Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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अथक पथिक (Kavita)
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युग बीत गये चलते चलते।
मैं वह पागल पंथी जिसको, पंगल पग की परवाह नहीं।
मैं मंजिल खूब जानता हूँ लेकिन पहचानी राह नहीं।
हिम-पथ में सतत् साधना के, मैंने ये प्राण गला डाले।
आराध्य दीप की ज्वाला में, जी के अरमान जला डाले।
कितने संकल्प उठे, बैठे, अन्तर में कल मलते मलते।
युग बीत गये चलते चलते।
करने को सफल हेतु अपना, तरने को जलधि, सेतु अपना,
मैं बाँध रहा हूँ हिम गिरि की, चोटी से विजय-केतु अपना।
तै तपी निराला हूँ ऐसा, तप भी जिसको फलवान नहीं।
अभिशाप अयाचित अनगिनती पाये मैंने, वरदान नहीं।
मैं वह पाषाण कि जो पानी, बन गया युगों जलते जलते।
युग बीत गये चलते चलते।
जब शुष्क मरुस्थल तपते हैं, बहती है मेरी निर्झरनी।
आँधी-तूफान मचलते हैं, तब चलती है मेरी तरनी।
मुझको हर मौसम सावन है, हर परिवर्तन भाया रहता।
आँखों में हरियाली बनकर, मेरा साजन छाया रहता।
झंझायें लौरी गाती, मुझ पर प्यार-व्यंजन झलते झलते।
युग बीत गये चलते चलते।
(श्री मुरलीधर दीक्षित, भ्रान्त)
*समाप्त*
(श्री मुरलीधर दीक्षित, भ्रान्त)
*समाप्त*