मैं क्या हूँ

जानने योग्य इस संसार में अनेक वस्तुएँ हैं, पर उन सबमें प्रधान अपने आपको जानना है। जिसने अपने को जान लिया उसने जीवन का रहस्य समझ लिया। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों ने अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किए हैं। प्रकृति के अन्तराल में छिपी हुई विद्युत शक्ति, ईश्वर शक्ति, परमाणु शक्ति आदि को ढूँढ़ निकाला है। अध्यात्म जगत के महान अन्वेषकों ने जीवन सिन्धु का मन्थन करके आत्मा रूपी अमृत उपलब्ध किया है। इस आत्मा को जानने वाला सच्चा ज्ञानी हो जाता है और इसे प्राप्त करने वाला विश्व विजयी मायातीत कहा जाता है। इसलिए हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने आपको जाने।
मैं क्या हूँ, इस प्रश्न को अपने आपसे पूछे और विचार करे, चिन्तन तथा मननपूर्वक उसका सही उत्तर प्राप्त करे। अपना ठीक रूप मालूम हो जाने पर, हम अपने वास्तविक हित-अहित को समझ सकते हैं। विषयानुरागी अवस्था में जीव जिन बातों को लाभ समझता है, उनके लिए लालायित रहता है, वे लाभ आत्मानुरक्त होने पर तुच्छ एवं हानिकारक प्रतीत होने लगते हैं और माया लिप्त जीव जिन बातों से दूर भागता है, उसमें आत्म-परायण को रस आने लगता है। आत्म-साधन के पथ पर अग्रसर होने वाले पथिक की भीतरी आँखें खुल जाती हैं और वह जीवन के महत्वपूर्ण रहस्य को समझकर शाश्वत सत्य की ओर तेजी के कदम बढ़ाता चला जाता है।
अनके साधक अध्यात्म-पथ पर बढऩे का प्रयत्न करते हैं पर उन्हें केवल एकांगी और आंशिक साधन करने के तरीके ही बताये जाते हैं। आत्म-दर्शन का यह अनुष्ठान साधकों को ऊँचा उठायेगा, इस अभ्यास के सहारे वे उस स्थान से ऊँचे उठ जायेंगे जहाँ कि पहले खड़े थे। इस उच्च शिखर पर खड़े होकर वे देखेंगे कि दुनियाँ बहुत बड़ी है। मेरा राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ है। जितनी चिन्ता अब तक थी, उससे अधिक चिन्ता अब मुझे करनी करनी है। वह सोचता है कि मैं पहले जितनी वस्तुओं को देखता था, उससे अधिक चीजें मेरी हैं। अब वह और ऊँची चोटी पर चढ़ता है कि मेरे पास कहीं इससे भी अधिक पूँजी तो नहीं है? जैसे-जैसे ऊँचा चढ़ता है वैसे ही वैसे उसे अपनी वस्तुएँ अधिकाधिक प्रतीत होती जाती हैं और अन्त में सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर वह जहाँ तक दृष्टि फैला सकता है, वहाँ तक अपनी ही अपनी सब चीजें देखता है। अब तक उसे एक बहिन, दो भाई, माँ बाप, दो घोडे, दस नौकरों के पालन की चिन्ता थी, अब उसे हजारों गुने प्राणियों के पालने की चिन्ता होती है। यही अहंभाव का प्रसार है। दूसरे शब्दों में इसी को अहंभाव का नाश कहते हैं।
आत्मा के वास्तविक स्वरूप की एक बार देख लेने वाला साधक फिर पीछे नहीं लौट सकता। प्यास के मारे जिसके प्राण सूख रहे हैं ऐसा व्यक्ति सुरसरि का शीतल कूल छोडक़र क्या फिर उसी रेगिस्तान में लौटने की इच्छा करेगा? जहाँ प्यास के मारे क्षण-क्षण पर मृत्यु समान असहनीय वेदना अब तक अनुभव करता रहा है। भगवान कहते हैं- जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता, ऐसा मेरा धाम है। सचमुच वहाँ पहुँचने पर पीछे को पाँव पड़ते ही नहीं। योग भ्रष्ट हो जाने का वहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। घर पहुँच जाने पर भी क्या कोई घर का रास्ता भूल सकता है?
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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