भगवान पवित्रता के क्षीर सागर में विराजते हैं

मनुष्य जीवन व्यापार में सतत् अपने आपको एक धोखा देता रहता है कि कहीं न कहीं से उस पर उसकी बाह्योपचार प्रधान पूजा-प्रार्थना-आरती आदि से अनुदान बरसेंगे एवं उसके अभाव दूर हो जायेंगे। भगवान का नाम लेकर लोग लाटरी का टिकट खरीदते देखे जाते हैं व यह मान बैठते हैं कि इसके बदले उन्हें जरूर कहीं न कहीं से छप्पर फाड़ कर भगवान धन बरसा देंगे।
बाहरी पूजा स्वयं करने का मौका नहीं मिलता तो किसी और से करवा के यह समझते हैं कि उसका लाभ अपने को मिल गया, चाहे स्वयं ने कितने ही पाप क्यों न किये हों, अचिन्त्य चिन्तन क्यों न विगत में किया जाता रहा हो तथा वर्तमान के क्रिया−कलाप भी वैसे ही क्यों न चल रहे हों। यह एक छलावा है, भ्रान्ति है तथा आत्मप्रवंचना मात्र है। भगवान को नितान्त घटिया मान बैठना, यही समझ बैठना कि जरा-सी प्रार्थना से बिना अन्तरंग साफ किये बिना औरों के प्रति संवेदना जीवन में धारण किये भगवान प्रसन्न हो अनुदान बरसा देगा तो फिर इससे बड़ी नासमझी दुनिया में कोई नहीं हो सकती।
आज बहुसंख्य व्यक्ति धर्म के इसी रूप को जीवन में धारण किये-दिखाई देते हैं। यदि इनने सही मायने में धर्म समझा होता तो सबसे पहले अपने अन्तरंग को निर्मल बनाया होता। भगवान तो इतने दयालु-क्षमा वत्सल हैं कि वे भक्त के निष्काम भाव से, उनकी शरण में आ जाने पर उसके पूर्व के सब पापों का बोझ अपने पर लेकर उसे न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं। शर्त एक ही है कि निश्छल भाव से समर्पण कर फिर खोदी खाई को पाटने का पुरुषार्थ किया जाता रहे तो भगवत्कृपा व सत्कर्म दोनों मिलकर व्यक्ति की आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त कर देते हैं।
भगवान ने गीता में स्वयं यह कहा है कि पापियों से भी अधिक पाप करने वाला भी मेरी शरण में आ जाय तो वह ज्ञान रूपी नौका द्वारा सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली भाँति स्वयं को तार सकता है(4/35)। फिर व्यक्ति आत्मोन्मुख हो उस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास क्यों नहीं करता जो उसे पवित्रता के अनन्त स्रोत से जोड़ता है। यदि अध्यात्म का यह मर्म समझा जा सके तो बहुत से व्यर्थ के समयक्षेप करने वाले उपचारों से बचकर स्वयं को अपने समय व सारी विभूतियों को भगवत्परायण बनाते हुए निहाल हुआ जा सकता है। इस तत्व दर्शन को समझने में ही मनुष्य का हित है।
अखण्ड ज्योति – अक्टूबर 1995 पृष्ठ 1
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