Magazine - Year 1948 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
पश्चिम की अन्धी नकल न करो
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(गुरुजी श्री गोलबल कर)
हम भारत को भारतीयता से च्युत न होने देंगे। किसी भी सात्विक वृत्ति के प्रसार को कोई रोक नहीं सकता। हमारा आदर्श भगवान श्रीकृष्ण की सात्विक कार्यपद्धति है। भारत की प्रतिष्ठा, मर्यादा और समुज्ज्वल परम्परा को हम लुप्त न होने देंगे। भारतीयता के सात्विक अभिमान को सजीव रखना ही हमारा ध्येय है। स्नेह और अमृत लेकर ही हम चलेंगे और यही हमारी नीति भी है।
पाश्चात्य नकल के कारण भारत के विभिन्न दलों के संघटन का आधार आर्थिक अथवा वासनामय है किन्तु हमारा उद्देश्य सहिष्णुता, प्रेम तथा भारतीयता की आत्मा का साक्षात्कार है। आसेतु हिमाचल तक हिंदुओं की आत्मा एक है। हमारा धार्मिक अथवा सामाजिक संघटन विशुद्ध गंगाजल के समान है जिसमें गन्दे नाले का पानी भी आकर गंगाजलमय हो जाता है।
इस देश की सबसे बड़ी कही जाने वाली संस्था के एक मान्य नेता ने एक बार मुझसे पूछा कि रूस की तरह आर्थिक योजना क्यों नहीं संघ अपनाता? मैंने अपने उत्तर में बताया कि रूस का अनुकरण हमारे लिए घातक होगा। अपनी तेजस्वी परम्परा के कारण आज भारत, भारत है। अपने जीवन का लक्ष्य ‘बुद्धि’ न रखकर ‘पेट’ रखना अर्थात् पतन का अनुकरण कर पतन के गर्त में गिरना हमारा उद्देश्य नहीं। ऐसी हालत में भारत राष्ट्र रूस का अनुकरण क्यों करे ? मैंने उनका ध्यान स्टालिन के इस वाक्य की ओर कि ‘हमारे यश का बीज भयंकर द्वेष है’, आकृष्ट किया और कहा कि अनुकरण हमारी कार्यपद्धति नहीं। जब उन्होंने मुझसे यह पूछा कि संघ किस अधिष्ठान पर खड़ा होना चाहता है तब मैंने उत्तर दिया--‘अविरल प्रेम।’ जिस भारतीय मर्यादा की रक्षा युग-युगान्तरों से भारत माता की वीर सन्तान करती आ रही है उसकी रक्षा ही हमारा कर्तव्य है। हमारा कार्यक्रम भी हिन्दू समाज के प्रति निस्सीम श्रद्धा रखना है। हमारे मन में विभिन्न भावनाएं उत्पन्न हो ही नहीं सकतीं भारत की प्राचीन आत्मा हमारी संस्कृति को जीवित रखना और उसमें संघटन के बल पर नवजीवन संचारित करना हमारी नीति है।
जिनमें अपना पौरुष, अपनी बुद्धि और अपना संघटन नहीं वे दूसरों के पौरुष, बुद्धि और संघटन देखकर ललचाते हैं। उन लोगों में इतना आत्मबल नहीं कि अपनी परम्परा के अजस्र स्रोत से पिपासाकुल मन को तृप्त करें। हमारे जीवन की पद्धति को ही बदलने की ऐसी अस्वाभाविक चेष्टा की गयी है कि जिसकी कल्पना भी हम लोग नहीं कर सकते। आज हर बात के लिए वे लोग पश्चिम की ओर देखते हैं। रहन-सहन, विचार, बुद्धि, अचार-व्यवहार सब आज पश्चिमी रंग में सराबोर होता हुआ नजर आ रहा है। जो हमें न देखना चाहिये था, न सीखना चाहिये था, न अनुकरण करना चाहिये था, लेकिन हम वही कर रहे हैं। वासनाओं में निमग्न होकर बढ़ते जाना पश्चिम की प्रगति का चिह्न है। आज हमारे लोग भी उसी प्रगति के राहगीर बनते जा रहे हैं। लोगों को भ्रम में डालकर उनकी भलाई का रास्ता दिखाया जाता है। जब भ्रम दूर होगा तब लोगों को पता चलेगा कि हम कहाँ थे और अब कहाँ हैं।
आज रावण की पूजा हो रही है, राम की नहीं, आसुरी दुवृत्तियां लोग अपना रहे हैं, देवसुलभ वृत्तियाँ नहीं। जब अपने जीवनगत तथ्य, सामाजिक सुधार, बुद्धि की परम्परा और अन्तःकरण की विशालता को देखने की आवश्यकता पड़ती है तब हम तुरन्त उसी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण को सामने रखते हैं जो अपना नहीं, पराया है, जो इस भूमि के लिए अनावश्यक और निरर्थक है।
----***----