Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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मर्यादा का अतिक्रमण
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(आचार्य विनावा भावे)
“परशुराम”- यह एक अद्भुत प्रयोगी लगभग पच्चीस हजार वर्ष पहले हो गये हैं। यह को कणस्थों के मूल पुरुष हैं। माँ की ओर से क्षत्रिय और बाप की तरफ से ब्राह्मण। पिता की आज्ञा से इनने माँ का भी शिर काट डाला था। कोई पूछ सकते हैं, ‘यह कहाँ तक उपयुक्त था? लेकिन उनकी श्रद्धा को सशंकता छू तक नहीं गई थी। ‘निष्ठा से प्रयोग करना और अनुभव से ज्ञान प्राप्त करना, यही उनका सूत्र था।
परशुराम उस समय के सर्वोत्तम पुरुषार्थी व्यक्ति थे। उनके हृदय में दुखियों के प्रति दया थी और अन्यायों से तीव्रतम चिढ़। उस समय के क्षत्रिय बहुत ही उन्मत्त हो रहे थे। वे अपने को जनता का रक्षक कहते थे, लेकिन व्यवहार में तो उन्होंने कभी का ‘र’ को ‘भ’ में बदल दिया था। परशुराम ने उन अन्यायी क्षत्रियों का घोर प्रतीकार शुरू किया। जितने क्षत्रिय उनके हाथ आये, उन सबको उसने मार ही डाला। पृथ्वी को नक्षत्रीय बनाकर छोड़ूंगा,’ यह उनने अपना विरद बना लिया था।
इसके लिये यह अपने पास हमेशा एक कुल्हाड़ी रखने लगे। कुल्हाड़ी से रोज कम से कम एक क्षत्रिय का सिर तो उड़ाना ही चाहिये, ऐसी उपासना उनने अपने ब्राह्मण अनुयायियों में जारी की। पृथ्वी निःक्षत्रिय करने का यह प्रयोग उनने इक्कीस बार किया। लेकिन पुराने क्षत्रियों को जान-बूझकर खोज-खोज कर मारने और उनकी जगह अनजाने नये-नये क्षत्रियों का निर्माण करने की प्रक्रिया का फलित भला क्या हो सकता था? आखिर रामचन्द्र ने उनकी आंखों में अंजन डाला। तब से उनकी दृष्टि कुछ सुधरी।
तब उनसे उस समय के कोंकण के घने जंगल तोड़-तोड़कर बस्तियाँ बनाने के रचनात्मक कार्य का उपक्रम किया। लेकिन उनके अनुयायियों को कुल्हाड़ी के हिंसक प्रयोग का चस्का पड़ गया था, इसलिये उन्हें कुल्हाड़ी का यह अपेक्षाकृत अहिंसक प्रयोग फीका-सा लगने लगा। निर्धन को जिस प्रकार उसके सगे-सम्बन्धी त्याग देते हैं, उसी प्रकार उसके अनुयायियों ने भी उसे छोड़ दिया।
लेकिन यह निष्ठावान् महापुरुष अकेले ही वह काम करते रहे। ऐच्छिक दरिद्रता का वरण करने वाले, आरण्यक प्रजा के आदि सेवक भगवान शंकर के ध्यान से वह प्रतिदिन नई स्फूर्ति प्राप्त करने लगे और जंगल काटना, झोपड़ियाँ बनाना, वन्य पशुओं की तरह एकाकी जीवन व्यतीत करने वाले अपने मानव बन्धुओं को सामुदायिक साधना सिखाना-इन उद्योगों में उस स्फूर्ति से काम लेने लगे। निष्ठावंत और निष्काम सेवा ज्यादा दिन एकाकी नहीं रहने पाती। परशुराम की अदम्य सेवावृत्ति देख कोंकण के जंगलों के वे अन्य निवासी पिघल गये और आखिर उन्होंने उनका अच्छा साथ दिया। अपने-आपको ब्राह्मण कहलाने वाले उसके पुराने-पुराने अनुयायियों ने तो उनका साथ छोड़कर शहरों की पनाह ली थी, मगर उनके बदले ये नए अवर्ण अनुयायी उन्हें मिले। उनने उन्हें स्वच्छ आचार, स्वच्छ विचार और स्वच्छ उच्चार की शिक्षा दी। एक दिन परशुराम ने उनसे कहा-भाइयो! आज से तुम लोग ब्राह्मण हो गए।’
राम और परशुराम की पहली भेंट धनुर्भंग-प्रसंग के बाद एक बार हुई थी। उसी समय उन्हें श्री रामचन्द्र जी से जीवन दृष्टि-मिली थी। उसके बाद इतने दिनों में उन दोनों की भेट कभी नहीं हुई थी। लेकिन अपने वनवास के दिनों में रामचन्द्र पंचवटी में आकर रहे थे। उनके वहाँ के निवास के आखिरी वर्ष में बागलाण की तरफ से परशुराम उनसे मिलने आए थे। जब वह पंचवटी के आश्रम में पहुँचे, उस समय रामचन्द्र पौधों को पानी दे रहे थे। परशुराम से मिलकर रामचन्द्र को बड़ा ही आनन्द हुआ। उनने उस तपस्वी और वृद्ध पुरुष का साष्टाँग प्रणाम-पूर्वक स्वागत किया और कुशल प्रश्नादि के बाद उनके कार्यक्रम के बारे में पूछा। परशुराम ने कुल्हाड़ी के अपने नये प्रयोग का सारा हाल रामचन्द्र को सुनाया। वह सुन रामचन्द्र ने उनका बड़ा गौरव किया। दूसरे दिन परशुराम वहाँ से लौटे।
अपने मुकाम पर वापिस आते ही उनने उन नये ब्राह्मणों को राम का सारा हाल कह सुनाया और बोले-
‘रामचन्द्र मेरे गुरु हैं। अपनी पहली ही भेंट में उनने मुझे जो उपदेश दिया, उससे मेरी वृत्ति पलट गई और मैं तुम्हारी सेवा करने लगा। उनकी भेंट में उनने मुझे शब्दों द्वारा कोई उपदेश नहीं दिया लेकिन उनकी कृति में से मुझे उपदेश मिला है वही मैं आज तुम लोगों को सुनाता हूँ।’
‘हम लोग जंगल काट-काटकर बस्ती बसाने का यह जो कार्य कर रहे हैं, वह बेशक उपयोगी कार्य है। लेकिन इसकी भी मर्यादा है। उस मर्यादा को न जानकर हम अगर पेड़ काटते ही रहेंगे, तो वह एक नहीं भारी हिंसा होगी और कोई भी हिंसा अपने कर्ता पर उलटे बिना नहीं रहती यह तो मेरा अनुभव है। इसलिए अब हम पेड़ काटने का काम खत्म करें। आज तक जितना कुछ किया, सो ठीक ही किया क्योंकि उसी की बदौलत पहले जो ‘असह्यादि’ था, वह अब ‘सह्यादि’ बन गया है। लेकिन अब हमें जीवनोपयोगी वृक्षों के रक्षण का काम भी अपने हाथ में लेना चाहिए।’
यह कहकर उनने उन्हें आम, केले, नारियल, काजू, कटहल, अन्नानास आदि छोटे-बड़े फल के वृक्षों के संगोपन की विधि सिखाई। उसे इसके लिए स्वयं वनस्पति-संवर्धन-शास्त्र का अध्ययन करना पड़ा और उनने अपने हमेशा के उत्साह से उस शास्त्र का अध्ययन किया भी। उनने उस शास्त्र में कई महत्वपूर्ण शोध भी किये। पेड़ों को मनोज्ञ आकार देने के लिए उन्हें व्यवस्थित काटने-छाँटने की जरूरत महसूस कर उसने उनके लिए एक छोटे से औजार का आविष्कार किया। इस औजार को ‘नव-परशु’ का नाम देकर उसने अपनी परशु-उपासना अखण्ड जारी रखी।
एक बार उनने समुद्र तट पर नारियल के पेड़ लगाने का एक सामुदायिक समारोह सम्पन्न किया। उस अवसर से लाभ उठाकर उनने वहाँ आए हुए लोगों के सामने अपने जीवन के सारे प्रयोगों और अनुभवों का सार उपस्थित किया। सामने पूरे ज्वार में समुद्र गरज रहा था। उसकी तरफ इशारा करके समुद्रवत् गम्भीर ध्वनि में उसने बोलना आरंभ किया-
‘भाइयों! यह समुद्र हमें क्या सिखा रहा है, इस पर ध्यान दीजिए। इतना प्रचण्ड शक्तिशाली है यह, परंतु अपने परम उत्कर्ष के समय भी वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। इसीलिए उसकी शक्ति हमेशा ज्यों की त्यों रही है। मैंने अपने सारे उद्योगों और प्रयोगों में से यही निष्कर्ष निकाला है। छुटपन में मैंने पिता की आज्ञा से अपनी माता की हत्या की, लोग कहने लगे, कैसा मातृ हत्यारा है।’ मैं उस आक्षेप को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। मैं कहा करता, ‘आत्मा अमर है और शरीर मिथ्या है। कौन किसे मारता है! मैं मातृ-हत्यारा नहीं हूँ, प्रत्युत पितृ-भक्त हूँ।’
‘लेकिन आज में अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। मातृवध का आरोप मुझे उस समय स्वीकार नहीं था, और आज भी नहीं है। लेकिन मेरे ध्यान में यह बात नहीं आई थी कि पितृ भक्ति की भी मर्यादा होती है। यही मेरा वास्तविक दोष था। लोग अगर अचूक उतना ही दोष बताते तो उसमें मेरी विचार-शुद्धि हुई होती। लेकिन उन्होंने भी मर्यादा का अतिक्रमण करके मुझ पर बेजा आक्षेप किया और उससे मेरी विचार शुद्धि में कोई सहायता नहीं पहुँची।’
‘बाद में बड़ा होने पर अन्याय के प्रतीकार का व्रत लेकर मैं जुल्मी सत्ता से इक्कीस बार लड़ा हर बार ऐसा प्रतीत होता था कि मैं सफल हो गया हुँ लेकिन प्रत्येक मर्तबा मुझे निश्चित असफलता ही नसीब हुई। रामचन्द्र ने मेरी गलती मुझे समझा दी।’
अन्याय- प्रतीकार मनुष्य का धर्म तो है, लेकिन उसकी भी एक शास्त्रीय मर्यादा है, यह ज्ञान मुझे गुरु-कृपा की बदौलत प्राप्त हुआ।
‘इसके उपरान्त मैं जंगल काटकर मानव उपनिवेश बनाने के मानव सेवा के कार्य में जुट गया, लेकिन आप जानते ही हैं कि जंगल काटने की भी एक हद होती है, इस बात का ज्ञान मुझे ठीक समय पर कैसे हुआ।’
‘अब तक मैं निरन्तर प्रवृत्ति का ही आचरण करता रहा। पर आखिर प्रवृत्ति की मर्यादा तो है ही न? इसलिये अब मैं निवृत्त होने की सोच रहा हूँ। इसके माने यह नहीं है कि मैं कर्म ही त्याग दूँगा। स्वतंत्र नई प्रवृत्ति का आरम्भ अब नहीं करूंगा। प्रवाह-पतित करता रहूँगा। प्रसंगवश, आप पूछेंगे तब, सलाह भी देता रहूँगा।’
‘इसलिये मैंने आज जान बूझकर इस समारोह का आयोजन किया और अपना यह समुद्रोपनिषत या जीवनोपनिषत चाहे जो कह लीजिये आपसे निवेदन किया है। फिर से थोड़े में कहता हूँ, पितृ भक्ति मर्यादा, प्रतीकार की मर्यादा, मानव सेवा की मर्यादा-साराँश सभी प्रवृत्तियों की मर्यादा- यही मेरा जीवन सार है। आओ, एक बार सब मिल कर कहें, ॐ नमो भगवत्ये मर्यादायै।’
इतना कह कर परशुराम शाँत हो गये। उनके उस उपदेश की गम्भीर प्रति ध्वनि सह्याद्रि की खोह-कंदराओं में आज भी गूँजती हुई सुनाई देती है।