VANGMAY
मांस मनुष्यता को त्याग कर ही खाया जा सकता है
करुणा की प्रवृत्ति अविछिन्न है। उसे मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजित नहीं किया जा सकता। पशु-पक्षियों के प्रति बरती जाने वाली निर्दयता मनुष्यों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को भी प्रभावित करेगी। जो मनुष्यों से प्रेम और सद्व्यवहार का मर्म समझता है वह पशु-पक्षियों के प्रति निर्दय नहीं हो सकता। भारत यात्रा करने वाले सुप्रसिद्ध फाह्यान, मार्कोपोलो सरीखे विदेशी यात्रियों ने अपनी भारत यात्राओं के विशद् वर्णनों में यही लिखा है - भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त और कोई सभ्य व्यक्ति माँस नहीं खाता था। धार्मिक दृष्टि से तो इसे सदा निन्दनीय पाप कर्म बताया जाता रहा है।
बौद्ध और जैन धर्म तो प्रधानतया अहिंसा पर ही आधारित है। वैष्णव धर्म भी इस सम्बन्ध में इतना ही सतर्क है । वेद, पुराण, स्मृति, सूत्र आदि हिन्...
दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित्त ही छुड़ा सकेगा
यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता गया अब उस घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता। सम्भव है कि वह व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो। ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं। किन्तु दूसरा मार्ग खुला है । हर व्यक्ति समाज का अंग है। व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुत: प्रकारान्तर से समाज की ही क्षति है । उस व्यक्ति को हमने दुष्कर्मों से जितनी क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति तभी होगी जब हम उतने ही वजन के सत्कर्म करके समाज को लाभ पहुँचाये। समाज को इस प्रकार हानि और लाभ का बैलेन्स जब बराबर हो जायेगा तभी यह कहा जायेगा कि पाप का प्रायश्चित हो गया और आत्मग्लानि एवं आत्मप्रताडऩा से छुटकारा पाने की स्थिति बन गई।
सस्ते मूल्य के कर्मकाण्ड करके पापों के फल से छुटकारा पा सकना...
शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं
नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है ।
धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ व्यवसाइयों के लिए भोले लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.६१)
...
युग परिवर्तन में भूमिका
मित्रो! आत्मपरिवर्तन के साथ- साथ यही जाग्रत आत्माएँ विश्व परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत करेंगी। प्रकाशवान ही प्रकाश दे सकता है। आग से आग उत्पन्न होती है। जागा हुआ ही दूसरों को जगा सकता है। जागरण की भूमिका जाग्रत आत्माएँ ही निभाएँगी। आत्मपरिवर्तन की चिनगारियाँ ही युग परिवर्तन के प्रचण्ड दावानल का रूप धारण करेंगी। यही सब तो इन दिनों हो रहा है। जाग्रत आत्माओं में एक असाधारण हलचल इन दिनों उठ रही है।
उनकी अन्तरात्मा उन्हें पग- पग पर बेचैन कर रही है, ढर्रे का पशु जीवन नहीं जिएँगे, पेट और प्रजनन के लिए- वासना और तृष्णा के लिए जिन्दगी के दिन पूरे करने वाले नरकीटों की पंक्ति में नहीं खड़े रहेंगे, ईश्वर के अरमान और उद्देश्य को निरर्थक नहीं बनने देंगे, लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे, उनके लिए स्वतः अनुकरण...