
दार्शनिक की योग्यता
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(श्री दौलत राम कटरहा बी.ए. जबलपुर)
हमारे देश के बहुत से लोगों का यह विश्वास है कि भारतवासी स्वभाव तया अध्यात्मवादी और पाश्चात्य देशवासी भौतिकवादी होते हैं। इस धारणा का पोषण बहुत समय से होता आ रहा है और इसके कारण बहुत से लोग भावुकता वश कह उठते हैं कि हमारे देश का एक भिखारी भी पाश्चात्य विद्वानों से अधिक अच्छा दार्शनिक होता है। इस भावुकतापूर्ण धारणा में किस सीमा तक सच्चाई है और हमारे देश ने समय समय पर किस कोटि के दार्शनिक पैदा किए हैं, यह बात यह विचार करते ही प्रकट हो जायगी कि दार्शनिक की क्या योग्यता होती है ?
दार्शनिक, इन्द्रियातीत गूढ़ विषयों पर विचार कर वस्तु सत् के दर्शन करना चाहता है अतएव उसमें प्रचण्ड मानसिक क्षमता का होना आवश्यक है अर्थात् उसमें विचारों के निरोध (चित को एकाग्र) करने की अत्यधिक क्षमता होनी चाहिए। यह गुण योग साधना में लगे हुए बहुत से व्यक्तियों में होता है किंतु एकाग्रता धारण करने मात्र से ही कोई व्यक्ति परम दार्शनिक नहीं हो जाता। उसमें पक्षपात-हीनता का होना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। जो व्यक्ति किसी विषय के एक ही पहलू को देखता है और दूसरे पक्ष की विशेषताओं की ओर से आँख बन्द कर लेता है उसमें देर तक किसी विषय पर चिंतन करने की योग्यता होने पर भी हम उसे दार्शनिक न कहेंगे क्योंकि पक्षपातपूर्ण होने के कारण वह वस्तु सत् के दर्शन न कर सकेगा। अतएव निष्पक्ष होना दार्शनिक का दूसरा गुण है। दार्शनिक के इस दूसरे गुण पक्षपातहीनता का दूसरा भाव यह है कि दार्शनिक में मानसिक स्वतन्त्रता होनी चाहिए अर्थात् वह किसी का पिछलग्गू न हो और उसमें किसी भी मत अथवा आचार्य के विचारों पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करने की क्षमता हो।
दार्शनिक में इन दो गुणों के अतिरिक्त यह गुण होना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि वह अपने ज्ञान का भारवाहक मात्र न हो बल्कि वह जिस सिद्धान्त या ज्ञान का प्रतिपादन और प्रचार करे, उसे क्रियात्मक रूप से अपने जीवन में उतार कर, स्वयं ही उस सिद्धान्त की परख कर ले। यदि किसी व्यक्ति के विचारों का उसके जीवन से कोई सम्बन्ध न हो, तो हम उस व्यक्ति को, चाहे उसमें दूसरी योग्यताएं कितनी भी अच्छी क्यों न हों, वाचिक ज्ञानी मात्र ही कहेंगे और सम्भवतः कुछ लोग उसे एक अच्छा लालबुझक्कड़ भी कहना चाहेंगे। यदि किसी व्यक्ति के ज्ञान का उसके जीवन से कोई सम्बन्ध न हो, तो उसका ज्ञान निर्जीव कहा जायगा और वह उसके लिए एक परिग्रह मात्र ही होगा। वैसे तो एक पशु भी अपनी पीठ पर बोझ ढोता है, किन्तु वह उसका उपयोग नहीं कर पाता। जैसे शक्कर के बोरों को पीठ पर ढो ले जाने वाला पशु शक्कर का स्वाद नहीं जानता, उसी तरह अपने ज्ञान को क्रियात्मक रूप न देने वाला व्यक्ति भी वस्तु सत् के दर्शन नहीं कर सकता। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि करछुली (दर्वी) पाक रस में डूबी रहते हुए भी पाक रस को नहीं जानती। कहा भी है।
अधीत्य चतुरो वेदार्न्सव शास्त्राण्यशेषतः
ब्रह्मतत्वं न जानाति दर्वी पाकरसंः यथा।
अतएव दार्शनिक के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपने ज्ञान का स्वयं उपयोग करे। उसका ज्ञान केवल दूसरों को उपदेश देने के लिए ही न हो, बल्कि वह अपने ज्ञान के प्रयोग से उत्तरोत्तर अपने दर्शन के लक्ष्य के समीप पहुँचता जावे। सजीव ज्ञान वह है, जिसमें आगे बढ़ाने की योग्यता विद्यमान हो। चीदना ज्ञानलक्षणम्ः।
दार्शनिक के उपर्युक्त तीनों गुणों को ध्यान में रखते हुए किसी भी व्यक्ति की योग्यताओं पर विचार करने पर हमें यह पता लगाने में कठिनाई न होगी कि वह दार्शनिक है अथवा नहीं।