उत्थान और आनन्द का मार्ग
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इन थोड़ी सी पंक्तियों में यह विस्तारपूर्वक नहीं बताया जा सकता कि मन की मलीनता को हटा देने पर हम पतन और संताप से कितने बचे रह सकते हैं, और मन को स्वच्छ रखकर उत्थान और आनन्द का कितना अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है। यह लिखने−पढ़ने और कहने−सुनने की नहीं, करने और अनुभव में लाने की बात है। लौकिक जीवन को आनन्द और उत्थान की दिशा में गतिवान करने का प्रमुख उपाय यह है कि हम अपने मन को स्वच्छ कर उसकी मलीनताओं को हटावें। मनन करने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अपनी भीतरी मलीनताओं को खोजना और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना इस संसार का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। संसार के प्रत्येक महापुरुष को अनिवार्यतः यह पुरुषार्थ करना पड़ा है। क्या यह कोई ऐसा कठिन काम है जो हम नहीं कर सकते? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, वह अपना मन अपनी बात न माने, यह कैसे हो सकता है। हम अपने आपको तो सुधार ही सकते हैं, अपने आपको तो समझा ही सकते हैं, अपने को तो सन्मार्ग पर चला ही सकते हैं। इसमें दूसरा कोई क्या बाधा देगा? हम ऊँचे उठना भी चाहते हैं और उसका साधन भी हमारे हाथ में है तो फिर उसके लिए पुरुषार्थ क्यों न करें? आत्म−सुधार के लिए, आत्म निर्माण के लिए, आत्म विकास के लिए क्यों कटिबद्ध न हों?
हमारे आध्यात्मिक लक्ष की आधारशिला मन की स्वच्छता है। जप, तप, भजन, ध्यान, व्रत, उपवास, तीर्थ, हवन, दान, पुण्य, कथा, कीर्तन सभी का महत्व है पर उनका पूरा लाभ उन्हीं को मिलता है जिनने मन की स्वच्छता के लिए भी समुचित श्रम किया है। मन मलीन हो, दुष्टता एवं नीचता की दुष्प्रवृत्तियों से मन गन्दी कीचड़ की तरह सड़ रहा हो तो भजन, पूजन का भी कितना लाभ मिलने वाला है? अन्तरात्मा की निर्मलता अपने आप में एक साधन है जिसमें किलोल करने के लिए भगवान स्वयं दौड़े आते हैं। थोड़ी साधना से भी उन्हें आत्म−दर्शन का मुक्ति एवं साक्षात्कार का लक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। स्वल्प साधना भी उनके लिए सिद्धि दायिनी बन जाती है।
“अखण्ड−ज्योति” निर्माण का मिशन लेकर अग्रसर होती है। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस ओर ध्यान देना होगा। हम अपने मनों को स्वच्छ करें, अपनी मलीनता को बुहारें और अपने समीपवर्ती, संबंधित, परिचित लोगों को भी वैसी ही प्रेरणा करे। अपना आदर्श उपस्थित करके दूसरों को अनुकरण करने के लिए उदाहरण उपस्थित करना प्रचार का सबसे प्रभावशाली तरीका है, पर शिक्षा, उपदेश, प्रचार, अध्ययन, शिक्षण, पठन, श्रवण आदि का भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है। दोनों ही माध्यमों से हमें लोक शिक्षण के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। जन−मानस की स्वच्छता का अभियान संसार की उत्कृष्ट धर्म सेवा और ईश्वर की सच्ची पूजा ही मानी जायगी। इस दिशा में हमारा उत्साह उठना ही चाहिये। हमारा पुरुषार्थ जागना ही चाहिए, हमारा कदम उठना ही चाहिए।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1962
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