
मनुष्य जीवन का उद्देश्य
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(श्री ओंकार प्रसाद जी सीरा गाँव)
संसार की चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करने के बाद मनुष्य योनि जीव को प्राप्त होती है। जन्म जन्माँतर पापों का प्रायश्चित करता हुआ जीव, अनेकों दुखों के सहने के बाद मनुष्य तन को पाता है। मनुष्य जीवन पाकर जीव भविष्य निर्माण करने के लिए स्वतंत्र रहता है। देवत्व प्राप्त करने के लिए मनुष्य जीवन ही प्रथम सोपान है। यदि साँसारिक माया-मोह में ग्रस्त होकर मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भूल जाता है, तो उसे सदैव रोना ही रोना है।
यह निश्चित है कि मनुष्य जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में सैकड़ों कठिनाइयों का हमें सामना करना पड़ता है, पर यदि हम क्षणिक सुखों में फँस कर अपने लक्ष्य का ध्यान छोड़ दें तो हमें सदैव पछताना पड़ेगा। बाद में हमारे इस पश्चाताप का कोई महत्व न रहेगा। इससे अच्छा यही है कि हम अपने आप को पहचानें और उद्देश्य प्राप्ति के लिए कमर कस लें।
यह संसार एक रंगभूमि है। हम सब इस साँसारिक रंगभूमि पर अपना-अपना पाठ याद करने के लिए आये हैं। यदि हम अपने सुपुर्द किये गये कार्य को ठीक तरह से न निभा सकेंगे तो नाटककार, सूत्रधार हम पर अप्रसन्न होगा और अधिक अप्रसन्न हो जाने के बाद वह फिर कभी हमें रंगभूमि पर अपना कौशल दिखाने के लिए न भेज सकेगा। नाटक मंडली का पात्र जिस तरह अपने मालिक से डर कर कार्य करता है, उसी तरह हमें भी परब्रह्म परमात्मा का भय मानते हुए वह कार्य करना चाहिए। यह तो हम सब जानते हैं कि इस संसार में जन्म लेने के बाद मरना तो अवश्य पड़ेगा, फिर हम इस छोटे जीवन काल को क्यों दुख प्रद बनावें? हमें सदैव धर्म कार्यों में व्यस्त रहना चाहिए।
हमारे प्राचीन समय के ऋषि मुनियों ने हमारे इस मनुष्य जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित कर प्रत्येक के कार्य निर्धारित कर दिये हैं। हमें महान पुरुषों के उपदेशों का पालन सदैव करना चाहिए। हमारी आयु का लगभग एक चौथाई भाग तो हमारी बाल्यावस्था के रूप में बिलकुल बेकार ही चला आता है। बाकी की एक चौथाई आयु यौवन के द्वारा मदान्घ किये गये रूप में व्यतीत हो जाता है। उद्देश्य साधना के लिए हमारे पास बहुत ही थोड़ा समय रहता है, हम साँसारिक उलझनों में ही फंसे रहते हैं। एक दिन काल का नगाड़ा बज उठता है और हमें इस संसार से पराधीन अवस्था में विदा होना पड़ता है। विदाई के समय हम नाना प्रकार के विचारों में पड़ कर पश्चाताप करते हैं, पर “अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत” वाली कहावत के अनुसार हमारा रोना बेकार साबित होता है। इसी बात को स्पष्ट करने एवं ठीक तरह से समझने के लिए मैं एक लघु कथा सन्मुख प्रस्तुत करता हूँ। पाठक उस कहानी के द्वारा अपने कर्तव्यों को पहचान सकेंगे।
एक देश की रीति थी कि उस राज्य के लिये एक राजा प्रति पाँचवें वर्ष चुना जाता था। पाँच वर्ष निकल जाने के बाद वह राजा एक भयंकर घने वन में छोड़ दिया जाता था। इस तरह उस देश का राज्य चलाया जाता था। राज्य पाने के लिए लोग लालायित रहते थे। राज्य प्राप्त हो जाने के बाद आनन्द के साथ ऐश आराम से अपना समय व्यतीत कर सुख लेते थे। पाँचवे वर्ष इच्छा न रहते हुए भी पराधीन अवस्था में वह नृपति अपने महल तथा राज्य से निकाल दिया जाता था। अपने सुख के समय को याद कर आँसू बहाता हुआ राजा घने जंगल में समय काटता था।
भाग्यवश बुद्धसेन नामक एक व्यक्ति को भी उस देश का राजा होने का सौभाग्य प्राप्त हो सका। राजा हो जाने के बाद बुद्धसेन ने अपने भविष्य की ओर विचार किया तो उसे मालूम हुआ कि देश की प्रथा के अनुसार वह पाँच वर्ष बाद इस राज्य से अलग कर दिया जाएगा और अमुक जंगल में छोड़ दिया जायेगा। बुद्धसेन ने अपने राज्यकाल में सुखों पर लात मार कर भविष्य उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न किया। उसने उस जंगल में जहाँ कि पाँच वर्ष बाद वह भेजा जाने वाला था, एक उत्तम महल तैयार करवा कर राज्य की सब सम्पत्ति वहाँ भिजवा दी। ऐश आराम का सब सामान उस जंगल में पहुँचा दिया गया। राजा होने के कारण कोई कुछ न कर सका। अपने राज्य काल में पाँच वर्ष में अविराम परिश्रम करने के बाद वह अपने उद्देश्य को सफल बना सका। उस देश के लोग उस पर हँसते थे, कहते थे कि किसी पुण्य के बल से यह राज्य प्राप्त हो गया है, पर बुद्धसेन राज्य का सुख नहीं भोग रहा है। यह अभागा है। बुद्धसेन कहता था, मैं पाँच वर्ष के सुख को छोड़ कर जीवन भर का सुख प्राप्त कर रहा हूँ। बात भी ऐसी हुई। जब वह पाँच वर्ष बाद राज्य से निकाल कर जंगल में पहुँचाया गया, तो उसे बिलकुल दुःख नहीं हुआ। वह वहाँ भी राज्य करने लगा।
मनुष्य जीवन पाकर जो लोग बुद्धसेन की तरह अगले जन्म के लिए पुण्य रूपी निधि को एकत्रित करते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं। मनुष्य तन पाकर ऐश आराम में जो समय बिताते हैं, वे बाद में बहुत दुःखी होते हैं।
मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य यही है कि किसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा के चरणों में प्रेम हो। शास्त्रीय रीति से सब प्राणी मात्र पर दया करते हुए जो भगवान के चरणों में स्नेह रखकर जीवन समाप्त करता है, वह मनुष्य अगले जन्म में नाना प्रकार के सुखों को प्राप्त होता है। ईश्वर को सदैव याद रखना चाहिए।