Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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मरने से डरना क्या।
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मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं । जैसे नया वस्त्र पहनने में, नई जगह जाने में, स्वभावतः एक प्रसन्नता होती है वैसे ही प्रसन्नता मृत्यु के संबंध में भी होनी चाहिए। आत्मा एक यात्री के समान है। उसे विविध स्थानों, व्यक्तियों, परिस्थितियों के साथ संबंध स्थापित करते हुए वैसी ही प्रसन्नता होनी चाहिए जैसी कि सैर सपाटा करने के लिए निकले हुए सैलानी लोगों को होती है।
मरने से डरने का कारण हमारा अज्ञान है। परमात्मा के इस सुन्दर उपवन में एक से एक मनोरम वस्तुएं हैं। यह यात्रियों के मनोरंजन की सुव्यवस्था है, पर वह यात्री जो इन दर्शनीय वस्तुओं को अपनी मान बैठता है, उन पर स्वामित्व प्रकट करता है, उन्हें छोड़ना नहीं चाहता, अपनी मूर्खता के कारण दुख का ही अधिकारी होगा। इस संसार का हर पदार्थ, हर परमाणु तेजी के साथ बदल रहा है। इस गतिशीलता विकास और विनाश का क्रम टूट जाये तो यह संसार एक निर्जीव जड़ पदार्थ बनकर रह जायगा। यदि इसे आगे चलते रहना है तो निश्चय ही उत्पादन, परिवर्तन और नाश का क्रम अनिवार्यतः जारी रहेगा। शरीर चाहे हमारा अपना हो, अपने प्रियजन का हो, उदासीन का हो या शत्रु का हो निश्चय ही परिवर्तन और मृत्यु को प्राप्त होगा। जब जिस समय हम चाहें तभी वे शरीर नष्ट हो ऐसा नहीं हो सकता। प्रकृति के परिवर्तन, कर्म बंधन, ईश्वरीय इच्छा से प्रधान है, इनके आगे हमारी इच्छा चल नहीं सकती। जिसे जब मरना है वह तब मर ही जायेगा, हम उसे रोक नहीं सकते । इस जीवन मृत्यु के अटल नियम को न जानने के कारण ही मृत्यु जैसी अत्यंत साधारण घटना के लिए हम रोते चिल्लाते, छाती कूटते भयभीत होते और दुख मनाते हैं।
जिसे जीवन का वास्तविक स्वरूप मालूम हो गया है उसे न अपनी मृत्यु में कोई दुख की बात प्रतीत होती है और न दूसरों की मृत्यु का कष्ट होता है। किसी विशाल नगर के प्रमुख चौराहे पर खड़ा हुआ व्यक्ति देखता है कि प्रति क्षण असंख्यों व्यक्ति अपने कार्यक्रम के अनुसार इधर से उधर आते जाते हैं। वह स्वयं भी कहीं से आया है और कहीं जा रहा है केवल कुछ क्षण के लिए चौराहे का कौतूहल देख रहा है। इस अपने या दूसरों के आवागमन पर यदि वह व्यक्ति दुख माने या विलाप करे तो उसे अविवेकी ही कहा जायेगा। संसार के विशाल चौराहे पर भी ऐसे ही आवागमन की भीड़ लग रही है। एक की मृत्यु ही दूसरे का जन्म है, एक का जन्म दूसरे की मृत्यु है। एक सुख दूसरे का दुख है और दूसरे का दुख, एक का हर्ष। यह आँख मिचौनी, यह भूल-भुलैया, विवेकवानों के लिए एक चित्ताकर्षक विनोदमयी क्रीड़ा है, पर बाल बुद्धि के व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और इस कौतूहल को कोई महान आपत्ति मानकर सिर धुनते, रोते बिलबिलाते और पश्चाताप करते हैं।
मृत्यु के दुख में शरीरों का नष्ट होना कारण नहीं वरन् जीवन के वास्तविक स्वरूप की जानकारी होना ही कारण है। ऐसे कितने ही बलिदानी वीर हुए है जो फाँसी की कोठरी में रहते हुए दिन दिन अधिक मोटे होते गये, वजन बढ़ता गया और फाँसी के फंदे को अपने हाथ गले से लगाया और खुशी के गीत गाते हुए मृत्यु के तख्ते पर झूल गये। कवि ‘गंग‘ को जब मृत्यु दंड दिया गया और उन्हें पैरों तले कुचल डालने को खूनी हाथी छोड़ा गया तो वे प्रसन्नता से फूल उठे, उन्होंने कल्पना की कि देवताओं की सभा में कोई छंद बनाने वाले की आवश्यकता हुई है इसलिए भक्त कविगंग को लेने के लिए हाथी रूपी गणेश आये हैं। कितने ही महात्मा समाधि लेकर अपना शरीर त्याग देते हैं। उन्हें मरने में कोई अनोखी बात दिखाई नहीं पड़ती।
कई व्यक्ति सोचते हैं कि मरते समय भारी कष्ट होता है, इसलिए उस कष्ट की पीड़ा से डरते हैं। यह भी मृत्यु समय की वस्तु-स्थिति से जानकारी न होने के कारण है। आमतौर से लोग मृत्यु से कुछ समय पूर्व बीमार रहते हैं। बीमारी में जीवनी शक्ति घटती जाती है और इन्द्रियों की चेतना शिथिल पड़ती जाती है इस शिथिलता के साथ-साथ ज्ञान तंतु संज्ञा शून्य होते जाते हैं फलस्वरूप दुख की अनुभूति भी पूरी तरह नहीं हो पाती । प्रसुता स्त्रियाँ या लंघन के रोगी गर्मी की ऋतु में रात को भी अक्सर बंद घरों में सोते हैं पर उन्हें गर्मी का वैसा कष्ट नहीं होता जैसा कि स्वस्थ को होता है। स्वस्थ मनुष्य रात को बन्द कमरे में नहीं सो सकता पर रोगी सो जाता है। कारण यह है कि रोगी के ज्ञान तंतु शिथिल हो जाने के कारण गर्मी अनुभव करने की शक्ति मंद पड़ जाती है, रोगियों को स्वाद को भी ठीक अनुभव नहीं होता, स्वादिष्ट चीजें भी कड़ुई लगती हैं क्योंकि जिह्वा के ज्ञान तंतु निर्बल पड़ जाते हैं। रोग जन्य निर्बलता धीरे-धीरे इतनी बढ़ जानी है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य संज्ञा शून्य हो जाता है और बिना किसी कष्ट के उसके प्राण निकल जाते हैं। जो कुछ कष्ट मिलना होता है रोग काल में ही मिल लेता है। डॉक्टर लोग जब कोई बड़ा आपरेशन करते हैं तो रोगी को क्लोरोफार्म सुँघाकर बेहोश कर देते है ताकि उसे कष्ट न हो। दयालु परमात्मा भी आत्मा से शरीर को अलग करने का आपरेशन करते समय संज्ञा शून्यता का क्लोरोफार्म सुँघा देता है ताकि हमें मृत्यु का कष्ट न हो।
यह सभी जानते हैं कि कोई रोगी जब मरने को होता है तो मृत्यु से कुछ समय पूर्व उसकी बीमारी कम हो जाती है। कष्ट घट जाता है। तब अनुभवी चिकित्सक समझ जाते हैं कि अब रोगी का अन्त समय आ गया। कारण यह है कि बीमारी के कारण रोगी की जीवनी शक्ति चुक जाती है और ज्ञान तन्तु रोग को प्रकट करने एवं कष्ट अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह मान्यता भ्रम पूर्ण है कि गर्भ काल में, माता के उदर में और मृत्यु के समय प्राणों को अधिक कष्ट होता है। दोनों ही दशाओं में मस्तिष्क अचेतन व्यवस्था में और ज्ञानतन्तु संज्ञाशून्य व्यवस्था में रहने के कारण प्राणों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । ऐसी दशा में मृत्यु के कष्ट से डरने का कोई कारण नहीं रह जाता।
अनावश्यक मोह ममता ही मृत्यु भय का प्रधान कारण है। हम कर्तव्य से प्रेम करने की अपेक्षा वस्तुओं से मोह करने लगते हैं। हमारा प्रेम, कर्तव्य भावना में संलग्न न रह कर शरीर, सम्पत्ति आदि में लग जाता है। प्रिय वस्तु के हाथ से जाने में कष्ट होता ही है इसलिए मरने का भी दुख होता है। यदि आरम्भ से ही यह मान कर चला जाये कि हमारे अधिकार या संबंध में जो भी शरीर या पदार्थ है वे प्रकृति के परिवर्तन धर्म के कारण किसी भी समय बदल, बिगड़ या नष्ट हो सकते हैं तो उनसे अनावश्यक मोह ममता जोड़ने की भूल न हो। तब मनुष्य यह सोचेगा कि संसार में सबसे अधिक प्रिय, सबसे अधिक आत्मीय, सबसे अधिक लाभदायक अपना कर्तव्य है। उसी से पूरा-पूरा प्रेम किया जाये। इस प्रेम को जितना अधिक बढ़ाया जा सके बढ़ाया जाये, इस प्रेम से जहाँ रत्तीभर भी बिछोह हो वहाँ दुख माना जाये तो यह प्रेम अत्यंत सुख−शांति को देने वाला और कभी नष्ट न होने वाला बन आयेगा। जो कर्तव्य पालन को अपना लाभ समझेगा उसे हानि का दुख न उठाना पड़ेगा। कारण यह है कि अपना प्रेमी ‘कर्तव्य’ सदा अपने साथ है, उसे कोई भी शक्ति, हमारी इच्छा के विपरीत हमसे नहीं छीन सकती । इसी प्रकार जब हमारे लाभ का केन्द्र बिन्दु हमारा ‘कर्तव्य’ है तो उसमें घाटा पहुँचाने वाला हमारे अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। हमारे प्रेम और लाभ जब पूर्णतया हमारे हाथ में है तब बिछोह या हानि जन्म दुखों के सामने आने का कोई कारण नहीं रह जाता। दूसरों की मृत्यु-प्रेमियों और पदार्थों की मृत्यु का दुख हम सभी में तभी दूर रह सकता है जब हम मिथ्या मोह ममता को छोड़ कर कर्तव्य से प्रेम कर और उसी को अपनी सम्पत्ति समझकर विवेक से काम करें
अपनी मृत्यु में दुख भी इसी बात का होता है कि जीवन जैसे बहुमूल्य पदार्थ का सदुपयोग नहीं किया गया। आलस्यवश देर में स्टेशन पहुँचने पर जब रेल निकल जाती है और उस दिन नियत स्थान पर न पहुँच सकने के कारण जो भारी क्षति हुई उसका विचार कर करके वह आलसी मनुष्य स्टेशन पर खड़ा हुआ पछताता है और अपने आपको कोसता है। मृत्यु के समय भी ऐसा ही पश्चाताप होता है जब कि मनुष्य देखता है कि मानव जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पत्ति को मैंने व्यर्थ की बातों में गँवा दिया, उसका सदुपयोग नहीं किया, उससे जितना लाभ उठाना चाहिए था वह नहीं उठाया । यदि हम जीवन के क्षणों का सदुपयोग करें उसकी एक घड़ी को केवल आत्म लाभ के, सच्चे स्वार्थ के लिए लगावें तो चाहे आज चाहे कल जब भी मृत्यु सामने आवेगी किसी प्रकार का पश्चाताप या दुख न करना पड़ेगा।
गायत्री का आरंभिक पद ‘तत्’ हमें यही शिक्षा देता है कि मृत्यु से डरो मत, उससे न डरने की कोई बात नहीं। डरने की बात है हमारा गलत दृष्टिकोण, गलत कार्यक्रम। यदि हम अपने कर्तव्य पर प्रति क्षण सजगता पूर्वक आरुढ़ रहें तो न हमारी न किसी दूसरे की मृत्यु हमारे लिए कष्ट कारक होगी।