Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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दुर्बलता का कारण और निवारण।
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(आयुर्विज्ञानाचार्य पं॰ गयाप्रसाद जी शास्त्री, श्रीहरि)
मोटापा या मेदोवृद्धि के समान ही “कृशता” भी एक भयंकर रोग है। जिस प्रकार अत्यन्त मोटा आदमी संसार के प्रत्येक कार्य तथा पुरस्कार से वंचित हो जाता है, उसी प्रकार एक कृश मनुष्य भी अल्पप्राण तथा अल्पबल होने के कारण जीवजगत के लिये प्रायः अनुपयोगी होता है। मोटापे में अत्यधिक पेट बढ़ने के कारण वीर्य आदि अन्य धातुओं की वृद्धि रुक जाने से पुरुष पुरुषत्व से वंचित हो जाता है एवं कृशता में वायुदोष की अतिशय वृद्धि के कारण रस, रक्त तथा वीर्य में उत्सुकता बढ़ जाने से वीर्य क्षय हो जाता है। मोटे आदमी में आलस्य बढ़ जाने के कारण जहाँ वह अजगर के समान किसी स्थान के ऊपर पड़े रहने में ही सुख मानता है। वहीं दुर्बल या कृश मनुष्य के स्वभाव में बहुत अधिक आशुकारिता या चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। मोटे आदमी में अपेक्षाकृत कामवासना की कमी होती है किन्तु कृश आदमी बेहद कामी होता है। मोटे पुरुषों के प्रायः सन्तान का अभाव पाया जाता है किन्तु कृश व्यक्तियों के यहाँ कीड़े-मकोड़ा के समान निर्वीर्य निष्प्राण तथा कमजोर सन्ततियाँ पाई जाती हैं। मेदोवृद्धि या मोटापा रोग की प्रवृद्ध दशा में निद्रानाश तथा बहुमूत्र आदि रोग मुख्यतः पैदा होते हैं और कृशता में विश्वास, रक्तपित्त तथा क्षय आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उक्त सब लक्षण तथा रोग केवल लैंगिक अन्तर के साथ-2 स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों में ही समानरूप से पाए जाते हैं। फलतः मोटापा तथा कृशता दोनों की अवाँछनीय भयंकर रोग हैं।
अत्यधिक मोटा होना या अत्यधिक कृश होना केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से ही भयंकर हानिकर नहीं है किन्तु ये दोनों ही प्राणी देखने में भी अत्यन्त कुरूप पाए जाते हैं। जिस घर में इस प्रकार के रूप-रंग तथा ढंग-बेढंग के जीव होते हैं, वह घर सर्वसाधारण की दृष्टि में कई बार यदि मुर्दा अजायब घर नहीं तो कम से कम जिन्दा अजायब घर तो अवश्य प्रतीत होता है।
कृशता रोग के अनेक कारणों के होते हुए भी हम यहाँ मुख्य-2 कारणों के ऊपर ही कुछ प्रकाश डालेंगे। साधारण तथा “कार्श्यरोग“ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक स्वाभाविक कार्श्य और एक अस्वाभाविक कार्श्य। जिन लोगों के माता-पिता दोनों ही या दोनों में से कोई भी एक अत्यन्त कृश या कमजोर हुआ करते हैं, उनकी संतानें भी जन्म से ही कार्श्य रोग का शिकार हुआ करती हैं। जिन दंपत्तियों के बहुत शीघ्र-शीघ्र सन्तानोत्पत्ति हुआ करती है, उनके बच्चे भी पर्याप्त मात्रा में माता का दुग्ध या अन्य पोष्य पदार्थ न पाने से प्रायः आजन्म कृश रहते हैं। इनकी कृशता स्वाभाविक है और यह कृशता प्रायः किसी भी उपचार से शीघ्र दूर नहीं होती है। इस प्रकार के कार्श्य रोगी प्रायः अकाल में ही मृत्यु का शिकार हुआ करते है।
दूसरा कार्श्य रोग का कारण है शुद्ध घी, दूध, मक्खन, दही आदि पोष्य पदार्थों का एकान्त अभाव। कुछ राजा-रईस, सेठ साहूकार, तथा पूँजीपतियों को छोड़कर आज इस पराधीन भारत के घर घर में जो अस्थि मात्र शेष नर कंकाल दिखलाई पड़ रहे हैं, उसका मूल कारण है पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए मुट्ठी भर दानों की कमी या अभाव। जिस देश में कभी घी-दूध की नदियाँ बहतीं थी, जहाँ का मुख्य आहार ही घी, दूध, दही, छाछ, कन्दमूल एवं भिन्न भिन्न प्रकार के मधुर फल थे और जिस सात्विक आहार के कारण ही जहाँ लोग चिरायु होते थे उसी स्वर्गिक देश के बच्चों को आज रातदिन होने वाले गोधन-संहार के कारण गन्दे, बाजारू वनस्पति घी के चक्कर में पड़कर अपने रहे सहे स्वास्थ्य तथा जीवन से भी हाथ धोना पड़ता है। फलतः कार्श्यरोग का कारण है अन्न, घी, दूध आदि पौष्टिक पदार्थों का अभाव।
कार्श्यरोग का तीसरा कारण है अत्यधिक चिन्ता करना, क्रोध करना, शोक करना, रात्रि को दो बजे तक जागते रहना, गाँजा, भाँग, शराब आदि नशीली चीजों की सेवन करना, किसी छोटी सी भी साँसारिक घटना के ऊपर मजाक करके बात का बतंगड़ बनाते रहना, किसी से घोर ईर्ष्या करना, घृणा करना, बैर करना, तथा शक्तिशाली बैरी से बदला लेने की प्रति कुभावनाओं से अपने शरीर के रक्त को कम करते रहना, बहुत अधिक पढ़ने-लिखने आदि दिमागी काम करना तथा बहुत अधिक विषय, विलास एवं व्यभिचार-स्त्री प्रसंग आदि के द्वारा शुक्र, वीर्य तथा शोषित बल का क्षय करना। सब पूर्वोक्त कारणों से शरीरांतर्गत वायु प्रकुपित होकर रस, रक्त, माँस, भेद एवं वीर्य आदि धातुओं का क्षय करके मनुष्य को “कार्श्यरोग“ का शिकार बनाता है।
लक्षण
आँख में चमक, प्रकाश, शुभ्रता तथा अभाव के साथ-2 गड्ढे में घुस जाना बालों का तथा यौवन के पुण्य प्रभाव एवं उमंग तरंगों के समय गालों का पिचक जाना, मुखमण्डल पर खून की लाली के अभाव के साथ-2 मुंहासा, झाँई, फुँसियों और फुर्रियों का बाजार लगना, ललाट एवं नेत्रों के नीचे कलंक रूप काली रेखाओं तथा दागों का पड़ना, मुख से सुन्दरता, प्रकाश, तथा प्रसन्नता का लोप होना, अंस, बाहु, वक्षःस्थल तथा दोनों जंघाओं में आवश्यक एवं पर्याप्त माँस का न होना, शरीर का रक्त माँस शुष्क होकर कंकाल के समान कुरूप हो जाना, रक्त तथा वीर्य में उष्णता पैदा हो जाने के कारण पेशाब-पाखाने या स्वप्न के समय वीर्य का क्षय होना एवं जीवन में उत्साह, साहस तथा शक्ति के अभाव के कारण किसी भी कर्तव्य में उदासीनता और मन का न लगना। कार्श्य रोग के रोगी में सब पूर्वोक्त लक्षण लक्षित होने लगते हैं।
उपचार
कार्श्य रोगी या दुबले-पतले मनुष्यों को निम्न उपचार या औषधियाँ काम में लानी चाहिए। इन सब उपचारों से कृशता तथा दुर्बलता दूर होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट तथा बलवान बनता है। कार्श्यरोगी को सब से प्रथम अपनी दिनचर्या तथा रात्रिचर्या को ठीक करना चाहिए। गर्मियों में नियम पूर्वक प्रातः 4 बजे तथा शीतकाल में प्रातः 5 बजे उठकर और मुख हाथ धोकर एक गिलास जल पीना चाहिए। इसे वैद्यक शास्त्र में ‘अमृतपान’ कहते हैं। इस ‘अमृतपान’ के द्वारा अंतड़ियों की गर्मी, खुश्की तथा सड़ाँध दूर होकर पुराने से पुराने मलावरोध (कब्ज) दूर होता है। जल पीने के 5-10 मिनट के बाद शौच जाना चाहिए। सभी प्रातः कृत्यों से निवृत्त होकर प्रतिदिन नियम पूर्वक किसी सुन्दर उद्यान में भ्रमणार्थ जाना चाहिए। चिन्ता, शोक, घृणा, ईर्ष्याद्वेष, क्रोध तथा प्रति हिंसा की भावनाओं को अपने मन में न आने देना चाहिए। सदा स्वयं प्रसन्न और हंसते रहना तथा प्रसन्नचित्त मित्रों का साथ करना। गन्दे चित्रपटों, नाटकों तथा उपन्यासों को देखने एवं पढ़ने से दूर रहना जिनके द्वारा मानसिक वृत्तियों में क्षोभ पैदा हो या किसी प्रकार की भी उत्तेजना पैदा हो। स्वादिष्ट और मीठे फलों के रस में मिश्री या शहद मिला कर प्रातः सायं पीना। फल, सूखी, मेवा, दूध, घी, मक्खन, दही, छाछ, शाक-भाजी तथा हितकारी, हलके, सुपाच्य, सात्विक आहारों का सेवन करना। अधिक से अधिक विश्राम तथा शयन करना । रात्रि में 9 बजे हाथों-पैरों तथा मुख को धोकर सद्भावनाओं के साथ भगवान् का स्मरण करते हुए निश्चित होकर सो जाना। विषय भोग से दूर रहना। माता-पिता, गुरुजन तथा अन्य पूज्य जनों की सेवा करके उनसे फिर जीवन तथा सुन्दर स्वास्थ्य प्राप्त करने का शुभाशीर्वाद प्राप्त करना। दीनों पर दया करना तथा यथाशक्ति उन्हें दान देना। सुखी एवं सदाचारी मित्रों का सदा साथ करना। अपने तन में, मन में एवं रोम रोम में आनन्द, उल्लास तथा नव-जीवन का अनुभव करना। ये सब उपचार ऐसे हैं, जिनके द्वारा मनुष्य केवल कार्श्य ही क्या सभी प्रकार के रोगों से मुक्त होकर दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।