Magazine - Year 1948 - Version 2
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Language: HINDI
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किसी का जी न दुखाया करो
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(पं. शिवनारायणजी गौड़ नीमच)
भाई! मनुष्यता के नाते तो किसी का मन न दुःखित किया करो। सम्भव है उसमें कुछ कमियाँ हों, कुछ बुराइयाँ भी हों। यह भी हो सकता है कि उसके विचार तुम से न मिलते हों, या तुम्हारी राय में उसके सिद्धान्त ठीक न हों। पर क्या इसीलिए तुम उसके मन पर अपने वाक्-प्रहारों द्वारा आघात पहुँचाओगे? तुम यह न भूल जाओ कि वह मनुष्य है, उसके भी मन होता है, तुम्हारे कठोर वचन सुनकर उसके भी हृदय में ठेस पहुँचती है और उसको भी अपने आत्माभिमान का अपनी सत्यता का अपनी मनुष्यता के अधिकार का कुछ मान है।
सम्भव है तुम्हारा वाक् चातुर्य इतना अच्छा हो कि तुम उसे अपनी युक्तियों द्वारा हरा दो। सम्भव है वह व्यर्थ विवाद करना ठीक न समझे और तुम अपनी टेक द्वारा उसे झुका दो। यह भी सम्भव है कि उसका ज्ञान अपूर्ण हो और वह बार बार तुमसे हार खाता रहे। पर इन अपने विवादों में ऐसे साधनों का प्रयोग तो न करो जो उसके हृदय पर मार्मिक चोट करते हों। संसार में सुन्दर युक्तियाँ क्या कम हैं? क्या ऐसी बातों का पूर्णतः अभाव ही हो गया है जो उसे परास्त भी कर दे, पर उस पर चोट न करें? क्या ऐसे तर्क संसार से चल बसे हैं जिनसे तुम अपना पक्ष भी स्थापित कर लो और उसका भी जी न दुःखे?
तुम भूल न जाओ कि संसार का सत्य तुम्हारे ही पल्ले नहीं पड़ गया है। यह भी याद रखो कि जो कुछ तुम सोचते हो वही पूर्णतः सत्य नहीं भी हो सकता है। तुम्हारे सभी विचार अच्छे हैं और दूसरे के सभी खराब, ऐसा भी तो नहीं कहा जा सकता। तुम आक्षेप कर सकते हो कि उसके खराब विचारों का हम विरोध करते हैं। विरोध करो। तुम्हें कौन रोक सकता है? पर इसमें दूसरे के जी को व्यथित करने की क्या आवश्यकता है? तुम्हारा मार्ग सही है, ठीक है। तुम दूसरों को सन्मार्ग पर लाना चाहते हो, उत्तम है। युक्तियों द्वारा दूसरे को परास्त करके स्वपक्ष स्थापित करना चाहते हो- श्रेष्ठ है। पर क्या ये कार्य बिना दूसरे के चित्त को पीड़ा पहुँचाये नहीं हो सकते?
क्या तुम समझते हो कि दूसरे के मन पर घात करने से तुम्हारी बात ऊंची रह जायेगी? क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारे प्रहारों से दूसरे तुम्हारी बातें मान लेंगे? क्या तुम्हारा विचार है कि तुम केवल उसके जी को दुःखाते हुए उसे परास्त करके अपनी विजय स्थापित कर लोगे? क्या तुम्हारी धारण है कि उसका मन चुपचाप तुम्हारे प्रहारों को सहता रहेगा? ऐसा न समझो कि तुम उसको केवल परास्त करके मनवा सकोगे। उसका मन तुम्हारा सदा विरोध करेगा। तुम्हारी बातों को वह मानेगा तो कदापि नहीं, हाँ भीतर ही भीतर वह तुम्हारा विरोधी अवश्य बन जायगा। उसका हृदय भी तुम्हारी ही भाँति कुछ आत्मगौरववान् होता है। उसकी भी इच्छा होती है कि वह तुम्हारे कथनों का प्रतिवाद करे। उसमें भी बदले की छिपी भावना रहती है। तुम उसे दुःखी करके विरोध को बढ़ाते ही हो, अपने मत को स्थापित नहीं करते।
विजय प्रेम से होती है। जो काम प्रेम से निकलता है वह क्रोध, दबाव या आघात से नहीं। किसी को समझाना प्रेम से अधिक अच्छी ढंग से हो सकता है, झिझकने, फटकारने या चुभती बात कहने से नहीं। मानव मन पर किसी का एकाधिकार तो है नहीं। यदि तुमसे ही कोई आज कहे कि तुम बड़ा बुरा करते हो कि बहस किया करते हो, तो तुम यही कहोगे न, कि जाओ, करते हैं-तुम्हें इससे क्या? यही दशा सबकी है। दीवार से टकराकर पत्थर लौट जाता है। पहाड़ से टकराकर शब्द प्रति ध्वनित होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया सदा होती ही है। फिर तुम्हारे जी दुखाने की प्रतिक्रिया क्यों न होगी? यदि वह प्रकट रूप से तुम्हें कुछ न कहेगा, तो उसकी अन्तरात्मा तो तुम्हें सदा कोसती रहेगी। तुम्हें वह चाहे एक शब्द भी न कहे, पर उसका मन हमेशा कुढ़ता रहेगा।
तुम समझते हो कि तुम स्पष्ट वक्ता हो। तुम्हें अभिमान है कि तुम सत्य के नाम पर किसी की भी अप्रसन्नता से नहीं डरते। तुम्हारा विश्वास है कि अपने सिद्धान्त की यत्किंचित् भी अवहेलना देखना तुम नहीं चाहते। पर स्पष्ट वक्ता का अर्थ क्या दूसरे के जीवों दुखाना ही है? क्या सत्य इतनी कठोर वस्तु है कि उसके लिये दूसरे की प्रसन्नता की हत्या करनी पड़े? क्या संसार में तुम्हारे ही मात्र सिद्धान्त सत्य हैं? या संसार में दूसरों को अपने स्वतन्त्र विचार रखने का अधिकार ही नहीं है? सत्य को प्रेम से भी समझाया जा सकता है। स्पष्ट वक्ता इस प्रकार से भी कह सकता है कि किसी दूसरे का जी न दुःखे। सिद्धान्त का स्थापन सुन्दर ढंग से भी किया जा सकता है।
‘भिन्न रुचिर्हि लोके’ के अनुसार संसार भिन्न रुचि वाला है। जब भाइयों-भाइयों और मित्रों-मित्रों में भी सभी बातें समान नहीं होतीं तो साधारण मनुष्यों में तो सदा विचारों का मेल खाते जाना असम्भव ही है। यदि विवाद में सफल होना चाहते हो तो विवाद निष्कर्ष के लिये करो, केवल बकवास के लिये नहीं। यदि अपनी बात की सच्ची में तुम्हें विश्वास है तो उस पर अड़े मत रहो। दूसरों को उसे समझाने का प्रयत्न करो। अपने पक्ष को स्थापित करना चाहते हो तो युक्तियों से काम लो, अपने अभिमान के कारण उसे थोपने का प्रयत्न न करो, और चाहे कुछ भी करो मानवता के नाते किसी का जी को तो न दुखाया करो।
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