Magazine - Year 1948 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर की भक्ति।
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(श्री प्रेमनरायणजी टण्डन एम. ए. लखनऊ)
ईश्वर क्या है? यह तो कोई भी ठीक से अब तक नहीं समझ सका है। ‘मनुष्य’ की बुद्धि से ‘ईश्वर’ समझा भी नहीं जा सकता। तो भी ईश्वर को ‘नेति नेति’ कहते हुए भी अध्यात्म पंडितों से लेकर साधारण अशिक्षित व्यक्ति तक ने समझने का प्रयत्न किया है। ईश्वर के सम्बन्ध में प्रत्येक की व्यक्तिगत धारणा होती है और वह आँशिक सत्य और आँशिक ही पूर्ण होती है। मेरे विचार से ईश्वर एक वह अलौकिक अवर्णनीय और अव्यक्त शक्ति है जो निखिल ब्रह्मांड की सृष्टा तथा संरक्षक है। हम उसे खुदा, गॉड, भगवान, एलेक्ट्रिसिटी, ग्रवेटेशन फोर्स या नेचर चाहे जो भी नाम दें। अध्यात्मवादी प्रकृति और पुरुष दो भिन्न भिन्न सत्तायें और अनीश्वरवादी केवल प्रकृति के ही अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। थोड़ा बहुत भेद होते हुए भी घुमा फिरा कर बात एक ही आ जाती है। एक अदृश्य सर्वव्यापक अनादि, अजन्ता तथा अमर शक्ति को ही मैं ईश्वर समझता हूँ। आत्मा, परमात्मा का स्वरूप है अतः ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति ही अवतारी ब्रह्म है। जिसमें जितनी अधिक मात्रा में ‘कलायें’ हैं वह उतना ही पूर्ण और ईश्वर स्वरूप या ईश्वर है। इस प्रकार से राम, कृष्ण, बुद्ध सभी ईश्वरावतार हैं।
उपासना करने के यों तो आठ भेद हमारे धर्म शास्त्रों ने बताये हैं। ठीक भी है वह। किन्तु मैं उत्तम उपासना कर्म और ज्ञान में मानता हूँ। ईश्वर में या ईश्वरीय व्यक्तियों में जिन गुणों की प्रधानता होती है, उन्हें ही अपना लेना, अपने को ‘ईश्वर’ बना लेना, वचन, कर्म, मन की एकता स्थापित करके अन्तरात्मा के आदेशों का पालन करना, यही सब सच्ची उपासना है। यों तो यम-नियम-प्राणायाम-जप-माला-तिलक सभी उपासना हैं क्योंकि चित्त की एकाग्रता तथा इन्द्रिय निग्रह द्वारा इससे हमारा व्यक्तिगत लाभ ही है। इन साधनाओं द्वारा हम ‘ईश्वर’ की समीपता प्राप्त करने में अधिक सुविधा तथा सफलता पाते हैं अतः यह भी गौण श्रेणी की उपासना है। अन्तरात्मा के आदेश को पालन करके ‘उपासना’ की सार्थकता होना और समझना चाहिये।
ईश्वर को प्रसन्न करने का उपाय केवल यही है कि अपने से निस्वार्थ भाव से जो भी सेवा, त्याग, परोपकार हो सके वह किया जाय। संसार क्या करता है। संसार क्या कहेगा- यह सब व्यर्थ की बातें हैं। आत्मा क्या कहेगी, ईश्वर क्या कहेगा, यही मुख्य बात है। यही ईश्वर की प्रसन्नता है।
नरसी मेहता ने वैष्णव की व्याख्या कर दी है- ‘वैष्णव जन तो तेई कहिए जे पीर पराइ जाने रे।’ भगवद्गीता के आदेशानुसार जा फलाशा रहित कर्म करता है वही ईश्वर भक्त है। ‘परमात्मा के पुत्रों की सेवा ही ईश्वर सेवा है’ ही जिनका सिद्धान्त है, वही ईश्वर भक्त हैं। सद्वृत्तियाँ, सद्भावनाएं, परोपकार, सत्य, अहिंसा, आत्म-बलिदान, दृढ़ता, ईश्वरीय बुद्धि, शुद्ध आचरण, कर्तव्यपरायणता आदि यही ईश्वर भक्त के लक्षण है। पं0 जवाहर लाल नेहरू उतने ही बड़े ईश्वर भक्त हैं जितने पांडिचेरी के अरविंद जी। उपासना करने में भेद है केवल। मनुष्यता, सौहार्द्रता, सज्जनता आदि यही ईश्वरी भक्त के लक्षण हैं। ईश्वर भक्त के लिए प्रत्येक धर्म आदरणीय है। उसे किसी से द्वेष नहीं। जो पतितों अपराधियों तथा ठुकराये हुओं को भी अपनाता है वही ईश्वर भक्त है। मंदिर में बैठ कर पूजा करने वाला भले ही एक बार ईश्वर भक्त न हो किन्तु जो सड़क पर गिरे हुए कोढ़ी को प्रेम से उठा कर सहायता करता है वह अवश्य ईश्वर भक्त है।
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