Magazine - Year 1948 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मोन्नति के तीन साधन।
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(ले. अगरचन्द्रजी नाहटा, सिलहट)
प्रत्येक प्राणी उन्नति का इच्छुक है पर उन्नति का सही मार्ग समझ पाना कठिन है और उससे भी कठिन है उसको आचरण में लाना। कोई व्यक्ति कहीं जाना चाहता है या कुछ प्राप्त करना चाहता है तो उसका मार्ग एवं साधनों को जानना आवश्यक होता है, पर जान लेने से काम नहीं चलेगा। हमें कलकत्ते जाना है उसका मार्ग भी मालूम हो गया पर जहाँ तक उस मार्ग पर चलेंगे नहीं, हम कलकत्ता पहुँच नहीं सकते। उसी प्रकार आत्मा के सद्चिदानंद स्वरूप का ज्ञान व स्वरूप प्राप्ति के लिए साधन एवं उनको अपना वे-आचरित करने की परमावश्यकता है।
एक ही जगह पहुँचने के लिए मार्ग अनेक होते हैं जिसके लिए जो सुविधाजनक हो वह उसी का अनुसरण कर साध्य को प्राप्त कर सकता है साधन की विविधता-अनेकता के लिए झगड़ा अर्थात् योग्यता एवं परिस्थितियों की विषमता के कारण कोई सुगम मार्ग को अपना लेता है कोई दुर्गम में जाने को तैयार हो जाता है इससे पहुँचने में देर सवेर-आगे पीछे हो सकता है पर मार्ग सही है, लक्ष्य ठीक है और गति हो रही है तो पहुँच अवश्य जायगा। यह बात लौकिक एवं लोकोत्तर-आत्मोन्नति दोनों के लिए समान रूप से लागू होती है।
वैसे आत्मोन्नति के साधन अनेक हो सकते हैं पर मुझे जिनका विशेष रूप से अनुभव हुआ है उन्हीं साधन त्रय पर प्रस्तुत लेख में विचार किया जा रहा है। वे हैं, सरलता समभाव और संतोष। सरलता निर्मलता है और गरलता- वह हृदय को कलुषित करती है। अतः आध्यात्मिक गुणों के निवास के लिए पहले भूमि शुद्धि की आवश्यकता है। कोई भी चित्रकार जब चित्र अंकन करने बैठता है तो पहले जिस भीत, दिवाल कपड़ा या कागज पर चित्र करना है उसे शुद्ध, धब्बा रहित, खुरदरेपन से रहित, साफ सुथरा व पालिसदार बना लेता है उसी प्रकार आत्मदेव की झाँकी पाने के लिए सरलता रूपी चित्त शुद्धि की परमावश्यकता रहती है।
सरलता का वास्तविक अर्थ जो चीज जिस रूप में हैं उसे उसी रूप में प्रगट करना है। सत्य की एवं सरलता की सीमा बहुत कुछ मिलती जुलती है। हमारे में जो गुण−दोष हैं जो विचार हैं, जो करने का इरादा है, उसे उसी रूप में प्रगट करना। दिखावे के लिये दूसरों को भ्रम पैदा करने के लिये भीतर कुछ है बाहर कुछ और ही दिखाने का प्रयत्न किया जा रहा है यह कपट वृत्ति जहाँ है वहाँ अध्यात्मिकता का पौधा पनप ही नहीं सकता। बाहर भीतर एक बनो जैसा कुछ हो, जो कुछ जानते हो उसको अन्यथा रूप में दिखलाने का प्रयत्न नहीं करो। व्यवहार में हो सकता है इससे कुछ नुकसान प्रतीत हो पर वास्तव में जो पराये को धोखा देता है वह अपने को पहले धोखा देता है। जहाँ निर्मलता नहीं कलुषितता है, वहाँ अन्य सद्गुणों का आगमन, एवं विकास असंभव ही समझिये।
इसके पश्चात् समभाव की आवश्यकता है। समभाव का वास्तविक अर्थ है राग द्वेष का परिहार। जहाँ क्रोध एवं द्वेष की ज्वाला धधक रही है वहाँ अध्यात्मिक शाँति आवेगी ही कैसे? जहाँ तक विषयाभिलाषा धन, पुत्र, स्त्री, परिवार आदि में मोह है वहाँ मन की वृत्ति बहिर्मुखी रहती है। अन्तर्मुखी बनने के लिये बाहर का आकर्षण अच्छा एवं बुरा दोनों कम करने होंगे- हटाने पड़ेंगे। विश्व में अच्छे बुरे अनेक प्रकार के प्राणी हैं भली बुरी अनेक वस्तुएं हैं उनमें एवं विचार वैषम्य में समभाव के द्वारा शाँति प्राप्ति हो सकती है। चित्त की व्यग्रता में चंचलता, अधैर्य, उद्वेग आवेश क्रोध आदि दोषों के हटाने के लिए समभाव ही अमोघ उपाय है। समभाव के बिना वास्तविक तथ्य तक पहुँचना कठिन है।
तीसरा साधन है संतोष। मनुष्य को कर्तव्य पथ से डिगाने वाली अन्याय में प्रवृत्ति करने वाली वृत्ति लोभ की है। जहाँ तक धन पुत्र स्त्री या किसी भी प्रकार की तृष्णा कमजोर नहीं हो जाती आध्यात्मिक भूख जागृत हो ही नहीं सकती। हमारे विचार एवं प्रयत्न, जिन जिन वस्तुओं की आकाँक्षा है उसी के प्राप्ति की उधेड़बुन में चलते रहते हैं। लोभ की कोई सीमा भी तो नहीं एक मिला तो दूसरी आशा जग उठेगी। इसीलिए महापुरुषों ने कहा है कि संतोष के बिना सुख कहाँ? लोभ पाप का बाप है। जीवन निर्वाह के लिए धनोपार्जन प्रतिष्ठा के लिए अन्य वस्तुओं का संग्रह करना पड़ता है पर उसी में रम मत जाइये। लोभ को पहले सीमित बनाइये एवं आहिस्ते आहिस्ते फलाशा बिना कर्तव्य बुद्धि से प्रवृत्ति करने के गीता वाक्यों तक पहुँचने का प्रयत्न करिये। जैसी कुछ आपकी परिस्थिति है उसमें असंतोष मत रखिये उच्च स्थानों के प्राप्ति का प्रयत्न करिये पर विवेक के साथ।
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