Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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किसी का बुरा मत सोचिए।
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(श्री रामसिंह जी, कानपुर)
किसी व्यक्ति की उसके सम्मुख उसकी बुराई करना उतना पाप नहीं जितना अपने मन में उसके प्रति बुरा सोचना! क्योंकि बुराई तो उस व्यक्ति के अवगुणों को देख कर की जाती है जिसकी आलोचना करना कोई अपराध अथवा पाप नहीं है। परन्तु उसके प्रति अपने मन में बुरे विचार रखना अथवा उसका अनिष्ट चाहना, किसी पर कुदृष्टि रखने का अर्थ यह होगा कि आपके मन में पाप है, आप उस व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं, आप अपनी आत्मा की पुकार के विरुद्ध कार्य करना चाहते हैं जो उस परमपिता परमात्मा की दृष्टि में एक महान अपराध है।
दूसरों का बुरा सोचने में, उनका अनिष्ट चाहने में कुछ लाभ भी नहीं होता अपितु अपनी ही हानि होती है। देखने में हमें चाहे कुछ लाभ प्रतीत होता हो परन्तु वास्तव में हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एक महान क्षति पहुँचती है। उदाहरण के लिये आप मान लीजिये कि दो भाई हैं उनमें से एक के पास बड़ी धन राशि है और दूसरा भी धनी परन्तु कुकर्मी है। वह अपने भाई की धन राशि को देखकर मन ही मन कुढ़ता है उसका अनिष्ट सोचता है। इसके लिये वह उसके घर चोरी करता है और उसकी हत्या करके उसके धन पर अपना अधिकार जमा लेता है तथा अपार धन राशि की प्राप्ति पर मन ही मन बहुत प्रसन्न होता है। परन्तु वास्तव में यदि देखा जाय तो वह अपने को घोर संकट में डाल देता है। सदैव उसको डर लगा रहता है, आत्मा धिक्कारती रहती है, पकड़े जाने का डर हमेशा बना रहता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को संदेहात्मक दृष्टि से देखने लगता है। अपनी सबसे बड़ी हानि तो वह यह करता है। कि अपने भाई को जो उसका एक हाथ था, खो बैठता है। अब आप ही सोच सकते हैं कि उसे लाभ हुआ या हानि? इसी प्रकार अनेक ऐसे ज्वलन्त उदाहरण दिये जा सकते हैं जो इससे हानि होने की ही राम कहानी सुनाते हैं।
ऐसा तो आप सबको अनुभव होगा कि जब कोई व्यक्ति किसी स्त्री को कुदृष्टि से देखता है तो उसे स्वप्नदोष हो जाता है। यह घटना भी उसी ध्रुव सत्य की पुष्टि करती है। इस घटना में वह व्यक्ति उस स्त्री के प्रति अपने मन में कुविचार रखता है जिससे उसका वीर्यपात हो जाता है। उस स्त्री को कोई भी क्षति नहीं पहुँचती बल्कि उस व्यक्ति के शरीर को ही हानि होती है। इसी प्रकार आप अनेक ऐसे उदाहरण प्राप्त कर सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दूसरों का अनिष्ट चाहने वाला पहले अपनी ही हानि करता है। कहावत भी है कि जो दूसरों के लिये गड्ढा खोदता है पहले स्वयं ही उसमें गिर जाता है।
हमारी धार्मिक पुस्तकों में भी अनेक ऐसी कथायें हैं जो हमें शिक्षा देती हैं कि दूसरों का बुरा मत सोचो। महा अभिमानी रावण सीता का अनिष्ट करने के पहले स्वयं ही नष्ट हो गया। पाण्डवों से द्वेष करने वाला दुर्योधन पाँच गाँव क्या अपना सर्वस्व एवं स्वयं को भी खो बैठा। भगवान कृष्ण के प्रति कुविचार करने वाला कंस अधिक दिनों तक इस पृथ्वी पर न रह सका। क्योंकि उसका मन दूषित हो चुका था जिसके कारण उसे कहीं भी शान्ति न मिलती थी जो अन्त में उसकी मृत्यु का कारण बनी।
जब हम जानते हैं कि दूसरों से द्वेष करने पर, उनका बुरा सोचने पर एवं उनका अनिष्ट चाहने पर हम को महान क्षति पहुँचेगी, हमारी आत्मा दूषित हो जायगी, हम ईश्वर की दृष्टि में अपराधी बन जायेंगे, हमें कहीं भी शान्ति न मिलेगी तो फिर हम दूसरों के प्रति कुविचार क्यों रखें? किसी से द्वेष क्यों करें? और यदि हम यह सब जानते हुए भी दूसरों से द्वेष करते हैं, उनका अनिष्ट चाहते हैं, तो वह कितनी मूर्खता की बात होगी?
आग जहाँ रखी जाती है पहले उस स्थान को गरम करती और जलाती है। तेजाब यदि साधारण धातु के बर्तन में रखा गया है तो पहल उसे ही नष्ट करेगा। इसी प्रकार द्वेष और दुर्भाव, पाप और कुविचार जिसके मन में रहते हैं पहले उसी का अनिष्ट करते हैं। जब तक वे जमे रहते हैं तब तक निरन्तर वहाँ हानि करते हैं। जिसके लिए दुर्भाव रखें जाते हैं उसको तो उसकी शताँश हानि भी नहीं पहुँच पाती जितनी कि अपनी होती है। इसीलिए जिससे जहाँ मतभेद हों, विरोध हों उसे प्रकट में तो कहना चाहिये और उसके निवारण के लिए उचित उपाय भी तत्परता पूर्वक करना चाहिये। परंतु मन में उसकी गाँठ बाँधने और ईर्ष्या, द्वेष रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। महात्मा गाँधी इस सिद्धाँत का सफल प्रयोग करके दिखा चुके हैं- “विरोधी के प्रति बिना दुर्भाव रखे हुए भी बुराई का प्रतिरोध करना सम्भव है।” हम भी आवश्यकतानुसार उसी मार्ग का अवलम्बन करें।
हमें चाहिये कि दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझें, उनके अनिष्ट को अपना अनिष्ट मानें तभी यहाँ पर शान्ति का साम्राज्य हो सकेगा। हमें द्वेष भाव त्याग कर सभी के प्रति प्रेमभाव रखना होगा, स्वार्थ भाव त्याग कर परमार्थ भाव का सहारा लेना होगा तभी सबका कल्याण हो सकेगा। श्री. तुलसीदास जी कहते हैं-
परहित बस जिनके मन माही।
तिन कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥