मन निर्मल तो दु:ख काहे को होय
इस जगत में व्याप्त हर प्राणी अपने आपको सुखी रखने का प्रयास करते हैं, लेकिन प्रयास व्यर्थ हो जाता है। जब तक हम अपने चंचल मन को वश में नहीं कर लेते तब तक हम सुख की अनुभूति नहीं प्राप्त कर सकते। सुख प्राय: दो तरह के होते हैं, दिव्यानुभूति सुख और आत्मिक सुख। आत्मिक सुख को हम भौतिक सुख के सन्निकट रख सकते हैं। दिव्यानुभूति सुख के लिए इस सांसारिक जगत के मोह से ऊपर उठना होता है, लेकिन भौतिक सुख के लिए मन का संतुलित होना आवश्यक है। खुशी सुखी मन का संवाहक होती है। एक संतुलित मन हमेशा प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है, जो सुख का कारण बनता है। अपने आपको खुश रखने की कोशिश करने वाला इंसान अपने कर्तव्यों और दायित्वों से बंधा होता है। लेकिन, जो इंसान अपने मन को वश में नहीं रखता, वह परिस्थिति में विचलित हो जाता है और विचलित मन खुशी की अनुभूति नहीं कर सकता।
मन को संतुलित रखने के लिए जीवन में नित्य अभ्यास की जरूरत होती है। अपने मन को कभी-कभी हम इतना भारी कर लेते हैं कि घुटन-सी होने लगती है। प्राकृतिक गुणों के हिसाब से हल्की चीजें सदैव ऊपर होती हैं। जब मन हल्का होने लगता है, तब वह धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठ जाता है और मन स्वच्छ एवं निर्मल प्रतीत होने लगता है। निर्मल मन वाला व्यक्ति हर चीज की बारीकियों को इसी तरह समझने लगता है। उसके बाद वह संसार के द्वंद्व से मुक्त हो जाता है और सुख का आभास करने लगता है।
कभी-कभी बहुत आगे की सोच हमें भयाक्रांत कर देती है। इस क्षणभंगुर दुनिया में जो भी घटता है वह परमात्मा की इच्छानुरूप घटित होता है। इसलिए स्वयं को निमित्तमात्र समझकर अपने कर्त्तव्य-पथ पर चलकर इस सुख का अनुभव कर सकते हैं। भविष्य हमारे हाथ में नहीं होता। रात्रिकाल के बाद सुबह का सूर्य देखना भी परमात्मा के निर्देशानुसार होता है। प्रलय, तूफान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं और आतंकवादी हमलों जैसी मानवकृत घटनाएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि किसी भी पल कुछ भी हो सकता है। मनुष्य चाहे जो करे, लेकिन इन घटनाओं के सामने नि:सहाय हो जाता है। इसलिए सिर्फ अपने कत्र्तव्यों का निर्वाह करते रहना चाहिए।
अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए सबसे पहले अपने आस-पड़ोस के लोगों को सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। आचरण से ही वातावरण का निर्माण होता है। दूसरों को खुशी देकर हम अपनी खुशी को भी कई गुणा बढ़ा लेते हैं। सांसारिक लिप्ता में लिप्त व्यक्तियों के लिए दूसरों की खुशी उसके स्वयं के दुखी होने का कारण बन जाती है। एक सुंदर कोठी में रहने वाली और स्वयं एक अच्छी नौकरी करने वाली महिला, एक कामवाली को प्रतिदिन ध्यान से देखा करती थी। उस महिला को प्रतिदिन उसका पति छोडऩे के लिए और काम समाप्त होने के बाद उसे लेने के लिए आता था। इसे देखकर कोठी वाली महिला बहुत व्यथित रहती थी। उसे इस बात का दु:ख था कि एक काम करने वाली महिला भी उससे अधिक खुश है। वह सोचती रहती थी इतना धन होने के बावजूद उसके पति के पास उसके लिए समय नहीं है। इस धन-संपदा का क्या अर्थ है, जब अपने पति के साथ अधिकांश समय नहीं गुजार सकती। इस बात को लेकर वह महिला अपने पति के साथ अक्सर झगड़ा करने लगी। एक दिन महिला ने देखा कि काम करने वाली महिला का हाथ टूटा हुआ है। वह अचंभित हुई। दूसरे लोगों से ज्ञात हुआ कि कामवाली महिला का पति उस पर बहुत अत्याचार करता था। उसके पति को डर था कि इसके कारण उसकी पत्नी उसे छोड़कर न चली जाए, इसलिए वह सुबह-शाम उसे लेकर आता और लेकर जाता था। सत्य को जानकर महिला को बहुत पश्चताप हुआ।
कभी-कभी हम दूसरों को देखकर अपनी स्थिति की तुलना उसके साथ करने लगते हैं। यह भी दुख का कारण बनता है। दरअसल सुख और दुख हमारे मन के ही अंदर होते हैं। सच्चे मन से और दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक मिलकर परिश्रम करने वाले इंसान के पास कभी दु:ख पहुंच ही नहीं सकता।
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