सामाजिक कुरीतियों की जंजीर सत्यानाशी विवाहोन्माद
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हम अपनी सामाजिक कुरीतियों पर ध्यान दें तो लगता है कि लोहे की गरम सलाखों से बनी हुई जंजीरों की तरह वे हमें जकड़े हुए हैं और हर घड़ी हमारी नस-नस को जलाती रहती हैं। घर में तीन−चार कन्याएं जन्म ले ले तो माता−पिता की नींद हराम हो जाती है। वे जैसे-जैसे बढ़ने लगती हैं वैसे ही वैसे अभिभावकों का खून सूखता चला जाता है। विवाह—आह विवाह—कन्या का विवाह उनके माता-पिता के यहाँ डकैती, लूट, बर्बादी होने के समान है। आजकल साधारण नागरिकों की आमदनी इतनी ही मुश्किल से हो पाती है कि वे अपना पेट पाल सके। जितना धन दहेज के लिए चाहिए उतना जमा करना तभी संभव है जब या तो कोई आदमी अपना पेट काटे, नंगा रहे, दवादारू के बिना भाग्य भरोसे बीमारी से निपटे, बच्चों को शिक्षा न दे या फिर कहीं से बेईमानी करके लावे।
इन उपायों के अतिरिक्त सामान्य श्रेणी के नागरिक के लिए उतना धन जमा करना कैसे संभव हो सकता है, जितने कि कन्या के विवाह में जरूरत पड़ती है—माँगा जाता है। यह संकट कौन कन्या का पिता किस पीड़ा और चिन्ता के साथ पार करता है, इसके पीछे लम्बी करुण कहानी छिपी रहती है। कर्ज का ब्याज, भावी जीवन में अँधेरा शेष बच्चों की शिक्षा एवं प्रगति में गतिरोध जैसी आपत्तियों को कन्या का विवाह अपने पिता और छोटे भाई−बहिनों के लिए छोड़ जाता है। विवाह का पत्थर छाती पर से हटा तो अर्थ संकट का आरा अपनी काट शुरू कर देता है। कई कन्याएँ हैं तब तो जीवित ही मृत्यु है। मृत्यु एक दिन कष्ट देकर शाँति की गोद में सुला देती है पर यह जीवित मृत्यु तो पग-पग पर काटती, नोचती, छेदती और चीरती रहती है।
हमारे हिन्दू समाज में विवाह शादी के अवसर पर जैसा अन्धापन और बावलापन छा जाता है उसे देखकर हैरत होती है। पृथ्वी के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक घूम जाइए, कोई भी देश, कोई भी धर्म, कोई भी समाज ऐसा न मिलेगा। जहाँ विवाह-शादियों के अवसर पर पैसे की ऐसी होली जलाई जाती हो जैसी हमारे यहाँ जलाई जाती है। बरात की निकासी, आतिशबाजी, बाजे, नाच, स्वाँग, दावत, जाफत देखकर ऐसा लगता है कि यह शादी वाले कोई लखपती, करोड़पती हैं और अपने अनाप-शनाप पैसे का कोई उपयोग न देखकर उसकी होली जला देने पर उतर आये हैं। जिन्हें अपने बच्चों का लालन-पालन और शिक्षण दुर्लभ है वे यदि ऐसे स्वाँग बनावें जैसे कि विवाह के दिनों में आमतौर से बनाये जाते हैं तो उसे समझदारी की कसौटी पर केवल ‘उन्माद’ ही कहा जा सकता है। सारी दुनियाँ में कही भी ऐसा ‘सत्यानाशी विवाहोन्माद’ नहीं देखा जाता। मामूली-सी रस्म की तरह, एक बहुत छोटे घरेलू उत्सव की तरह लोग विवाह-शादी कर लेते हैं। भार किसी को नहीं पड़ता, तैयारी किसी को नहीं करनी पड़ती। पर एक हम हैं जिनके जीवन में बच्चों का विवाह ही जीवन भर भारी समस्या बना रहता है, और इसी उलझन को सुलझाते-सुलझाते मर खप जाते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1962
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