
हमारी आन्तरिक दुर्बलता
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(श्री अशर्फीलाल जी मुख्तार, बिजनौर)
आज हम कलयुग के प्राणियों के मनःस्थल के कोने कोने में घुसकर उसकी दुर्बलताओं का पता लगाने के लिये उद्यत हुए हैं। जब तक अपनी दुर्बलताएं मालूम न हों, कोई अपनी दशा को संभाल नहीं सकता। समस्त प्राणियों में मनुष्य की ही दशा शोचनीय है, क्योंकि यह पुरुषार्थ में स्वतंत्र है, जिससे वह श्रेय मार्ग गामी हो सकता है और इसी उद्देश्य से उसको बुद्धि विशेष प्राप्त हुई है। दूसरे प्राणी तो परतंत्र हैं और केवल भोगने के लिए जन्मे हैं। मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने से क्यों घबराता है, इसका कारण अज्ञात रूप से कहीं न कहीं उसके मन में ही है। वह निकल जाये तो यह खट-खट श्रेय मार्ग की सीधी सड़क द्वारा बहुत जल्दी लक्ष्य पर पहुँच जायगा।
एक पक्षी अन्धेरी भयानक रात्रि में निर्भय बियाबान जंगल में बैठा रहता है, परन्तु मनुष्य का ऐसे अवसरों पर भय के मारे क्या हाल होता है, अपने दिल से पूछिए। अव्वल तो मनुष्य को ऐसे स्थान पर जाने का साहस ही नहीं होता और यदि दैव योग से ऐसा अवसर आ प्राप्त हो तो हार्ट फेल हो जाना कोई अचम्भे की बात नहीं। शीतोष्ण के सहन करने की शक्ति उसमें नहीं रही। यदि झूठमूठ भी उसको यह मालूम हो जाये कि कुछ दिनों बाद उस पर कोई आफत आने वाली है, तो आफत आये या न आये उसके लिए तो आज ही से उस आफत से भी अधिक आफत आ गई और वह आफत जिसका इन्तजार था यदि न आई तो यह दिन अपने आप ही मुसीबत के बना लिए। यदि किसी को कोई अच्छी बात बताई जाय तो वह उस अच्छी बात की कदर न करके उसकी अहमियत को घटाकर अपने अन्दर उससे भी अधिक गुण जाहिर करने लगता है और बजाय उस अच्छी शिक्षा के ग्रहण करने के, स्वयं उपदेश करने लगता है। इस तरह प्रत्येक प्राणी उपदेशक की पदवी लिये हुए है तो फिर उपदेश सुनने वाला कहाँ से आये? यह भी मानसिक दुर्बलता ही का कारण है, क्योंकि वह अपनी त्रुटियों को स्वीकार करता हुआ भय खाता है और उसका निर्बल मन अपने को उपदेश के ग्रहण करने योग्य न पाकर उपदेश को अनसुने के नाईं कर देता है।
जैसे यदि किसी बलवान मनुष्य को गाली दो तो वह सुनकर चुप नहीं रह सकता, परन्तु यदि किसी निर्बल मनुष्य को गाली दो तो वह सुनता हुआ चला जायगा, ताकि लोग समझें कि इसने सुना नहीं। यदि कोई आगे चलकर कहे भी कि अमुक मनुष्य तुमको गाली दे रहा था तो बातें ऐसी करेगा कि मानों उसे कुछ खबर ही नहीं है, और फिर बनावटी शान की दो चार बातें कह कर चलता बनेगा यह कमजोरी और कायरता का चिन्ह है (ऐसे अवसर ज्ञानी महात्माओं के साथ भी हो सकते हैं परन्तु वे छिपाते नहीं। यही दोनों में अन्तर है) इस सारे विचार से यह पता चलता है कि मनुष्य के अन्दर कोई कमजोरी अवश्य है, जिससे वह भययुक्त रहता है।
वह कमजोरी है-आत्म अनात्म का विवेक न होना। वह अनात्म में आत्म बुद्धि किये हुए है, अर्थात् अपने को शरीर समझता है इसलिए शरीर के नाश होने में अपना नाश होना जानकर शरीर को हर तरह की आपत्ति और कष्ट से बचाने की फिक्र में लगा रहता है। यदि उसे यह निश्चय हो जाये कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैंने तो असंख्य शरीरों में रह कर भोग भोगे और नहीं मालूम कितने और शरीर में भोग भोगेगा। मेरा तो कभी नाश नहीं हुआ और न होगा, तो वह शरीर के नष्ट होने के भय से मुक्त हो जायगा और निर्भय होकर विचरेगा। शरीर की कमजोरी या गलती स्वीकार करने में उसको कदापि संकोच न होगा। जब यह दुर्बलता उसके मन से निकल जायेगी तो वह परमपद का अधिकारी होगा।