।
राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हें उतनी ही सताती थी, जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख- सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों- सखाओं के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह- छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै। आसनसोल जेल में वे पं. जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा, जो मालवीय जी ने दिया था कि जन- जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों- करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था -- प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।
स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों के प्रति असहयोग जाहिर होता था । नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे; परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था, पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं, जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे । उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया, तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये । उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले - उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला । अभी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी के नाम से ही जानते हैं । लगानबन्दी के आकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत द्वारा गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये । बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए । कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा, उन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधि के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन दिया, जिसे उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड के नाम समर्पित कर दी । वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
माता भगवती देवी शर्मा
स्नेह सलिला, परम वन्दनीया, शक्तिस्वरूपा, सजल श्रद्धा की प्रतिमूर्ति माता भगवती देवी शर्मा आश्विन कृष्ण चतुर्थी, संवत 1982 को प्रातः आठ बजे आगरा नगर के श्री जशवंत राव जी के घर चौथी संतान के रूप में जन्मीं ।
ऐश्वर्य सम्पन्न घराने में पली-बढ़ी माताजी का विवाह आगरा से 24 किमी. दूर आँवलखेड़ा में एक जमींदार परिवार पं.रूपकिशोर के सुपुत्र गायत्री साधक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्रीराम मत्त (आज के युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्य) के साथ हुआ । सन् 1943 में विवाह के बाद माता जी ससुराल पहुँची, जहाँ आचार्य जी ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जी रहे थे । जैसा पति का जीवन, वैसा ही अपना जीवन, जहाँ उनका समर्पण उसी के प्रति अपना भी समर्पण, इसी संकल्प के साथ वे अपने धर्म निर्वाह में जुट गयीं।
उन दिनों आचार्य जी के 24 महापुरश्चरणों की शृंखलाएँ चल रही थीं । वे जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह कर रहे थे । माता जी ने जौ की रोटी व छाछ तैयार करने से अपने पारिवारिक जीवन की शुरुआत की । कुछ ही वर्ष आँवलखेड़ा में बीते थे कि माताजी अपने जीवन सखा के साथ मथुरा आ गयीं । यहाँ पूज्य गुरुदेव अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका अखण्ड ज्योति का सम्पादन करते, पाठकों की वैचारिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक आदि समस्याओं का समाधान पत्र व्यवहार एवं पत्रिका के माध्यम से करते और माताजी आगन्तुकों का आतिथ्य कर घर में जो कुछ था, उसी से उनकी व्यवस्था जुटातीं ।
मात्र 200 रुपये की आय में दो बच्चे, एक माँ, स्वयं दोनों इस तरह कुल पाँच व्यक्तियों के साथ प्रत्येक माह अनेक आने-जाने वाले अतिथियों का हँसी-खुशी से सेवा सत्कार करना, उनके सुख-दुःख को सुनना तथा सुघड़ गृहिणी की भूमिका निभाना, केवल माताजी के वश का था । जो भी आता, उसे अपने घर जैसा लगता । आधी रात में दस्तक देने वाले को भी माताजी बिना भोजन किये सोने न देतीं । माताजी की संवेदना का एक स्पर्श पाकर व्यक्ति निहाल हो जाता ।
प्रारंभिक दिनों में अखण्ड ज्योति पत्रिका घर के बने कागज पर हैण्ड प्रेस से छपती थी । माताजी उसके लिए हाथ से कूटकर कागज तैयार करतीं, उसे सुखातीं, फिर पैर से चलने वाली हैण्ड प्रेस द्वारा खुद पत्रिका छापतीं । उन पर पते लिखकर डिस्पैच करतीं । यह सभी कार्य माताजी की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था । बच्चों की देखभाल, पढ़ाई-लिखाई आदि की जिम्मेदारी थी ही । इसी श्रमपूर्ण जीवन ने माताजी को आगे चलकर परम वन्दनीया माताजी के भावभरे वात्सल्यपूर्ण संबोधन से नवाजा और वे जगन्माता बन गयीं ।
माताजी कहती-'हमारा अपना कुछ नहीं, सब कुछ हमारे आराध्य का है, समाज राष्ट्र के लिए समर्पित है।' अवसर आने पर वे इसे सत्य कर दिखाती थीं । उन दिनों आचार्य श्री के मस्तिष्क में गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना का तानाबाना चल रहा था, परन्तु पैसे का अभाव था । ऐसे समय में माताजी ने अपनी ओर से पहल करके अपने पिता द्वारा प्रदत्त सारे जेवर बेचकर निर्माण कार्य में लगाने के लिए सौंप दिये । जो आज असंख्य अनुदानों-वरदानों एवं करोड़ों परिजनों के रूप में फल-फूल रहा है ।
साधारण गृहिणी एवं अपने पति के प्रति समर्पित श्रमशील महिला के रूप में देखने वाली माताजी का असाधारण स्वरूप अंदर ही अंदर पकता तो रहा, परन्तु उभरकर तब आया, जब आचार्यश्री सन् 1959 में दो वर्ष के प्रवास पर हिमालय तप-साधना के लिए गये । माताजी के जीवन का यह अकेलापन कठिनाइयों भरा था, परन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, अपितु अपने वर्तमान दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने अखण्ड ज्योति पत्रिका का लेखन, सम्पादन एवं पाठकों का मार्गदर्शन आदि वे सभी कार्य बड़ी कुशलता से करना शुरु किया, जो आचार्यश्री छोड़कर गये थे । संपादन के प्रति उनके सूझबूझ भरे दृष्टिकोण ने दो ही वर्ष में अखण्ड ज्योति के पाठकों की संख्या कई गुना बढ़ा दी । अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना, युग शक्ति गायत्री, महिला जागृति अभियान सहित कुल 13 पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक 14 लाख पाठकों का व्यक्तित्व निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण एवं राष्ट्र-विश्व निर्माण संबंधी मार्गदर्शन करती रहीं ।
सन् 1971 में युग तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार की स्थापना हो चुकी थी । गायत्री परिवार लाखों से करोड़ों की संख्या में पहुँच रहा था । माताजी ने जहाँ कुशल संगठक के रूप में इस परिवार की बागडोर सँभाली, वहीं उन्होंने नारी जागरण आन्दोलन द्वारा देश-विदेश में नारियों को पर्दाप्रथा, मूढ़मान्यताओं से निकालकर उन्हें न केवल घर, परिवार समाज में समुचित सम्मान दिलाया, अपितु धर्म-अध्यात्म से जोड़कर वैदिक कर्मकाण्ड परंपरा में दीक्षित एवं पारंगत करके उन्हें ब्रह्मवादिनी की भूमिका संचालित करने योग्य बनाया । आज उन्हीं के पुरुषार्थ से देश-विदेश की लाखों नारियाँ यज्ञ संस्कारों का सफल संचालन कर रही हैं ।
विकट से विकट परिस्थितियों में भी माताजी संघर्ष पथ पर डटी रहीं । जून 1990 में आचार्य श्री के महाप्रयाण के बाद की घड़ियाँ कुछ ऐसी ही कठिन थीं । विक्षोभ की व्याकुलता तो थी, परअसीम संतुलन को बनाये रखा । अपने करोड़ों परिजनों एवं हजारों आश्रमवासियों को ढाँढस बँधाया और संगठन की मजबूती एवं विस्तार के साथ उसके उद्देश्य को सम्पूर्ण मानवता तक पहुँचाने के लिए अक्टूबर 90 में ही शरद पूणमा कोनये शंखनाद की घोषणा की । 15 लाख लोगों के विराट् जन समूह को आश्वस्त करते हुए कहा- 'यह दैवी शक्ति द्वारा संचालित मिशन आगे ही बढ़ता जायेगा । कोई भी झंझावत इसे हिला नहीं सकेगा । देवसंस्कृति-भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति बनेगी ।'
इसी के बाद माताजी अपने नवीन कार्यक्रम में जुट गयी । जहाँ एक ओर पूरे विश्व में सम्प्रदायवाद, जातिवाद दहाड़ रहा था, वहीं उन्होंने तथाकथित धर्माडम्बरियों को ललकारते हुए कुशल सूझबूझ से २६ अश्वमेध यज्ञों के माध्यम से गायत्री (सत्चिन्तन),यज्ञ (सत्कर्म) के निमित्त वातावरण बनाया, सभी मतों, धर्मों, जातियों के लोगों को एक मंच पर लाकर समाज के लिए सोचने हेतु संकल्पित कराया और सभी को छुआछूत के भेदभाव से ऊपर उठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने पर सहमत किया ।
माताजी ने अश्वमेघ शृंखला के क्रम में सन् १९९३ में ही तीन बार विविध देशों में जाकर भारतीय संस्कृति का शंखनाद किया । आज भी आदर्श और दहेज रहित विवाह, परिवारों में संस्कार, कुरीति उन्मूलन, पर्यावरण संरक्षण आदि आन्दोलनों से जुड़कर लाखों लोग राष्ट्र निर्माण में लगे हैं यह उनके विशाल मातृत्व का परिणाम है, इसीलिए गुरुदेव भी स्वयं उन्हें माताजी कहकर पुकारते थे ।
विकट से विकट परिस्थितियों में भी माताजी संघर्ष पथ पर डटी रहीं ।। जून १९९० में आचार्य श्री के महाप्रयाण के बाद की घड़ियाँ कुछ ऐसी ही कठिन थीं ।। विक्षोभ की व्याकुलता तो थी, पर असीम संतुलन को बनाये रखा ।। अपने करोड़ों परिजनों एवं हजारों आश्रमवासियों को ढाढस बँधाया और संगठन की मजबूती एवं विस्तार के साथ उसके उद्देश्य को सम्पूर्ण मानवता तक पहुँचाने के लिए अक्टूबर ९० में ही शरद पूणमा कोने−कोने शंखनाद की घोषणा की ।। १५ लाख लोगों के विराट् जन समूह को आश्वस्त करते हुए कहा- 'यह दैवी शक्ति द्वारा संचालित मिशन आगे ही बढ़ता जायेगा ।। कोई भी झंझावात इसे हिला नहीं सकेगा ।। देवसंस्कृति- भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति बनेगी ।'
इसी के बाद माताजी अपने नवीन कार्यक्रम में जुट गयी ।। जहाँ एक ओर पूरे विश्व में सम्प्रदायवाद, जातिवाद दहाड़ रहा था, वहीं उन्होंने तथाकथित धर्माडम्बरियों को ललकारते हुए कुशल सूझबूझ से २६ अश्वमेध यज्ञों के माध्यम से गायत्री (सचिन्तन),यज्ञ (सत्कर्म) के निमित्त वातावरण बनाया, सभी मतों, धर्मों, जातियों के लोगों को एक मंच पर लाकर समाज के लिए सोचने हेतु संकल्पित कराया और सभी को छुआछूत के भेदभाव से ऊपर उठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने पर सहमत किया ।।
माताजी ने अश्वमेध शृंखला के क्रम में सन् १९९३ में ही तीन बार विविध देशों में जाकर भारतीय संस्कृति का शंखनाद किया ।। आज भी आदर्श और दहेज रहित विवाह, परिवारों में संस्कार, कुरीति उन्मूलन, पर्यावरण संरक्षण आदि आन्दोलनों से जुड़कर लाखों लोग राष्ट्र निर्माण में लगे हैं यह उनके विशाल मातृत्व का परिणाम है, इसीलिए गुरुदेव भी स्वयं उन्हें माताजी कहकर पुकारते थे ।।
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्यमाता भगवती देवी शर्मा